कभी कानपुर निवासी चंद्र भानु गुप्ता को अपना जनप्रतिनिधि चुनने वाली रानीखेत विधानसभा सीट में इस बार लड़ाई बाहरी बनाम स्थानीय के स्तर पर आ पहुंची है। 1962 में इसी सीट से उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सीएम चंद्र भानु गुप्ता ने जीत हासिल की थी। 1967 और 1969 के चुनाव भी उन्होंने इसी सीट से जीते थे। लेकिन अब 2022 के चुनाव से ठीक पहले कुछेक सम्भावित प्रत्याशियों के बाहरी होने को मुद्दा बनाया जाने लगा है। कांग्रेस से वर्तमान विधायक करन माहरा की दावेदारी तो निश्चित है, लेकिन उनका अपने जीजा और कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत के कांग्रेस भीतर विरोधी गुट की तरफ झुकाव जनता को अखर रहा है। माहरा के लिए संकट कभी अपने विश्वस्त रहे अतुल जोशी से भी है जो इस बार आम आदमी पार्टी के टिकट पर यहां से चुनावी ताल ठोकने जा रहे हैं। प्रत्याशियों के चयन को लेकर भाजपा में खासी मारामारी है। यहां से लगातार प्रत्याशी रहे अजय भट्ट अब नैनीताल से सांसद हैं। भाजपा से दावेदारों में पूर्व ब्लॉक प्रमुख धन सिंह रावत, कैलाश पंत, पूर्व केंद्रीय मंत्री बची सिंह रावत के पुत्र शशांक रावत और गोपाल उप्रेती तो हैं ही, भट्ट की पत्नी पुष्पा भट्ट भी प्रबल दावेदार बताई जा रही हैं। हल्द्वानी में जा बसे मजखाली के मूल निवासी महेंद्र अधिकारी भी यहां खासे सक्रिय हो चले हैं। सूत्रों की मानें तो इन सबसे इतर अजय भट्ट यहां से अपनी विश्वस्त नेता ज्योति साह मिश्रा को टिकट दिए जाने का मन बना चुके हैं। भाजपा की राह में एक बड़ा संकट प्रमोद नैनवाल की दावेदारी भी है। नैनवाल पिछले चुनाव में बागी प्रत्याशी बन भाजपा को खासा नुकसान पहुंचा चुके हैं
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद अब तक हुए चार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की सरकारें ही बनती रही हैं। 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, 2007 में भाजपा, 2012 में फिर कांग्रेस तो 2017 के चुनाव में भाजपा ने सरकार बनाई। रानीखेत विधानसभा सीट की बात कहें तो यहां के मतदाता ने उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से हमेशा सत्ता में आने वाली पार्टी के खिलाफ ही अपना विधायक चुना। सत्ता विरोधी सोच के चलते ही रानीखेत की जनता को अपना प्रतिनिधि मुख्यमंत्री या मंत्री के रूप में तो नहीं, नेता प्रतिपक्ष या उपनेता प्रतिपक्ष के रूप में जरूर मिला। नतीजा रानीखेत विधानसभा क्षेत्र की मूलभूत जरूरतें और विकास की योजनाएं राजनीतिक दलों के पाले में गेंद की तरह इधर से उधर होती रहीं, मगर परिणाम हर दृष्टि से शून्य रहा। चाहे फिर वो सरकारें कांग्रेस की रही हों या भाजपा की। कोई भी चुना हुआ जनप्रतिनिधि रानीखेत को अपने राजनीतिक चश्मे और निजी नफे-नुकसान से ऊपर नहीं देख पाया। जो दरियादिली 1952 के विधानसभा चुनाव से आज तक जनप्रतिनिधि चुनने में रानीखेत के मतदाताओं ने दिखाई वो व्यापक दृष्टि राजनीतिक दल और उनके चुने गए प्रतिनिधि नहीं दिखा पाए। जनप्रतिनिधियों के दायित्व और महत्वाकांक्षाओं का तो विस्तार होता गया, मगर रानीखेत के प्रति उनके विकास की सोच अपने व्यक्तिगत अहंकार के दायरों या खास व्यक्तियों के दायरों के अंदर सिकुड़ती चली गईं। जिसका खामियाजा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत आज भी भुगत रहे हैं और भाजपा नेता अजय भट्ट ने 2017 के विधानसभा चुनाव में भुगता, जब उनके सीमित दायरे में उभारे गए व्यक्ति उनकी पराजय का कारण बने।
