कभी हिमालयी राज्यों की शान कहा जाने वाला हिम तेंदुआ विलुप्ति के कगार पर है। हिम तेंदुआ ही नहीं बर्फ का जहाज कहा जाने वाला याक हो या फिर हिमालय की शान कहा जाने वाला स्नो लैपर्ड या फिर भालू, सील, पेंग्विन आदि जीव प्रजातियां हों, इन सबका जीवन संकट में है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मानवीय आवागमन के चलते भी इन्हें नुकसान पहुंच रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि, निर्माण कार्य व तस्करी और जंगली जानवरों का शिकार इनके लगातार कम होने की बड़ी वजह रही हैं
हिमालयी राज्यों में बर्फ या इसके आस-पास पाए जाने वाले प्रजातियों पर निरंतर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि निर्माण कार्य व तस्करी, जंगली जानवरों का शिकार इसकी बड़ी वजह बन रही है। प्रजातियों पर छाया यह संकट जैव विविधता के व्यापक संसार को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। अब बर्फ का जहाज कहा जाने वाला याक हो या फिर हिमालय की शान कहा जाने वाला स्नो लैपर्ड या फिर भालू, सील, पेंग्विन आदि जीव प्रजातियां हों, इन सबका जीवन संकट में है।
‘याक’ जिसे बर्फ का जहाज कहा जाता है, संकट में है। इसकी संख्या निरंतर कम हो रही है। उत्तराखण्ड, हिमाचल, सिक्किम, लद्दाख आदि के बर्फीले क्षेत्रों में यह निवास करता है। इसका वैज्ञानिक नाम बोस गू्रनाइंस है। यह अंग्युलेटा गण के बोविडी कुल का शाकाहारी स्तन पोषी जीव है। इसे तिब्बती बैल, चमरी या चंवरी व सुरायगाय के नाम से भी जाना जाता है। 2500 मीटर से ऊपर की ऊंचाई में इसका निवास स्थल है। इसकी खासियत यह है कि यह तूफान को भी सूंघ लेता है। इसकी बनावट पर जाएं तो इसका चेहरा रौबीला होता है। कंध ऊंचा होता है। पीठ चौरस होती है और पैर छोटे व गठीले होते हैं। उसके सीने के नीचले हिस्से और पैर के ऊपरी हिस्से में उगे बाल काफी लंबे होते हैं। इन्हीं बातों की वजह से यह अपने को ठंड से बचाते हैं। कहा जाता है कि यह रोबीला दिखता जरूर है लेकिन होता काफी डरपोक है। लेकिन संकट आने पर प्रतिवाद करने में भी यह माहिर है। यह बर्फ से अपनी प्यास बुझाता है। लद्दाख, हिमाचल, उत्तराखण्ड से लेकर सिक्किम तक हजारों वर्षों से स्थानीय गाय और याक की क्रॉसिंग से झूप्पू याक पैदा किए जाते रहे हैं। झुप्पा भी याक की तरह ही माल वाहक का काम करता है। जोमो भी उसी की एक नस्ल है। जोमो के दूध में मलाई की मात्रा काफी अधिक पाई जाती है। याक के दूध से चर्बी बनाई जाती है। बताते हैं कि राल ग्लेशियर मुनस्यारी में अभी याकों की संख्या 28 है। शरीर से हट्टा कट्टा यह जीव पीठ पर बोझ लादकर बड़ी आसानी से ऊंचे -ऊंचे पहाड़ों को लांघने में माहिर है। तिब्बत व्यापार के व्यापारी इसका प्रयोग करते आए हैं। लेकिन अब यह प्रजाति संकट में है।
यही हाल हिम तेंदुआ यानी ‘स्नो लैपर्ड’ का भी है। कभी हिमालयी राज्यों की शान कहा जाने वाला हिम तेंदुआ विलुप्ति के कगार पर है। हिम तेंदुआ को हिमालयी राज्य हिमाचल प्रदेश के राजकीय पशु का दर्जा मिला हुआ है। अब इसकी आबादी में निरंतर गिरावट आ रही है। माना जा रहा है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मानवीय आवागमन के चलते भी इसे नुकसान पहुंच रहा है। इसकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने स्नो तेंदुओं को
