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उत्तराखण्ड की हर सरकार शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के बड़े-बड़े दावे करती रही है। लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात जैसी ही है। गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ की हाल में जारी सर्वेक्षण रिपोर्ट राज्य में बेहतर शिक्षा के तमाम सरकारी दावों की पोल खोलकर रख देती है। रिपोर्ट के मुताबिक पांचवीं कक्षा के 35 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ तक नहीं पढ़ सकते। आठवीं के 51 प्रतिशत विद्यार्थी गणित में बेहद कमजोर हैं। मामूली जोड़-घटाव और गुणा-भाग तक नहीं कर पाते

उत्तराखण्ड में प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने के बड़े-बड़े दावे किए गए हैं, लेकिन आज तक इस दिशा में न तो कोई सुधार हो पाया है और न ही अब तक की सरकारां एवं विभाग ने कोई ठोस प्रयास किया गया है। वर्तमान सरकार के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे भी पूर्ववर्ती शिक्षा मंत्रियों की तर्ज पर प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने का दावा तो कर रहे हैं, लेकिन उनके दावे धरातल पर दिखाई नहीं दे पा रहे हैं। हालत इस कदर हो चली है कि आठवीं के बच्चे पांचवी के सवालों को हल नहीं कर पा रहे हैं। इससे यह समझा जा सकता है कि आज भी प्राथमिक शिक्षा रसातल पर जा रही है।

गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ ने उत्तराखण्ड में शिक्षा की गुणवत्ता पर सर्वेक्षण एनुअल स्ट्टेस एजुकेशन रिपोर्ट ‘असर’ 2018 की सार्वजनिक की है। संगठन द्वारा उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्र के 7320 परिवारां तथा 3 से 16 वर्ष के 10145 बच्चों पर सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण रिपोर्ट से स्पष्ट हो गया है कि राज्य के प्राथमिक स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता बदतर होती जा रही है। हालांकि इसमें पिछले वर्ष की तुलना में मामूली सुधार भी देखा गया है, लेकिन वह सुधार शिक्षा की गुणवत्ता से नहीं बल्कि स्कूलां में भर्ती होने वाले बच्चों के आंकड़ां से हुआ है। जबकि आज भी शिक्षा की गुणवत्ता बदतर बताई गई है।

रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि प्रदेश के आठवीं तक के स्कूलों में पढ़ाई के कितने बुरे हालात बने हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार पांचवी कक्षा के 35 फीसदी विद्यार्थी दूसरी कक्षा का पाठ तक नहीं पढ़ सकते हैं। सबसे हैरानी तो इस बात की है कि आठवीं के 51 फीसदी विद्यार्थी दो अंकों के बीच भाग तक नहीं दे सकते। यानी गणित विषय में विद्यार्थी बेहद कमजोर साबित हुए हैं। इसी तरह से अक्षर ज्ञान, शब्द ज्ञान और जोड़-घटाव के मामले मे भी रिपेर्ट में साफ किया गया है कि नकारात्मक प्रतिशत है। नकारात्मक असर की रिपोर्ट में कुछ बेहतर भी सामने आया है। 6 से 14 वर्ष के बच्चों के स्कूल से वंचित का प्रतिशत इस बार गिरकर महज डेढ़ प्रतिशत है जो कि एक सुखद माना जा सकता है। साथ ही दो वर्ष पूर्व 15-16 वर्ष की बालिकाओं के स्कूल न जाने का प्रतिशत 13-8 प्रतिशत था जो कि अब महज 6-6 रह गया है।

प्रदेश सरकार की प्रथमिक स्कूलों की स्थिति को बेहतर करने के दावे की हकीकत असर में साफ तौर पर देखी जा सकती है। आज भी ग्रामीण उत्तराखण्ड में सरकारी स्कूलों के बजाय प्राइवेट स्कूलां में अपने बच्चां को पढ़ाने पर लोगां का जोर है। पिछले वर्ष दूसरी कक्षा में नामांकन का प्रतिशत 49.8 फीसदी था और आठवीं में 34.6 प्रतिशत था। यानी आज भी प्राइवेट स्कूलों में अभिभावकों की रुचि बनी हुई है।

