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Uttarakhand

पुराने चावलों की विदाई का संकेत है पुष्कर का उदय

पुष्कर सिंह धामी के नाम पर मुहर लगाकर भाजपा आलाकमान ने सारे राजनीतिक कयासों को तो खत्म किया ही साथ ही एक स्पष्ट संदेश दिया कि उत्तराखण्ड की राजनीति में भाजपा ने पीढ़ीगत बदलाव का स्पष्ट मन बना लिया है। पुराने दिग्गजों की विदाई और युवा नेतृत्व ही भाजपा का भविष्य है। युवा चेहरे के रूप में छियालीस वर्षीय धामी का नाम जब मुख्यमंत्री के रूप में सामने आया तो राजनीतिक गलियारों में सवाल थे कि क्या एन चुनाव के वक्त अनुभवहीन व्यक्ति को राज्य की कमान सौंप भाजपा ने जोखिम तो नहीं लिया है? यही सवाल आज जवाब बनकर सामने है। ये जवाब उन तर्क देने वालों को भी है जो युवा राजनीतिज्ञों की काबिलियत पर सवाल उठाकर पुरानी पीढ़ी के नेताओं की पैरोकारी पर ज्यादा जोर देते हैं

उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद राज्य का नया मुख्यमंत्री चुनने के लिए चली लंबी जद्दोजहद के बीच उठने वाली चर्चाओं और अफवाहों के चलते लगने लगा था कि कहीं भाजपा का नेतृत्व कहीं अपनी पुरानी परंपराओं को तो नहीं दोहराने जा रहा? उत्तराखण्ड में पुराने नेताओं की फौज क्या पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को लीक से हटकर फैसला करने देगी? सवाल उठने लाजमी भी थे क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव का उदाहरण सबके सामने था। हालांकि 2017 के चुनावों में अजय भट्ट पार्टी का घोषित चेहरा नहीं थे लेकिन सत्तावन सीटों का प्रचंड बहुमत उनकी कप्तानी में ही भारतीय जनता पार्टी को मिला था, भले ही अजय भट्ट स्वयं चुनाव हार गये थे। अजय भट्ट को लेकिन तब भाजपा नेतृत्व ने मुख्यमंत्री पद के लिए आगे नहीं किया था। इसी प्रकार हिमांचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में प्रेम कुमार धूमल पार्टी का घोषित चेहरा थे लेकिन हिमाचल में भी भाजपा तो चुनाव जीत गई थी लेकिन धूमल अपना चुनाव हार गये थे। वहां पर भी भाजपा ने धूमल को मुख्यमंत्री पद से वंचित कर दिया था। पुराने अनुभवों को देखते हुए उत्तराखण्ड के सियासी हलकों में पुष्कर सिंह धामी की फिर से ताजपोशी पर संशय था। भाजपा की प्रचंड जीत के बावजूद पुष्कर सिंह धामी का खटीमा से चुनाव हार जाना भाजपा और खासकर धामी के लिए बड़ा झटका था। चुनाव परिणाम आने के बाद मुख्यमंत्री चुनने की कवायदों के बीच भले ही कई नाम उछले हों लेकिन लगता है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व शुरू से ही इस मामले में किसी भी प्रकार से संशय की स्थिति में नहीं था। पुष्कर सिंह धामी के नाम पर मुहर लगाकर भाजपा आलाकमान ने सारे राजनीतिक कयासों को तो खत्म किया ही साथ ही एक स्पष्ट संदेश दिया कि उत्तराखण्ड की राजनीति में भाजपा ने पीढ़ीगत बदलाव का स्पष्ट मन बना लिया है। पुराने दिग्गजों की विदाई और उत्तराखण्ड में युवा नेतृत्व ही भाजपा का भविष्य है।

