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कुमाऊं-गढ़वाल को जोड़ने की दृष्टि से महत्वपूर्ण कंडी रोड समय-समय पर सुर्खियों में रही है। यह सड़क कब बनेगी, इस बारे में न तो जनता को पता है और न ही सरकार को। हरिद्वार-लालढांग-कोटद्वार-पाखरो -कालागढ़-रामनगर को जोड़ने वाली यह सड़क पिछले चार विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनावों में भी महत्वपूर्ण मुद्दा रही थी। प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत इसे अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करते हैं तो वन एवं पर्यावरण मंत्री हरक सिंह रावत का यह ड्रीम प्रोजेक्ट माना जाता है। यही वजह है कि कभी इसे नेशनल हाइवे तो कभी ग्रीन रोड बनाने की बातें सरकार के स्तर से की जाती रही हैं। अब कंडी रोड के लालढांग-कोटद्वार हिस्से को डामरीकøत करने के लिए लोक निर्माण विभाग को संशोधित प्राकलन प्रस्तुत करने के वन एवं पर्यावरण मंत्री के निर्देश के बाद एक बार फिर इस रोड का जिन्न बाहर आ गया है। लोगों की उम्मीदें भी फिर से जग गई हैं। ऐसे में वर्तमान सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी उतर पाती है या नहीं, यह देखना अभी बाकी होगा।

बहरहाल, इस सड़क को लेकर पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से वन अध्नियम का अडंगा झेलने के बाद अब प्रदेश सरकार का कहना है कि इस सड़क के डामरीकरण के लिए केंद्र की अनुमति की जरूरत नहीं है। इसका आधार वह वन विभाग के अभिलेखों में सन् 1970 से 80 के बीच लालढांग-कोटद्वार वन मार्ग को डामरीकøत दिखाया जाना मान रही है। उल्लेखनीय है कि जंगल में पहले से डामरीकøत इस सड़क के लिए फॉरेस्ट क्लीरेंस की जरूरत नहीं है। लेकिन इस बात को समझने में वर्तमान व पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश के नौकरशाहों को 37 साल का वक्त लग गया। लेकिन अब प्रदेश के वन मंत्री ने जायका, इको टूरिज्म कॉरपोरेशन, एनबीसी, राजाजी नेशनल पार्क, कॉर्बेट पार्क, वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट के साथ महत्वपूर्ण बैठक आयोजित कर इन संस्थानों को इस सड़क की सर्वे की जिम्मेदारी सौंपी है। भारतीय वन्य जीव संस्थान रामनगर- कोटद्वार हिस्से में 25 किमी से अधिक का सर्वे कर चुका है। इसी हिस्से को सरकार ग्रीन रोड के रूप में विकसित करने की बात कर रही है। ग्रीन रोड यानी इसके तहत पर्यावरणीय पहलुओं का खास ध्यान रखा जाता है। इस तरह की रोड में आरसीसी और सीमेंट का प्रयोग तो होता है लेकिन इसमें तारकोल का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। सरकार का दावा है कि ग्रीन रोड के लिए केंद्र को प्रस्ताव भेजा गया है और वन विभाग की तरफ से 50 करोड़ रुपए भी जुटाए गए हैं। इधर सरकार की तरफ से कंडी सड़क के निर्माण में तेजी आए इसके लिए नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रशन कंपनी को काम सौंपा गया है जबकि भारतीय वन्य जीव संस्थान को एलाइनमेंट की जिम्मेदारी सौंपी गई है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में राज्य के कुमाऊं और गढ़वाल मंडल को जोड़ने के लिए कोई सीधी सड़क नहीं है। दोनों मंडलों के लोगों को इसके लिए पूर्ववर्ती राज्य उत्तर प्रदेश के बिजनौर से होकर गुजरना पड़ता है। इस मार्ग को राष्ट्रीय राजमार्ग के रूप में विकसित करने के लिए प्रदेश सरकार ने केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को पत्र भी भेजा है।