कमजोर श्रेणी में सूची किया है। उत्तराखण्ड में नंदा देवी जैव विविधता क्षेत्र, गंगोत्री नेशनल पार्क, अस्कोट वाइल्ड लाइफ सेंचुरी में यह पाए जाते हैं। वर्तमान में 5 हजार किमी के हिमालयी दायरे में हिम तेंदुआ संकट में है। लाल सूची में भी यह दर्ज हो चुका है। समुद्री सतह से 3500 से 7000 मीटर की ऊंचाई पर हिमालयी क्षेत्र में इसका वास है। हिम तेंदुआ भारत, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, कजाकिस्तान, पाकिस्तान, किरजिस्तान, अजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, मंगोलिया की बर्फीली पहाड़ियों में पाया जाता है। अभी हिम तेंदुओं के लिए जम्मू कश्मीर में हेमिस राष्ट्रीय उद्यान, उत्तराखण्ड में नंदा देवी व फूलों की घाटी, लाहौल व स्पीति में पिन घाटी व हिमाचल में ग्रेट हिमालयन राष्ट्रीय उद्यान को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है। स्नो लैपर्ड यूनीसिया वंश का मांसाहारी विडाल प्रजाति का है। अब इसकी संख्या मुश्किल से 500 के आस पास रह गई है। यह सर्दियों में भोजन की तलाश में 1200 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाले वन क्षेत्रों की ओर रुख करता है। संयुक्त राष्ट्र के यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (यूएनडीपी) ने इसे बचाने की पहल की है। जिसके तहत हिमालय क्षेत्र में स्नो लैपर्ड के आवास क्षेत्रों को उसके अनुकूल बनाया जाता है। इसके संरक्षण के लिए उच्च हिमालयी कैंप कैमरे से लगातार इसकी मॉनिटरिंग व पेट्रोल की जाती है। वन कर्मियों को बर्फ के लिहाज से बेहतर सुविधाएं व संसाधन मुहैया कराए जाते हैं। इन सबका उद्देश्य है कि हिम तेंदुओं का कुनबा बढ़ाया जाए।
इसी तरह ‘एंपरर पेंग्विन’ पर भी खतरा मंडरा रहा है। पिघलती बर्फ इसका बड़ा कारण बन रही है। पेग्विन प्रजाति को सबसे लंबी व भारी माना जाता है। बढ़ता तापमान इस प्रजाति के अस्तित्व पर बड़ा खतरा पैदा कर रहा है। यह विलुप्ति के कगार पर है। चार फीट लंबी पेंग्विन अंटार्कटिका में जमी बर्फ पर अपने बच्चों को जन्म देती है। वह यहां इसका पालन करती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि वैश्विक तापमान की वजह से काफी बदलाव हुआ है। अधिक तापमान के चलते बर्फ टूट जाती है और यह प्रजनन मौसम में गायब हो जाती है। शोधकर्ताओं का आकलन है कि अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पास ‘डिपोन इसलेट्स पेंग्विन’ वर्ष 2009 तक पूरी तरह विलुप्त हो गयी। इसकी वजह तापमान में हुआ व्यापक बदलाव रहा है। इसकी पुष्टि ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट से होती है। शोध वैज्ञानिकों का कहना है कि समुद्र में खत्म हो रही बर्फ से पेंग्विन के आहार स्रोत पर प्रभाव पड़ा है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना रहा है कि पिघलती बर्फ न सिर्फ पेंग्विन प्रजाति के लिए खतरा है बल्कि इससे अन्य जीवों की प्रजातियां भी अछूती नहीं रही हैं।
डाउन टू अर्थ पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण अंटार्कटिका में रहने वाले ‘सीलों’ पर खतरा मंडरा रहा है। इनके प्रजनन व निवास स्थलों को नुकसान पहुंच रहा है। जलवायु में हो रहे बदलाव व बदलते परिवेश के कारण इनकी आबादी पर लगातार दबाव पड़ रहा है। विभिन्न प्रजातियां जलवायु परिवर्तन के कारण अलग-अलग तरीके से प्रभावित हो रही है। सीलों की आबादी में लगातार गिरावट आ रही है। वहां बढ़ते तापमान के कारण ‘धु्रवीय भालुओं’ का जीवन भी प्रभावित हो रहा है। उल्लेखनीय है कि अंटार्कटिका में धु्रवीय भालू की 19 अलग-अलग प्रकार की आबादी रहती है। हिम प्रजातियों के अलावा भी जानवरों, पौधें, कवक आदि की कई प्रजातियां खतरे में हैं। अब लुप्तप्राय होती प्रजातियों में जंगली जानवरों, जलीय जानवरों व कीड़ों की दुर्लभ प्रजातियां बड़ी संख्या में सामने आ रही हैं। विश्व वन्य जीव कोष, भारतीय वन्य जीव संस्थान व प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए बने अंतरराष्ट्रीय संघ के अनुसार भारत में लुप्तप्राय प्रजातियों में दुनिया के स्तनधारियों का 8 .86 प्रतिशत है।