2022 के विधानसभा चुनाव में महज छह माह का समय बाकी है, लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि क्या रानीखेत का मतदाता हर पांच साल के बाद अपना प्रतिनिधि बदलने और सत्ता विरोधी मतदान करने की मानसिकता को कायम रखेगा या फिर राज्य बनने के बाद से चले आ रहे मिथक को तोड़ेगा। 1947 में हिंदुस्तान आजाद होने के बाद 1952 में हुए उत्तर प्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव में रानीखेत दक्षिण के नाम से जानी जाने वाली विधानसभा सीट पर हरगोविंद पंत विजयी हुए थे। उत्तर प्रदेश के समय रानीखेत विधानसभा क्षेत्र काफी बड़ा हुआ करता था। आज के विधानसभा क्षेत्र का बड़ा हिस्सा रानीखेत दक्षिण विधानसभा क्षेत्र में आता था। 1957 के विधानसभा चुनाव में लक्ष्मण सिंह अधिकारी विधायक चुने गए थे। आजकल रानीखेत में अंदरूनी और बाहरी के आरोप-प्रत्यारोप काफी गूंज रहे हैं। लेकिन रानीखेत के मतदाता ने शुरुआत से ही अंदरूनी-बाहरी की बहस को तवज्जो न देते हुए बाहरी प्रत्याशियों के लिए दरियादिली दिखाई है, वरना मैदानी क्षेत्र के रहने वाले चंद्रभानु गुप्त को रानीखेत की जनता ने 1959 में अपना विधायक नहीं चुना होता। दरअसल, चंद्रभानु गुप्त के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री मनोनीत होने के बाद रानीखेत दक्षिण से 1957 में चुने गए लक्ष्मण सिंह अधिकारी ने उनके लिए अपनी सीट छोड़ दी थी। 1959 में हुए उपचुनाव में यहां से चंद्रभानु गुप्त विधानसभा के लिए चुने गए। इसके बाद 1962, 1967 और 1969 में चंद्रभानु गुप्त लगातार तीन बार यहां से विधायक चुने गए।
1967 के विधानसभा चुनाव में चंद्रभानु गुप्त ने गोविंद सिंह माहरा को मात्र 49 मतों से पराजित किया। कहा जाता है कि अगर मतगणना में कथित धांधली नहीं हुई होती तो चंद्रभानु गुप्त की पराजय निश्चित थी। क्योंकि ये चुनाव गोविंद सिंह माहरा ने पृथक पर्वतीय राज्य के मुद्दे पर लड़ा था इसलिए पृथक पर्वतीय राज्य की आवाज के मुद्दे पर ये चुनाव मील का पत्थर साबित हुआ। इसके बाद 1974 और 1977 में गोविंद सिंह माहरा, 1980 में उत्तराखण्ड क्रांति दल के जसवंत सिंह, 1984 में कांग्रेस के पूरन सिंह माहरा, 1989 में जसवंत सिंह, 1991 और 1993 में बची सिंह रावत, 1996 में अजय भट्ट इस सीट से चुने गए। 2000 में उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के पश्चात हुए परिसीमन में रानीखेत सीट तीन हिस्सों में बंट गई जिससे रानीखेत, सल्ट और भिक्यासैंण सीटें बनी। उसके बाद 2008 में नए परिसीमन के बाद भिक्यासैंण विधानसभा क्षेत्र का अस्तित्व खत्म हो गया। उसके विघटन के पश्चात उस सीट का कुछ हिस्सा सल्ट विधानसभा सीट और कुछ हिस्सा रानीखेत विधानसभा सीट से जुड़ गया। 2002 में अजय भट्ट, 2007 में करन माहरा, 2012 में अजय भट्ट और 2017 में करन माहरा रानीखेत से विधायक चुने गए।
