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Uttarakhand

तस्वीर तो बदली मगर तकदीर नहीं

तस्वीर तो बदली मगर तकदीर नहीं

चंपावत को जिला बने 23 साल हो चुके हैं। इस दौरान चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने जनता को विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए। लेकिन आज भी इस सीमांत जनपद के लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। नया साल नई उम्मीदों के साथ दस्तक दे चुका है। विकास की दृष्टि से आकलन करने पर सब कुछ आधा-अधूरा अपने पुराने स्वरूप के साथ ही मौजूद दिखता है।

पूर्व में विकास को गति देने के लिए जिले के रूप में जो प्रशासनिक इकाइयां गठित की गई थी वह कितनी कामयाब हो पाई, इसकी असल तस्वीर नेपाल सीमा से लगे चंपावत जनपद से समझी जा सकती है। आज से 23 वर्ष पूर्व 1997 में जब यह जनपद सृजित हुआ तो लोगों को उम्मीद थी कि आने वाले कुछ सालों में विकास की दृष्टि से यह अग्रणी जिलों में शामिल होगा। लेकिन साल दर साल बीतते गये और उम्मीदों पर कोहरा छाया रहा।

नए साल 2020 में भी लोगों को उम्मीद है कि उन्हें हवाई सेवा मिले। इसके लिए हैलीपैड का निर्माण होगा। जिला अस्पताल को बेस अस्पताल बनाकर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होगा। विद्युत से वंचित तोकों में विद्युतीकरण होगा। ऑल वेदर रोड का निर्माण शीघ्र संपन्न होगा। मां पूर्णागिरी धाम में रोपवे लगेगा। खेल स्टेडियम का निर्माण शीघ्र होगा। जनपद के नेपाल सीमा से जुड़े गांव विकास की मुख्य धारा से जुड़ेंगे।

स्थानीय उत्पादों को नई पहचान मिलेगी और जनपद पर्यटन विकास में आगे बढ़ेगा। जिले की शान देवीधुरा मंदिर का न सिर्फ सौंदर्यीकरण होगा, बल्कि यह भारत स्वदेश योजना के तहत शिवा हेरिटेज सर्किट से भी जुड़ेगा। जिला जेल का निर्माण शीघ्र होगा तो वहीं गौड़ी व गंडक नदियां जो पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं उनकी अविरलता वापस लौटेगी।

यही नहीं राजीव गांधी नवोदय विद्यालय, देवीधुरा में बनने वाला खुशीराम स्मारक, आइटीआई चंपावत, दिगालीचौड, मंच के भवन के साथ ही राजकीय पॉलीटेक्निक चंपावत में भवनों का निर्माण, लोहाघाट में छमनिया स्टेडियम, जिला चिकित्सालय के आवासीय भवन, डिग्री कॉलेज अमोड़ी का भवन, कोलीढेक झील का निर्माण जो बजट की कमी से रुके पड़े हैं, वह भी समय पर पूरे होंगे। यह सब वह उम्मीदें हैं जो साल दर साल आगे खिसकती रही हैं।

अब जरा नजर डालते हैं विकास की उस तस्वीर पर जो हवा में तो है, लेकिन जमीन पर नदारद दिखती है। जनपद के 40 से अधिक ग्राम पंचायतों व 97 राजस्व गांवों वाले गुमदेश क्षेत्र की बीस हजार से अधिक की आबादी आज भी विकास की रोशनी से वंचित है। इस क्षेत्र के चौपता, बसकूनी, जाख, जिंदी, खटकूनी, कोटला, गरम, मोड़ा, मड़ थाइकोट सहित एक दर्जन से अधिक गांव सड़क मार्ग से वंचित हैं।

वहीं नवीनपुल्ला, मड़या, गैड़ा कोटला सहित कई गांवों को बिजली की दरकार है। यहां एक उप प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक उपलब्ध नहीं है। एक दर्द निवारक गोली के लिए भी लोगों को 18 किमी. से अधिक दूरी तय करनी पड़ती है। इस क्षेत्र में मशहूर क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धौनी का पैतृक गांव चमदेवल भी आता है। अन्य गांवों की तरह धौनी के इस पैतृक गांव को भी विकास की दरकार है।

यही हाल जनपद के तल्ला देश का भी है। क्षेत्र के लोग कई बार महापंचायत के जरिए जनआंदोलन भी कर चुके हैं। 24 ग्राम पंचायतों वाले तल्ला देश में 30 हजार से भी अधिक की आबादी निवास करती है। लेकिन पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क जैसी मूलभूत बुनियादी सुविधाएं यहां नहीं पहुंच पाई। जनपद में पेयजल की समस्या सदाबहार बनी हुई है। नगर के लिए 1975 में बनीं फोर्ती पेयजल योजना, चौड़ी पंपिंग योजना, वनस्वाड पेयजल योजना, ऋषश्वर मिनी ट्यूवेल योजनाएं अब दम तोड़ने लगी हैं।

