कांग्रेस की हार-दर-हार
‘गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में,
वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले।’
अल्लामा इकबाल के इस शेर की दूसरी पंक्ति उत्तराखण्ड कांग्रेस के उन शीर्ष नेताओं पर सटीक बैठती है जिन्हें खुद के ‘शहसवार’ होने का गुमान है लेकिन चुनाव के समय उनकी चाल तिफ्ल की तरह घुटनों के बल चलने सरीखी हो जाती है। शायद तभी वो सब जीतने की जिद में सब कुछ हार जाते हैं। उत्तराखण्ड नगर निकायों के नतीजे बताते हैं कि इन चुनावों में कांग्रेस भूल बैठी थी कि यहां उसका मुकाबला भारतीय जनता पार्टी से है, अपनी ही पार्टी के नेताओं से नहीं। कांग्रेस की जिस फटेहाल स्थिति को मंगलौर और बद्रीनाथ के उपुचनावों की जीत से रफ्फू कर अच्छा दिखाने की जो कोशिश की गई थी, नगर निकाय चुनाव ने उसे फिर उघाड़ कर रख दिया। इसके पीछे भाजपा का कम कांग्रेस नेताओं का हाथ ही ज्यादा रहा। उत्तराखण्ड में शीर्ष स्तर पर नेताओं के व्यक्तित्व की लड़ाई में कांग्रेस कार्यकर्ता अपने नेताओं से हार गया, फिर वो उत्तराखण्ड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा हों, पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत हो या फिर सल्ट के पूर्व विधायक रणजीत रावत। कांग्रेस नेताओं की दिलचस्पी भारतीय जनता पार्टी को हराने में कम अपनों को ठिकाने लगा देने की कवायद में ज्यादा नजर आई
उत्तराखण्ड में नगर निकायों के चुनावों के परिणामों में ग्यारह में से 10 नगर निगमों हल्द्वानी, रूद्रपुर, काशीपुर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, देहरादून, हरिद्वार, कोटद्वार, ऋषिकेश और रूड़की में भाजपा ने जीत हासिल की है वहीं श्रीनगर नगर निगम में निर्दलीय ने कब्जा किया है। नगर निगमों में कांग्रेस अपना खाता तक नहीं खोल सकी। जबकि 2018 में उसने हरिद्वार नगर निगम पर जीत हासिल की थी। 2018 के मुकाबले नगर पालिका और नगर पंचायतों में भी कांग्रेस का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा और 25 नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में ही उसने जीत हासिल की। अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चमोली और नैनीताल जिले में जरूर उसका प्रदर्शन थोड़ा बेहतर रहा। अल्मोड़ा जिले में चिलियानौला, भिकियासैण और द्वाराहाट में उसने कब्जा किया। वहीं नैनीताल जिले की नैनीताल, भवाली और भीमताल नगर निकाय में कांग्रेस की जीत हुई। बागेश्वर की गरूड़ नगर पंचायत पर भी कांग्रेस जीती।
चमोली जिले की कई सीटों पर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती आई। लेकिन उत्तराखण्ड के तेरह जिलों पर नजर डालें तो कांग्रेस का प्रदर्शन एक सा नहीं रहा। ऊधमसिंह नगर, देहरादून, हरिद्वार जैसे जिलों में उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। हल्द्वानी नगर निगम ही एक मात्र ऐसी सीट रही जहां वो मात्र साढ़े तीन हजार मतों के अंतर से हारी वार्ना अन्य नगर निगमों में हार का अंतर खासा बड़ा रहा। देहरादून में मेयर पद पर 1 लाख मतों से अधिक की हार, रूड़की यशपाल राणा की बगावत के बाद कांग्रेस प्रत्याशी का तीसरे स्थान पर चला जाना, हरिद्वार सीट जिस पर कांग्रेस का मेयर था वो कांग्रेस 72 हजार से अधिक मतों से हार गई। कोटद्वार में भाजपा शैलेंद्र सिंह रावत 17 हजार से अधिक वोटों से जीते। नगर निगम की कुछ सीटों को छोड़कर अगर कांग्रेस की हार का अंतर देखंे तो पता चलता है कि कई जगह कांग्रेस सिर्फ मुस्लिम मतों के भरोसे है।
