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Uttarakhand

खांटी नेता का माटी प्रेम

हरीश रावत को खांटी नेता यूं ही नहीं कहा जाता है बल्कि इसके पीछे उनका चार दशकों का राजनीतिक अनुभव और जमीनी जुड़ाव है। जमीनी जुड़ाव भी ऐसा जिसमें उनका माटी-प्रेम स्पष्ट झलकता है। समय-समय पर उनकी पहाड़ी व्यंजनों की पार्टियां इसका साक्षात् प्रमाण हैं, जिसमें वह न केवल पहाड़ के मोटे अनाज बल्कि फल और फूल की प्रसिद्धि देश-विदेश तक फैलाते हैं। साथ ही वह अपनी इन पार्टियों के बहाने सियासी तीर भी चलाना नहीं चूकते हैं

हल्द्वानी, रुद्रपुर में और आज देहरादून में बड़ी संख्या में काफल बेचती हुई ठेली और काफल बेचने वाले को देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। जब मैंने काफल चैप्टर प्रारंभ किया था और काफल पार्टियां दी थीं तो लोगों को कौतूहल हुआ, लोगों ने उसमें राजनीति देखी थी। अब मैं कहना चाहता हूं कि इन काफल की ठेलियों में उत्तराखण्ड दिखाई दे रहा है। वन विभाग, निजी, वृक्ष पालक काफल के वृक्ष लगाएंगे तो उत्तराखण्ड भी हरा-भरा होगा, वन्य जीवों को भी फल मिलेंगे और हमको, आपको भी सबसे सुस्वाद और अल्सर की बीमारी का इलाज करने वाला काफल का फल भी खाने को मिलेगा। यह कहना है कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का। जिन्होंने इस बात में अपनी एक काफल पार्टी का जिक्र करते हुए सियासत को भी आईना दिखाया है।

कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत समय- समय पर पार्टियां देते रहते हैं लेकिन यह पार्टियां कोई फाइव स्टार होटल में दी जाने वाली पार्टी नहीं, बल्कि पहाड़ी उत्पादों पर आधारित वह दावत होती है जिसमें वह अपनी उत्तराखण्डियत की प्रतिबद्धता को दोहराने के साथ ही सत्तारूढ़ भाजपा पर भी प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। हालांकि उनका कहना रहा है कि इन पार्टियों का कोई राजनीतिक निहितार्थ न निकाला जाए। ये सिर्फ पहाड़ी उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए दी जाती हैं। लेकिन जिस तरह वह इन पार्टियों में भाजपा पर हमला बोलते हैं, उसके सियासी मायने तो निकल ही जाते हैं। वैसे राजनीतिक गलियारों में प्रदेश में इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के श्रीअन्न की पैरवी का जवाब भी माना जाता रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री रावत पहाड़ी उत्पादों के साथ ही स्थानीय व्यंजनों के स्वाद व इसकी पौष्टिकता को लेकर भी सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहते हैं। उनके द्वारा अब तक दी गई काफल पार्टी, आम पार्टी, रायता पार्टी, भुट्टा पार्टी, गेठी पार्टी, जलेबी पार्टी काफी चर्चा में रही हैं। अब रावत की अगली काफल पार्टी देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में होने जा रही है।

अभी हाल में उन्होंने अपने पैतृक गांव मोहनरी में काफल पार्टी दी। इससे पहले उन्होंने हल्द्वानी में पार्टी कार्यकर्ताओं व मीडिया कर्मियों को काफल पार्टी देकर एक तीर से दो निशाना साधने की कोशिश की थी। हल्द्वानी में दी गई काफल पार्टी को तो उन्होंने काफल चैप्टर की शुरुआत बताया था जिसमें उनका मानना था कि इससे पहाड़ में परंपरागत उत्पादों को प्रोत्साहन मिलेगा। अपने पैतृक गांव मोहनरी में दी काफल पार्टी में रावत ने परंपरागत पहाड़ी उत्पादों के संदेश के साथ ही यह एलान भी किया कि वह रानीखेत से केदारनाथ की यात्रा करेंगे। यह यात्रा दूरबीन के साथ निकलेगी जिसमें भाजपा सरकार के एक साल के कार्यकाल के दौरान हुई प्रगति का जायजा लिया जाएगा। वहीं दूसरी तरफ उन्होंने काफल को उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक, आर्थिक व पर्यावरण संपन्नता का प्रतीक बताया। कहा कि परंपरागत खाने व अन्य बहुपयोगी पौधों का संरक्षण जरूरी है। हालांकि वह कहते रहे हैं कि इन पार्टियों का राजनीति से कोई मतलब नहीं है। विरोधी तो कुछ न कुछ कहते रहे हैं, हमारा उद्देश्य तो उनकी आर्थिकी को बढ़ाना है, जो लोग इससे जुड़े हैं। वहीं हरीश समर्थकों का दावा है कि हरीश रावत इन पार्टियों के जरिए पहाड़ी उत्पादों को विश्व पटल पर लाने का प्रयास करते हैं। झंगोरा की खीर, भट्ट के डुबके, पहाड़ी ककड़ी का रायता, मुडवा को उन्होंने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है।