इक्कीस वर्ष के युवा राज्य उत्तराखण्ड में युवा मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी की पुनः ताजपोशी राज्य की राजनीति में निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है, बशर्तें भाजपा, कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दल कोई राजनीतिक बेइमानी न करें। उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद चाहे वो अंतरिम सरकार रही हो या फिर चुनी हुई सरकारें राज्य का मुखिया युवा देने से सभी दलों ने परहेज किया था। नित्यानन्द स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी, भुवन चन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, विजय बहुगुणा, हरीश रावत, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत के नामों की लंबी सूची यही दर्शाती है। ‘युवा चेहरे के रूप में छियालीस वर्षीय पुष्कर सिंह धामी का नाम जब मुख्यमंत्री के रूप में सामने आया तो राजनीतिक गलियारों में सवाल थे कि क्या एन चुनाव के वक्त अनुभवहीन व्यक्ति को राज्य की कमान सौंप भाजपा ने जोखिम तो नहीं लिया है? यही सवाल आज जवाब बनकर सामने है। ये जवाब उन तर्क देने वालों को भी है जो युवा राजनीतिज्ञों की काबिलियत पर सवाल उठाकर पुरानी पीढ़ी के नेताओं की पैरोकारी पर ज्यादा जोर देते है। आरएसएस के स्वयं सेवी के रूप में अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने वाले पुष्कर सिंह धामी किसी राजनीतिक परिवार से ताल्लुक नहीं रखते हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता और वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की राजनीतिक पाठशाला में तपे पुष्कर सिंह धामी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भाजपा के युवा मोर्चा से लेकर प्रदेश के मुख्य संगठन में दायित्व संभाल चुके हैं। मार्च 2021 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की विदाई, फिर तीरथ सिंह रावत की ताजपोशी के बाद उनको हटाया जाना भाजपा के अंदर की घबराहट को दिखा रहा था। त्रिवेन्द्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत के कार्यकाल में संघ के कथित आंतरिक सर्वेक्षण में भारतीय जनता पार्टी की विधानसभा चुनावों में विदाई तय मानी जा रही थी। आज भले ही त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने चार साल के कथित विकास कार्यों को उत्तराखण्ड में भाजपा की वापसी का कारण मानते हों लेकिन उस वक्त धरातल पर कहानी ठीक विपरीत थी। पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाते समय भाजपा ने कई वरिष्ठ नेताओं की दावेदारी को नजरअंदाज कर दिया था। धामी ने अपने छह माह के कार्यकाल में जिस तेजी से काम किया उसने राज्य में भाजपा का ग्राफ तेजी से बढ़ा दिया। उनको अल्प समय में कांग्रेस की चुनौतियों से तो जूझना ही था साथ ही पार्टी के अंदर उन क्षत्रपों से भी निपटना था जो उनकी ताजपोशी से असहज महसूस कर रहे थे। पुष्कर सिंह धामी के सामने दो उदाहरण सामने थे। जब 2012 में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी और 2017 में अजय भट्ट भाजपा की विजय के बावजूद अपने विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी के आंतरिक षड्यंत्रों के चलते चुनाव हरवा दिये गये। दुर्भाग्यवश पुष्कर सिंह धामी भी उसी षड्यंत्र का शिकार बन गये। लेकिन उनको इस बात का श्रेय जाता है कि सियासी लड़ाई की गर्मागरमी में भी उन्होंने शालीनता और भद्रता बनाई रखी। उन्होंने दिखाया कि ‘शालीन राजनीति’ कोई विरोधाभासी शब्द नहीं है।

