नई टीम की ताजपोशी का समारोह पार्टी के भीतर गहरी पैठ बना चुकी गुटबाजी और बड़े नेताओं के तल्ख संबंधों की दास्तान कह नव नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के समक्ष भविष्य की भारी चुनौतियों का चैलेंज दे गया। कुल मिलाकर नई टीम के साथ 2022 के चुनाव में जा रही कांग्रेस को देखकर लगता है कि उसकी लड़ाई भाजपा से पहले अपने अंदर की है। पहले उसके नेताओं को अपनों से लड़ना है फिर भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी से। अब कांग्रेस का आलाकमान अपने नेताओं, उनकी महत्वाकांक्षाओं को किस प्रकार कंट्रोल करता है यह देखा जाना बाकी है
27 जुलाई, 2021 का दिन उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में कांग्रेस के नाम रहा। जौलीग्रांट एयर पोर्ट से लेकर राजपुर रोड़ स्थित कांग्रेस प्रदेश मुख्यालय तक चारों तरफ कांग्रेस के झण्डों और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के समर्थन में लग रहे नारों से गुंजायमान माहौल ने भले ही सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं की बेचैनी बढ़ा डाली हो, नई टीम की ताजपोशी का समारोह पार्टी के भीतर गहरी पैठ बना चुकी गुटबाजी और बड़े नेताओं के तल्ख संबंधों की दास्तान कह नव नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के समक्ष भविष्य की भारी चुनौतियों का चैलेंज दे गया।
गौरतलब है कि मोदी मैजिक के चलते 2017 का चुनाव कांग्रेस के लिए भारी पराजय लेकर आया था। भाजपा को तब 70 सदस्यीय विधानसभा में 57 सीटें देकर प्रदेश की जनता ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर जबरदस्त आस्था का परिचय दिया। मोदी मैजिक के आगे प्रदेश में सर्वाधिक जनाधार वाले नेता हरीश रावत की एक न चली और वे स्वयं दो सीटों से परास्त हो गए। तब इस करारी हार का ठीकरा हरीश रावत पर ही पार्टी भीतर मौजूद उनके विरोधियों ने फोड़ते देर नहीं लगाई थी। प्रदेश कांग्रेस संगठन इसके बाद बिखरता ही चला गया। हरीश रावत को राष्ट्रीय संगठन में महासचिव व पार्टी की शीर्ष संस्था कांग्रेस वर्किंग कमेटी का सदस्य बना राज्य की कमान उनके विरोधी खेमे को सौंप दी गई। यह खेमा लेकिन इस अवसर का लाभ उठा पाने में पूरी तरह विफल हो गया। डबल इंजन की भाजपा सरकार को टारगेट करने के बजाए इस खेमे का पूरा ध्यान प्रदेश संगठन से हरीश रावत समर्थकों को दरकिनार करने में बीत गया। दूसरी तरफ राष्ट्रीय महासचिव बने रावत एक तरफ केंद्र की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाने में जुटे तो साथ-साथ ही उन्होंने ‘उत्तराखण्डियत’ को मुद्दा बना राज्य में भी अपनी खिसक चुकी जमीन पाने के लिए जद्दोजहद शुरू कर दी। पहले असम फिर पंजाब में बतौर प्रभारी उनकी सक्रियता ने जहां उन्हें पार्टी आलाकमान के करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उत्तराखण्ड में भी खुद को अपरिहार्य नेता बना पाने में वे सफल रहे। प्रदेश अध्यक्ष पद से उनके घोर विरोधी प्रीतम सिंह का जाना और नए अध्यक्ष पद पर उनके करीबी गणेश गोदियाल का काबिज होना जहां रावत विरोधियों के लिए बड़ा सदमा है वहीं 2022 के चुनावों में पार्टी को हरीश रावत के सहारे मैदान में उतारे जाने की शुरुआत भी है। लेकिन टीम हरीश रावत के समक्ष चुनौतियां अभी खासी बाकी हैं। उनका विरोधी खेमा आने वाले समय में पूरी ताकत के साथ उनकी राह में रोड़ा अटकाने का काम अवश्य करेगा। इस संभावना की झलक टीम गोदियाल के कार्यभार संभालने के दिन से ही हो चुकी है। दरअसल, लंबी जद्दोजहद के बाद कांग्रेस आलाकमान ने उत्तराखण्ड के लिए अपनी टीम की घोषणा तो कर