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उत्तराखण्ड में चाय उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं राज्य में टी-टूरिज्म विकसित करने और चाय की खुशबू विदेशों तक पहुंचाने की बातें भी हो रही हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि स्थानीय बाजार में ही चाय विकास बोर्ड को डिस्ट्रीब्यूटर नहीं मिल पा रहे हैं। टी बोर्ड में कर्मचारियों का भी भारी अभाव है। चाय बागान निरंतर सिकुड़ रहे हैं। हर साल लगने वाली आग इन्हें झुलसा देती है। कुछ बागान कंक्रीट के जंगल बन चुके हैं
राज्य गठन के बाद आधे अधूरे ही सही लेकिन चाय की खेती के लिए जो प्रयास किए गए वे अब रंग दिखाने लगे हैंं, साथ ही यह उम्मीद भी जगा रहे हैं कि अगर इस ओर पूरे प्रयास किए जाएं तो यह एक नजीर बन सकती है। पहले जहां प्रदेश में उत्पादित होने वाली चाय विदेशों में निर्यात होती थी वहीं अब उत्तराखण्ड टी डेवलपमेंट बोर्ड स्थानीय बाजार में इसे उतारने के लिए डिस्ट्रीब्यूटरों की तलाश में जुटा हुआ है। अगर टी बोर्ड की तलाश पूरी होती है तो आम उत्तराखण्डी भी अपने प्रदेश में पैदा होने वाली चाय के स्वाद व महक का आनंद ले सकता है।
कहने को तो प्रदेश में पिछले दो सौ सालों से चाय की खेती होते आई है। अंग्रेजों के शासन काल में यह पनपी तो आजाद भारत में यह दम तोड़ने लगी। लेकिन नए प्रदेश में इसके लिए प्रयास शुरू हुए तो नए-नए बागानों के जरिए अब इसकी पुरानी रंगत फिर से लौटने लगी है। आज प्रदेश में चार सरकारी व एक निजी चाय फैक्ट्री का संचालन हो रहा है। राज्य के घोड़ाखाल (नैनीताल), चंपावत, नौटी (चमोली) में जैविक चाय की फैक्ट्रियां लगी हैं। 70 हजार किलो चाय का उत्पादन आज प्रदेश में हो रहा है। चार हजार से अधिक लोगों ने चाय की खेती से जुड़ इसे अपनी आजीविका का माध्यम बनाया है। विशेषज्ञों की मानें तो प्रदेश में अभी भी चाय की खेती की अपार संभावनाएं हैं। राज्य में 9 हजार हेक्टेयर भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त है, जबकि अभी मात्र 1141 हेक्टेयर भूमि में ही चाय ही खेती हो रही है। बची हुई 7859 हेक्टेयर भूमि में अगर इसकी खेती शुरू कर दी जाय तो करीब 7 लाख किलो चाय का अतिरिक्त उत्पादन प्रदेश में हो सकता है और हजारों लोगों की आजीविका भी इससे जुड़ सकती है। हालांकि सरकार ने विश्व बैंक व नाबार्ड के सहयोग से एक हजार हेक्टेयर नए क्षेत्र में चाय उत्पादन की तैयारी शुरू की है। बकायदा इसके लिए 98 करोड़ रुपए खर्च करने की सैद्धांतिक स्वीकृति पर सहमति बनी है। नए चाय बागानों के लिए कुमाऊं में तीन व गढ़वाल में दो ब्लॉकों का चयन किया गया है। इसमें पांच सौ लोगों को रोजगार देने का लक्ष्य बनाया गया है। अभी प्रदेश में उपलब्ध चाय बागानों में प्रति वर्ष 4 लाख किलो चाय पत्ती तोड़ी जा रही है तो कई हेक्टेयर में पौध रोपी गई हैं। इसके लिए हरी नगरी अल्मोड़ा, चंपावत व नैनीताल में घोड़ाखाल के साथ ही गढ़वाल मंडल में भटोली में फैक्ट्री लगाई गई है। जनपद पिथौरागढ़ के मुनस्यारी, अल्मोड़ा के धौलादेवी व बागेश्वर के कपकोट व गढ़वाल के पौड़ी व अगस्तमुनि में चाय के बागान तैयार होने को हैं।