अब राज्य सरकार की बात करें तो तकरीबन हर सरकार के समय शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के बड़े-बड़े दावे किए हुए हैं। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के समय मंत्री प्रसाद नैथानी शिक्षा मंत्री थे उस समय भी गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ द्वारा उत्तराखण्ड में शिक्षा की गुणवत्ता पर सर्वेक्षण एनुअल स्टेटस एजुकेशन रिपोर्ट ‘असर’ सार्वजनिक हुई थी। तत्कालीन शिक्षा मंत्री नैथानी से ‘दि संडे पोस्ट’ ने स्कूली शिक्षा पर साक्षात्कार लिया था। उस साक्षात्कार में मंत्री प्रसाद नैथानी ने बड़े-बड़े दवे किए थे कि उनके कार्यकाल में प्रदेश के इतिहास में सबसे बेहतर स्कूली शिक्षा बनाई जाएगी, लेकिन तत्कालीन सरकार के पूरे पांच वर्ष के कार्यकाल में शिक्षा मंत्री और राज्य का शिक्षा विभाग तबादलां और शिक्षकां के सुगम दुर्गम के मामले में ही घिरा रहा। यहां तक कि कैग ने भी राज्य के प्राथमिक स्कूलां की दुर्दशा और भवनां की दुर्गति पर अपनी रिपोर्ट में सरकार पर कई सवाल खड़े किए थे। बावजूद इसके न तो पांच वर्ष में शिक्षा की गुणवत्ता और न ही शिक्षा विभाग की कार्यशैली में कुछ सुधार आ पाया। असर की रिपोर्ट ने साफ कर दिया कि सरकारें कोई भी हों, प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का स्तर शायद ही सुधर पाएगा।

वर्तमान भाजपा सरकार के स्कूली शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे के कार्यकाल को दो वर्ष पूरे होने वाले हैं। उनकी ओर से भी कई बार राज्य की स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के दावे किए गए हैं। इनके लिए कई योजनाएं तक बनाई गई हैं। लेकिन इन योजनाओं को धरातल पर उतारने में स्वयं शिक्षा विभाग ही नाकाम दिखाई दे रहा है।

पूरे राज्य में सरकारी प्राथमिक स्कूलों में सीबीएससी शिक्षा पैटर्न लागू करके सरकार ने एक बड़ी पहल तो की है। पूर्व से ही राजकीय प्राथमिक विद्यालयां में उत्तराखण्ड शिक्षा बोर्ड का पैटर्न लागू रहा है, जबकि निजी और प्राइवेट स्कूलों में सीबीएससी पैटर्न के चलते सरकारी स्कूलों में छात्र संख्या निरंतर प्रतिवर्ष घटती ही जा रही थी। अब कम से कम सरकारी स्कूलों में भी सीबीएससी पैटर्न पर आधारित शिक्षा दिए जाने से छात्रों की संख्या अगर ज्यादा नहीं बढ़ी है तो कम होने के आंकड़े भी नहीं बढ़ रहे हैं। साथ ही प्राइवेट स्कूलों में मंहगी फीस देकर शिक्षा प्राप्त करने से भी राहत मिलने की संभावनाएं बन रही हैं।

इसके अलावा आठवीं तक की किताबों को निःश्ुल्क वितरण किए जाने और खेलों में सरकारी स्कूलों के बच्चों की रुचि को बढ़ावा देने के लिए बड़े-बड़े पुरस्कार लिए जाने की येजना भी इसी मुहिम का हिस्सा बताई जा रही है। मिड डे मील योजना को अक्षयपात्र फाउंडेशन के हाथों में लिए जाने का अनुबंध राज्य सरकार कर चुकी है। इससे और जल्द ही यह योजना पूरे राज्य में चलाई जाने वाली है।

यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार ओैर खासतौर पर शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने अपने 22 माह के कार्यकाल में कुछ प्रयास नहीं किए हैं। लेकिन उनके प्रयासों को धरातल में उतरने में देरी होने से स्थितियों में बदलाव नहीं आ पा रहा है। आज कई स्कूलों में छात्र संख्या शून्य हो चली है जिसके चलते तकरीबन चार सो स्कूलों को सरकार बंद करके उनका समायोजन कर रही है। इस से सरकार की क्षमता पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। जब सरकार अपने ही विभाग के स्कूलों में छात्रां की संख्या बढ़ाने में असफल हो रही है, तो सरकार द्वारा तय ओैर लागू की जाने वाली योजनाओं का क्या असर होगा इसे बेहतर समझा जा सकता है।

आज विद्यालयी शिक्षा विभाग में स्थानांतरण, सुगम और दुर्गम तथा ड्रेस कोड को लेकर विवाद और चर्चाएं ज्यादा होती हैं। जबकि सरकार द्वारा स्थानांतरण एक्ट लागू किया गया है। बावजूद इसके सिफारिशों के चलते रसूखदारां का स्थानांतरण आसानी से हो जाता है और जिनकी कोई सिफारिश नहीं है उनको आज भी अपने स्थानंतरण के लिए चक्कर काटने पड़ रहे हैं। उत्तरा पंत बहुगुणा का प्रकरण भी शिक्षा विभाग में सबसे बड़ी नजीर बन चुका है।

 

‘शिक्षा की गुणवत्ता में आई गिरावट’

‘दि संडे पोस्ट’ ने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के समय में विद्यालयी शिक्षा मंत्री रहे मंत्री प्रसाद नैथानी से साक्षात्कार लिया था। तब असर की रिपोर्ट के बारे में नैथानी ने बड़े-बड़े दावे किए किए थे। पांच वर्ष पूर्व फिर से असर की रिपोर्ट में तकरीबन वही कुछ सामने आ रहा है। इससे साफ हो जाता है कि चाहे कोई भी शिक्षा मंत्री हो उनकी प्राथमिकता में शिक्षा की गुणवत्ता कभी रही ही नहीं है। पूर्व में मंत्री प्रसाद नैथानी से लिए गए साक्षात्कार के दो अंश प्रस्तुत हैं।

असर सर्वे में उत्तराखण्ड की प्राथमिक शिक्षा के हालात बेहद खराब बताए जा रहे हैं। आप शिक्षा मंत्री रहे हैं और आपके विभाग का मामला होने से आप इसे किस तरह से लेते हैं?
ये जो सर्वे आया है और इसकी जो रिपोर्ट पहुंची है वह बहुत ही चिंताजनक है। इस सर्वे को किस स्कूल में किया गया है और सर्वे में जो भी शामिल किए गए थे उन स्कूलों का नाम, उन बच्चों के नाम और अध्यापकां के नाम मैं जनना चाहूंगा। आखिर ऐसी स्थिति क्यों हुई और कहां कमियां रही हैं, मैं इस पर जरूर जाना चाहूंगा।

प्राथमिक स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता इस कदर हो चुकी है कि 65 प्रतिशत बच्चे गणित का आसान सा सवाल हल नहीं कर पाए, कक्षा तीन के 70 प्रतिशत बच्चे कक्षा एक का पाठ तक नहीं पढ़ पाए। आप इस सर्वे की रिपोर्ट से सहमत हैं?
मैं मानता हूं कि शिक्षा की गुणवत्ता सही नहीं है। इस पर मैं पूरी तरह से सहमत हूं। वास्तव में शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई है। शिक्षक संघ अपनी मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन कर रहा है। हमारा वेतन बढ़ाओ हमें सुविधाएं दो, लेकिन गुणवत्ता नहीं है। और जिस चीज के लिए तनख्वाह दी जा रही है अगर उसका रिस्पॉन्स ये निकल कर सामने आ रहा है, तो बहुत ही चिंताजनक बात है।

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