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Uttarakhand

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं …

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को राजनीति में ‘फीनिक्स’ पक्षी समान माना जाता है जो पूरी तरह से नष्ट हो जाने के बाद भी पुनः राख से पैदा हो उठता है। अपनी पचास बरस से अधिक की राजनीतिक यात्रा के दौरान कई बार धराशायी होने वाले रावत ने बार-बार फर्श से अर्श में पहुंच अपने प्रतिद्वंदियों को हतप्रभ करने का रिकॉर्ड बनाया है। 74 बरस की उम्र में एक बार फिर वे कुछ ऐसा ही करते इन दिनों नजर आ रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व भले ही उनको हाशिए में डालने में जुटा है, रावत अपनी सक्रियता के चलते असली विपक्ष का चेहरा बन उभरने लगे हैं

‘मैं नर्तक हूं, उस्ताद कहेंगे नाचो तो मैं नाचूंगा नहीं तो औरों को नचाऊंगा’

वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों से पूर्व उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत की कही गई यह बात आज भी उत्तराखण्ड की राजनीति में कहीं न कहीं उनके विरोधियों को नाचने पर मजबूर कर रही है। उनके सामने चुनौती सिर्फ भारतीय जनता पार्टी से ही नहीं हैं बल्कि अपनी ही पार्टी के अंदर एक वर्ग से भी है जो उन्हें उत्तराखण्ड की या कहें कांग्रेस की राजनीति में अप्रासंगिक साबित कर नेपथ्य में धकेल देना चाहता है। पर सवाल है कि क्या हरीश रावत सरीखे राजनीतिज्ञ को इस प्रकार अप्रासंगिक कर पाना इतना आसान है? इसका जवाब उन पुरानी परिस्थितियों की ओर नजर डालने पर मिल जाता है जब 1991 से 2004 तक अल्मोड़ा लोकसभा सीट पर उनकी और उनकी पत्नी रेणुका रावत की लगातार हार के बाद भी वे 2009 में अपने लिए अंजान-सी लोकसभा सीट हरिद्वार को भारी बहुमत से जीत कर लोकसभा पहुंचे और यूपीए सरकार में मंत्री बने। 2014 में उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री का पद भी पाना उनके लिए आसान नहीं था। सिर्फ इसलिए नहीं कि पार्टी में उनकी चिरपरिचित प्रतिद्वंद्वी और वरिष्ठ नेत्री डॉ .इंदिरा हृदयेश मुख्यमंत्री पद की इच्छा रखती थीं वरन् कभी उनके शागिर्द रहे प्रीतम सिंह, हीरा सिंह बिष्ट सरीखे कई नेता उनके खेमे से दूर जा चुके थे। 2017 का विधानसभा चुनाव उनके लिए एक बड़ा धक्का था। इस चुनाव में कांग्रेस का ग्यारह सीटों में सिमट जाना और खुद हरीश रावत का हरिद्वार (ग्रामीण) और किच्छा से विधानसभा चुनाव हार जाना उनकी राजनीतिक विदाई का संदेश मान लिया गया। शायद रावत विरोधी हरीश रावत के राजनीतिक चातुर्य को भांप नहीं पाए। उत्तराखण्ड में उनके नेतृत्व में बड़ी हार के बाद भी कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने उनको राष्ट्रीय महासचिव और कांग्रेस की शाक्तिशाली कांग्रेस वार्किंग कमेटी का सदस्य बना उन पर अपना भरोसा जता तब उनके विरोधियों को सकते में डालने का काम कर दिया था। अपने पचास साल के राजनीतिक जीवन में हरीश रावत की छवि गांधी परिवार के वफादार नेता की रही है फिर वह चाहे इंदिरा गांधी, संजय गांधी या राजीव गांधी का दौर रहा हो या फिर सोनिया और राहुल का।


