उत्तराखण्ड की त्रिवेंद्र रावत सरकार के लिए आरक्षण का मसला बहुत चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है। राज्य के सरकारी कर्मचारी इस मुद्दे पर आंदोलन के मूड में हैं। यही नहीं इससे कर्मचारियों के मोर्चे खुलने की भी आशंकाएं हैं। दअसल, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण को संविधान के मूल अधिकार से बाहर बताकर खारिज किया है। कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से प्रदेश सरकार को बड़ी राहत मिली, लेकिन दूसरा पहलू यह है कि सरकार इसमें बुरी तरह से फंसती हुई नजर आ रही है। सामान्य वर्ग के कर्मचारी प्रमोशन में आरक्षण लागू न करने तो आरक्षित वर्ग के कर्मचारी प्रमोशन में आरक्षण लागू करने के लिए दबाब बना रहे हैं। ऊपर से प्रदेश सरकार ने सीधी भर्तियों में पूर्व से चली आ रही आरक्षण की रोस्टर व्यवस्था में बड़ा बदलाव करके मामले को और भी संवेदनशील बना दिया है। इससे सरकार पर दलित विरोधी होने के आरोप लगने लगे हैं।
उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष 19 सितंबर 2019 को राज्य सरकार ने राज्य अधीनस्थ सेवाओं में सीधी भर्तियों में नई रोस्टर प्रणाली लागू कर दी थी। पुरानी रोस्टर प्रणाली में अनुसूचित जाति को जहां पहला स्थान मिलता रहा था, वहीं नई रोस्टर व्यवस्था में अब उनका स्थान छठवें नंबर पर चला गया है। जबकि पहले नम्बर से लेकर पांचवे स्थान तक सामान्य वर्ग को रखा गया है, इसके चलते राज्य में आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों में बड़ा रोष फैल गया। अब हालत यह है कि स्वयं भाजपा के कई दलित विधायक भी सरकार के कदम से नाराज बताए जा रहे हैं।
प्रदेश में सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग तथा आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई है। इसमें आरक्षण चार प्रकार से दिया जाता है। अनुसूचित जाति (एससी) को जनसंख्या के हिसाब से 19 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति (एसटी) जिसमें थारू, बोक्सा, राजी, भोटिया आरक्षण दिया जाता है। जौनसारी जैसी पांच जनजातियां शामिल हैं, इन सभी जातियों को 4 प्रतिशत तथा अन्य पिछ़डी जातियों को 14 प्रतिशत 10 प्रतिशत आरक्षण आर्थिक आधार पर लागू है।
पूर्व में राज्य आंदोलनकारियों के लिए भी 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, परंतु वर्तमान में इस व्यवस्था पर रोक लगा दी गई है। इस प्रकार माजूदा समय में प्रदेश में राज्य अधीनस्थ सरकारी सेवाओं में सीधी भर्तियों में कुल 47 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी का आरक्षण एक प्रतिशत और बढ़ा दिया गया। लेकिन इसमें गोैर करने वाली बात यह है कि केंद्र सरकार के द्वारा 1971 की जनसंख्या के हिसाब से ही आरक्षण लागू किया गया है, जबकि राज्य बनने के बाद आरक्षित वर्गों की संख्या में इजाफा हुआ है।
सरकार के द्वारा जातिगत जनसंख्या के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए हैं जिसके चलते आज भी 1971 की जनसंख्या के ही हिसाब से अनुसूचित जाति को आरक्षण दिया जा रहा है। हालांकि यह केंद्र के प्रतिशत से 4 प्रतिशत अधिक है। उत्तराखण्ड बनने के बाद 30 अगस्त 2001 को तत्कालीन उत्तरांचल प्रदेश में अविभाजित उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण) अधिनियम 1994 को स्वीकृत करके लागू किया गया था। जिसके बाद इसे उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण) अधिनियम (उत्तरांचल अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश) 2001 नाम दिया गया। इस अधिनियम में धारा 3(1) में दर्ज कर लिए गए अनुपात में से अनुसूचित जाति के 21 प्रतिशत को 19 और अनुसूचित जनजाति के 2 प्रतिशत को बढ़ाकर 4 प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत से कम करके 14 प्रतिशत किया गया।
अब प्रमोशन में आरक्षण की बात करें तो यह विवाद कोई नया नहीं है। इसके बीज स्वयं प्रदेश की चुनी हुई सरकार ने ही बोए थे। 5 सितम्बर 2012 को राज्य की तत्कालीन कांग्रेस की विजय बहुगुणा सरकार ने सामान्य वर्ग कर्मचारी संगठनों के दबाब में सरकारी सेवाओं में पदोन्नति में आरक्षण समाप्त कर दिया था। सरकार के इस निर्णय के खिलाफ आरक्षित वर्ग के कर्मचारी हाईकोर्ट गए तो हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के आदेश को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने रिटायर्ड न्यायाधीश इरशाद हुसैन के नेतृत्व में एकल सदस्य आयोग का गठन किया।
