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Uttarakhand

अदालतों में जाने को विवश हैं सैनिक

उत्तराखण्ड सैनिक कल्याण परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष लेफ्टिनेंट कर्नल सत्यापाल सिंह गुलेरिया पिछले कई वर्षों से सेना के उन जवानों की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं जिनके साथ न्याय नहीं हो पाया। ‘दि संडे पोस्ट’ संवाददाता दिनेश पंत ने उनसे जवानों की समस्याओं और रक्षा से जुड़े मुद्दों पर बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश

जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा सैनिक अधिकारी एवं जवानों के विरुद्ध एफआईआर को लेकर आपने सवाल उठाए हैं, इसकी वजह? सैनिक अधिकारी एवं जवानों के विरुद्ध जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा कराई गई एफआईआर संविधान सम्मत नहीं है। यह भारतीय संविधान के ह्‌यूमन राइट प्रोटेक्शन एक्ट १९९३ सेक्शन २ (१) का सीधा उल्लद्घंन है। यह एक्ट कहता है कि देश के हर नागरिक को मान-मर्यादा, गरिमा, प्रतिष्ठा, समानता एवं आजादी का अधिकार है। भारतीय सेना में सेवारत जवान भी इससे अलग नहीं हैं। ड्यूटी के दौरान अपने को बचाना कहां गलत है। खड़े- खड़े गोली एवं पत्थर खाना क्या जायज है? यह सीधा मानवाधिकारों का उल्लद्घंन है। जवान भी केंद्र सरकार के कर्मचारी हैं, ऐसे में केंद्र सरकार को जम्मू-कश्मीर सरकार के इस कदम का विरोध करना चाहिए। बड़ी बात यह कि इस मामले पर रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री की चुप्पी सैनिकों के मनोबल पर असर डालने वाली है। सेना में अनुशासन के नाम पर लाल स्याही के कानून को खत्म करने को लेकर आप लंबे से पत्राचार करते रहे हैं, यह कानून किस तरह से असंवैधानिक है? वर्ष १९६५ से सेना में जो जवान चार या उससे अधिक लाल स्याही से लिखने वाली सजाएं काटते हैं उन्हें सेना से सेवानिवृत्त कर दिया जाता है। ऐसा करके उनके साथ सेना बेइंसाफी कर रही है, हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे असंवैधानिक करार दिया है। मैंने लाल स्याही श्रेणी के सैनिकों एवं पूर्व सैनिकों की तरफ से १८ नवंबर २०१२ को सेनाध्यक्ष को इसे गैर कानूनी बताते हुए सुझाव दिया था कि सेना के लाल स्याही की सजा पाने वाले जवानों को अर्द्धसैनिक बलों की तरह सापेक्ष पेंशन मिलनी चाहिए। साथ ही यह मांग भी की थी कि रेगुलेशन १३२ ऑफ पेंशन रेगुलेशन फॉर आर्मी १९६१ को भी संशोधित किया जाए। सेना मुख्यालय ने मेरे द्वारा दिए गए सुझाव को मान लिया था और भरोसा दिलाया था कि इस बिंदु को रक्षा मंत्रालय को भेजा जाएगा, लेकिन रक्षा मंत्रालय ने इस मामले में अभी तक चुप्पी साधी हुई है जिससे लाल स्याही की सजा काट रहे सैनिकों के परिवार आर्थिक तंगी और सामाजिक अवहेलना का दंश झेल रहे हैं। उच्च न्यायालय ने भी लाल स्याही की सजा को संविधान की धारा १४, आर्मी एक्ट १९५० की धारा २२, २३ तथा १९१ और आर्मी रूल १९५४ के १३(१), (२) और ३ (१११) के विरुद्ध बताया है। रेड इंट्री वाले जवान अपंगता पेंशन से भी वंचित हैं, क्या यह उचित है? रेड इंट्री के तहत द्घर भेजे गए जवानों को अपंगता पेंशन से वंचित रखा गया है जो कतई जायज नहीं है। यह इन जवानों के साथ अन्याय है। कानून कहता है कि अपंगता होने की स्थिति में इन्हें पेंशन मिलनी चाहिए। लेकिन कानून की जानकारी के अभाव के चलते ये जवान अपंगता पेंशन से वंचित हो रहे हैं। आर्मी एक्ट जो भारतीय संसद से ही पारित है, उसमें कहीं ऐसा नहीं लिखा है कि अपंग होने की स्थिति में जवान को पेंशन से वंचित रखा जाए। जब आसाम राइफल्स के जवानों को अपंगता पेंशन मिल सकती है तो सेना के जवान इससे वंचित क्यों हैं? केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस कानून में सुधार करे, लेकिन यहां तो रक्षा मंत्रालय सोया हुआ है। देखा जा रहा है कि