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Uttarakhand

देश की ये बेटियां स्कूल जाने के बजाए पानी की तलाश में मीलों पैदल चलने को मजबूर

देश की ये बेटियां स्कूल जाने के बजाए हर दिन पानी की तलाश में मीलों पैदल चलने को मजबूर

एक ओर जहां अमेरिका की प्रथम महिला मेलानिया दिल्ली में हैपिनेस क्लास देखकर अभिभूत हैं, वहीं दूसरी ओर देश में ऐसी भी लड़कियां हैं जो स्कूल जाने के बजाए हर दिन पानी की तलाश में मीलों पैदल चलती हैं। मिट्टी खोदकर पानी निकालने, फिर कपड़े से छानने और घर तक लाने में ही उनका पूरा दिन निकल जाता है। उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले में रह रहे वन गुज्जरों के मासूम बच्चे भी पढ़ना चाहते हैं। उनकी आंखें भी सपने देखती हैं, लेकिन सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं का लाभ तक उनके भाग्य में नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर उन्हें डाॅक्टर तो दूर एएनएम के भी दर्शन नहीं होते। महिलाएं जंगलों में ही बच्चों को जन्म देने को विवश हैं। आज भी कबीलाई जीवन जी रहे वन गुज्जरों की हालत पर ‘दि संडे पोस्ट’ की खास रिपोर्ट:

समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि समाजवाद की दो शब्दों में परिभाषा देनी हो, तो वे हैं- समता और संपन्नता। इन दो शब्दों में समाजवाद का पूरा मतलब निहित है। लोहिया ने जिस अर्थव्यवस्था की कल्पना की उसमें उनके संपूर्ण चिंतन का मूल, व्यक्ति-गांव कैसे प्रतिभासंपन्न और अर्थसंपन्न बनें, इसी पर आधारित है। यहां लोहिया के इस कथन को इसलिए याद दिलाया जा रहा है कि आजादी के वर्षों बाद आज भी गांवों को प्रतिभा संपन्न और अर्थसंपन्न बनाने के सार्थक प्रयास नहीं हो पा रहे हैं।

हाल में ‘दि संडे पोस्ट’ की टीम हरिद्वार में बहादराबाद ग्राम सभा के एक ऐसे इलाके में पहुंची जहां न तो शिक्षा की कोई सुविधा है, न ही स्वास्थ्य की। यहां तक कि पीने का पानी भी महिलाएं तालाबों और नहरों से कई किमी की यात्रा करके लाती हैं। वन्य जीव प्रशासन की लापरवाही से यहां के अधिकतर जल स्रोत, तालाब, पोखर, नहर सूखे हुए हैं। ऐसी स्थिति में ये महिलाएं अपने हाथ से घंटों मिट्टी खोद कर पानी को कपड़े से छानकर मटकों (स्थानीय भाषा में बंठा) में भरती हैं। उसी गंदे और सीमित पानी से वे अपनी और अपने जानवरों की प्यास बुझाने को मजबूर हैं। यहां पर स्वास्थ्य सुविधाएं तो इस तरह नदारद हैं कि आज तक न यहां कोई एएनएम पहुंची न ही किसी डाॅक्टर ने स्वास्थ्य कैम्प लगाया।

ये इलाका है राजा जी टाइगर पार्क में रह रहे वन गुज्जरों का जिन्हें गुर्जर भी कहा जाता है। ये वन गुर्जर अलग-अलग कबीलों के रूप में पहाड़ों पर रहते हैं। कबीलों में कुल मिलाकर लगभग 400 परिवार हैं। जिनके आय का स्रोत उनके पशु हैं। इन वन गुर्जरों के पास गाय-भैंस अच्छी संख्या में हैं और इन्हीं के दूध को शहर में बेचकर वे अपना जीवन यापन करते हैं।

गुर्जरों का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। उन्होंने जंगलों को बचाकर हमेशा देश की मदद की है। कृषि और पशुपालन पर आधारित उनकी आजीविका का देश की अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने में अहम योगदान रहा है। लेकिन आज उनके पिछड़ेपन को दूर करने और उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने में ठोस प्रचास नहीं हो पा रहे हैं। सरकार आज जंगलों से उनका विस्थापन करा रही है। ऐसे में वे तो शहर की तरफ रुख कर लेंगे, पर उनके पशुओं का क्या होगा?