उत्तराखण्ड में अब जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में फिर से बन चुकी है तो एक राजनेता के रूप में पुष्कर सिंह धामी के सामने चुनौतियां भी है और अवसर भी। सवाल है कि वो इन चुनौतियों से किस तरह निपटेंगे और अवसरों को अपने पक्ष में कैसे तब्दील करेंगे? आज उत्तराखण्ड की राजनीति में चाहे वो भाजपा हो या कांग्रेस में या फिर क्षेत्रीय दलों में कोई ऐसा युवा चेहरा नजर नहीं आता जो प्रदेश की आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित करता हो। इतना ही नहीं नारायण दत्त तिवारी के जाने के बाद उत्तराखण्ड की राजनीति में भगत सिंह कोश्यारी और हरीश रावत के बाद ऐसा कोई चेहरा भी नजर नहीं आता जिसका समूचे उत्तराखण्ड के पहाड़ से लेकर मैदान तक जनाधार हो। भाजपा व कांग्रेस में नजर डालें तो रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत, मदन कौशिक, प्रीतम सिंह, अजय भट्ट का कद सीमित क्षेत्रों तक ही है भले ही वो खुद को प्रदेश स्तर पर सर्वमान्य होने का भ्रम पालते हों। आज उस राजनीतिक शून्य को भरने का अवसर पुष्कर सिंह धामी के सामने है। राजनीति में छियालीस वर्ष के राजनेता युवा की श्रेणी में ही आते हैं और इन्हीं अवसरों के जरिए अपने को स्थापित करने की चुनौती उनके सामने है। वो भले ही चुनाव हार गये हो लेकिन चुनाव में ‘अबकी बार, मोदी-धामी की सरकार’, ‘युवा सरकार’ जैसे नारों ने भाजपा के पक्ष में माहौल बनाया जिसमें पुष्कर सिंह धामी बड़े फैक्टर थे। मुख्यमंत्री चयन में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता, पार्टी से बाहर और जनता के बीच उत्तराखण्ड में लंबे समय बाद किसी के प्रति इतनी लामबंदी देखने को मिली। खासकर युवाओं के बीच जिस प्रकार पुष्कर सिंह धामी की लोकप्रियता है उससे लगता है कि पुराने चेहरों को जनता ने रूखसत करने का मन बना लिया है। चुनाव परिणाम के बाद जिस प्रकार युवाओं विशेषकर भाजपा के युवा कार्यकर्ताओं ने धामी के लिए माहौल बनाया उससे लगता है कि बुर्जुग चेहरों से निराश उत्तराखण्ड का युवा पुष्कर सिंह धामी में अपना अक्स देख रहा है और यहीं पर उनकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने के साथ धामी के सामने चुनौतियां शुरू हो जाती हैं। एक प्रदेश के सर्वमान्य नेता के रूप में खुद को स्थापित करने में पुष्कर सिंह धामी के सामने खुद की चुनौती, पार्टी के अंदर से चुनौतियां और राज्य की खस्ताहाल आर्थिकी जैसी चुनौतियां कम नहीं हैं। यदि वे अब राज्य में पैदा हो चुके दिग्गज राजनेताओं के शून्य को खत्म करने की इच्छा रखते है तो इसके लिए उस संयम की जरूरत होगी जिसने भगत सिंह कोश्यारी और हरीश रावत को राष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज पर पहुंचाया। सत्ता ऐसे तत्वों का घेरा भी अपने साथ लाती है जो व्यक्ति की बाहर झांकने की शक्ति क्षीण कर देता है। विधानसभा क्षेत्र खटीमा में अपनी पराजय का विश्लेषण जब पुष्कर सिंह धामी स्वयं करेंगे तो पायेंगे कि ऐसे तत्व भी उनकी पराजय में एक हद तक जिम्मेदार थे। अब उन्हें अपने आस-पास ऐसे तत्वों का जमावड़ा खत्म करना होगा क्योंकि पेड़ों तक को अच्छी शाख देने के लिए एक बार लॉपिंग की जरूरत होती है। 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके नेतृत्व की एक बार फिर से परीक्षा होगी। ऐसे में उन्हें अपनी पार्टी की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चुनौती होगी। भारतीय जनता पार्टी को भी उत्तराखण्ड की धरती पर उन प्रयोगों से बचना होगा जैसा पिछली सरकार में उसने तीन-तीन मुख्यमंत्री बदल कर किया था।

भाजपा जिस प्रकार अगले पच्चीस सालों का रोड मैप बनाकर राज्यों में युवा और मजबूत युवा क्षत्रपों को तैयार करने में जुटी है वो पुष्कर सिंह धामी जैसे युवा नेताओं को राज्य में अवसर देता है अपनी क्षमताओं को सिद्ध करने में शार्टकट का कोई स्थान नहीं होता। राजनीति के क्षेत्र में सूर्य बार-बार उदय नहीं होता और जो अवसरों का उपयोग कर जाते हैं उनके लिए राजनीति का फलक भी कम पड़ जाता है। आगे आने वाले पांच वर्ष उत्तराखण्ड की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण होंगे और महत्वपूर्ण होंगे पुष्कर सिंह धामी के लिए भी कि वो उत्तराखण्ड की राजनीति में भगत सिंह कोश्यारी, हरीश रावत सरीखे नेताओं के जैसा मुकाम पा पाते है या उन्हीं नेताओं की जमात में शामिल होते है जो चुनावी लहरों के सहारे अपना भाग्य लिखते हैं। क्योंकि आज भाजपा को ऐसे नेताओं की दरकार है जो अपने बूते पर भी चुनाव जिता पाने की क्षमता रखते हों। मुख्यमंत्री धामी को अपने राजनीतिक सफर में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की इस बात को ध्यान में जरूर रखना चाहिए कि ‘अपनी राजनीतिक क्षमताओं को अपनी लकीरों को लंबा करके सिद्ध कीजिए दूसरे की लकीर को मिटाकर अपनी लकीर लंबी दिखाना आपके राजनीतिक कौशल की कमजोरी का प्रतीक है।’

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