जिला मुख्यालय चंपावत में चौड़देव गधेरा, ठुम गधेरा, सैंण गधेरा, रौखेत, ललुवापानी, छिड़ापानी, च्यूराखर्क, दुग्धरी जल स्रातों से पानी की सप्लाई होती है। जिला मुख्यालय को 1.7 एमलडी पानी की जरूरत है, लेकिन पूर्ति 0.7 एमएलडी ही हो पाती है। क्वैराला घाटी पंपिंग योजना, कोलीढेक, चमगाड़ लिफ्रिटंग योजनाएं वर्षों से अधर में लटकी पड़ी हुई हैं। बजट के अभाव में नाकोट कांडे, पुनावे, सकदेना, पाटन, कोयाटी, लिसाड़ी, भैंसर्क, सील, डुंगराबोरा, कोटसारी, बस्तिया, रायल, बंदेलाढेक, गुरूखोलगूंठ, धैन, कोट अमोड़ी, सिन्याड़ी, स्वाला की कई पेयजल योजनायें लटकी पड़ी हुई हैं।

  • आज से 23 वर्ष पहले सृजित हुआ था जनपद चंपावत 24 ग्राम पंचायतों वाले तल्ला क्षेत्र की तीस हजार से भी अधिक आबादी पानी, स्वास्थ्य, शिरक्षा, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित जनपद में पेयजल की समस्या सदाबाहार। बजट के अभाव में वर्षों से अधर में क्वैला घाटी पंपिंग योजना जिला अस्पताल में चिकित्साकों के लिए बने भवन खंडहरों में तब्दील चंपावत जनपद मूंगफली उत्पाद के लिए प्रसिद्ध है।
  • लेकिन जंगली जानवरों के चलते खेती से दूरी बना रहे हैं काश्तकार पशु चिकित्सकों की तैनाती तो छोड़िए अब पशु चिकित्सालय के भवन भी खंडहर में तब्दीलजनपद मूंगफली उत्पादन के लिए काफी प्रसिद्ध रहा है, लेकिन जंगली जानवरों के चलते काश्तकारों ने अब इसकी खेती से दूरी बनानी शुरू कर दी है।
  • एक समय था जब क्षेत्र के डुंगराकोट, कोटना, कांडे, भुईयां, नैलोड़ी, कानीकोट, मूलाकोट, चौड़ासौन, मज्याप में मूंगपफली का भरपूर उत्पादन होता था। कई काश्तकार परिवारों की आजीविका इससे जुड़ी थी। स्वाद के चलते तराई के व्यापारी मूंगफली खरीदने यहां आते थे। यह पूरा जिला सब्जी व फल पट्टी के लिए विख्यात रहा है। जिले में 7574 हेक्टेयर में 12315 मीट्रिक टन फल होते हैं। एक दशक पूर्व तक यहां सेब के काफी बागान थे। खेतीखान के सेब की मैदानी क्षेत्रों में अच्छी खासी मांग थी।
  • सेब के साथ ही नाशपाती, आडू, पुलम, खुमानी, आम, लीवी, नीबू आदि का उत्पादन होता है। जिले में 320 हेक्टेयर क्षेत्रफल में सेब के बागान स्थित हैं। इसमें करीब 300 से अधिक मीट्रिक टन पैदावार होती है। किसी समय में यहां 619 हेक्टेयर में सेब के बागान थे। 982 हेक्टेयर में नाशपाती की खेती होती थी वहां अब घटकर 982 हेक्टेयर हो गयी है।
  • गडेरी उत्पादन के लिए भी यह क्षेत्र प्रसिद्व रहा है। फलोत्पादन की तमाम संभावनाओं के बाद भी इसमें काम नहीं हो पाया। फलों के उत्पादन के चलते ही टनकपुर-चंपावत हाइवे पर स्थित सूखीढांग क्षेत्र के अचार की मांग पर्वतीय व मैदानी क्षेत्रों में काफी रही है। आम, बांस, अदरक, मिर्च कचनार, नींबू, लहसुन, कटहल, आंवला आदि की काफी मांग है। जनपद का बाराकोट क्षेत्र पशुपालन के लिए जाना जाता है। यहां पशु चिकित्सालयों के हालत बदतर हैं। जिससे पशुपालकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
  • बाराकोट के इजड़ा में स्थिति पशु चिकित्सालय डाक्टर की कमी को रोते रहे हैं। पशुधन प्रसार केंद्र से इसे पशु चिकित्सालय बना दिया, लेकिन चिकित्सक तीन हजार से अधिक की आबादी में अधिकांश परिवारों ने गाय, भैंस, बकरियां पाली हुई हैं। यही इनकी आजीविका का साधन भी है। पशु चिकित्सकों की तैनाती तो छोड़िए अब इस पशु चिकित्सालय के भवन भी खंडहर में तब्दील हो गए हैं। लघियाघाटी स्थित पशु प्रसार केंद्र का संचालन न होने से कई दुधारू पशुओं की समय पर इलाज न मिलने से मौत हो जाती है। रीठा साहिब व भिंगराड़ा में पशुधन प्रसार केंद्र हैं लेकिन पशु प्रसार अधिकारी नहीं है। जिले के 14 पशु अस्पतालों में से 9 में फार्मासिस्ट नहीं हैं।

