कोरोना वाइरस के संक्रमण से बचने के लिये सेनिटाइजेशन पर काफी जोर दिया जा रहा है। यानि साफ सफाई अब अहम हो चली है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले समय में छूत की बीमारियां यानि इंफैक्शन डिजीज तेजी से फैलेंगी।
वाइरस व सूक्ष्मजीवियों से फैलने वाली इन बीमारियों से बचने के लिये व्यक्तिगत व सार्वजनिक स्वच्छता काफी मायने रखेगी। लेकिन अगर उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहाँ के नगरीय निकाय स्वच्छता के मामले में काफी पिछड़े हुए हैं। यहाँ शहरी निकायों के पास कचरा निस्तारण के लिये भूमि नहीं है। कूड़ा प्रबंधन के लिये रिसाइक्लिंग प्लांट की भारी कमी है।
सालिड वेस्ट मैनेजमेंट योजना को भी जमीन में नहीं उतर पाई है। प्रदेश के कई हिस्सों में रिसाइक्लिंग प्लांट लगने थे लेकिन शासन स्तर पर इन्हें मंजूरी नहीं मिल पाई है। प्रदेश के 72 से अधिक नगरीय निकायों में हर रोज 2000 टन से अधिक कूड़ा पैदा होता है, इसमें से 26 प्रतिशत कूड़ा अजैविक होता है।
जिसका निस्तारण करना नगरीय निकायों के लिये चुनौती बनता जा रहा है। संसाधनों की कमी व काम करने की कार्यसंस्कृति विकसित न होने से निकाय क्षेत्रों में कई दिनों तक कूड़े का उठान नहीं हो पाता है। जिस कूड़े का उठान होता भी है तो उसे खुले में फेंका जाता है।
प्रदेश के देहरादून, हरिद्वार व नैनीताल में 50.62 करोड़ की लागत से जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्यूएल मिशन भी कोई सार्थक परिणाम नहीं दे पाया। प्रदेश में प्लास्टिक कचरा, जैव चिकित्सा कचरा, ई-कचरा प्रबंधन का बेहतर ढांचा तैयार नहीं हो पाया है।
वहीं नागरिकों द्वारा भी ठोस कचरा प्रबंधन नियम 2016 का उल्लंघन खुले आम किया जाता रहा है। न तो कचरा प्रबंधन में जनभागीदारी बन पा रही है न ही सरकार व निकायों द्वारा रिड्यूस, रियूज व रिसाइकिल जैसे उपायों को अपनाया जा रहा है। डिस्पोजल संस्कृति कूड़े के ढेर बड़ा रही है तो सड़ांध मारती हवा में लोग जिदंगी की सांसें लेने को मजबूर हैं।
सफाई जैसे अहम मुद्दे को दरकिनार करने वाली सरकारें व जनता इस तथ्य से मुँह मोड़ रही हैं कि स्वच्छता के अभाव के चलते उपचार के लिये कुल चिकित्सा खर्च का 60 प्रतिशत भाग व्यय होता है। साथ ही यह भी सच है कि स्वच्छता पर अगर एक रुपया खर्च किया जाय तो बीमारियों पर होने वाले खर्च में 9 रुपये की बचत की जा सकती है।