दी लेकिन उत्तराखण्ड जैसे छोटे प्रदेश में नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति के साथ चार कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति ने नए ‘पावर सेंटरों’ की नींव भी डाल दी है जो आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा के बजाय कांग्रेस की संभावनाओं पर ही पलीता लगा सकने में सक्षम नजर आते हैं। कांग्रेस आलाकमान ने चुनाव अभियान समिति का प्रमुख हरीश रावत को बना कर एक स्पष्ट संदेश तो दिया लेकिन प्रदेश अध्यक्ष के साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर एक नई परिपाटी को भी जन्म दे डाला है जो भविष्य में उत्तराखण्ड कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। ऊपर से देखें तो जिस प्रकार चुनाव के लिए कई जम्बो टीमंे आलाकमान ने तय की हैं उससे सबको समायोजित करने का संदेश तो गया लेकिन चुनाव घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष नवप्रभात का इस पद से इंकार करना कांग्रेस के अंदर सब ठीक न होने का सच भी सामने ले आया। दरअसल कांग्रेस के अंदर असली लड़ाई 2022 के लिए चेहरे को लेकर है जिसमें कोई भी अपनी ओर से कसर नहीं छोड़ना चाहता। प्रीतम सिंह प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी छोड़ नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी लेने को कतई तैयार नहीं थे। लेकिन आलाकमान पर हरीश रावत अपनी बात ज्यादा बेहतर तरीके से पहुंचा गए। जब प्रदेश अध्यक्ष की बात आई तो हरीश रावत शुरुआत से ही गणेश गोदियाल के पक्ष में थे। कभी सतपाल महाराज के राजनीतिक शिष्य रहे गणेश गोदियाल आजकल हरीश रावत के विश्वस्तों में हैं। प्रीतम सिंह युवा कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भुवन कापड़ी को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे। गणेश गोदयिाल को प्रदेश अध्यक्ष बनवा कर हरीश रावत बहुत कुछ पाते जरूर दिखे लेकिन चार कार्यकारी अध्यक्षों की सूची को देखकर लगता है कि वो बहुत कुछ पा कर भी बहुत कुछ खो बैठे हैं। चार कार्यकारी अध्यक्षों के चयन के दबाव में आलाकमान कई ऐसों को भूल गया जो कठिन समय में भी पार्टी के वफादार रहे।
‘‘हरीश रावत को राष्ट्रीय संगठन में महासचिव व पार्टी की शीर्ष संस्था कांग्रेस वर्किंग कमेटी का सदस्य बना राज्य की कमान उनके विरोधी खेमे को सौंप दी गई। यह खेमा लेकिन इस अवसर का लाभ उठा पाने में पूरी तरह विफल हो गया। डबल इंजन की भाजपा सरकार को टारगेट करने के बजाए इस खेमे का पूरा ध्यान प्रदेश संगठन से हरीश रावत समर्थकों को दरकिनार करने में बीत गया’’
बगावत और नेताओं के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी करने वालों को नई टीम में जगह दे दी गई है। खासकर दस जनपथ के करीबी तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के खिलाफ बगावत कर चुनाव लड़े आर्येन्द्र शर्मा को मुख्य समिति में कोषाध्यक्ष बनाया जाना और हालिया संपन्न हुए सल्ट उपचुनाव से ठीक पहले पूर्व सीएम हरीश रावत के खिलाफ सार्वजनिक बयानबाजी करने वाले पूर्व विधायक रणजीत रावत को भी कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष से नवाजा जाना हरीश रावत के लिए शुभ नहीं माना जा रहा है। सूत्र बताते हैं कि रणजीत रावत कार्यकारी अध्यक्ष के लिए कांग्रेस आलाकमान की स्वाभाविक पसंद नहीं थे। चार कार्यकारी अध्यक्षों की सूची में भुवन कापड़ी, डॉ जीतराम, तिलक राज बेहड और यूथ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राजपाल खरोला का नाम था। लेकिन प्रीतम सिंह के त्याग पत्र देने की कथित धमकी के बाद