उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों में मूल मुद्दों का पार्श्व में चले जाना संकेत करता है कि राजनीतिक पार्टियों में बुनियादी मुद्दों पर चुनाव लड़ने का साहस नहीं है। मतदान का दिन नजदीक आते-आते विकास के मुद्दों पर चुनाव जीतने का दावा करने वाली भाजपा अंत में मोदी के नाम पर वोट मांगने पर मजबूर हो गई। मोदी बनाम कांग्रेस करने का लाभ भाजपा को कितना मिला यह तो दस मार्च को ही पता चलेगा, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस को कोसने का रहा। कांग्रेस का जोर उत्तराखण्डियत पर था तो आम आदमी पार्टी भी मुफ्त की योजनाएं और दिल्ली मॉडल पर वोट मांगती नजर आई। मतदान का दिन नजदीक आते-आते चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच सिमट गया
उत्तराखण्ड में पांचवीं विधानसभा के लिए प्रतिनिधियों को चुनने के लिए मतदान सम्पन्न हो चुका है और संभावित परिणामों की बंद मुट्टी कई तरह के संकेत दे रही है। चुनाव ठीक से ऐन पहले उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का बयान कि उत्तराखण्ड में भाजपा की सरकार बनते ही प्रदेश में समान नागरिक संहिता लागू की जाएगी। इस बात की पुष्टि करता है कि प्रदेश में चुनाव की जमीनी हकीकत ने भाजपा नेतृत्व को एहसास करा दिया कि जमीनी रूप में उसके लिए माहौल बहुत अनुकूल नहीं हैं। चुनावों से ऐन पहले किए गए इस एलान से चुनावी माहौल को हिन्दू-मुस्लिम की ओर मोड़ने की कोशिश में भाजपा कितनी सफल हुई ये दस मार्च के दिन ईवीएम खुलने के बाद ही पता चलेगा, लेकिन इस प्रकार के मुद्दे उठाने से उत्तराखण्ड में मूल मुद्दों को पार्श्व में डाल भावनात्मक मुद्दों को चुनाव में उछालने के प्रयासों से पता चलता है कि राजनीतिक दलों के लिए विकास का मुद्दा महज चुनावी शिगूफा है और विकास के नाम पर वोट मांगने में राजनीतिक दल स्वयं को असहज महसूस करते हैं। मुस्लिम यूनिवर्सिटी, नमाज की छुट्टी और हरीश रावत का मौलाना की दाढ़ी वाला फोटो विधानसभा चुनावों के मूल मुद्दों को भटकाते जरूर दिखे लेकिन इन सबका मतदाताओं की प्राथमिकताओं पर कुछ असर पड़ा होगा ऐसा दिखता नहीं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषणों में इनको हवा देने की कोशिश की।
उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनावों में प्रचार में भारतीय जनता पार्टी ने स्टार प्रचारकों को झोंकने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,अमित शाह, राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी, अनुराग ठाकुर भाजपा के प्रचारकों में शामिल थे। वहीं कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, रणजीत सिंह सुरजेवाला, सचिन पायलट ही स्टार प्रचारकों में रहे। कांग्रेस के प्रदेश नेताओं में हरीश रावत स्टार प्रचारक के तौर पर अन्य विधानसभाओं में प्रचार के लिए निकले। नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह अपनी विधानसभा चकराता को छोड़कर दो तीन विधानसभा क्षेत्रों में ही प्रचार के लिए गए। प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल और चारों कार्यकारी अध्यक्ष अपनी विधानसभा क्षेत्रों के समीकरणों में उलझ कर अपने विधानसभा क्षेत्रों से बाहर निकल दूसरे प्रत्याशियों के प्रचार की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों में मूल मुद्दों का पार्श्व में चले जाना और तात्कालिक