लेकिन इन पार्टियों में जिस तरह से वह राजनीतिक निशाना साधते हैं तो उससे इन पार्टियों को राजनीति से मुक्त तो कतई नहीं कहा जा सकता है। वह इन पार्टियों के जरिए भाजपा पर निशाना साधते रहे हैं। महंगाई, बेरोजगारी, केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के साथ ही भाजपा के अंदर की उठक-पटक पर भी वह यहां प्रहार करने से नहीं चूकते। जैसे- भुट्टा खाते हुए वह कहते हैं कि राज्य व केंद्र की नाकामियों को जनता के सामने रखा जाएगा। भुट्टा पार्टी का यह नारा कि ‘भुट्टा खाएंगे, कांग्रेस को लाएंगे’, हालांकि वह ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो पाए लेकिन पार्टियां जारी हैं और इसमें सियासी निशानेबाजी भी जारी है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पूर्व मुख्यमंत्री रावत इसमें सिर्फ राजनीति की ही बात करते हों वह परंपरागत उत्पादों को अपनी पार्टियों में हमेशा आगे रखते हैं। इन पार्टियों के माध्यम से उनका यह संदेश मायने रखता है कि पहाड़ों में पैदा होने वाले अन्न की खपत को बढ़ाना जरूरी है।

वह परंपरागत पहाड़ी उत्पादों को रोजगार से जोड़ने भर की बयानबाजी नहीं करते, बल्कि उनके पास बकायदा परंपरागत उत्पाद रोजगार सृजन का एक पूरा मसौदा भी है। जैसे वह अपने फेसबुक एकाउंट में एक पोस्ट के जरिए इसे स्पष्ट भी करते हैं। इस पोस्ट के अनुसार वह कहते हैं कि अगर हम परंपरागत खाद्यान्न उत्पादन और उसकी मार्केटिंग की अच्छी व्यवस्था करें तो लगभग 8 प्रतिशत ग्रामीण रोजगार में वृद्धि कर सकते हैं। अगर हमने अपने उत्पादों को व्यजंन में तब्दील किया और इसके लिए फूड मार्ड बनाएं। यात्रा मार्गों पर व्यंजन सरायें सृजित की तो 3.5 प्रतिशत रोजगार वृद्धि की संभावना हो जाएगी। इसके अलावा 1.5 प्रतिशत रोजगार की क्षमता खाद्यान्नों से जुड़े कास्ट पक्ष की भी है। 2 प्रतिशत रोजगार हम चौलाई, मारसा के लड्डू जो कि धार्मिक पक्ष से जुड़े हैं। देवी-देवताओं के व्यंजनों के जरिए पैदा कर सकते हैं। गुड़ को उत्तराखंडी उद्योग के रूप में सृजित किया जा सकता है। वह कहते हैं कि अगर इन सबको आपस में समाहित कर लिया जाए तो 15 प्रतिशत नए रोजगार के अवसर सृजित हो सकते हैं। वहीं रावत यह बात कहना भी नहीं भूलते कि पहाड़ी उत्पाद हमें हमारी जड़ों से भी बांधें रहते हैं।

इन पार्टियों में वह अपना यह दर्द हमेशा सामने रखते हैं कि हमने अपने कार्यकाल में मंडुआ, झंगोरा, कौणी, गहत, राजमा, फाफर, मिर्च का खरीद मूल्य निर्धारित किया था। उत्पादकां को बोनस योजना से लाभान्वित किया लेकिन भाजपा ने खरीद नीति को बदल दिया। उत्पादकों को बोनस देने की नीति को बंद कर दिया। जबकि बिना बोनस के परंपरागत फसलें लागत मूल्य भी अदा नहीं कर पाती हैं। जब खेतों में अन्न ही पैदा नहीं होगा तो लोगों को खेतों में रोजगार कहां से मिलेगा। कुल मिलाकर हरीश रावत की इन पार्टियों ने पहाड़ी उत्पादों की ब्राडिंग करने में सफलता तो अवश्य पाई है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

रावत की जुबानी, पार्टियों की कहानी

25 मार्च 2022 : कुछ दिनों से मेरा मन अपने रुगांव में नमक और तेल लगे रुकाफल खाने को कह रहा है। मन के एक हिस्से में यह भी भाव है कि रोटी के साथ प्याज का थेचुआ और चुआरू की चटनी का स्वाद लिया जाए, मगर इसके लिए अभी कुछ दिन और इंतजार करना पड़ेगा। मैं इस बार गांव में काफल को ड्राई करके भी स्वादिष्ट बनाए रखा जा सकता है या नहीं, या प्रिजर्वेटिव डालकर कितने दिनों तक उसके स्वाद व गुणों को बरकरार रखा जा सकता है, उस पर भी काम करना चाहता हूं। यही काम में हिंसालू और किल्मोड़ा पर भी करना चाहता हूं।