अब जबकि 2022 का विधानसभा चुनाव नजदीक है तब बढ़ती राजनीतिक सरगर्मियों के बीच दावेदारों ने अपनी गोटियां बैठानी शुरू कर दी हैं। जिस प्रकार 2017 के विधानसभा चुनाव में नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट के लिए चक्रव्यूह रचा गया था उसी प्रकार इस बार उपनेता प्रतिपक्ष करन माहरा विपक्षी दलों के निशाने पर होंगे। जहां तक कांग्रेस से दावेदारी का प्रश्न है तो कांग्रेस से करन माहरा की दावेदारी निर्विवाद है। वे सीटिंग विधायक होने के साथ ही उपनेता प्रतिपक्ष भी हैं। उनके कद का नेता भी कांग्रेस में रानीखेत विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत नहीं है जो उनकी दावेदारी पर चुनौती पेश कर सके। राज्य आंदोलनकारी रहे करन माहरा पहाड़ की राजनीति में बड़े नाम रहे गोविंद सिंह माहरा के पुत्र और कांग्रेस से विधायक रहे पूरन सिंह माहरा के छोटे भाई हैं और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के साले हैं। राजनीति को विरासत में पाने वाले करन माहरा अपने पिता एवं भाई की विरासत के स्वाभाविक वारिस हैं। राज्य आंदोलन में जेल गए करन माहरा ने राज्य आंदोलनकारी का दर्जा स्वयं के लिए कभी नहीं मांगा। 1996 के विधानसभा चुनाव में रानीखेत से कांग्रेस प्रत्याशी रमेश चंद्र बिष्ट के खिलाफ उत्तराखण्ड क्रांति दल के प्रताप बिष्ट के साथ उत्तराखण्ड क्रांति दल की राजनीति करने वाले करन माहरा 2002 में ताड़ीखेत विकास खण्ड के ब्लॉक प्रमुख चुने गए।
कभी अजय भट्ट को अपना राजनीतिक गुरु मानने वाले करन माहरा ने 2007 और 2017 में अजय भट्ट को मात दी थी। अपनी इस राजनीतिक यात्रा में उन्होंने कई राजनीतिक मित्रों को खोया है तो कई नए मित्र तलाशे भी हैं। बताते हैं कि कांग्रेस की गुटीय राजनीति में उनका झुकाव प्रीतम खेमे की ओर है। उनके समर्थक मानते हैं कि नेता प्रतिपक्ष चुनते समय हरीश रावत ने करन माहरा का वो साथ नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था। नेता प्रतिपक्ष का कार्यभार संभालते वक्त नए नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह ने करन माहरा को इंगित कर कहा था कि जिस कुर्सी पर आपको बैठना था उस पर मुझे बैठना पड़ रहा है। फिर भी कांग्रेस की आंतरिक राजनीति कुछ भी हो रानीखेत विधानसभा क्षेत्र से करन माहरा के सामने पार्टी के अंदर से कोई चुनौती नहीं है।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है पिछले चुनाव में अजय भट्ट की पराजय के बाद रानीखेत भाजपा में जो राजनीतिक शून्य पैदा हो गया था उसे भरने की कोशिश अभी पूरी नहीं हो पाई है। दूसरी पांत का नेतृत्व न उभरने के चलते भाजपा में जो खालीपन पैदा हुआ है उसे भरने के लिए नामों की लंबी फेहरिस्त सामने आ रही है। इनमें एक नाम तेजी से उभर कर सामने आया है वो है महेंद्र अधिकारी का। उनका रानीखेत के राजनीतिक परिदृश्य में अचानक आना भाजपा ही नहीं कांग्रेस के अंदर भी कई चिंता की लकीरें खड़ी कर गया है। हल्द्वानी नगर पालिका के वरिष्ठ उपाध्यक्ष रहे महेंद्र अधिकारी की पत्नी रेनू अधिकारी हल्द्वानी नगर पालिका की अध्यक्ष रह चुकी हैं।