वन गुज्जरों का तो जीवन उनके पशुओं से ही है, तो सरकार उन्हें उनकी सामाजिक संस्कृति के साथ विस्थापित करे यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए मूल मानक है कि वहां के लोगों के पास पीने के लिए साफ पानी हो, स्वास्थ्य सुविधाएं हों और सबसे अहम कि उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके। पर हरिद्वार के ये वन गुज्जर इन सारी चीजों से वंचित हैं और स्थानीय प्रशासन की भी नजर इन पर नहीं पड़ रही है, जबकि हरिद्वार जिलाधिकारी का कार्यालय यहां से मात्र 20 किमी की दूरी पर स्थित है।

‘दि संडे पोस्ट’ की टीम ने स्थानीय महिलाओं और लड़कियों से उनके जल संकट को लेकर बात की, तो 11 वर्षीय जरीना ने कहा कि हम लड़कियां रोज एकत्रित होकर लगभग 10 लीटर वाला बंठा (पानी भरने का पात्र) लेकर पीली पड़ाव नहर की ओर जाती हैं। वहां जाने के लिए हमें रोज करीब चार से पांच किमी पैदल चलना पड़ता है। क्योंकि अभी नहरें सूखी हुई हैं, तो हम हाथों से मिट्टी तब तक खोदते हैं जब तक पानी ऊपर नहीं आता। पानी आते ही बंटे के ऊपर कपड़ा लगाकर छानते हुए पानी भरते हैं। फिर बंठे को सिर पर रखकर नहर से पैदल वापस कबीले में आते हैं।

वन गुर्जरों में घर की महिलाएं ही पानी लेने के लिए जाती हैं, घरों की मांएं अपने बच्चों को संभालने और जानवरों की रखवाली करने के लिए घर पर रुकती हैं और पुरुष जंगलों से लकड़ियां आदि काटकर घर पर रखते हैं। उसके बाद पशुओं का दूध लेकर शहर की ओर पैसा कमाने के लिए निकल जाते हैं। ऐसे में बचती हैं घर की लड़कियां जो नंगे पांव पथरीले रास्तों को तय करके पानी लेने जाती हैं। जो लड़कियां पानी लेने जाती हैं उनकी उम्र महज 11 से 14 वर्ष की ही है। जिस उम्र में उन्हें ड्रेस पहनकर और बस्ते को टांगकर स्कूल जाना चाहिए उस उम्र में वे 10 लीटर के बंठे को सिर पर उठाकर पथरीले रास्तों पर मीलों पैदल चलने के लिए मजबूर हैं। 21वीं सदी के भारत में उनकी ऐसी स्थिति के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? वो भी तब जब यह इलाका कुम्भ मेले के भव्य आयोजन के लिए विख्यात हरिद्वार में हो। जहां उत्तराखण्ड सरकार के शीर्ष नेताओं का आना-जाना अक्सर लगा रहता है।

पर्यावरण का संकट आज प्राकृतिक संसाधनों के गैर-जिम्मेदाराना दोहन का परिणाम है। ऐसे में ये वन गुर्जर, वन प्रहरी का काम कर जंगलों को बचा रहे हैं। एक नजर देश की नदियों पर डालें तो नदियों ने अपना पानी लगातार खोया है, चाहे वे वर्षा-जल पर निर्भर नदियां हों या फिर हिम-नदियां। इनमें लगातार साल-दर – साल पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है नदियों के जलागम क्षेत्रों का वन- विहीन होना। कई दशकों से देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है। वहीं देश में पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। चूंकि पानी का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए इससे जुड़ा सवाल सीधे जीवन के अस्तित्व का सवाल है।

मुझे यहां कार्यभार संभाले हुए लगभग 25 दिन ही हुए हैं। मैंने यहां आते ही सभी क्षेत्रों के अधिकारियों से बैठक की है और रिपोर्ट मांगी है। बहादराबाद ग्राम सभा की जो स्थिति आप लोगों ने मुझे बताई उसे मैं जरूर संज्ञान में लूंगा। जिसके तहत मैं सबसे पहले वहां सरकारी डाॅक्टर द्वारा स्वास्थ्य कैम्प लगवाने का प्रयास करूंगा। मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत वहां चल रहे केंद्रों पर सभी योजनाएं जल्द शुरू हों। हम कुछ स्थानीय एनजीओ को भी लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं।