पहले जब मैं गांव जाता था तो मार्च- अप्रैल में मुझे कैरूवे की सब्जी बहुत खाने को मिलती थी, ऐसा लग रहा है कि कैरूवा धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर हो रहा है, जबकि वह एक बहुत ही जुडिशस् सब्जी है। खैर इस समय मन में यह है कि मोहनरी पहले जाऊं या मां गंगा के किनारे कहीं पर हरिद्वार में एक कुटिया में 10 दिन का प्रवास कर मां गंगा से और मां गंगा के जल से भगवान दक्षेश्वर को जलाभिषेसित कर अपनी उन गलतियों के लिए क्षमा मांगू, जिनके कारण हर चुनाव में सर्वाधिक दंड मुझ ही को भुगतना पड़ता है! कितना अजीब है मैंने पूरी पार्टी के लिए रुउत्तराखण्डियत का एक कवच तैयार किया, जिस कवच का भेदन भाजपा नहीं कर पाई और रुप्रधानमंत्री जी को खुद टोपी पहनकर उत्तराखण्डियत के महत्व को स्वीकारना पड़ा, मगर मैं उत्तराखण्डियत के मायके लालकुआं में बुरी तरीके से पराजित हो गया, ऐसा लग रहा है जैसे चुनकर के मुझे बूथ दर बूथ दंडित करने का वो इंतजार कर रहे थे, जीत-हार होती हैं, मगर विचार की हार नहीं होनी चाहिए। लेकिन मेरा मानना है जो विचार 2014 में मैंने इनिशिएट किया/ आगे बढ़ाया, वही विचार उत्तराखण्ड में पलायन, बेरोजगारी, गरीबी, खाली होते गांवों की जिंदगी आदि का समाधान हैं।

मैं किसी को न हरिद्वार एवं उधमसिंहनगर के और न कहीं सीमांत जनपदों के लिये कोई नया ऐसा विचार लेकर के आगे बढ़ता हुआ नहीं देख रहा हूं, जिसके आधार पर कहा जाए कि उत्तराखण्ड इस पर बढ़ते हुए अपनी चुनौतियों का समाधान निकालेगा, तो मैं मां गंगा, भगवान शिव से यह जरूर प्रार्थना करूंगा, भगवान आप गंगा के जल से जलाभिषेसित होकर जरा मार्गदर्शन करिए, कहीं जिन बातों को मैं कह रहा हूं, उनसे इतर तो कुछ समाधान उत्तराखंड की समस्याओं का नहीं है! शरीर भी कमजोर हो रहा है। चाहता हूं 8-10 दिन हनुमान जी की मूर्ति के सामने मैं, हनुमान चालीसा का पाठ भी पढ़ूं। मगर काफल इस बार मैं किसी भी रूप में मिस नहीं करना चाहूंगा और वह भी अपने गांव में नमक व तेल के साथ सने हुए काफल।
2 जनवरी 2023 : ‘हमारी सरकार ने प्रदेश के मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के लिए पहल शुरू की थी लेकिन समय के साथ उन्हें बीजेपी आगे नहीं बढ़ा पाई।

अगर राज्य से पलायन और बेरोजगारी को दूर करना है तो हमें अपने मोटे अनाजों को लेकर पहल करनी होगी। मडुवा हमारा कल्याण करेगा, इस दृढ़ निश्चय से हमने मडुवे, झुंगरा, कौणी आदि मोटे अनाजों को शक्तिवर्धक अनाज घोषित करने का आग्रह वर्ल्ड फूड ऑर्गेनाइजेशन से किया, मैं उस समय शरद पवार जी के साथ कृषि राज्य मंत्री था। मुझे खुशी है कि दुनिया इस वर्ष को विश्व मडुवा वर्ष के रूप में मना रहे हैं।’ ‘कोई मोटे अनाजों का वर्ष कह रहा है, कोई बाजरा का वर्ष कह रहा है, कोई मिलेट ईयर कह रहा है तो मैं इसको मडुवा वर्ष कह रहा हूं और आज मडुवा और गुड़ का समन्वय कर आपको मडुवा-गुड़ खिलाया जाएगा, मडुवे की रोटी और हरिद्वार का गुड़, ऊधमसिंह नगर का मक्खन, यह तीनों का संबंध क्या अद्भुत नजारा पेश करता है, आज मैंने कुछ मित्रों को घर पर बुलाया है इस स्वाद को एक विहंगम रूप देने के लिए। हमारी मडुवा-गुड़ की पहचान जिंदाबाद।

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