मुद्दों का उभर आना संकेत करता है कि राजनीतिक दलों के लिए बिना लहर के चुनावों में मुद्दों के बल पर चुनाव लड़ना और दांव और दावों के बीच मतदाता के लिए सच और झूठ का अंतर समझ पाना कठिन हो जाता है। मतदान का दिन नजदीक आते-आते विकास के मुद्दों पर चुनाव जीतने का दावा करने वाली भाजपा अंत में मोदी के नाम पर वोट मांगने पर मजबूर हो गई। मोदी बनाम कांग्रेस करने का लाभ भाजपा को कितना मिला ये दस मार्च को ही पता चलेगा लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस को कोसने का रहा। एक बात और गौर करने लायक है कि भाजपा और मोदी के निशाने पर गांधी परिवार के अलावा कोई और भी था तो वो थे कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत। भाजपा के हर नेता ने उतने हमले कांग्रेस के अन्य नेताओं पर नहीं किए जितने हरीश रावत पर किए। 2017 के चुनावों के मुकाबले मोदी फैक्टर इन चुनावों में कम दिखाई दिया। भाजपा ने मोदी के नाम को आगे रखकर वोट जरूर मांगे लेकिन वो उतना प्रभावी दिखा नहीं। हां, अरविंद केजरीवाल को मुफ्त की योजनाओं को कोसने वाली भाजपा मोदी के मुफ्त राशन, मुफ्त वैक्सीन पर वोट मांगती जरूर दिखी। कांग्रेस का जोर उत्तराखण्डियत पर था तो आम आदमी पार्टी भी मुफ्त की योजनाएं और दिल्ली मॉडल पर वोट मांगती दिखी। मतदान का दिन नजदीक आते-आते चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच सिमट गया। कई स्थानों पर मजबूत दिख रही आप मतदान के दिन तक अपने प्रभाव को कायम नहीं रख सकी। कहीं-कहीं बसपा और उक्रांद भी लड़ाई में दिखे जरूर लेकिन जीत की दहलीज वो पार कर पाएंगे इसमें संदेह है। हालांकि मतगणना से पूर्व किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती लेकिन लहरविहीन चुनावों में जिस प्रकार के संकेत आ रहे है उसने हरीश रावत और कांग्रेस के आत्मविश्वास को बल दिया है। हरीश रावत का 48 सीटें जीतने का दावा उन्हीं संकेतों पर आधारित है। हालांकि मुख्यमंत्री पद के मुद्दे को उठाकर हरीश रावत ने अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर कर दी है वहीं प्रदेश प्रभारी देवेन्द्र यादव और नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह ने बिना समय गंवाए आलाकमान द्वारा निर्णय की बात कह हरीश रावत पर सवाल खड़े करने की कोशिश भी कर डाली है। भाजपा के अंदर मुख्यमंत्री धामी के करीबी विधायक संजय गुप्ता का प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक पर हमला यूं ही अकारण नहीं था। चुनाव परिणामों के बाद की राजनीतिक परिस्थितियों से निपटने के लिए मदन कौशिक पर हमला शायद त्रिवेंद्र रावत के उस बयान का जवाब था जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री ने हरिद्वार से अधिक सीटें जिताने पर मदन कौशिक के मुख्यमंत्री बनने की बात की थी।
चुनाव जीतने के दावों-प्रतिदावों के बीच आकलन करें तो इन चुनावों में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता कितने ही मुखर रहे हों लेकिन मतदाता की खामोशी ने दोनों दलों की चिंता बढ़ा दी है। भाजपा को लगता है कि मौन मतदाता मोदी के नाम पर वोट डालकर आया है। वहीं कांग्रेसी नेताओं का मानना है कि उत्तराखण्ड में भाजपा सरकार की कथित नाकामियों के चलते मतदाता का रूझान कांग्रेस की ओर था। जहां तक भाजपा का प्रश्न है टिकट बंटवारे में विधायकों के टिकट काटने से ठिठकी भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा है लेकिन उसका फायदा कांग्रेस को कितना मिल पाया होगा ये अंतिम परिणाम ही बताएंगे। जब राजनीतिक प्रेक्षक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और पूर्व मुख्यमंत्री की सीटों को कड़े संघर्ष में बता रहे हों तो इससे समझा जा सकता है कि पूरे राज्य में चुनावी संघर्ष की स्थिति क्या होगी। कुमाऊं मंडल की बात करें तो पिथौरागढ़ जिले की पिथौरागढ़, धारचूला और गंगोलीहाट सीट पर कांग्रेस और डीडीहाट सीट पर भाजपा के पक्ष में पलड़ा झुका होने की खबरें आ रही हैं वहीं चम्पावत जिले में जिस प्रकार चम्पावत सीट से भाजपा प्रत्याशी कैलाश गहतोड़ी ने संगठन पर भितरघात के आरोप लगाए है उससे लगता है कि जिले में कांग्रेस लाभ ले सकती है।
बागेश्वर जिले में कांग्रेस-भाजपा के बीच एक-एक सीट बंटने की संभावना व्यक्त की जा रही है। अल्मोड़ा जिले की छह सीटों में कांग्रेस की स्थिति मजबूत होने की बात कही जा रही है। हालांकि बताया जाता है कि अल्मोड़ा और सल्ट सीट पर संघर्ष कांटे का है। नैनीताल जिले की रामनगर, भीमताल और कालाढूंगी सीट के समीकरण जनता की खामोशी ने उलझा दिए है। लालकुआं सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के जरूर कड़े संघर्ष में फंसे रहने की बात कही जा रही है लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2017 में किच्छा और हरिद्वार को पुनरावृत्ति शायद इस बार नहीं होगी। हल्द्वानी सीट पर कांग्रेस के सुमित हृदयेश का पलड़ा भारी नजर आता है।
ऊधमसिंह नगर जिले की बात करेंं तो रूद्रपुर सीट पर विधायक राजकुमार ठुकराल के निर्दलीय खड़े होने से भाजपा के शिव अरोरा को झटका लग सकता है। गदरपुर में कैबिनेट मंत्री अरविंद पाण्डेय कड़े मुकाबले में फंसे हैं। बाजपुर में यशपाल आर्या और काशीपुर में नरेंद्र चन्द्र की स्थिति मजबूत बताई जा रही है। खटीमा में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सीट में संघर्ष बहुत कड़ा बताया जा रहा है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि तराई की नौ सीटों में से सात सीटों पर कांग्रेस बाजी मारती दिख रही है। किच्छा सीट पर कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष तिलकराज बेहड़ बाजी पलटने की क्षमता रखते बताए जा रहे हैं।
कुल मिलाकर मतदान के बाद से परिणाम आने तक चुनावों में पड़े वोटों के विश्लेषण के आंकड़े दिन-ब-दिन बदलते रहेंगे। राजनीतिक दलों के दावों-प्रति दावों के बीच अंतिम परिणामों का इंतजार करना बेहतर होगा। वैसे भाजपा-कांग्रेस और इनके नेताओं ने अपने स्तर पर रणनीतियां बनानी शुरू कर दी हैं। हरीश रावत के मुख्यमंत्री वाले बयान पर प्रीतम सिंह का पलटवार और संजय गुप्ता का मदन कौशिक पर हमला इसकी बानगी भर है। जीत का श्रेय अपने ऊपर लेने और हार का ठीकरा दूसरें के सिर पर फोड़ने के लिए अंदरखाने राजनीति शुरू हो चुकी है। परिणामों के इंतजार के बीच कई सवाल राजनीतिक गलियारों में क्षेत्रीय ताकतों और आम आदमी पार्टी के लिए भी तैर रहे हैं जो इन चुनावों में कोई बड़ा कमाल करते दिख नहीं रहे हैं। अंतिम चुनाव परिणाम ही इनकी भूमिका स्पष्ट करेंगे मगर इतना स्पष्ट दिखता है कि इन चुनावों में मतदाता ने बड़े स्तर पर भाजपा कांग्रेस पर अपना भरोसा जताया है जिसमें कांग्रेस बेहतर स्थिति में नजर आती है।
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