उत्तराखण्ड कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष किशोर उपाध्याय पार्टी में अपनी उपेक्षा को लेकर बेहद आहत बताए जाते हैं। समझा जा रहा है कि अब वे राज्य में क्षेत्रीय पार्टी बनाने की दिशा में अग्रसर हैं। पिछले एक वर्ष से वे वनाधिकार आंदोलन के जरिए जिस तरह राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को एकजुट कर रहे हैं, उसे नई पार्टी की संभावना के तौर पर ही देखा जा रहा है। हालांकि किशोर नई पार्टी की चर्चाओं को स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन राज्य कांग्रेस नेतृत्व और विधायकों के खिलाफ जनहित के मुद्दों पर उनके बेबाक बयान कुछ खास संकेत दे जाते हैं
उत्तराखण्ड में कांग्रेस इन दिनों बहुत बड़ी दुविधा के दौर से गुजर रही है। इसका असर पार्टी के नेताओं पर पड़ता दिखाई दे रहा है। लगातार चुनावी हार के बावजूद कांग्रेस नेतृत्व न तो अपने कार्यकर्ताओं की हताशा को दूर कर पा रहा है और न ही अपने नेताओं के टूटे दिलों को जोड़ पाने में कामयाब रहा है। बड़े नेताओं की आपसी रार और गुटबाजी से कांग्रेस के उन नेताओं को अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता सताने लगी है जो कभी कांग्रेस के बड़े नेताओं की सरपरस्ती में या छत्रछाया में अपना राजनीतिक भविष्य देखते रहे हैं। आज उन्हीं नेताओं में सबसे ज्यादा हताशा का माहौल बन चुका है। राजनीतिक गलियारां में जिस तरह की चर्चाएं हो रही हैं उससे तो लगता है कि आने वाले समय में कांग्रेस के भीतर बहुत बड़ा बिखराव देखने को मिल सकता है। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस के कई नेता अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। वे नया आशियाना तलाश रहे हैं। ऐसे में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय का वनाधिकार आंदोलन उनके लिए एक नई संभावना जगा रहा है। जो एक नए राजनीतिक दल की ओर ईशारा कर रहा है।
सूत्रों पर भरोसा करें तो किशोर उपाध्याय बहुत जल्द एक नया क्षेत्रीय राजनीतिक दल बना सकते हैं जिसको सामाजिक और राजनीतिक जगत से जुड़े कई प्रमुख लोगों का समर्थन हासिल हो चुका है। माना जा रहा है कि वनाधिकार आंदोलन को जिस तरह से पूरे प्रदेश में खास तौर पर पर्वतीय जिलां और तराई क्षेत्र में समर्थन मिला है उससे राजनीतिक दलों में खासी बेचैनी बनी हुई है। कई सामाजिक और राजनीतिक संगठनों से जुड़े लोगों की इस वनाधिकार आंदोलन को और तेज धार दिए जाने के लिए बैठकें भी हो रही हैं। वनाधिकार आंदेलन को लेकर कांग्रेस ने अपनी स्थिति पूरी तरह से साफ नहीं की है। हालांकि आंदेलन में कई कांग्रेसी नेताओं ने भागीदारी की है, लेकिन यह भागीदारी व्यक्तिगत और किशोर उपाध्याय के चलते ही की जा रही है। हरीश रावत भले ही इस आंदेलन को अपना समर्थन दे चुके थे, लेकन वह भी खुलकर कभी आंदोलन की बैठकों और चर्चाओं में नहीं आए हैं। अभी हाल में हल्द्वानी में वनाधिकार को लेकर बहुत बड़ा कार्यक्रम किया गया था जिसमें पहली बार हरीश रावत के कुछ समर्थक और उनके पुत्र आनंद सिंह रावत ने शिरकत की। इससे यह माना जा रहा है कि हरीश रावत भी आखिरकार वनाधिकार आंदोलन की भावी राजनीतिक ताकत को महसूस कर चुके हैं। सूत्र बता रहे हैं कि आने वाले समय में हरीश रावत किशोर उपाध्याय के साथ इस आंदोलन से सीधे तौर पर जुड़ सकते हैं।
अब वनाधिकार आंदोलन के चलते जिस तरह की राजनीतिक चर्चाएं हो रही हैं उस पर बात करें तो यह साफ हो गया है कि प्रदेश के तकरीबन कई राजनीतिक संगठनों में इसको लेकर बेचैनी बनी हुई है। आंदोलन को भरपूर समर्थन मिलने से यह माना जा रहा है कि प्रदेश के उन नेताओं को इस आंदोलन से अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने की एक बड़ी उम्मीद दिख रही है जो भाजपा और कांग्रेस या अन्य दलों की राजनीति में हाशिये पर हों या इन दलों के रवैए से नाराज हैं।
किशोर उपाध्याय मौजूदा समय में कांग्रेस में किसी भी पद पर नहीं हैं। पूर्व में हरीश रावत के साथ उनके संबंधों में खटास इस कदर पैदा हो चुकी थी कि जहां पूरा कांग्रेस संगठन किशोर को राज्यसभा भेजे जाने पर अडिंग था, वहीं हरीश रावत ने अपने खास प्रदीप टम्टा को राज्यसभा का टिकट दिया। राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि हरीश रावत ने किशोर उपध्याय को राज्यसभा भेजे जाने का वादा तो किया, लेकिन भीतर ही भीतर प्रदीप टम्टा का नाम आगे बढ़ाया। इसके चलते किशोर उपाध्याय और हरीश रावत के संबंधों में खटास इस कदर पैदा होने लगी कि कांग्रेस संगठन के जनहित के मुद्दों को लेकर के कार्यक्रमों पर सत्ता और संगठन का मतभेद खुलकर सामने आने लगा।