कोविड के दौरान जनता की मांग को लेकर धरने पर

2002 और 2012 के प्रसंगों को छोड़ दें तो, जब हरीश रावत की दावेदारी को नकार कांग्रेस आलाकमान ने नारायण दत्त तिवारी और विजय बहुगुणा को उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनाकर भेज दिया था, रावत ने कभी भी गांधी परिवार अथवा कांग्रेस आलाकमान के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर असंतोष के स्वर बुलंद नहीं किए। इसके ठीक उलट उत्तराखण्ड की राजनीति में कांग्रेस के कई दिग्गज जिनमें नारायण दत्त तिवारी, सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य सरीखे नाम शामिल हैं, राजनीतिक विचलन के शिकार हो गए। नारायण दत्त तिवारी ने तिवारी कांग्रेस बनाई तो हरक सिंह रावत, विजय बहुगुणा, सतपाल महाराज और यशपाल आर्य सरीखे नेता भाजपा की शोभा बढ़ाते दिखे। प्रदेश कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष करन माहरा भी एक वक्त उत्तराखण्ड क्रांति दल की विचारधारा से प्रभावित हो गए थे। 2017 से 2022 का दौर प्रदेश अध्यक्ष के रूप में प्रीतम सिंह का था जिनके निशाने पर भारतीय जनता पार्टी से ज्यादा हरीश रावत रहते थे। इसी दौर ने कभी हरीश रावत के धुर समर्थक रहे और बाद में विरोधी बन गए नेताओं को एक मंच पर ला दिया था। इन वरिष्ठ कांग्रेसियों ने हरीश रावत को कमजोर करने का जो प्रयास किया उस चलते 2022 में कांग्रेस अनुकूल चुनावी माहौल होने के बाद भी सत्ता की दहलीज से दूर हो गई। चुनाव से पूर्व कांग्रेस के अंदर से खबरें छन कर आती थीं कि ‘2022 में हरीश रावत को राजनीतिक रूप से ठिकाने लगाना है’, ‘हम 2027 तक इंतजार कर लेंगे।’ इस आंतरिक कलह के सतह में आने का खामियाजा भाजपा की राज्य में दोबारा ताजपोशी के रूप में सामने आया।

 

महंगाई को लेकर धरने पर

2022 उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों में पराजय के बाद कांग्रेस आलाकमान द्वारा प्रदेश संगठन में नए चेहरों को आगे बढ़ाने के साथ- साथ पुराने अनुभवी नेताओं संग संतुलन साधने की कवायद के चलते करन माहरा को प्रदेश अध्यक्ष और यशपाल आर्य को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया लेकिन इन परिवर्तनों के बावजूद कांग्रेस के अंतर्विरोध थमे नहीं। पुनः नेता प्रतिपक्ष न बन पाने की खींझ प्रीतम सिंह ने प्रभारी देवेंद्र यादव पर उतारी। शायद बड़े राजनेताओं के राजनीतिक कौशल की परीक्षा तब होती है जब आप किसी घोषित पद पर नहीं होते। ऐसे समय में न केवल संगठन के लिए काम करते हुए दिखना जरूरी है, बल्कि खुद को प्रासंगिक बनाए रखना भी जरूरी होता है। हरीश रावत का यही कौशल उनकी पूंजी है। अगर पीछे मुड़कर देखें तो 2017 और 2022 की पराजय के बाद भी रावत की सक्रियता में कहीं कमी नहीं आई। वरना उत्तराखण्ड ऐसे कई नेताओं की राजनीतिक विदाई का गवाह रहा है जो चुनाव हारने के बाद राजनीतिक बियाबानों में खोकर रह गए। खास बात यह है कि हरीश रावत जितनी बार चुनाव हारे उसके बाद वो दोगुनी ताकत के साथ जनता के बीच आए जिसके चलते आज भी उनका उत्तराखण्ड प्रदेश की राजनीति में बड़ा नाम है। प्रदेश की राजनीति, खासकर कांग्रेस की राजनीति में हरीश रावत हार के बाद भी बड़ी जरूरत क्यों बने हुए हैं, इस सवाल का जवाब कांग्रेस पार्टी के एक पूर्व महामंत्री देते हुए कहते हैं कि ‘उनका खुद को एक क्षेत्र विशेष तक सीमित न रखना ही उनकी ताकत है वरना वे कांग्रेस के ही अन्य नेताओं की तरह विधानसभा क्षेत्र विशेष के नेता बनकर रह जाते।’

 