ऐसा नहीं है कि पहली बार इस सड़क को बनाने के प्रयास हो रहे हैं। पूर्व में भी कई दफा इस तरफ कदम तो बढ़ाए गए लेकिन मंजिल तक कोई नहीं पहुंचे। रामनगर- कालागढ़-कोटद्वार-लालढ़ांग सड़क के लिए अंग्रेजों के शासन काल से ही प्रयास होते आए हैं लेकिन कोटद्वार से रामनगर तक का हिस्सा कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में पड़ने से इसे पर्यावरणीय स्वीकøति नहीं मिल पाई। उत्तराखण्ड के कुमाऊं एवं गढ़वाल मंडल को जोड़ने के लिए यह रोड बेहद आवश्यक मानी गई है। इस सड़क में 19 किमी क्षेत्र जिम कार्बेट नेशनल पार्क से होकर गुजरता है। अगर यह बनता है तो कुमाऊं और गढ़वाल के फासले में 100 किमी. का अंतर आता तथा दोनों मंडलों के लोगों को राजधानी देहरादून एवं हाईकोर्ट नैनीताल तक की आवाजाही आसान हो जाती। इस सड़क के न बनने से जहां दोनों मंडलों के लोगों को उत्तर प्रदेश से होकर गुजरना पड़ता है वहीं सरकार को टैक्स अलग से अदा करना पड़ता है। अगर शुरुआती दौर में गंभीरता से इस और प्रयास किए होते तो ब्रिटिशकाल में अस्तित्व में आए इस मार्ग से आज आवाजाही हो रही होती। तब टनकपुर से हरिद्वार तक इस मार्ग का उपयोग आसानी से होता था। तमाम तरह के आवागमन, व्यापार एवं यात्राएं इसी मार्ग से होती थी। बाद में वन विभाग ने सुरक्षा की दृष्टि से इस मार्ग को बंद कर दिया।

लंबे समय से दोनों मंडलों के लोगों द्वारा इस मार्ग को खोलने की मांग उठती रही। लेकिन पर्यावरणीय विरोध में यह सड़क उलझती चली गई। जब भी इस मार्ग के बनने की बात आती तो रामनगर से लेकर कोटद्वार तक का करीब 23 किमी. कॉर्बेट नेशनल पार्क का अडंगा लग जाता। इस मार्ग के विरोध में पर्यावरणविद्ों ने तर्क दिया कि सड़क निर्माण के दौरान पेड़ कटेंगे जिससे वन्य जीवन में खलल पड़ेगा। लेकिन इसके बाद भी समय- समय पर इसे खोलने के प्रयास होते रहे लेकिन सफलता नहीं मिल पाई। वर्ष 1992 में इस मार्ग को खोलने के लिए 92 लाख की स्वीकøति मिली लेकिन वर्ष 1993 में पर्यावरणविद्ों ने कोर्ट की शरण में पहुंच कर मार्ग को खुलने से रोक दिया। लेकिन इसके बाद भी मार्ग बनाने की मांग रूकी नहीं। वर्ष 2006 में रामनगर- कालागढ़-कोटद्वार मार्ग संयुक्त संघर्ष समिति अस्तित्व में आई। इसके लिए संघर्ष समिति के लोग तत्कालीन प्रधनमंत्री डॉ मनमोहन सिंह एवं राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मिले। तब कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 23 किमी के उस हिस्से पर जिस पर पर्यावरणविदों को आपत्ति थी वहां एलीवेटेड रोड बनाने का सुझाव दिया था। कंडी रोड बनाने के लिए उत्तराखड बचाओ संघर्ष समिति भी बनी हुई है। जिसके सदस्य इस रोड को बनाने को लेकर कई बार पद यात्राएं भी कर चुके हैं। वर्ष 2007 में लोक निर्माण विभाग ने 992 करोड़ रुपए का प्रस्ताव सरकार को भेजा तब यह मार्ग बन जाता तो रामनगर से हरिद्वार की जो दूरी 185 किमी है वह 106 किमी. के आस-पास रह जाती। बेहद खूबसूरत प्राकøतिक दृश्यों के बीच से गुजरने वाली यह सड़क पर्यावरणविदों को कतई रास नहीं आई। उस पर अब तक कोई कार्रवाही तो नहीं हो पाई लेकिन वर्ष 2016 में इसके लिए 7.06 करोड़ की राशि स्वीकøत हुई। फिर भी निर्माण नहीं हो पाया। इस तरह कंडी मार्ग बार-बार पर्यावरण की भेंट चढ़ता गया और प्रदेश के लोगों की उम्मीदों पर पानी फिरता रहा। एक बार फिर लोगों की उम्मीदें जगी तो हैं लेकिन यह पूरी हो पाएंगी या नहीं यह सवाल बना हुआ है।

 

यह मार्ग उत्तराखण्ड के विकास की लाइफ लाईन है। इससे न सिर्फ दोनों मंडलों के दूरी घटेगी, बल्कि रोजगार एवं पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। विकास की दृष्टि से यह रीढ़ की हड्डी साबित होगा जो पूरे प्रदेश के चहुंमुखी विकास में योगदान देगा।
डॉ. हरक सिंह रावत, वन एवं पर्यावरण मंत्री

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