2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई तो प्रदेश संगठन में बदलाव हुआ। प्रीतम सिंह कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष बने, लेकिन तब तक कांग्रेस की राजनीतिक गंगा में पानी इतना बह चुका था कि हार के बावजूद कांग्रेस मतभेदों और मनभेदां के एक बड़े समुद्र में तब्दील हो चुकी थी। जिसकी तूफानी लहरों ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं को भी कांग्रेस से बाहर पटक दिया।
प्रीतम सिंह और किशोर के संबंधों में भी कोई ज्यादा सहजता देखने को नहीं मिली। किशोर धीरे-धीरे अपनी अलग राह पर चलते रहे जिसका असर यह हुआ कि कांग्रेस के कार्यक्रमों में किशोर की पूरी तरह से उपेक्षा होने लगी। लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के दौरे के समय किशोर की इस कदर उपेक्षा की गई कि न तो उन्हें मंच पर बुलाया गया और न ही मंच पर स्थान दिया गया, जबकि वे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष रहे हैं। यहां तक कि किशोर के साथ धक्का-मुक्की तक की गई। विगत दो वर्षों से लगातार किशोर और उनके समर्थकों को संगठन से उपेक्षा मिलती रही है। जोत सिंह बिष्ट के साथ अपमानजनक व्यवहार हुआ और उनके कार्यालय से उनकी नाम पट्टिका को हटाया गया। पर्वतीय मूल के नेताओं को एक के बाद एक लगातार पदों से चलता किया गया। यहां तक कि कांग्रेस के सचिव स्तर के नेताओं द्वारा किशोर समर्थकों के खिलाफ बयानबाजी करने पर विरोध के बावजूद कार्यवाही नहीं की गई।
विगत वर्ष किशोर उपाध्याय ने राज्य में वनाधिकार आंदोलन की शुरुआत की जिसमें कई राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शिरकत की और पूरा समर्थन दिया। लेकिन कांग्रेस ने इस कार्यक्रम से अपने को दूर ही रखा। उक्रांद, वामपंथी, सपा और बसपा जैसे दलों ने भी इस आंदोलन में अपनी भूमिका निभाई। जिसके चलते आज यह आंदोलन सबसे ज्यादा चर्चाओं में है। हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस ने इस आंदोलन से अपने को दूर ही रखा, जबकि कांग्रेस इस आंदोलन से राजनीतिक फायदा उठा सकती थी। आज वनाधिकार आंदोलन इस तेजी से फैल रहा है कि सत्ताधारी दल भाजपा भी इस आंदोलन को नकारने का साहस नहीं कर पा रही है। स्वयं प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट ने केंद्र सरकार को राज्य में वनाधिकार कानून लागू करने के लिए पत्र भी लिखा है। सूत्रों के अनुसार किशोर उपाध्याय वनाधिकार आंदोलन को कांग्रेस का आंदोलन बनाने के लिए तैयार थे, लेकिन कांग्रेस संगठन और बड़े नेताओं ने किशोर का न तो समर्थन किया और न ही अपने समर्थकों को इसके बारे में कोई गाइड लाइन दी। जिसके चलते किशोर के समर्थकों द्वारा ही इसको आगे बढ़ाया गया और अब माना जा रहा है कि वनाधिकार आंदोलन के गर्भ से राजनीतिक ताकत पैदा करने का प्रयास आरंभ हो चुका है।
आंदोलन को राजनीतिक ताकत देने के लिए इसे एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर खड़ा किए जाने का दबाब किशोर के समर्थकों द्वारा बनाया जा रहा है। इसके पीछे तर्क दिए जा रहे हैं कि कांग्रेस आलाकमान और प्रदेश संगठन में किशोर की हैसियत एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष के अलावा कुछ नहीं है। अगर वनाधिकार आंदोलन को ही राजनीतिक ताकत दी जाए तो क्षेत्रीय दल बनाया जा सकता है। माना जा रहा है कि इस पर तकरीबन पूरी सहमति बन चुकी है और अगले ही वर्ष राज्य में एक नया क्षेत्रीय दल सामने आ सकता है जो हिमालयी राज्यों के विकास के अलग पैटर्न को सामने रख सकता है।
सूत्र तो यह भी बता रहे हैं कि हरीश रावत को इससे जोड़ने का प्रयास भी किया जा रहा है। इसके लिए कई समीकरणों को एक साथ साधे जाने की बात कही जा रही है। वास्तव में देखा जाएं तो किशोर उपाध्याय और हरीश रावत के एक मंच पर खड़ा होने पर कई राजनीतिक समीकरणों को एक साथ साधा जा सकता है। गढ़वाल-कुमाऊं, ठाकुर-ब्राह्मण समीकरणों के चलते दोनां ही नेताओं के समर्थकां का दबाब है कि किशोर और हरीश रावत मिलकर नया क्षेत्रीय दल बनाएं। हो सकता है कि आने वाले समय में यह प्रयोग सामने आ जाए।
माना जा रहा है कि हरीश रावत का राजनीतिक भविष्य कांग्रेस में अब उतना मजबूत नहीं है। वैसे भी रावत उत्तराखण्ड की राजनीति से अपने को अलग नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए उनके समर्थक भी नए प्रयोग करने का दबाव बनाने में लगे हुए हैं। हो सकता है कि आने वाले समय में राज्य में नया राजनीतिक प्रयोग एक नए क्षेत्रीय दल के तौर पर देखने को मिले। लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि क्या किशोर उपाध्याय की यह नई राह भाजपा और कांग्रेस के विकल्प के तौर पर भी सामने आएगी या फिर महज कांग्रेस में अपनी स्वीकार्यता और ताकत को दिखाने का ही प्रयास भर रहेगा।