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Uttarakhand

पितृसत्तात्मक मूल्यों का पक्षधर है संघ नेतृत्व

  •     राम पुनियानी
    लेखक राष्ट्रीय एकता मंच के संयोजक हैं।

आरएसएस का नेतृत्व, समाज के पितृसत्तामक मूल्यों को बढ़ावा देना चाहता है और भारत के हिंदू समाज के बुराइयों का दोष बाहरी कारकों पर डालते हैं। वे भारत के सामाजिक ढांचे और हिंदू धर्मग्रंथों के मूल्यों की कमियों को नजरअंदाज कर रहे हैं। आरएसएस केवल पुरुषों का संगठन है। इसने ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नामक एक संगठन बनाया जरूर है परंतु वह आरएसएस के अधीन है। इस संगठन के नाम से यह जाहिर है कि वह इस मुद्दे पर हिंदू राष्ट्रवादी सोच को प्रतिबिंबित करता है। इस संगठन के नाम से ‘स्वयं’ शब्द गायब है

आरएसएस का जन्म स्वाधीनता आंदोलन से उपजे जातिगत और लैंगिक समानता की स्थापना के अभियान की खिलाफत में हुआ था। उस समय भारत एक राष्ट्र के रूप में उभर रहा था और इस प्रक्रिया से सामंती पदक्रम कमजोर हो रहा था और जाति, वर्ग और लिंग से ऊपर उठ कर सभी को समान अधिकार देने की बात हो रही थी। इसी की प्रतिक्रिया में मुस्लिम और हिंदू राष्ट्रवादी उभरे, जो धर्म के नाम पर सामाजिक ऊंचनीच को बचाए रखना चाहते थे। हिंदू राष्ट्रवादी आरएसएस ने भारत के स्वर्णिम अतीत की काल्पनिक कथा गढ़ी। वह उस काल को गौरवशाली बताता है जब सामाजिक व्यवस्था मनुस्मृति के कानूनों से संचालित थी।

उसका दावा है कि हिंदू मूल्य महान हैं। वे सभी जातियों को बराबरी का दर्जा देते हैं और महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। मुस्लिम आक्रान्ताओं और लुटेरों के देश पर हमलों से उन गौरवशाली मूल्यों का पतन हुआ। हिंदू समुदाय में महिलाओं को उच्च दर्जा हासिल था परंतु मुस्लिम हमलावरों की हरकतों के चलते, महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगाना हिंदुओं की मजबूरी बन गई और इसी कारण सती प्रथा का जन्म हुआ। हिंदू महिलाओं पर बंदिशों के पीछे के कारण को समझाने के लिए हिंदू राष्ट्रवादियों ने यह मिथक गढ़ा। यही दावा हाल में आरएसएस सह कार्यवाह (महासचिव) कृष्ण गोपाल ने नारी शक्ति संगम के तत्वाधान में महिला
सशक्तिकरण विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कही। भारत में महिलाएं कैसे सशक्त से निशक्त हुईं, इसे समझाते हुए उन्होंने कहा ‘12वीं सदी के पहले तक महिलाएं काफी हद तक आजाद थीं परंतु मध्यकाल (मध्यकालीन भारत) में हालात बदल गए। वह बहुत कठिन समय था। पूरा देश गुलामी से जूझ रहा था। महिलाएं खतरे में थीं। लाखों महिलाओं को अगवा कर दूसरे देशों में बेच दिया गया। (अहमद शाह) अब्दाली, (मुहम्मद) गौरी और (महमूद) गजनी यहां से महिलाओं को ले गए और उन्हें बेच दिया। वह हमारे देश के अपमान का दौर था। तो हमारी महिलाओं की रक्षा के लिए हमारे समाज ने उन पर कई तरह की रोकें लगा दीं।’

शत्रु राजा के राज्य में लूटपाट करना और पराजितों को गुलाम बनाना केवल मुस्लिम आक्रांताओं तक सीमित नहीं था। हिंदू और अन्य राजाओं ने भी विजित इलाकों को लूटा, महिलाओं को अगवा किया और पुरुषों को गुलाम बनाया। चोल राजा, श्रीलंका से बड़ी संख्या में लोगों को गुलाम बनाकर लाए थे। छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना, कल्याण राज्य को जीतने के बाद वहां से धन-दौलत के अलावा, वहां के मुस्लिम शासक की बहू को भी अपने साथ ले गई थी। जिन पाबंदियों की बात कृष्ण गोपाल कर रहे हैं, वे दक्षिण एशिया में मुस्लिम राजाओं के कदम रखने के पहले से हिंदू महिलाओं पर लागू थीं। सती प्रथा, जिसके अंतर्गत हिंदू विधवाओं को उनके पति की चिता पर जिंदा जला दिया जाता था, भी पहले से भारत में विद्यमान थी।

प्राचीन भारत में भी महिलाएं संपत्ति और शिक्षा के अधिकारों से वंचित थीं। प्राचीन ग्रंथों में सती प्रथा का वर्णन है। महाभारत के अनुसार, पाण्डु की पत्नी माद्री सती हुई थीं। इसी तरह, भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव की चारों पत्नियां भी अपने पति की चिता पर सती हो गई थीं। सच तो यह है कि पितृसत्तामकता और अपने वंश की श्रेष्ठता का अभिमान, महिलाओं के दमन और सती प्रथा की जड़ में थे। रोमिला थापर के अनुसार, ‘पितृसत्तामक समाज में महिलाओं की पराधीनता’, ‘कुल के सम्मान की रक्षा’ और ‘महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण’ सती प्रथा के उदय के पीछे के प्रमुख कारक थे, विद्या देहेजिया के अनुसार, सती प्रथा क्षत्रिय कुलीन वर्ग में जन्मीं और अधिकांश मामलों में हिंदुओं के योद्धा वर्ग तक सीमित रही।