-सी. रविशंकर, जिलाधिकारी हरिद्वार

क्या हमें हमारी प्राकृति की धरोहरों के प्रति कोई जिम्मेदारी का भाव नहीं है? एक-एक करके प्राकृतिक संसाधन खत्म होते जा रहे हैं। देश के कई कोयला ब्लाॅक में अब कोयला खत्म हो चुका है। पेट्रोल के कई कुएं उत्पादन के अंतिम कगार पर हंै। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं है। भावी पीढ़ी के लिए क्या हम कुछ भी छोड़ कर नहीं जाना चाहते हैं? ऐसे में हमें पहाड़ों पर रह रहे इन वन प्रहरियों की मूल सुविधाओं के बारे में निश्चित ही सोचना होगा। कुछ प्रतिनिधियों ने बहादराबाद ग्राम में शिक्षा को लेकर पहल की थी जिसके बाद सरकार ने यहां सर्व शिक्षा अभियान के तहत लगभग 42 केंद्रों को बनाने का आदेश दिया था। सरकारी कागजों में तो यह गिनती 42 इंगित है, पर वर्तमान में पूरे इलाके में मात्र 12 केंद्र ही मौजूद हैं।

जमीनी सच्चाई को और पुख्ता तरीके से जानने के लिए ‘दि संडे पोस्ट’ टीम वन गुर्जर इलाके के प्रवेश पर स्थित एनआरएसटी शिक्षा केन्द्र, पापड़ी स्रोत बाहर पीली पहुंची। एक ओर 25 फरवरी 2020 को अमेरिका की प्रथम लेडी मेलानिया ट्रम्प ने दिल्ली में बच्चों की हैपिनेस क्लास को देखा। छोटे-छोटे बच्चे मेलानिया ट्रम्प से अंग्रेजी में बात कर रहे थे। दिल्ली में सरकारी स्कूल दुनिया भर के सरकारी स्कूलों के लिए प्रेरणा बन चुके हैं। लेकिन दूसरी तरफ उत्तराखण्ड में हरिद्वार स्थित वन गुर्जर इलाके के शिक्षा केंद्र का हाल है। जहां छप्पर के नीचे मिट्टी की दीवारों से घिरे परिसर में जमीन पर बैठकर बच्चे पढ़ने को मजबूर हैं।

‘दि संडे पोस्ट’ ने अपनी तहकीकात में पाया कि एक शिक्षक जो संविदा पर नियुक्त हैं उन्हें सभी केंद्रों पर बच्चों को पढ़ाने जाना होता है। एक से पांच तक की कक्षा में सभी बच्चे क्लास एक में ही पढ़ रहे हैं। सात साल का सद्दाम हो या 14 साल की शहनाज, दोनों एक ही क्लास में पढ़ाई कर रहे हैं। सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत बच्चों को मुफ्त कापी-किताबें, स्कूल ड्रेस और मिड डे मील का प्रावधान किया है, पर यहां बच्चे इन सभी सुविधाओं से वंचित हैं।

‘दि संडे पोस्ट’ ने पाया कि बच्चों के पास एक ही किताब है। जो ‘आल इन वन’ नाम से है, यह किताब अक्सर रेलवे स्टेशन और बस स्टेशनों पर बिकते हुए दिख जाती है। इस किताब को संविदा पर नियुक्त शिक्षक सूरज सिंह ने किसी तरह बच्चों को मुहैया कराया है, पर सवाल यह है कि क्या सरकारी तंत्र इन बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ नहीं कर रहा? जो बजट इन केंद्रों के लिए आया, आखिर उसका क्या हुआ? सरकार ने यहां शिक्षा विभाग को करीब दो करोड़ का बजट अनुमोदित किया है।