जनपद अल्मोड़ा के द्वाराहाट के दूनागिरी में 40 हेक्टेयर, बागेश्वर के कपकोट, चौखुटिया, जौरासी, धैलादेवी में 15-15 हेक्टेयर में नर्सरी बनाने की तैयारी है। अभी श्यामखेत में 5 हजार, चंपावत में 10 हजार, हरिनगर गरूड़ में 60 हजार व नौटी में 14 हजार किलोग्राम चाय का उत्पादन हो रहा है। वर्तमान में प्रदेश के 18 ब्लॉकों में चाय प्लांटेशन व नर्सरी का कार्य चल रहा है। इसके अलावा कौसानी, चंपावत, घोड़ाखाल, भवाली, नौटी में चाय बागानों से चाय उत्पादन हो रहा है। इधर अब तक ‘कौसानी टी’ के नाम से बिकने वाली चाय अब ‘उत्तराखण्ड टी’ के नाम से स्थानीय बाजार में आनी है। अभी राज्य में ब्लैक एवं ग्रीन टी का उत्पादन हो रहा है। पलायन रोकने के लिए भी चाय की खेती कारगर मानी जा रही है। अंग्रेजों के समय से अल्मोड़ा, कौसानी व भीमताल में बने चाय के बागान जिसमें एक समय में चाय का उत्पादन होना बंद हो गया था वह फिर से उभरने लगे हैं। इसके अलावा चम्पावत, हरीनगरी, धर्मगढ़, चमोली में लगाए लगे चाय के बागानों से भी अब चाय का उत्पादन होने लगा है। अभी प्रदेश सरकार 706 हेक्टेयर क्षेत्रफल में चाय उत्पादन के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है। 2200 से अधिक किसान एवं 4000 से अधिक श्रमिक चाय की खेती में अभी इस लक्ष्य के साथ परिश्रम कर रहे हैं कि 90 हजार क्विंटल चाय का लक्ष्य पूरा हो सके। इसके अलावा असम से चाय उत्पादन सीखने के तहत चाय श्रमिकों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। कुमाऊं मंडल के नैनीताल, बागेश्वर, चंपावत, पिथारागढ़ व गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग व चमोली के 22 विकासखंडों में चाय नर्सरी व छोटे बागान विकसित किए गए हैं। नैनीताल जनपद के भवाली में उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड की प्रयोगशाला बन चुकी है जिसे भारतीय चाय बोर्ड के मानकों पर पूरी खरी उतरती है। इसके बनने से चाय नर्सरी में उपलब्ध होने वाली मिट्टी की आधुनिक जांच हो सकेगी।
उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड (यूटीडीबी)  पौधालयों में बेहतर उत्पादन व गुणवत्ता बनाने के रोडमैप पर काम कर रहा है ताकि विदेशों में उत्तराखण्डी चाय की मांग को पूरा किया जा सके। सरकारी स्तर पर प्रदेश में टी-टूरिज्म को बढ़ावा देने की बातें भी हो रही हैं। माना जा रहा है कि चाय की खेती से किसानों की माली हालत में सुधार भी आ रहा है। प्रदेश को टी-टूरिज्म से जोड़ने के लिए काश्तकारों को चाय उत्पादन में भागीदार बनाने की प्रक्रिया भी उम्मीद जगा रही है। सहकारिता को माध्यम बनाकर पर्वतीय किसानों को जोड़ने के प्रयास भी हो रहे हैं। कोशिश की जा रही है कि सहकारिता को माध्यम बनाकर काश्तकार ढलान वाले खेत या बंजर पड़ी जमीन पर बागान विकसित कर सकें। इसके लिए यूटीडीबी काश्तकारों को सब्सिड़ी पर पौध उपलब्ध कराएगा। बेहतर उत्पादन पर बिकने वाली चाय पत्ती का पूरा लाभ कृषकों के खाते में आएगा। इसके अलावा कुमाऊं व गढ़वाल में नए बागान विकसित करने की तैयारी भी चल रही है। अभी प्रदेश के 22 विकासखंडों में 1074 हेक्टेयर क्षेत्रफल में नर्सरी बनाई गई हैं जहां पर करीब एक करोड़ पौध तैयार हो रहे हैं। भारतीय टी बोर्ड ने भी प्रदेश में चाय की नर्सरी विकसित करने में उत्तराखण्ड चाय बोर्ड को मदद करने का फैसला किया है। 