अकेले उत्तराखण्ड में वनस्पतियों की 7066 व जंतुओं की 4917 प्रजातियां मौजूद हैं। इनमें से वनस्पतियों की 176 व जंतुओं की 90 प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। ये प्रजातियां इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की रेड सूची में दर्ज हैं। उत्तराखण्ड विज्ञान एवं तकनीकी परिषद् के अनुसार राज्य में 1496 सूक्ष्म जीव, 6598 पौधे की प्रजातियां, 2575
औषधीय व 2351 जंतुओं की प्रजातियां हैं। इनमें से पौधों की 35, औषध्ीय पौधें की 64 व जंतुओं की 101 प्रजातियां
संकटग्रस्त श्रेणी में शामिल हैं। इसी तरह उत्तराखण्ड वन विभाग की अनुसंधन विंग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश में 415 प्रजाति के पेड़, 130 प्रजातियों की झाड़ियां, 88 प्रजाति की घास उपलब्ध है। इसमें से 73 आईयूसीएन की रेड लिस्ट में शामिल हैं। उत्तराखण्ड में 1576 प्रजातियों के पौधे संरक्षित श्रेणी में हैं। इनमें से 76 प्रजातियां संकटग्रस्त हैं जो आईयूसीएन की लाल सूची के साथ ही उत्तराखण्ड जैव विविधता बोर्ड में भी दर्ज हैं। 1576 संरक्षित प्रजाति में से 500 प्रजातियां औषधीय पौधों की हैं जिसमें कल्पवृक्ष, ब्रह्म कमल, संजीवनी, बद्री तुलसी, कृष्णवता, रुद्राक्ष, लेमनग्रास, सिंदूरी आदि शामिल हैं। अगर हिमालयी जीवों पर नजर डालें तो कस्तूरी मृग, मोनाल, स्नो लेपर्ड, एशियाटिक हाथी, बारहसिंगा, टाइगर, हाथी, भालू के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि, निर्माण कार्य व तस्करी और जंगली जानवरों का शिकार इसकी बड़ी वजह रही है।
एक स्वस्थ ग्रह ही हमारी सफलता की कुंजी हैं। प्रकृति का संरक्षण प्रभावी और न्यायसंगत होना चाहिए ताकि हम अपनी प्रकृति की रक्षा कर सकें और यह भी सुनिश्चित कर सकें कि लोग अब भी अपनी जमीन या खेतों पर निर्भर रहकर जीवन यापन कर सकें। 1.1 डिग्री सेल्सियस की ग्लोबल वामिंग पहले ही प्रकृति में खतरनाक और व्यापक बाधाएं पैदा कर चुकी है। विश्व स्तर पर किए गए अध्ययन के अनुसार पौधों, जानवरों और समुद्री प्रजातियों में से लगभग आधे धु्रवीय या भूमि पर, कुछ ऊंचाई पर जा रहे हैं ताकि वे उन परिस्थितियों को ढूंढ सकें, जिनमें वे जीवित रह सकते हैं। चरम घटनाओं की आवृत्ति, तीव्रता और अवध में बढ़ोतरी जैसे लू ओर सूखे ने पेड़ों, समुद्री जीवों को बड़े पैमाने पर मौत की और धकेला है। हम अगले दो दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस के तापमान के साथ कई अपरिहार्य जलवायु खतरों का सामना करने वाले हैं। इससे जैव विविधता को नुकसान का खतरा बढ़ने की आशंका है। 1 .5 डिग्री सेल्सियस के चलते नौ प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडराने लगता है। जिन क्षेत्रों में जैव विविधता ज्यादा है, वहां खतरा 10 गुना बढ़ जाता है। चक्रवात, बाढ़, आंधी ने विस्थापन की समस्या को बढ़ाया है। मच्छर जलजनित बीमारियां, गर्म हवा, बाढ़, सूखा के लिए स्थितियां और खराब हुई हैं। जलवायु संकट के कारण जैव विविधता या जानवरों व पौधों से भरे स्थानों को भी नुकसान पहुंचा है।
हैंस ओटो फोर्टनर, उप प्रमुख, आईपीसीसी द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार के आधार पर