कांग्रेस उम्मीदवारों की दूसरी सूची आने के बाद उनमें जो नाम सामने आए, उसकी तपिश ने पार्टी की छवि को झुलसा दिया। साथ ही इस सूची ने केंद्र से लेकर प्रदेश के नेताओं के विवेक पर सवाल खड़े कर दिए। अगर जिम्मेदार नेताओं ने विवेक से काम लिया होता तो दूसरी सूची केे बाद बवंडर न उठता। हालांकि उसका पटाक्षेप तीसरी सूची आने के बाद हो गया। लेकिन उसने कांग्रेस की छवि को जो नुकसान पहुंचाना था पहुंचा दिया
ठिठुरन भरी ठंड के बीच उत्तराखण्ड में चुनावी सरगर्मियों ने राजनीतिक माहौल गर्मा दिया है। इन सरगर्मियों के बीच भाजपा और कांग्रेस राजनीतिक नुकसान के डर से प्रदेश की पूरी सत्तर विधानसभाओं में एक साथ टिकट जारी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएं। दोनों ही पार्टियों ने एक-दो नहीं बल्कि चार किश्तों में अपने प्रत्याशियों की घोषणा की। प्रत्याशियों की घोषणा के साथ हरीश रावत की स्वीकारोक्ति कि ‘सत्तर में से सोलह विधानसभाओं में पार्टी कमजोर स्थिति में है। इनमें से आठ सीटों को जिताने की जिम्मेदारी स्वयं उन पर, 4 सीटों की जिम्मेदारी नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह और 4 सीटों की जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल को दी गई है।’
हरीश रावत जैसे वरिष्ठ नेता की यह स्वीकारोक्ति दर्शाती है कि इतने महत्वपूर्ण चुनावों में कांग्रेस की तैयारियों की स्थिति क्या है। हरीश रावत, प्रीतम सिंह, गणेश गोदियाल, देवेंद्र यादव जैसे धु्रवों में बंटी कांग्रेस इतनी कवायदों के बाद अगर सत्तर प्रत्याशियों का चयन नामांकन की तिथि समाप्त होने के दिन करती है तो स्पष्ट है कि सत्ता पाने से पहले ही हिस्सा पा लेने का आंतरिक संघर्ष पार्टी भीतर कितना गहरा है। प्रत्याशियों की दूसरी सूची आने के बाद जो नाम सामने आए, उसकी तपिश ने कांग्रेस की छवि को झुलसाने के साथ-साथ कांग्रेस के अंदर केंद्र से लेकर प्रदेश के नेताओं के विवेक पर सवाल खड़े कर दिए। अगर जिम्मेदार नेताओं ने विवेक से काम लिया होता तो दूसरी सूची केे बाद बवंडर न उठता। हालांकि उसका पटाक्षेप तीसरी सूची के आने के बाद हो गया लेकिन उसने कांग्रेस की छवि को जो नुकसान पहुंचाना था पहुंचा दिया। प्रदेश प्रभारी, स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष, चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष के भारी-भरकम लाव-लश्कर पर सवाल खड़े हुए। ये लोग जमीनी हकीकत को नजरअंदाज कर ऐसे निर्णय लेते चले गए जो धरातल की हकीकत से कोसों दूर थे।
कांग्रेस के सत्तर प्रत्याशियों पर नजर डालें तो 2017 में चुनकर आए विधायकों के टिकट पर छेड़छाड़ न कर उन्हें ही प्रत्याशी बनाया गया। सभी 70 सीटों पर भारी मशक्कत के बाद जो नाम सामने आए उससे एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि बड़े नेताओं द्वारा अपने-अपने पसंदीदा व्यक्तियों को समायोजित करने के प्रयास में कई स्थानों पर कमजोर प्रत्याशी टिकट पा गए हैं।
कद्दावर नेता डाॅ इंदिरा हृदयेश के निधन के चलते हल्द्वानी में कांग्रेस के कई नेता टिकट की दावेदारी करने लगे थे। इस सीट पर सही प्रत्याशी का चुनाव करना खासी टेढ़ी खीर बन चुका था। लंबी मशक्कत के बाद पार्टी ने स्व. इंदिरा हृदयेश के पुत्र सुमित की दावेदारी पर मुहर लगाई। पुरोला सीट पर भाजपा छोड़कर आए मालचंद पर पार्टी ने भरोसा जताया है। खास बात यह है कि 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में कई कांग्रेस प्रत्याशी भाजपा से आए हैं। हरीश रावत के पसंदीदा व्यक्ति दुर्गेश्वर लाल के ऐन वक्त पर भाजपा