2012 में कांग्रेस से भाजपा में आई रेनू अधिकारी हल्द्वानी से 2012 का चुनाव इंदिरा हृदयेश के खिलाफ भाजपा से लड़ चुकी हैं। त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्रित्वकाल में कुमाऊं मडल विकास निगम की उपाध्यक्ष रह चुकी हैं। रानीखेत तहसील के मजखाली के रहने वाले महेंद्र अधिकारी अपने बाहरी होने की चर्चाओं पर बहस को बेमानी कहते हुए सवाल पूछते हैं कि जो इटली वालों को बाहरी नहीं मानते वो मेरे बाहरी होने पर सवाल किस मुंह से उठा रहे हैं, जबकि मेरा तो पैतृक स्थल ही रानीखेत तहसील है। महेंद्र अधिकारी का रानीखेत विधानसभा क्षेत्र में यूं सक्रिय होना कइयों के लिए परेशानी का सबब बन गया है। हालांकि वे अपनी मजबूत दावेदारी पर कहीं भी संशय में नहीं हैं। भाजपा से दूसरे महत्वपूर्ण दावेदार पूर्व ब्लॉक प्रमुख और वर्तमान में जिला पंचायत सदस्य धन सिंह रावत हैं। उत्तराखण्ड क्रांति दल से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करने वाले धन सिंह रावत कभी करन माहरा और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के खास लोगों में शुमार होते थे। उक्रांद, कांग्रेस की राजनीति करने के बाद लंबे समय से भाजपा में सक्रिय हैं। सघन क्षेत्र भ्रमण से वे क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत होने का दावा कर रहे हैं। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में उनके और अजय भट्ट के बीच विश्वास में कमी आई है। इसमें संदेह है कि प्रत्याशी चयन के बीच अजय भट्ट उनके पक्ष में खड़े होंगे। इसके बावजूद उनकी दावेदारी मजबूत है।
लंबे समय तक संगठन मंत्री रहे, त्रिवेंद्र सरकार में राज्यमंत्री रहे और नए सीएम पुष्कर सिंह धामी के करीबी कैलाश पंत भी अपनी दावेदारी मजबूती के साथ पेश कर रहे हैं। लंबे समय से रानीखेत विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय कैलाश पंत अक्सर रानीखेत क्षेत्र की समस्याओं के निराकरण के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के साथ नजर आते हैं। बंशीधर भगत के अध्यक्ष बनते समय उन्होंने भी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की दावेदारी की थी, परंतु भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने बंशीधर भगत को तरजीह दी थी। ठाकुर-ब्राह्मण संतुलन साधने को अगर भाजपा तरजीह नहीं देती है तो ब्राह्मण होने के नाते कैलाश पंत की दावेदारी खासी मजबूत हो सकती है। भाजपा के वर्तमान संगठन मंत्री अजेय कुमार के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में साथ कार्य कर चुके कैलाश पंत को संगठन का भले ही अनुभव हो, लेकिन सीधे जनता के बीच चुनाव लड़ने का अनुभव न होना उनके आड़े आ सकता है। रानीखेत से विधायक और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में राज्यमंत्री रहे बची सिंह रावत के पुत्र शशांक रावत भाजपा की उस नौजवान पीढ़ी से हैं जो पार्टी नेतृत्व द्वारा युवाओं को तरजीह देने से उत्साहित है। अपने पिता स्वर्गीय बची सिंह रावत की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने को इच्छुक शशांक रावत रानीखेत विधानसभा क्षेत्र में अपनी पहचान और भाजपा से दावेदारी के लिए सक्रिय हैं।
भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश संयोजक शशांक रावत कहते हैं कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने जिस प्रकार अचानक पीढ़ीगत बदलाव की ओर ध्यान दिया है उसमें हम जैसे युवा अपने लिए संभावनाएं जरूर देखते हैं। पिछले करीब दस सालों से किसानों के हितों के लिए कार्य कर रहे गोपाल दत्त उप्रेती भी भाजपा से टिकट के दावेदारों में है। गरीब किसानों को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने वाले गोपाल उप्रेती सेब की बागवानी को बढ़ाने के लिए किसानों को प्रतिवर्ष हिमाचल से मंगाकर मुफ्त पौधे बांटते हैं। किसानों को जैविक खेती कैसे बेहतर बनाएं और जागरूकता के लिए कार्यक्रम करते हैं। उत्तराखण्ड में उनका पहला जैविक सेब का बगीचा है। गोपाल उप्रेती 1991 से भाजपा के लिए कार्य कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किसानों की आय दोगुनी करने के सपनों को पूरा करने के उद्देश्य से वे जैविक उत्पादों के प्रमाणीकरण पर जोर देते हैं। अपनी धनिये की पौध से ‘गिनीज बुक ऑफ द वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में नाम दर्ज कराने वाले गोपाल उप्रेती किसानों के मुद्दे को प्रदेश स्तर तक पहुंचाने के लिए जनप्रतिनिधि के रूप में किसानों की आवाज बनना चाहते हैं। राज्य महिला आयोग की वरिष्ठ उपाध्यक्ष ज्योति साह मिश्रा का नाम उन महिला दावेदारों में है जिन्हें रक्षा एवं पर्यटन राज्यमंत्री अजय भट्ट के नजदीकी लोगों में शुमार किया जाता है।
महिला आयोग की उपाध्यक्ष के रूप में जिस प्रकार उन्होंने पीड़ितों के बीच जाकर अपनी सक्रियता को दर्शाया है उसने पार्टी नेतृत्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। एक नाम जो संभवतः चुनाव से पहले छुपा रूस्तम साबित हो सकता है वो है पुष्पा भट्ट। रक्षा एवं पर्यटन राज्यमंत्री अजय भट्ट की पत्नी पुष्पा भट्ट रानीखेत की राजनीति एवं कार्यकर्ताओं से पूरी तरह परिचित हैं। पेशे से वकील पुष्पा भट्ट भाजपा के अन्य दावेदारों के बीच मारामारी के चलते सशक्त दावेदार के रूप में उभर कर अचानक सामने आ जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी में दावेदारों की लम्बी-चौड़ी सूची खुद भाजपा के लिए चुनौती है जिसे समेटना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा, मगर इतना तय है कि अजय भट्ट की सहमति के बिना इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी का चयन नहीं करेगी।
भाजपा के कई पदों पर रह चुके प्रमोद नैनवाल 2017 के विधानसभा चुनाव में रानीखेत से पार्टी के टिकट पर दावेदारी कर रहे थे। लेकिन प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट के कद को देखते हुए पार्टी ने उन्हें ही यहां से अपना प्रत्याशी बनाया था। जिसके बाद प्रमोद नैनवाल ने पार्टी छोड़कर निर्दलीय चुनाव लड़ा था। प्रमोद नैनवाल को इस चुनाव में 5000 वोट मिले थे। तब भाजपा उम्मीदवार अजय भट्ट और निर्दलीय प्रत्याशी प्रमोद नैनवाल दोनों को हार का सामना करना पड़ा था और कांग्रेस के करन माहरा ने इस सीट पर जीत हासिल कर ली थी। इसके बाद लोकसभा चुनाव से ऐन पहले भाजपा ने अपनी रणनीति के तहत प्रमोद नैनवाल को फिर पार्टी में वापस ले लिया था। प्रमोद नैनवाल की वापसी के पीछे सांसद अजय टम्टा का हाथ बताया गया। हालांकि तब रानीखेत के भाजपा नेताओं ने इसका विरोध किया था। इसके महज छह माह बाद ही जब पंचायत चुनाव हुए तो उसमें बेतालघाट से नैनवाल ने अपनी बहन आनंदी देवी को भाजपा की अधिकृत प्रत्याशी भावना के सामने खडा कर दिया। जिसमें भाजपा की उम्मीदवार को हार का स्वाद चखना पडा था।