उत्तराखण्ड में आज जब भाजपा सत्ता पर फिर से काबिज है और युवा मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी राजनीतिक पिच पर जमकर खेल रहे हैं तो कांग्रेस के सामने चुनौतियां कई खड़ी हैं। उसे जहां खुद को 2024 के लिए तैयार करना है वहीं 2027 के विधानसभा चुनावों तक लड़ाई की स्थिति में बने रहना भी जरूरी है। हालांकि कांग्रेस का संगठन सरकार की कथित विफलताओं पर रोज प्रहार करता जरूर दिख रहा है लेकिन राज्य व्यापी असर हरीश रावत का ही नजर ज्यादा आता है। रावत सरकार को कठघरे में खड़े करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। सरकारी नौकरियों की भर्ती घोटाले हों, अंकिता भंडारी हत्याकांड हो या फिर हल्द्वानी के बनभूलपुरा में अल्पसंख्यकों को बेघर किए जाने का मामला हो, हरीश रावत हर मोर्चे पर धामी सरकार को घेरने का कोई मौका छोड़ते नजर नहीं आते हैं। विधानसभा की भर्तियों में कथित अनियमितताओं में उन्होंने सरकार से सवाल तो पूछे ही साथ ही गोविंद सिंह कुंजवाल के बचाव में भी पूरी तरह से उतरते दिखे। गोविंद सिंह कुंजवाल के साथ खड़े रह उन्होंने जताया कि विषम परिस्थितियों में भी सियासी मित्रता निभाने का जोखिम सिर्फ वे ही उठा सकते हैं। खास बात यह है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का किसी भी मुद्दे पर सियासी प्रहार हरीश रावत पर ही ज्यादा है। हरीश रावत के हर दिन सरकार से सवाल भाजपा संगठन को जवाब देने पर मजबूर करते हैं। जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रोज हरीश रावत पर हमले करते दिखते हैं उससे अंदाज लगता है कि भाजपा की कांग्रेस की गतिविधियों से ज्यादा हरीश रावत पर नजर है। कांग्रेस के एक पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष का कहना है कि ‘हरीश रावत की इस सक्रियता का लाभ पार्टी को मिलता साफ नजर आ रहा है।

उत्तराखण्ड के सुदूर क्षेत्र का देश-दुनिया से संपर्क टूटा हरदा का हौसला नहीं

आज पार्टी 2017-22 के मुकाबले ज्यादा संघर्ष करती नजर आती है। राजनीतिक मंच हो या गांव-शहरों की गलियां हरीश रावत ने लोगों का ध्यान खींचा है।’ शायद रावत पार्टी संगठन से इतर अपनी अलग भूमिका तय करना चाहते हैं जो कांग्रेस पार्टी को मजबूत करने में तो सहायक हो ही रहे, उन्हें अप्रसांगिक बनाए जाने के प्रयासों को भी कुंद कर सके। उम्र के इस पड़ाव में हरदा हरिद्वार में गन्ना किसानों के साथ भी खड़े दिखते हैं तो भयंकर ठंड में जोशीमठ में भी पीड़ितों के साथ दिख जाते हैं। हल्द्वानी राष्ट्रीय मार्ग की खस्ता हाल पर धरने पर बैठे हरीश रावत मरचूला पर बाघ हमले की अनदेखी पर भी सरकार के खिलाफ धरने पर नजर आ जाते हैं। अल्मोड़ा के एक पूर्व जिला पंचायत सदस्य का कहना है कि ‘इतनी पराजयों के बाद भी हरीश रावत को कम आंक लेना नादानी होगी। आज भी हरीश रावत कांग्रेस ही नहीं, उत्तराखण्ड के सबसे बड़े जनाधार वाले नेता हैं। यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि फिलहाल उत्तराखण्ड में कांग्रेस के पास हरीश रावत जैसा दूसरा कोई करिश्माई नेता नहीं है।’ रावत जानते हैं कि उनके निजी प्रभा मंडल का लाभ कांग्रेस को तभी मिल सकता है जब संगठन न केवल जमीनी स्तर पर मजबूत हो, बल्कि उन्हें संगठन में तरजीह भी दी जाए। ऐसा लेकिन हाल-फिलहाल होता नजर नहीं आ रहा है। शायद यही कारण है कि रावत स्वयं पहल कर पार्टी संगठन के कार्यकर्ताओं को भी उसमें शामिल होने के लिए मजबूर करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। हरिद्वार में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर हुए मुकदमे के खिलाफ बहादराबाद थाने में दो दिन तक दिन-रात धरना देकर उन्होंने जता दिया था कि उन्हें चूका हुआ नहीं समझा जाना चाहिए। 74 वर्षीय हरीश रावत भाजपा की सरकार के खिलाफ कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। उनकी सक्रियता दिन में ही नहीं, बल्कि रात में भी वे धरना-प्रदर्शन, मशाल, जुलूस के साथ सक्रिय नजर आते हैं। गढ़वाल के एक कांग्रेसी नेता बताते हैं कि जितनी सक्रियता हरीश रावत दिखाते हैं अगर उसकी आधी सक्रियता स्वयं को बड़ा मानने वाले अन्य कांग्रेस के नेता दिखाएं तो कांग्रेस कमजोर नहीं, मजबूत ही होगी, मगर इसके लिए निजी स्वार्थ दरकिनार करने होंगे।