2004 में उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड के गठन के बाद से ही प्रदेश में भूमि चयनित कर प्लांटेशन का काम तेजी से शुरू हुआ। तब से अब तक 1100 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में चाय बागान विकसित हो चुके हैं। अब  उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड चाय की खेती को विकसित करने के लिए प्रदेश के 8 पर्वतीय जिलों में 22 कलस्टर विकसित करने की योजना बना रहा है। इसके तहत प्रदेश में 1172 हेक्टेयर जमीन पर चाय की पौध लगाई जानी है। हरीनगरी, धौलादेवी, मुनस्यारी, ताकुला, गरूड़, थराली, पोखरी, डीडीहाट, बागेश्वर, बेतालघाट, अगस्तमुनि, नौटी, चंपावत, कपकोट, ऊखीमठ, श्यामखेत, जौरासी, पौड़ी, जखोली सहित प्रदेश के 21 ब्लॉकों में चाय के पौधों की नर्सरी बनाई गई है। चाय की पौध विकसित करने में दो साल का समय लगता है इसमें करीब 20 रुपए की लागत आती है। अगर यह प्रयास कामयाब होते हैं तो दो साल बाद चाय का अच्छा खासा उत्पादन हो सकता है। अगर मुख्यमंत्री व उद्यान मंत्री की बयानबाजी पर नजर डालें तो हर साल एक हजार हेक्टेयर क्षेत्र में चाय नर्सरी तैयार करने का दावा है। जापान, कोरिया, जर्मनी के लोग भी उत्तराखण्डी चाय के मुरीद हो रहे हैं और निरंतर उत्तराखण्ड में उत्पादित चाय की मांग बढ़ रही है। प्रदेश में उत्पादित चाय के स्वाद व गुणवत्ता को और बेहतर बनाने के लिए असम व हिमाचल में शोध चल रहे हैं। लेकिन प्रदेश के चाय विकास की जिम्मेदारी जिस चाय विकास बोर्ड के पास है वह खुद कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है। राज्य के दस पर्वतीय जिलों में सिर्फ चार प्रबंधक ही तैनात हैं। प्रबंधक, सहायक प्रबंधक, फील्ड सहायक, सुपरवाईजर के कई पद खाली चल रहे हैं। बोर्ड अभी कुल 50 कार्मिकों के सहारे जैसे-तैसे काम चला रहा है जबकि उसे 150 से अधिक कर्मचारियों की जरूरत है। हालांकि बोर्ड के स्तर पर नए कर्मचारियों की भर्ती के लिए 27 करोड़ की व्यवस्था की गई है।
जंगलों में लगने वाली आग व पानी की कमी चाय बागानों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं जो किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं हैं। इसके चलते कई चाय बागान सूखने के कगार पर पहुंच चुके हैं। वर्ष 1992-93 में पहाड़ों में चाय के बागान लगाने के जो प्रयास शुरू किए गए थे उनमें आज 5000 से अधिक लोगों की रोजी रोटी टिकी हुई है। लेकिन हर साल जंगलों में लगने वाली आग के चलते चंपावत, कौसानी, व चमोली के चाय बागान जो जंगलों के पास हैं, यहां आग का खतरा व पानी