इस चुनाव में नैनवाल की बहन विजयी हुई थी। इसके बाद एक बार फिर नैनवाल को पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में भाजपा से बाहर कर दिया गया। प्रमोद नैनवाल एक बार फिर रानीखेत से 2022 में विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। वह दावा कर रहे हैं कि अजय भट्ट के बाद भाजपा उन्हें यहा से अपना प्रत्याशी बनाएगी। लेकिन दूसरी तरफ भाजपा के रानीखेत के नेता नैनवाल का विरोध कर रहे हैं। हालांकि भाजपा के ही कुछ नेता नैनवाल के समर्थन में बताए जा रहे हैं। नैनवाल फिलहाल भाजपा में हैं या नहीं, यह सवाल जब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें अध्यक्ष बने अभी बहुत कम समय हुआ है। वह अभी स्पष्ट नहीं बता पायेंगे कि नैनवाल भाजपा के नेता हैं या नहीं। कौशिक नैनवाल की पार्टी सदस्यता पर भी कुछ साफ नहीं कर सके। भाजपा-कांग्रेस के इतर बात करें तो कभी उत्तराखण्ड क्रांति दल का गढ़ रहे रानीखेत में उक्रांद आज दमदार स्थिति में नहीं है।
2002 के चुनाव में उक्रांद से चुनाव लड़े नरेंद्र रौतेला जरूर उस वक्त उक्रांद को चर्चा में लाए थे, लेकिन वो खुद आज भाजपा में सक्रिय हैं। बहुजन समाज पार्टी से पूरन सिंह डंगवाल ने जरूर बसपा को यहां सक्रिय किया था, लेकिन उनकी मृत्यु पश्चात बसपा के प्रतिबद्ध नेताओं के पार्टी छोड़ देने से बसपा कमजोर हुई है। आम आदमी पार्टी यहां जरूर चुनौती पेश करेगी और उसका बढ़ता ग्राफ किसे नुकसान पहुंचाएगा ये आने वाला वक्त बताएगा। करन माहरा के राजनीतिक सफर के साथी रहे पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष अतुल जोशी कांग्रेस छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए हैं। आम आदमी पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष अतुल जोशी कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता रह चुके हैं। आने वाले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की तरफ से अतुल जोशी सशक्त दावेदार हैं।
विधानसभा चुनाव के नजदीक आते-आते कई नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे, कई उलट- फेर होंगे। अभी से जिस प्रकार तीखे शब्दों का इस्तेमाल रानीखेत की हवाओं में गूंजने लगा है उससे अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि भविष्य में यहां का चुनावी माहौल कैसा रहेगा क्योंकि अब न गांधीवादी माने जाने वाले जसवंत सिंह बिष्ट रहे, न ही अब गोविंद सिंह माहरा, पूरन सिंह माहरा और बची सिंह रावत जैसी शख्सियतें रहीं जिनके लिए चुनाव व्यवहारिक संबंधों से बढ़कर कभी नहीं रहे।
किसानों का उत्थान एवं आमदनी बढ़ाना मेरे मूल मुद्दे हैं जिन्हें मैं प्रदेश स्तर पर उठाना चाहता हूं। भाजपा का कार्यकर्ता होने के नाते मैंने भी पार्टी से टिकट की इच्छा जताई है। किसान हित के मुद्दे मैं प्रदेश स्तर पर ला सकूं यही मेरा मूल उद्देश्य है जिसके लिए मैंने पार्टी से टिकट की दावेदारी की है। पार्टी का जो भी निर्णय होगा वो मेरे
लिए मान्य होगा।
गोपाल उप्रेती, प्रगतिशील किसान एवं भाजपा नेता