प्रत्याशी बन जाने के कारण मालचन्द की राह आसान हो गई। पहली सूची जारी होने बाद कांग्रेस नेतृत्व को खास संकट का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन जिस प्रकार दूसरी सूची जारी हुई, उससे उठे विवाद ने एक हद तक कांग्रेस के अंदर एक निराशा का वातावरण उत्पन्न कर दिया था। खासकर लालकुआं, कालाढूंगी में टिकटों के वितरण ने विद्रोह का वातावरण खड़ा कर दिया था। हरीश चन्द्र दुर्गापाल और हरेन्द्र बोरा की मजबूत दावेदारी को दरकिनार कर संध्या डालाकोटी को टिकट मिलने से पार्टी के विवेक पर सवाल खड़े कर दिए।
सूत्र बताते हैं कि उन्हें भाजपा की ओर से उठ रहे सवालों के मद्देनजर महिला कोटे से टिकट दिया गया था। पर वह लालकुआं जैसे क्षेत्र में मजबूत उम्मीदवार तो कतई नहीं थी। हरीश रावत के लालकुआं से प्रत्याशी घोषित होने के बाद इस विवाद का पटाक्षेप हो गया। इसी प्रकार कालाढूंगी सीट पर महेश शर्मा की मजबूत दावेदारी को दरकिनार कर अचानक महेन्द्र पाल का नाम आगे कर दिया गया। इसने पार्टी की जिताऊ उम्मीदवार की नीति पर सवाल खड़े कर दिए। कालाढूंगी विधानसभा क्षेत्र में इस प्रकार अचानक महेन्द्र पाल का नाम आने के पीछे प्रकाश जोशी की जिद थी। वे यहां से महेश शर्मा को कतई नहीं चाहते थे। खास बात यह है कि महेन्द्र पाल भीमताल विधानसभा से दावेदार थे। उनका कालाढूंगी से प्रत्याशी घोषित होना किसी के गले नहीं उतरा। फिलहाल तीसरी सूची में बदलाव करते हुए कांग्रेस ने महेश शर्मा को कांग्रेस का प्रत्याशी घोषित कर दिया।
हाॅट सीट बन चुकी रामनगर में हरीश रावत और रणजीत रावत का द्वंद्व उस हद तक पहुंच गया, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। बताया जाता है कि यशपाल आर्या की सक्रियता ने इस मामले को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसके चलते हरीश रावत को लालकुआं, रणजीत रावत को सल्ट और महेंद्र पाल को रामनगर से टिकट पर सहमति बन पाई। 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा से चुनाव लड़ चुके यशपाल आर्या और संजीव आर्या घर वापसी के बाद क्रमशः बाजपुर और नैनीताल से उम्मीदवार हैं। कुमाऊं की बात करें तो पिथौरागढ़ से मयूख महर, डीडीहाट से प्रदीप पाल, धारचूला से हरीश धामी और गंगोलीहाट से खजान गुड्डू इस बार कांग्रेस प्रत्याशी हैं।
अल्मोड़ा जिले में कांग्रेस ने अल्मोड़ा से मनोज तिवारी, जागेश्वर से गोविन्द्र सिंह कुंजवाल, सोमेश्वर से राजेंद्र बाराकोटी, रानीखेत से करन माहरा, द्वाराहाट से मदन बिष्ट को कांग्रेस ने प्रत्याशी बनाया। सल्ट उपचुनाव में टिकट ठुकराने वाले रणजीत रावत की दस साल बाद घर वापसी हुई है। वे अब रामनगर की जिद छोड़कर सल्ट से चुनाव लड़ने को तैयार हो गये हैं। लेकिन रामनगर में हरीश रावत-रणजीत रावत के शीत युद्ध ने कांग्रेस की भारी फजीहत जरूर करा दी है। सोमेश्वर की सीट पर राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा की सक्रियता से लगता था कि वे इस बार उम्मीदवार हो सकते हैं, लेकिन राजेन्द्र बाराकोटी पर ही कांग्रेस ने दांव लगाना उचित समझा। अल्मोड़ा से बिट्टू कर्नाटक, मनोज तिवारी के लिए सिर दर्द साबित हो सकते हैं।