की कमी बनी हुई है। पिछले वर्षो लगी आग में तो कई बागान आग की चपेट में आ चुके हैं। चंपावत में दो, पोखरी में एक एवं चमोली में व कौसानी के विजयपुर में आध हेक्टेयर चाय बागान जलकर खाक हो गए थे। आग के चलते पांच हेक्टेयर चाय के बागान नष्ट हो गए थे। इसके अलावा जखोली, मुनस्यारी, धैलादेवी के बागान जो जल स्रोतों पर ही निर्भर हैं समय पर पानी न मिलने से इनके सूखने की आशंका बनी रहती है। एक चाय का बागान तैयार करने में सात साल का समय लग जाता है। पहले चाय की नर्सरी में पौधे रोपित होते हैं फिर करीब दो साल इन्हें तैयार होने में लगता है। एक हेक्टेयर में करीब 15 हजार पेड़ लगते हैं। चार साल इन्हें बढ़ने में लगता हैं तब जाकर इसकी पत्तियां तोड़ने लायक होती हैं, लेकिन एक क्षण में उपजी आग वर्षों की इस मेहनत को राख में तब्दील कर दे रही है।

कभी मशहूर थी बेरीनाग की चाय

एक ओर जहां चंपावत की चाय खुशबू बिखेर रही है। सैकड़ों की संख्या में श्रमिक इससे जुड़ अपनी आजीविका चला रहे हैं तो वहीं एक दौर में बेरीनाग की चाय के मशहूर किस्से अब किताबों में दर्ज होकर रह गए हैं। चाय बागान उजड़ गए हैं। चाय बागानों पर अब कंक्रीट की फसल लहलहा रही है। किसी जमाने में देश-विदेश में चाय की ध्ूम मचाने वाले इस क्षेत्र में 1990 के बाद चाय का उत्पादन बंद हो गया। एक समय यहां 2000 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बागान फैले थे। यहां पर चाय की फैक्ट्री हुआ करती थी। चाय की वजह से इस क्षेत्रा की ऐसी पहचान बनी कि इसे बेरीनाग टी स्टेट के नाम से जाना जाने लगा। एक दौर में यहां 500 लोगों को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में रोजगार मिला था। यहां की चाय विदेशों में अपनी पैठ बना चुकी थी। विदेशी इस चाय के स्वाद व महक के दीवाने थे। इसकी इतनी मांग थी कि इसकी आपूर्ति देशी बाजार में नहीं हो पाती थी। बेरीनाग के चाय के बागान लकदक रहते थे वहां अब कंक्रीट के भवन उग आए हैं। स्थानीय जलवायु को देखते हुए ही अंग्रेजों ने यहां पर चाय के बागान विकसित किए थे। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने चीन से पौधे मंगाकर यहां रोपित किए थे जो यहां विकसित होने लगे। यहां की जलवायु को देखते हुए हिल एक्टेंशन नामक एक अंग्रेज ने बेरीनाग में चाय उत्पादन के लिए ब्रिटिश सरकार के समय प्रस्ताव रखा तो उसे 200 नाली जमीन स्वीकृत हो गई। आजादी के बाद वर्ष 1964 में खितोली, सांगड, बना, भट्टीगांव व ढनौली गांवों में भी चाय बागान के लिए भूमि आंवटित की गई। 1916 में इसे मशहूर शिकारी जिम कार्बेट ने खरीदा लेकिन बाद में उन्होंने यहां की टी स्टेट को मुरलीधर पंत नाम व्यक्ति को सौंप दिया। बाद में पंत ने इसे दान सिंह बिष्ट मालदार के हाथों बेच दिया। मालदार के हाथों में यह बागान आते ही यहां चाय का जमकर उत्पादन होने लगा। यहां चाय का कारखाना खुला और यहां की चाय विदेशों में जाने लगी। बाद में मालदार परिवार भी इसका रखरखाव नहीं कर पाया तो धीरे-धीरे यहां के चाय बागान उजड़ने लगे अब तो यहां सिपर्फ अतीत की यादें भर शेष रह गई हैं। शासन स्तर पर इसे गंभीरता से नहीं लिये जाने से  चाय उत्पादन की एक बड़ी संभावना समय से पहले खत्म हो गई। राज्य बनने के बाद इस चाय उद्योग के पुनर्जीवित होने की उम्मीद थी, लेकिन अब 18 साल बाद यह पूरी तरह से ध्ूमिल हो चुकी है।