उत्तर-गुप्त काल में, व्यापार-व्यवसाय में गिरावट, महिलाओं की स्थिति में गिरावट का कारण बनी। उनके शिक्षा प्राप्त करने पर रोक लगा दी गई, बाल विवाह होने लगे और विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसी के कारण सती जैसी भयावह प्रथा को बढ़ावा मिला। अपनी पुस्तक ‘वीमेन : हर हिस्ट्री’ में चंद्रबाबू और थिल्गावती ने इस स्थिति का सारगर्भित वर्णन किया है : ‘लड़कियों को बहुत कम या न के बराबर स्वतंत्रता हासिल थी। लड़कियों की शादी बहुत छोटी आयु में कर दी जाती थी। उन्हें शिक्षा तक पहुंच नहीं थी और सती प्रथा के पालन को श्रद्धास्पद माना जाता था।’ अब आरएसएस इस स्थिति से कैसे निपटे? आरएसएस केवल पुरुषों का संगठन है। इसने ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नामक एक संगठन बनाया जरूर है परंतु वह आरएसएस के अधीन है। इस संगठन के नाम से यह जाहिर है कि वह इस मुद्दे पर हिंदू राष्ट्रवादी सोच को प्रतिबिंबित करता है। इस संगठन के नाम से ‘स्वयं’ शब्द गायब है।

राष्ट्र सेविका समिति अपनी महिला अनुयायियों को क्या सिखा रही है यह संघ परिवार की कई महिला नेत्रियों के कथनों से जाहिर है। समिति का नेतृत्व, महिलाओं को पराधीन रखने के पक्ष में है। भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विजयाराजे सिंधिया ने रूपकुंवर सती काण्ड के बाद, सती प्रथा के समर्थन में संसद के समक्ष प्रदर्शन का नेतृत्व किया था। उस समय संसद, सती प्रथा पर रोक लगाने के लिए नया कानून बनाने पर विचार कर रही थी। विजयाराजे के अनुसार, सती एक गौरवशाली परंपरा है और हिंदू महिलाओं को सती होने का अधिकार है। समिति की एक अन्य शीर्ष नेता, मृदुला सिन्हा जो बाद में गोवा की राज्यपाल बनीं ने सेवी पत्रिका को अप्रैल 1994 में दिए गए एक साक्षात्कार में हिंदू महिलाओं को यह सलाह दी थी कि वे पति के हाथों पिटाई को स्वीकार करें। उन्होंने दहेज प्रथा का बचाव किया और महिलाओं का आह्नान किया कि जब तक बहुत जरूरी न हो, वे घर से बाहर जाकर काम न करें।

आरएसएस के पूर्व प्रचारक प्रमोद मुत्तालिक की राम सेने ने मंगलौर में पब से लौट रही लड़कियों की पिटाई लगाई थी। वैलेंटाइंस डे पर युवा युगलों पर हमले, संघ परिवार के सदस्य बजरंग दल की गतिविधियों का हिस्सा रहा है। सन 2020 में 10 नवम्बर को, गोवा पुलिस ने एक विधि महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक शिल्पा सिंह के खिलाफ इसलिए एफआईआर दर्ज की थी क्योंकि उन्होंने विवाहित हिंदू स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाले मंगलसूत्र की तुलना, पालतू कुत्ते के पट्टे से की थी। संघ की विद्यार्थी शाखा एबीवीपी ने महाविद्यालय प्रशासन से शिल्पा सिंह की शिकायत भी की थी।

भाजपा सरकार ने गीता प्रेस, गोरखपुर को 2023 के गांधी शांति पुरस्कार से नवाजा है। यह प्रकाशक उन्हीं मूल्यों का पैरोकार है जिन्हें संघ परिवार बढ़ावा देना चाहता है। अपनी पुस्तकों के जरिए यह संस्थान जाति और लैंगिक मसलों पर मनुस्मृति के मूल्यों को पुनर्स्थापित करना चाहता है। इस प्रकाशक की कई पुस्तकें, हिंदू महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहने की सलाह देती हैं। इनमें से कुछ हैं हनुमान प्रसाद पोद्दार की ‘नारी शिक्षा’, स्वामी रामसुखदास की ‘गृहस्थ में कैसे रहें?’ और जय दयाल गोयनका की ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा और ‘नारी धर्म’ इसके अलावा, संघ परिवार ने काल्पनिक ‘लव जिहाद’ के नाम पर हिंदू महिलाओं को नियंत्रित करने और मुसलमानों को निशाना बनाने का अभियान चलाया हुआ है।

इन संस्थाओं के प्रतिनिधि, घर-घर जाकर हिंदू परिवारों को यह संदेश दे रहे हैं कि वे अपनी लड़कियों और बहनों पर ‘नजर रखें।’ चाहे वह 1920 हो या 2009, हिंदू दक्षिणपंथियों के अभियान का आधार पितृसत्तामक मूल्य होते हैं। इनमें भोली- भाली हिंदू महिलाओं को मुस्लिम पुरुषों के हाथों शिकार होते दिखाया जाता है। इसमें इस बात को नजरअंदाज किया जाता है कि हिंदू महिलाओं को प्रेम करने और अपनी पसंद से विवाह करने का अधिकार है।’ आरएसएस का नेतृत्व, समाज के पितृसत्तामक मूल्यों को बढ़ावा देना चाहता है और हिंदू समाज के बुराइयों का दोष बाहरी कारकों पर डालते हैं। वे भारत के सामाजिक ढांचे और हिंदू धर्मग्रंथों के मूल्यों की कमियों को नजरअंदाज कर रहे हैं।

(यह लेखक के अपने विचार हैं।)

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