मानव-वन्य जीवों के मध्य टकराव
मानव-वन्यजीव व जैव विविधता संबंधी जोखिम आज के दौर में एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। इसने मानव, वन्यजीव एवं पर्यावरण को गहरे तक प्रभावित किया है। मानव- वन्यजीव संघर्ष ने जैव विविधता के जोखिम को बढ़ा दिया है तो वहीं यह मानव व वन्यजीवों के अस्तित्व की लड़ाई में तब्दील हो चुका है। इसी को ध्यान में रखते हुए ‘जैव विविधता जोखिम और मानव व जंगली जीव द्वंद के घटाव’ विषय को लेकर पिछले दिनों जनपद अल्मोड़ा के ताकुला विकासखंड के सोमेश्वर डिग्री कॉलेज में एक दिवसीय संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य युवाओं के बीच वैज्ञानिक साक्षरता व क्षेत्रीय विज्ञान मीडिया नेटवर्क का विकास कर इस मुद्दे पर समझ विकसित करना रहा।
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार एवं उत्तरांचल जैविक उत्पादक एवं प्रौद्योगिकी विकास द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में विशेषज्ञों ने बताया कि किस तरह युवा वर्ग वैज्ञानिक जानकारियों के माध्यम से स्थानीय समुदाय को पर्यावरणीय समस्याओं को रोकने में मददगार बना सकते हैं। इसके अलावा जैव विविधता व जंगली जानवरों को बचाने के लिए प्रतिवर्ष जंगलों में लगने वाली आग को बचाना क्यों जरूरी है। संदर्भ व्यक्तियों द्वारा जंगलों में फलदार व चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों के वृक्षारोपण की जरूरत भी बताई गई। विशेषज्ञों का कहना था कि युवा न सिर्फ जैव विविधता को समझें, बल्कि जैव विविधता को बनाने में भी अपना योगदान दें। इस दौरान वैज्ञानिक तकनीकी जानकारियों के नये आयामों के साथ ही क्षेत्रीय जैव विविधता के महत्व के बारे में भी प्रतिभागियों ने जाना। इस एक दिवसीय संवाद कार्यक्रम में 50 से अधिक युवाओं ने अपनी भागीदारी कर अपना पक्ष रखा।
इस दौरान डॉ. गोपाल दत्त जोशी, शम्भू जोशी, डॉ. जगदीश कोहली ने बतौर संदर्भ व्यक्ति इन युवाओं को बताया कि स्थानीय जैव विविधता में परिवर्तन होने, जंगली जानवरों के उत्पाद से जो मानव व जीवों के बीच द्वन्द हो रहा है, उसके लिए दोनों के जीवन के दृष्टिकोण से इसे थामना बेहद जरूरी है। लेकिन इसके लिए पहले प्राकृतिक संसाधनों के अवैज्ञानिक दोहन को रोकना बेहद जरूरी है। पिछले दो दशक से मानव-वन्यजीव संघर्षों की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। मानव -वन्यजीव संघर्ष उन संघर्षों को संदर्भित करता है जब वन्यजीवों की उपस्थिति या व्यवहार मानव हितों या जरूरतों के लिए वास्तव में या प्रत्यक्ष रूप से खतरों का कारण बनता है। जिसके कारण लोगों, जानवरों, संसाधनों तथा आवास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
वहीं दूसरी तरफ हमारे जंगल और वन्यजीवों का ठोर -ठिकाना दिन-ब-दिन घटता जा रहा है। उनकी प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं। पर्यावरण में तेजी से हो रहे बदलाव का असर भी इन पर पड़ रहा है। वहीं लोग वन्यजीवों से अपनी जिंदगी को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मानव व वन्यजीवों के बीच टकराव आज एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। मानव-वन्यजीव संघर्ष बिगड़ते पारिस्तिथिकी तंत्र का ही परिणाम है। आज इसका संरक्षण सबसे बड़ी जरूरत बन गया है। मानव- वन्यजीव संघर्ष से उत्तराखण्ड सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है। कुमाऊं मंडल में भी मानव-वन्य जीव संघर्ष की स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है।
गुलदार महिलाओं, बच्चों व जानवरों को उनके घर के आंगन से ही उठा के जा रहा है। जंगलों में मवेशियों को चराने व घास-लकड़ी के लिए जाने वाले लोगों पर निरन्तर हमले कर रहा है। सैंकड़ों लोग वन्यजीव हमलों में अपने प्राण गंवा चुके हैं। बंदर-लंगूर व अन्य जानवर किसानों की खड़ी फसलों को तहस-नहस कर दे रहे हैं। खेती किसानी पहाड़ों में जीविका का प्रमुख साधन है। यह यहां की सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पद्धति का हिस्सा रहा है लेकिन जंगली जानवरों के आतंक से यह लगातार छूटता जा रहा है। इसी कारण से लोग पहाड़ों से पलायन करने को मजबूर हैं। यहां के किसान साल भर मेहनत करते हैं लेकिन जब फसल पकने व घर लाने का समय होता है जंगली जानवर उसे बर्बाद कर देते हैं। किसानों की सारी मेहनत व्यर्थ हो जाती है। ऐसे में इस विषय पर जागरूकता का होना बहुत जरूरी हो जाता है।