चंपावत में नई संभावनाएं

 राज्य बनने के बाद चाय की खेती के मामले में अगर किसी जिले ने लंबी छलांग लगाई तो वह है चंपावत जिला। यहां चाय की खेती खूब पनप रही है। अब जनपद की पहचान ग्रीन लीफ यानी हरी पत्ती चाय उत्पादक क्षेत्र के रूप में होने लगी है। अभी जिले में 160 हेक्टेयर में चाय के बागान फैले हैं। जनपद के मझेड़ा, गड़कोट, चौड़ा, छीड़ापानी, चौकी, लमाई, मुड़ियानी, सिलिंगटाक, च्यूराखर्क, लधैन, मौराड़ी में चाय के बागान हैं। यहां ग्रीन लीफ चाय का उत्पादन होता है जो कोलकता तक पहुंचती है। यहां की चाय पूरी तरह जैविक होने से इसकी विशेष मांग है। सीटीसी यानी केमिकल, टेनिन या कलर का प्रयोग नहीं होने से भी इसकी मांग में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। आर्थोडोक्स ब्लैक लीफ टी के नाम से जाने जाने वाली यह चाय उत्तराखंड राज्य जैविक प्रमाणन एजेंसी द्वारा भी प्रमाणित है। अब यहां दो करोड़ की लागत से 14 नाली जमीन पर आध्ुनिक फैक्ट्री बनने की पहल शुरू हो चुकी है। कफलांग नामक जगह पर बनने वाली इस पफैक्ट्री के जरिए हर सीजन में 50 हजार किलो चाय का उत्पादन होने की उम्मीद है।
जनपद में 1995-96 से चाय विकास योजना पर काम होना शुरू हुआ तो पहले वन पंचायत की जमीन सिलंगटाक में चाय बागान की शुरुआत हुई। नया राज्य बनने के बाद वर्ष 2004 में काश्तकारों की जमीन पर चाय की खेती लहराने लगी। 2007 में छीड़ापानी में नर्सरी बनी इसके बाद तो ग्राम पंचायतों की 202 हेक्टेयर भूमि पर चाय की खेती परवान चढ़ने लगी। अब हर साल यहां 40 हजार किलो चाय का उत्पादन होता है। करीब चार सौ लोग रोजगार से जुड़े हैं। यहां मनरेगा के तहत चाय की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है। अभी 18 ग्राम पंचायतों की 202 हेक्टेयर जमीन पर इसकी फसल लहलहा रही है। पिछले दो वर्षों से यहां 80 हजार किलो चाय का उत्पादन हुआ। उत्तराखंड टी बोर्ड इस चायपत्ती को 1200 रुपया प्रति किलो की दर से बेच रहा है। इस जैविक चाय की मार्केटिंग कोलकाता में होती है। पैरामाउंट मार्केंटिग कंपनी इस चाय को जर्मनी, इंग्लैंड सहित कई यूरोपीय देशों को निर्यात करती है। जनपद में चाय उत्पादन के मामले में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है।
प्रदेश सरकार का वर्ष 2022 तक 12 हजार किसानों को चाय की खेती से जोड़ने का लक्ष्य है। इसके तहत नाबार्ड, मनरेगा व राज्य सेक्टर के तहत हम एक महत्वाकांक्षी योजना पर कार्य कर रहे हैं। हम उत्तराखंड की चाय को बढ़ावा देकर इसे एक ब्रांड के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं।
सुबोध उनियाल, कृषि एवं उद्यान मंत्री

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