उत्तराखण्ड में हरीश रावत की सक्रियता के पीछे उनके अपने लिए राजनीतिक गुणा-भाग हो सकते हैं लेकिन उनकी यह सक्रियता हर दृष्टि से कांग्रेस को ही मजबूत करती है। हरीश रावत ने जमीनी स्तर से संगठन की राजनीति की है और इसी संगठन की राजनीति का लाभ उन्हें और कांग्रेस को मिला भी है। अपनी इसी सक्रियता के चलते वे एक लंबी रेखा खींचना चाहते हैं। हालांकि उनकी यह सक्रियता पार्टी के अंदर कई नेताओं को रास नहीं आ रही है जिसके चलते पार्टी भीतर से ही उन पर सवाल भी उठते रहते हैं। उन पर सवाल उठाने वालों पर सांसद रहते रानीखेत के बहुचर्चित लड्डू कांड के दौरान का कथन महत्वपूर्ण है कि ‘आप अपनी योग्यता दूसरे की लाइन को मिटाकर नहीं अपनी लाइन बड़ी करके सिद्ध कीजिए।’

 

हरिद्वार थाने में धरनारत हरदा योग मुद्रा में

उत्तराखण्ड में आज जब भाजपा सत्ता पर फिर से काबिज है और युवा मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी राजनीतिक पिच पर जमकर खेल रहे हैं तो कांग्रेस के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं। उसे जहां खुद को 2024 के लिए तैयार करना है वहीं 2027 के विधानसभा चुनावों तक लड़ाई की स्थिति में बने रहना भी जरूरी है। हालांकि कांग्रेस का संगठन सरकार की कथित विफलताओं पर रोज प्रहार करता जरूर दिख रहा है लेकिन राज्य व्यापी असर हरीश रावत का ही नजर ज्यादा आता है। रावत सरकार को कठघरे में खड़े करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। सरकारी नौकरियों की भर्ती घोटाले हों, अंकिता भंडारी हत्याकांड हो या फिर हल्द्वानी के बनभूलपुरा में अल्पसंख्यकों को बेघर किए जाने का मामला हो, हरीश रावत हर मोर्चे पर धामी सरकार को घेरने का कोई मौका छोड़ते नजर नहीं आते हैं। उम्र के इस पड़ाव में हरदा हरिद्वार में गन्ना किसानों के साथ भी खड़े दिखते हैं तो भयंकर ठंड में जोशीमठ में भी पीड़ितों के साथ दिख जाते हैं। हल्द्वानी राष्ट्रीय राजमार्ग की खस्ता हाल पर धरना दिया तो मरचूला में बाघ हमले की अनदेखी पर भी सरकार के खिलाफ धरना देते नजर आए। 74 वर्षीय हरीश रावत भाजपा की सरकार के खिलाफ कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। उनकी सक्रियता दिन में ही नहीं, बल्कि रात में भी वे धरना- प्रदर्शन, मशाल, जुलूस के साथ सक्रिय नजर आते हैं। गढ़वाल के एक कांग्रेसी नेता का मानना है कि जितनी सक्रियता हरीश रावत दिखाते हैं अगर उसकी आधी सक्रियता स्वयं को बड़ा मानने वाले अन्य कांग्रेस के नेता दिखाएं तो कांग्रेस कमजोर नहीं, मजबूत ही होगी, मगर इसके लिए निजी स्वार्थ दरकिनार करने होंगे

 

 

 

 

 

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