विगत वर्षों में सैनिक अदालतों में पूर्व सैनिकों की भीड़ बढ़ती जा रही है, इसकी वजह आप क्या मानते हैं? पहला यह कि रिकॉर्ड आफिस पेंशन संबंधित कानून बनाने वालों के निर्णयानुसार काम करने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। दूसरा, बहुत से ऐसे केस हैं जहां प्रिंसपल कंट्रोलर ऑफ डिफेंस एकाउंट (पेंशन) इलाहाबाद द्वारा रिकॉर्ड ऑफिसर को भेजे गए दस्तावेजों का सही आंकलन नहीं होता। आर्मी हेडक्वार्टर भी इन मामलों में ईमानदारी से जांच-पड़ताल नहीं करते। ज्यादातर केस में सैनिकों की प्रार्थनाओं को गलत ठहराने की कोशिश होती है। तीसरा, सैनिकों की पहली तथा दूसरी अपील जो सेना मुख्यालय को रिकार्ड आफिसों तथा पीसीडीए (पी) इलाहाबाद के माध्यम से भेजे जाते हैं उनके निस्तारण में सेना मुख्यालय दो से पांच वर्ष का समय लेता है और ७० प्रतिशत मामलों में सेना मुख्यालय सैनिकों के विरुद्ध निर्णय देता है। जिसके कारण सैनिक तथा उनके परिवार सैनिक अदालतों में जाने को विवश हो जाते हैं। जिस बोफोर्स तोप को लेकर सवाल उठाए गए थे उसी ने कारगिल फतह करने में मदद की अब यह तोप गनर वंदना में शामिल है, इस पर आप क्या प्रतिक्रिया देंगे? केंद्र सरकार द्वारा बोफोर्स मामले को अदालत में ले जाना एक राजनीतिक चाल है जिसका विपरीत असर उन सैनिकों पर पड़ा है जिन्होंने कारगिल युद्ध लड़ा और वर्तमान में जो सैनिक इस उच्चकोटि की गन की सेना में रोज पूजा करते हैं। कारगिल युद्ध के बाद हजारों सैनिकों ने स्वर्गीय राजीव गांधी को धन्यवाद किया था कि उन्होंने सेना को इतनी उच्च कोटि की गन मुहैया करवाई। यह बात इस गन को लेकर सैनिकों द्वारा रोज गायी जाने वाली प्रार्थनाओं से साबित होती है। अभी हाल में बिहार के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने राजीव गांधी को ईमानदार शख्सियत बताते हुए कहा कि राजीव बोफोर्स द्घोटाले में शामिल नहीं थे। भाजपा सिर्फ इस मुद्दे पर राजनीति कर गलत संदेश देने में लगी है। वन रैंक, वन पैंशन की विंसगतियों को लेकर पूर्व सैनिकों द्वारा असंतोष जाहिर किया जा रहा है। किस तरह की विसंगतियां अब भी व्याप्त हैं? देखिए, केंद्र सरकार जिस वन रैंक, वन पेंशन का डंका पीट रही है उसमें २००६ से पहले एवं उसके बाद सेवानिवृत्त होने वाले जवानों व सैन्य अधिकारियों की पेंशन में भारी अंतर है। सिपाही की पेंशन में ४४८४, नायक ४३९१, हवलदार ६०६९, नायब सूबेदार ५७८४, सूबेदार ६०४९, सूबेदार मेजर ७१९६ और लेफ्टिनेंट कर्नल की पेंशन में १२७८० रुपए प्रतिमाह का अंतर है। इन विसंगतियों को तो केंद्र सरकार पाट नहीं पा रही और हो हल्ला सारे जहां में कर रही है। कांगे्रस भाजपा पर सेना के राजनीतिकरण एवं सैनिकों को गुमराह करने का आरोप लगाती है, लेकिन सेना और सैनिकों की मजबूती के लिए इस पार्टी द्वारा क्या कदम उठाए गए? सेना के १३ लाख सेवारत सैनिक और २५ लाख पूर्व सैनिकों और ६.५ लाख वीरांगनाओं को खुशहाल जीवन देने के लिए कांगे्रस हमेशा प्रतिबद्ध रही है। १९४७-४८ की जम्मू-कश्मीर विजय, १९६१ की गोवा विजय, पाकिस्तान से लड़े गए आज तक के सभी युद्वों में कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों का अहम योगदान रहा है। जय जवान जय किसान का नारा भी कांगे्रसी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिया। पेंशन, जमीन से लेकर हर तरह की सुविधा कांगे्रस शासन काल में जवानों को दी गई। कांगे्रसी प्रधानमंत्राी इंदिरा गांधी ने १९७१ के युद्व में अपने कौशल का परिचय दिया। सेना के आधुनीकरण के लिए राजीव गांधी की कम्प्यूटर और संचार प्रक्रिया काफी मददगार रही। कांगे्रसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में एक सिपाही के लिए एक करोड़ रुपए तक के मुफ्त इलाज का प्रावधान किया और सैनिकों के वेतन भत्तों में बढ़ोतरी की।

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