मंगलौर और बद्रीनाथ विधानसभा उपचुनावों की जीत से कांग्रेस नेताओं को लगने लगा था कि उत्तराखण्ड में कांग्रेस वापसी कर रही है। उसे उम्मीद जगी कि केदारनाथ विधानसभा चुनाव तो आसानी से जीत लेगी। लेकिन जिस प्रकार करण माहरा की केदारनाथ धाम की यात्रा से केदारनाथ उपचुनाव तक कांग्रेस में जो सिरफुटव्वल हुई उसने कांग्रेस को जमीन पर ला दिया। उसके बाद नगर निगम चुनावों में उसे उम्मीद थी कि धामी सरकार की कथित नाकामियों और एंटी इनकम्बेंसी के चलते उसे मतदाता अवश्य चुनेगा लेकिन नगर निकाय के चुनाव परिणामों ने बता दिया कि उसे अभी एक लम्बा रास्ता तय करना है। चुनावों के प्रति उत्तराखण्ड कांग्रेस की असमंजस की स्थिति बताती है कि वो चुनावों के प्रति कितनी गंभीर है। रूद्रपुर में मेयर पद के लिए वो भाजपा के पूर्व विधायक राजकुमार ठुकराल का इंतजार करते रहे और जब वो भाजपा प्रत्याशी को समर्थन करते नजर आए तो कांग्रेस ने मोहन खेड़ा को प्रत्याशी घोषित किया। पिथौरागढ़ में मोनिका महर भले ही 17 वोटों से चुनाव हार गई हों लेकिन इससे ये तो साफ हो गया कि पिथौरागढ़ में मयूख महर का विकल्प फिलहाल कांग्रेस के पास नहीं है। प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा का पिथौरागढ़ में जाकर मयूख महर को रणछोड़ कहते वक्त करन माहरा शायद ये भूल गए कि लोकसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस के बड़े नेता कांग्रेस हाईकमान के आग्रह के बावजूद चुनाव लड़ने से बच रणछोड़ ही साबित हुए थे। जनाधार वाले नेताओं के साथ कांग्रेस अध्यक्ष का ऐसा व्यवहार समझ से परे है। सबसे दिलचस्प उदाहरण रामनगर नगर पालिका अध्यक्ष पद का है जहां कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा और पूर्व में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत राजनीतिक नैतिकता को ताक पर रखते नजर आए। हरीश रावत और रणजीत रावत के झगड़े में कांग्रेस ने इस सीट पर अधिकृत प्रत्याशी घोषित न कर इसे ओपन रखा। पिथौरागढ़ में पुरानी कांग्रेस कार्यकर्ता होने का हवाला देकर अंजू लूंठी की दावेदारी का समर्थन करने वाले करण माहरा अपनी पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं को रामनगर में आकर भूल गए। रामनगर नगर पालिका से वीआरएस लेकर आए भुवन पाण्डे का नाम रणजीत ने पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर आगे बढ़ाया तो कांग्रेस ने आपसी झगड़े से बचने के लिए सीट को ओपन तो कर दिया लेकिन करण माहरा अपने गुरू रणजीत रावत के प्रत्याशी भुवन पाण्डे के समर्थन में प्रचार हेतु रामनगर पहुंच गए। वहीं हरीश रावत निवर्तमान पालिकाध्यक्ष मोहम्मद अकरम के प्रचार करने मैदान में उतर आए। खास बात ये है कि 2022 विधानसभा चुनावों में मोहम्मद अकरम ने रामनगर से हरीश रावत की उम्मीदवारी का विरोध किया था। क्या हरीश रावत और करण माहरा का रामनगर आकर अलग- अलग गुटों के लिए प्रचार करना राजनीतिक रूप से नैतिकता के परे नहीं है? ऐसी नज़ीरंे तो फिर विधानसभा चुनाव में भी बनने लगेगी कि अपने मनपसंदों को टिकट न मिल पाए और ओपन कर दीजिए फिर नेता अपने पसंदीदा का चुनाव प्रचार करें। ऋषिकेश में कांग्रेस अपनी ही पार्टी के बागी से पीछे हो जाती है सिर्फ गलत टिकट वितरण के चलते। प्रदेश नेतृत्व की अनुभवहीनता की कमी के चलते पिथौरागढ़ जिले में दो बड़े नेता मयूख महर और मथुरादत्त जोशी बागी हो जाते हैं लेकिन प्रदेश नेतृत्व के माथे पर शिकन तक नहीं होती।