आनन-फानन में सूची में फेरबदल कर रणजीत रावत का नाम डाला गया। पार्टी में हरीश रावत के कट्टर विरोधी होने के चलते प्रीतम सिंह के लिए रणजीत रावत से कोई बेहतर नाम नहीं हो सकता था। कांग्रेस के एक बड़े पदाधिकारी का कहना है कि चार कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति ऊपर से भले ही क्षेत्रीय, जातीय संतुलन वाली दिखती हो लेकिन ये गुटीय राजनीति को ही बढ़ावा देगी। जिसका उदाहरण प्रदेश अध्यक्ष के कार्यभार संभालने के दिन ही नजर आ गया जब तीन कार्यकारी अध्यक्ष भुवन कापड़ी, डॉ ़ जीतराम और रणजीत रावत अपने प्रदेश अध्यक्ष की अगवानी के बजाय नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह के साथ देहरादून की सड़कों पर अलग से शक्ति प्रदर्शन करते दिखे। कांग्रेस के ही एक पूर्व विधायक का कहना है कि ‘पिछले साढ़े चार सालों में कांग्रेस आलाकमान ने भी प्रदेश के नेताओं के बीच दूरी खत्म करने का प्रयास नहीं किया। कुछ लोगों को गुटबाजी बने रहना ही भाता है और सत्ता की मलाई लूट चुके लोग कतई नहीं चाहेंगे कि प्रदेश के बड़े नेताओं खासकर हरीश रावत और प्रीतम सिंह के बीच दूरियां घटें, इनके स्वार्थ इनकी दूरियों से ही सधते हैं।’ प्रदेश अध्यक्ष के स्वागत समारोह में भी पार्टी के नेता एक-दूसरे पर छींटाकशी करते नजर आए। सभी कांग्रेस के एकजुट होने की अपील करते दिखे। रणजीत रावत ने ‘कांपते हाथों से शमशीर नहीं उठा करती’ कहकर हरीश रावत को निशाने पर लिया जो भविष्य के लिए कांग्रेस की अंदरूनी हालात को उजागर कर गया। आने वाले विधानसभा चुनाव तक कांग्रेस अपने को किस हाल की ओर ले जाती है, देखना दिलचस्प होगा। असली लड़ाई टिकट वितरण के समय दिखाई देगी जब हर गुट अपनी ज्यादा हिस्सेदारी मांगेगा। तब प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। शायद तभी प्रीतम सिंह प्रदेश अध्यक्ष पद से हटना नहीं चाह रहे थे। नेता प्रतिपक्ष का पद संभालते समय प्रीतम सिंह ने जो कहा वो एक नए समीकरण की तरफ इशारा करता है जब उन्होंने उपनेता प्रतिपक्ष करण माहरा को इंगित करते हुए कहा कि ‘जिस कुर्सी (नेता प्रतिपक्ष) पर आपको होना चाहिए था उस पर मुझे बैठना पड़ रहा है।’ हालांकि चुनाव अभियान समिति में हरीश रावत अपने ही लोगों को ज्यादा समायोजित करने में सफल रहे लेकिन चुनाव किसके चेहरे पर लड़ा जाएगा इस पर भी गुटीय भावनाएं ज्यादा परिलक्षित हो रही हैं। जहां हरीश समर्थक उन्हें चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने के बाद खुलकर उन्हें ही मुख्यमंत्री का चेहरा मान रहे हैं, वहीं दूसरा गुट सामूहिक नेतृत्व में चुनाव में जाने की बात कर रहा है। दूसरी तरफ चुनावी चेहरे की बाबत पूछे जाने पर प्रीतम सिंह का कहना है ‘उनका चेहरा क्या बुरा है’ बिन कहे ही बहुत कुछ कह जाता है। कुल मिलाकर नई टीम के साथ 2022 के चुनाव में जा रही कांग्रेस को देखकर लगता है कि उसकी लड़ाई भाजपा से पहले अपने अंदर की है। पहले उसके नेताओं को अपनों से लड़ना है फिर भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी से। अब कांग्रेस का आलाकमान अपने नेताओं, उनकी महत्वाकांक्षाओं को किस प्रकार कंट्रोल करता है यह देखा जाना बाकी है। वर्ना 2017 के चुनावों की तर्ज पर ही उसे सत्ता न पा सकने का मलाल रह सकता है। पार्टी ने जमीन मजबूती से तलाश ली तो ठीक अन्यथा भाजपा के नकारात्मक कार्यों और सत्ता विरोधी लहर के भरोसे ही खंडित कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरी तो शायद ये ऐसा ही होगा जैसा कि दुष्यंत ने कहा है।
तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।