यहां संविदा पर नियुक्त शिक्षक सूरज सिंह ने बताया, “मैं फिलहाल यहां नौ महीने के लिए नियुक्त किया गया हूं, अफसरों से पूछने पर मुझे पता चला कि यह अवधि 11 महीने भी बढ़ सकती है। मैं सहजनपुर बाहर पीली से यहां आता हूं। जंगली रास्ते को पार करते हुए जानवरों के हमले का भी डर रहता है पर बच्चों को पढ़ाने का भी दायित्व निभाना है। ये मुझ पर ही निर्भर है। मैंने बेसिक शिक्षा अधिकारी श्री ब्रह्मपाल सैनी के कार्यालय जाकर बच्चों के लिए मिड डे मील की सुविधा कब शुरू होगी यह भी पूछा था। जवाब में बताया गया कि प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, जल्द ही यह योजना शुरू हो जाएगी।” सर्व शिक्षा अभियान के तहत 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का प्रावधान है। भारतीय संविधान में इसे मूल अधिकार की श्रेणी में रखा गया है। इसी के अंतर्गत बच्चों को मुफ्त दो-दो स्कूल ड्रेस, किताबें, मिड डे मील आदि शामिल हैं।

सात साल के सद्दाम ने बताया कि वह बड़ा होकर टीचर बनना चाहता है। 14 वर्ष की शहनाज ने बताया कि वह बड़ी होकर मैडम बनना चाहती है। ये बच्चे भला और क्या कहते क्योंकि इन्हें पता ही नहीं है कि डाॅक्टर, पायलट, एस्ट्रोनाॅट, खिलाड़ी, लेखक आदि किसे कहते हैं। पर जो मौजूद हालात यहां के हैं, उनमें सद्दाम शायद ही टीचर बन पाए। शायद ही शहनाज मैडम बन पाए। वन गुर्जरों में सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति की पढ़ाई कक्षा 10 तक ही है। यहां स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर सरकारी योजनाएं पूरी तरह नदारद हैं। स्थानीय निवासी

फरहान ने बताया कि ‘चोट लगने पर हम कपड़े से चोट को बांध लेते हैं। कुछ दिनों बाद आराम मिल जाता है। दवा तो बहुत मंहगी है और शहर यहां से दूर है।’, ‘दि संडे पोस्ट’ ने पाया कि कुछ बच्चों के हाथ- पैरों के चोट से खून बह रहा था, पर ऐसे में तो उन्हें संक्रमित बीमारियां आसानी से हो सकती हैं। एक बच्चे का शरीर बुखार से तप रहा था। समाज में जिन्हें सबसे खराब स्थिति झेलनी पड़ती है, वे हैं महिलाएं। प्रेग्नेंसी के समय उन्हें बड़ी मशक्कत से सरकारी अस्पताल ले जाया जाता है, लेकिन जब वो अस्पताल नहीं पहुंच पाती तो जंगल में ही उन्हें बच्चे को जन्म देना पड़ता है। महिलाओं से जब यह पूछा गया कि वे अपने मासिक धर्म के दौरान क्या इस्तेमाल करती हैं, तो उन्होंने बताया कि ‘यहां की अधिकतर महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, पर जब कपड़ा नहीं रहता तो हम सूखी घास का इस्तेमाल करते हैं।’ इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वन गुज्जर समाज आज भी कहां है।

हरिद्वार में 31 जुलाई 2019 से मुख्य चिकित्सा अधिकारी का कार्यभार डाॅ. सरोज नैथानी संभाल रही हैं। जिन्होंने 2019 में ही कहा था कि ‘खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाएं बेहतर बनाना हमारी प्राथमिकता है। सबके सहयोग से वह चिकित्सा सेवा को बेहतर बनने का भरपूर प्रयास करेंगी।’ पर यह सभी दावे हवा-हवाई साबित हो रहे हैं। गुर्जर महिलाओं ने आरोप लगाया है कि जब वह सरकारी अस्पताल इलाज के लिए जाती हैं तो उनके साथ सही व्यवहार नहीं किया जाता। ऐसे में हम उम्मीद करते हैं कि सीएमओ इस मामले को संज्ञान लें और कम से कम उन्हें अस्पताल से कम पैसे में मिलने वाले पैड उपलब्ध कराएं। जिससे वह मासिक धर्म के दौरान किसी संक्रमण का शिकार न हों।

-साथ में अहसान अंसारी/ कोहिनूर चैधरी

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