2022 के बाद कांग्रेस से बड़े व समर्पित कार्यकर्ताओं का पलायन तेज होता जा रहा है। लेकिन दूसरे दल से कितने नेता कांग्रेस में आए उन्हें उंगलियों में गिना जा सकता है। 25 नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में कांग्रेस जीती, साथ ही वो कई निर्दलीय जो जीतकर आए है उन्हें अपना बता रही है। लेकिन वो ये भूल जाती है कि ये निर्दलीय अगर भाजपा के खिलाफ लड़े थे तो कांग्रेस के खिलाफ भी चुनावी मैदान में थे। विधानसभा, लोकसभा और अब नगर निगम चुनावों में कांग्रेस की हार बताती है कि उसके पास चुनाव जीतने की कोई ठोस रणनीति है ही नहीं। चुनाव लड़ने की कला उसे भाजपा से सीखनी चाहिए जिसका संगठन हर वक्त चुनावी मोड़ पर रहता है और उसके कार्यकर्ताओं के लिए प्रत्याशी का चेहरा मायने नहीं रखता। शायद तभी हल्द्वानी जैसी सीट पर भितरघात के खतरे के बावजूद गजराज सिंह बिष्ट कार्यर्ताओं की बदौलत चुनाव जीत गए। कांग्रेस नेतृत्व हल्द्वानी विधायक सुमित हृदयेश से सबक ले सकता है जिन्होंने निजी तल्लिखयों के बावजूद कांग्रेस प्रत्याशी ललित जोशी को पूरी कांग्रेस एकजुट कर मजबूती से चुनाव लड़वाया। भले ही ललित जोशी चुनाव हार गए हों लेकिन जिस मजबूती और एकजुटता से कांग्रेस ने हल्द्वानी मेयर का चुनाव लड़ा ऐसा लम्बे समय बाद देखने में आया है। अब कांग्रेस की आस आने वाले पंचायत चुनावों पर है लेकिन 2027 का रास्ता आसान नहीं होगा। दअरसल कांग्रेस के अंदर जो वर्चस्व की लड़ाई चल रही है उसमें बड़े नेताओं को दरकिनार कर एक नए गुट की कांग्रेस खड़ा करने की कोशिश हो रही है जिसमें सबसे पहले निशाने पर हरीश रावत हैं। यशपाल आर्य, प्रीतम सिंह, गणेश गोदियाल सरीखों नेताओं को पार्श्व में धकेलने का प्रयास चल रहा है।
सवाल है कि जो पुराने नेताओं से निजात पा नए चेहरों के साथ नई कांग्रेस खड़ी करने का प्रयास कर रहे हैं क्या उनमें कोई एक ऐसा चेहरा है जो पूरे उत्तराखण्ड में पहचाना जाता हो और स्वीकार्य हो? क्या उसके पास वो जनाधार है जैसा हरीश रावत, यशपाल आर्य, प्रीतम सिंह, गणेश गोदियाल जैसे कई नेताओं का है? करण माहरा 2022 से भले ही प्रदेश अध्यक्ष हैं लेकिन वो अपने को उस रूप में स्थापित नहीं कर पाए जिस ऊर्जा के साथ उन्होंने यह कुर्सी सम्भाली थी। हरीश रावत अपने राजनीतिक जीवन के उस पड़ाव पर हैं जहां पर उनके पास खोने के लिए शायद बहुत कुछ नहीं है। कांग्रेस में नेताओं की एक-दूसरे को ठिकाने लगाने की इस कवायद में जनता से उसका संवाद निरंतर कम होता नजर आ रहा है।
देहरादून, हल्द्वानी जैसे बड़े नगरों में प्रदर्शन कर चुनाव जीते जा सकते तो नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस का परचम लहराता मगर ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि कभी ऊपर चढ़ते समय देखना जरूरी होता है कि जिस कार्यकर्ता के कंधे पर आपका वजूद कायम है वो कहीं छिटक तो नहीं गया। यह स्पष्ट है कि अपने को मजबूत करने में जुटे कांग्रेस के नेता निचले स्तर पर संगठन की अनदेखी कर कांग्रेस को कमजोर कर अपनी लड़ाई और कठिन बनाने में जुटे हैं।