जिस प्रकार मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा ने युवाओं को बढ़ाने का काम किया है खासकर उत्तराखण्ड में पुष्कर सिंह धामी को राज्य का नेतृत्व सौंपकर युवाओं के लिए बड़ा संदेश दिया है, वह उत्साहजनक है। मेरे पिता बची सिंह रावत का रानीखेत ही राजनीतिक कर्मक्षेत्र रहा है। उनकी राजनीतिक विरासत को सम्भालने के लिए पार्टी से टिकट की दावेदारी करूंगा।
शशांक रावत, राज्य संयोजक भाजयुमो
भारतीय जनता पार्टी मेरे लिए ‘मां’ समान है। पार्टी नेतृत्व मुझे जैसा निर्देश देगा उस पर अमल करूंगा। पार्टी अगर मुझे रानीखेत विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाती है, तो मैं पार्टी की अपेक्षाओं पर खरा उतरूंगा और पार्टी की जीत सुनिश्चित कर दिखाऊंगा।
कैलाश पंत, पूर्व संगठन मंत्री भाजपा
विपक्ष के पास और तो कोई मुद्दा नहीं है वह यह अफवाह फैलाने में लगे हैं कि मेरे और हरीश रावत जी के बीच पहले जैसे संबंध नहीं हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। हमारी पार्टी में मेरे सबसे अच्छे संबंध हैं। फिर रावत जी तो मेेरे रिश्तेदार भी हैं और हमारी पार्टी के सबसे सीनियर लीडर हैं। मैं उनसे अलग कैसे चल सकता हूं। कोई भी प्रकरण हो मैं बराबर उनसे सलाह लेता रहा हूं। देा दिन परिवर्तन यात्रा में भी उनके साथ रहा। रही बात पार्टी की दावेदारी की, रानीखेत से भाजपा के एक नेता ने सभी को टिकट का आश्वसन देकर उन्हें यहां भेज दिया है। फिलहाल भाजपा से चुनाव लड़ने वाले 14 दावेदार हैं। लेकिन हमारी पार्टी में ऐसा कुछ नहीं है। खासकर रानीखेत विधानसभा क्षेत्र में। हालांकि मेरे अलावा और भी कोई पार्टी से दावेदार हो सकता है। यह पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं का अधिकार है। मेरे मित्र अतुल जोशी पार्टी छोड़कर आप में चले गए। जब परिवार का कोई सदस्य पार्टी छोड़कर जाता है तो फर्क पड़ता ही है।
करन माहरा, विधायक रानीखेत
मुझे राजनीति विरासत में नहीं मिली है। नौकरी-पेशे वाले परिवार से हूं और अपने संघर्षों से इस मुकाम तक पहुंचा हूं। किसी के नाम के सहारे राजनीति में पोषित नहीं हुआ हूं। विश्वास कीजिए आम आदमी पार्टी रानीखेत विधानसभा क्षेत्र ही नहीं पूरे उत्तराखण्ड में बड़ा उलटफेर करेगी।
अतुल जोशी, प्रदेश उपाध्यक्ष आम आदमी पार्टी
मेरी रानीखेत विधानसभा क्षेत्र के लिए भाजपा से दावेदारी है। जमीनी स्तर पर काम कर रहा हूं। मैं तो रानीखेत तहसील के मजखाली क्षेत्र का निवासी हूं जो मेरे बाहरी होने की बात कर रहे हैं उनके लिए अगर इटली से आकर चुनाव लड़ने वाले बाहरी नहीं हैं तो मैं कैसे बाहरी हूं। चुनाव मुद्दों पर लड़ा जाना चाहिए, व्यक्तिगत आक्षेपों पर नहीं।
महेंद्र सिंह अधिकारी, भाजपा नेता
उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारी हूं। राज्य आंदोलन में बारह बार जेल भी गया। भारतीय जनता पार्टी से विधानसभा चुनाव में मेरी मजबूत दावेदारी है। ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य के रूप में पूरे क्षेत्र की जनता से व्यापक संपर्क रहा है। छात्र राजनीति से निकलकर आया हूं। युवाओं का भारी समर्थन मेरे साथ है।
धन सिंह रावत, जिला पंचायत सदस्य
मैं संवैधानिक पद पर हूं इसलिए मेरा कुछ कहना उचित नहीं होगा। रानीखेत से कौन प्रत्याशी होगा ये तय करना भाजपा नेतृत्व का काम है।
ज्योति साह मिश्रा, उपाध्यक्ष राज्य महिला आयोग