यही हाल जड़ी-बूटी कृषिकरण का भी हैं। जनपद के 18 हजार से अधिक काश्तकार 40 नाली जमीन में जड़ी-बूटी की खेती कर रहे है। जड़ी-बूटी कार्यालय का हाल यह है कि इसमें 158 पद सृजित है लेकिन तैनाती महज 57 की है। हर्बल स्टेट की परिकल्पना यहां दम तोड़ रही है। पर्यटन की दृष्टि से कितना विकास इुआ है इसकी बानगी देखनी हो तो बाणासुर का किला इसकी पोल पट्टी खोल देता है। जनपद के लोहाघाट के विशुंग क्षेत्र में समुद्र तल से 1859 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है बाणासुर का किला। पहाड़ी शैली में निर्मित इस किले में पत्थरों का उपयोग किया गया है।

किले में पानी व सड़क की व्यवस्था नहीं होने से पर्यटक यहां नहीं पहुंच पाते हैं। जबकि स्थानीय जनता की लंबे समय से मांग रही है कि किले तक पहुंचने वाले रास्तों को बेहतर बनाकर इसमें रेलिंग का निर्माण किया जाय। सोलर लाइटें लगाई जाएं। रास्ते में रेस्ट प्वांइट बनाएं जाएं और उपर पानी की व्यवस्था की जाय। पूर्व में जिला पर्यटन विभाग चंपावत ने बाह्य सहायतित योजना के तहत इसका प्रस्ताव भी तैयार किया था, लेकिन वह भी फाइलों में कैद होकर रह गया। स्वामी विवेकानंद की याद में बना स्मृति स्तम्भ भी उपेक्षित है।

विकास के धन को किस तरह बर्बाद किया जाता है इसका नमूना है चिकित्सकों के लिए बने भवन जो अब खंडर में तब्दील हो चुके हैं। चंपावत में 180 लाख रुपया खर्च कर जिला अस्पताल के चिकित्सकों के लिए भवन बनाए गए, लेकिन वह उपयोग में नहीं लाए गए। जनपद के ग्राम सभा सुई के छमनियां चौड़ में 11 करोड़ की लागत से बनने वाले स्टेडियम वर्षों बाद भी आकार नहीं ले पाया है। आज से 23 साल पूर्व उत्तर प्रदेश के समय में पाटी में गैस गोदाम बनाया गया लेकिन वह आज तक संचालित नहीं हो पाया।

लोगों को गैस लाने के लिए 30 किमी दूर लोहाघाट जाना पड़ता है। पूर्व में चंपावत में 5 गैस गोदाम बना दिए गए लेकिन ये सुरक्षा मानकों पर खरे नहीं उतरे। अब सवाल यह कि बगैर मानकों को ध्यान में रखे ये गैस गोदाम बनाए ही क्यों गए। सवाल और भी हैं। क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि भले ही विकास का दावा करते फिरें, लेकिन सच यह है कि यह जनपद समस्याओं के मकड़जाल में फंसा हुआ है।

राजनीतिक रूप से चंपावत क्षेत्र की तस्वीर एक जिले के तौर पर अवश्य बदली, लेकिन परेशानियों से जूझती जनता की तकदीर नहीं बदल पाई है। क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश जोशी कहते हैं कि राज्य बनने के बाद भी कुछ नहीं बदला। ठेकेदारी प्रथा विकसित हुई है। राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने फायदा उठाया, लेकिन आम जनमानस आज भी संघर्ष करने को मजबूर है।

-दिनेश पंत

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