बागेश्वर जिले की दो सीटों पर ललित फर्सवान कपकोट से और बागेश्वर सीट से रंजीत दास पार्टी प्रत्याशी बनाए गए हैं। पिछली बार के प्रत्याशी और प्रदेश उपाध्यक्ष बाल कृष्ण और भैरवनाथ ने रंजीत दास के टिकट पर नाखुश हो निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। चंपावत में हेमेश खर्कवाल और लोहाघाट से खुशाल सिंह अधिकारी फिर चुनाव मैदान में हैं। ऊधमसिंह नगर में दो कार्यकारी अध्यक्ष भुबन कापड़ी खटीमा और तिलकराज बेहड़ किच्छा से उम्मीदवार हैं। गदरपुर से प्रेमानन्द महाजन, काशीपुर से पूर्व सांसद केसी सिंह बाबा के पुत्र नरेश चन्द्र मैदान में हैं। रूद्रपुर से पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष मीना शर्मा को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया है।
गढ़वाल की बात करें तो हरक सिंह रावत के कांग्रेस में आने के बाद समीकरण बदल गए हैं। उत्तराखण्ड की चुनावी राजनीति के 20 साल में पहला अवसर होगा जब हरक सिंह रावत चुनावी मैदान से बाहर होंगे। हरिद्वार से सतपाल ब्रह्मचारी चुनाव मैदान में होंगे। यमुनोत्री से दीपक बिज्जवाण, प्रीतम सिंह के विरोध के बावजूद कांग्रेस प्रत्याशी बनाए गए हैं। प्रीतम गुट पिछले बार के प्रत्याशी संजय डोभाल के पक्ष में था। अंतिम क्षणों में प्रीतम रूड़की से यशपाल राणा और डोईवाला से गौरव कुमार को टिकट दिलाने में सफल रहें सहसपुर में आर्येन्द्र शर्मा और कैंट से सूर्यकांत धस्माना हरीश रावत के विरोध के बावजूद टिकट पाने में सफल रहे। इन दोनों की राह में बागी रोड़े अटका सकते है। कैंट में वैभव वालिया सूर्यकांत धस्माना के लिए चुनौती खड़ी कर सकते हैं। गढ़वाल की कई सीटों पर हरीश और प्रीतम गुट की रस्साकशी के बीच संतुलन बनाने में शीर्ष नेतृत्व को काफी मशक्कत करनी पड़ी।
कांग्रेस जिस प्रकार अपनी चुनावी रणनीति को एक सही टैªक पर लेकर चल रही थी टिकटों की दूसरी लिस्ट ने उसकी चाल धीमी कर दी। कई मजबूत सीटों पर पार्टी पहली लिस्ट में निर्णय नहीं कर पाई लेकिन जब सोनिया गांधी ने शेष सत्रह सीटों की जिम्मेदारी मुुकुल वासनिक और वेणुगोपाल को दी तो उसके बाद जारी लिस्ट ने असंतोष को सतह पर ला दिया। जिन 11 सीटों की घोषणा पार्टी ने दूसरी लिस्ट में की, लगता है उनमें या तो पार्टी ने सही से होमवर्क नहीं किया या फिर जमीनी हकीकत को नजरअंदाज कर सिफारिश पर टिकट बांट दिए।
टिकटों की सौदेबाजी के आरोप अक्सर लगते रहते हैं लेकिन इन आरोपों की हकीकत को जान पाना संभव नहीं लेकिन टिकटों के बंटवारों की स्थिति साफ-साफ इस ओर इशारा करती दिखती है। कांग्रेस के टिकट के बंटवारे के पैमानों ने कई जगह योग्य उम्मीदवारों को टिकट से वंचित किया है। ‘एक परिवार एक टिकट’ की राहुल गांधी की नीति के चलते कई युवा टिकट से वंचित रहे। जिताऊ उम्मीदवार का पैमाना कांग्रेस की गुटबाजी की भेंट चढ़ गया। भाजपा जहां जिताऊ उम्मीदवार का पैमाना तय कर अपनी महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष ऋतु खण्डूड़ी का टिकट बदल देती है लेकिन कांग्रेस भाजपा की तर्ज पर स्पष्ट निर्णय नहीं ले पाती। कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि टिकट बंटवारे में कई फैक्टर काम करते हैं। गुटों को संतुष्ट करना, बड़े नेताओं का कोटा, महिला कोटा, युवा कोटा स्थानीय और जातीय समीकरण जैसे फैक्टर कभी-कभी योग्य व्यक्ति को उसके हक से वंचित कर देता है। इसकी परिणति होती है कई कमजोर उम्मीदवारों के रूप में। वो कहते हैं, ‘अनुशासनहीनता अब कोई बुराई नहीं है।’ पिछले बार किशोर उपाध्याय की जीत में बाधक बने बागी आर्येन्द्र शर्मा टिकट पा चुके हैं जबकि किशोर उपाध्याय भाजपा के उम्मीदवार बन मैदान में हैं 2022 के कड़े संघर्ष के चुनाव में कांग्रेस और उसके नेताओं की साख दांव पर है। चुनौतियां भाजपा से ही नहीं है। पार्टी के अन्दर की भी चुनौतियां हैं। जिनका उसे मुकाबला करना है। उनके प्रत्याशियों के चयन को चुनावों में मतदाता की कसौटी पर कसा जाना अब बाकी है।