आयोग को राज्य में आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों के मामले में तीन माह में रिपोर्ट देने का समय तय किया गया, लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 2016 में 14 जनवरी को सरकार को सौंपी। इन 43 माह तक आयोग की रिपोर्ट आने तक राज्य में पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लगी रही। इस पर गौर करने वाली बात यह है कि वर्ष 2012 में पूर्व मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था दिए जाने की बात कही थी। लेकिन तत्कालीन सरकार ने उस रिपोर्ट को मानने के बजाय इरशाद हुसैन एकल सदस्य आयोग का गठन कर दिया जिसको अपनी रिपोर्ट देने में ही साढ़े तीन वर्ष लग गए।
अक्टूबर 2011 में तत्कालीन भाजपा की भुवन चन्द्र खण्डूड़ी सरकार ने पूर्व मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। जनवरी 2012 में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि 2012 में राज्य के कार्मिक विभाग में ग्रुप ए में कुल 4294 पद कार्यरत हैं जिसमें अनुसूचित जाति के अधिकारियों की संख्या 500 थी और इनका प्रतिशत 11.64 है। अनुसूचित जन जाति के अधिकारियों की संख्या 128 और प्रतिशत 02.98 बताया गया। इसी प्रकार से ग्रुप बी के अधिकारियों और कर्मचारियों की कुल संख्या 4612 बताई गई जिसमें अनुसूचित जाति के अधिकारियों की संख्या 562 थी और इनका प्रतिशत 12.18 था।
अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों की संख्या 100 थी और इनका प्रतिशत 02.17 था। ग्रुप सी में कुल संख्या 56448 बताई गई जिसमें अनुसूचित जाति के अधिकारियों की संख्या 7850 और इनका प्रतिशत 13.91 था। अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों की संख्या 937 थी और इनका प्रतिशत 01.66 बताया गया। कमेटी की रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश में अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण व्यवस्था का उचित लाभ नहीं मिल पा रहा है। ग्रुप सी में ही उनका प्रतिशत काफी कम 19 ही है।
अनुसूचित जाति की प्रतिशत के हिसाब से उनकी कुल संख्या 10725 होनी चाहिए थी। इसी तरह से ग्रुप सी में अनुसूचित जनजाति के कार्मिकों की संख्या उनके आरक्षण 4 प्रतिशत के हिसाब से 2257 होनी चाहिए थी, लेकिन तत्कालीन समय में यह संख्या कुल 937 ही थी। इसी तरह से ग्रुप ए और बी में भी दोनों वर्गों की आरक्षण के अनुपात के हिसाब से संख्या कम रही। ग्रुप ए में अनुसचित जाति के 19 प्रतिशत आरक्षण के अनुपात से अधिकारियों की संख्या 815 के सापेक्ष 500 ओैर अनुसूचित जनजाति के 4 प्रतिशत आरक्षण अनुपात के हिसाब के 171 के सापेक्ष में 128 ही रही। ग्रुप बी में भी अनुसूचित जन जाति के आरक्षण 19 प्रतिशत के अनुपात में 876 के सापेक्ष 562 रही, तो अनुसूचित जाति के आरक्षण के 4 प्रतिशत के अनुपात में 184 के सापेक्ष 100 ही कार्यरत थी। साफ है कि इंदु कुमार पांडे कमेटी की रिपोर्ट में पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने का फेवर किया गया था। जिसको तत्कालीन कांग्रेस की विजय बहुगुणा सरकार ने माना नहीं और इरशाद हुसैन एकल सदस्यीय आयोग का गठन करके मामले को लम्बा खींचने का काम किया गया।
इरशाद हुसैन आयोग ने 14 जनवरी 2016 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। तत्कालीन कांग्रेस की हरीश रावत सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक नई कमेटी गठित कर दी। आज तक इस कमेटी की रिपोर्ट का कोई पता नहीं है। यहां कि इरशाद हुसैन आयोग की रिपोर्ट को भी सरकार के द्वारा सार्वजनिक नहीं किया गया है। आरक्षित वर्ग के तमाम कर्मचारियों ने सूचना अधिकार के तहत आयोग की जांच रिपोर्ट मांगने का प्रयास किया, लेकिन सरकार के इसे सार्वजनिक नहीं किए जाने के चलते नियमानुसार सूचना अधिकार के तहत सूचना देने से असमर्थता जताई गई। इससे यह स्पष्ट हो गया हेै कि शासन और सरकार इस संवेदनशील मामले में बहुत कुछ छुपाने का प्रयास करते रहे हैं।
माना जा रहा है कि इंदु कुमार पांडे कमेटी की रिपोर्ट की ही तरह आयोग की रिपोर्ट में भी प्रदेश के आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने की वकालत की गई है। अगर सरकार इसको मान लेती है, तो उसके लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। अब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि राज्य सरकार अपने विवेक पर पदोन्नति में आरक्षण दे सकती है। इसी को लेकर आरक्षित वर्ग के कर्मचारी सरकार पर दबाव बनाने में लगे हुए हैं। इसके विपरीत सामान्य वर्ग के कार्मिक सरकार पर यह दबाब बनाने में लगे हुए हैं कि सरकार किसी भी सूरत में पदोन्नति में आरक्षण लागू न करे।
इस मामलेे में राज्य सचिवालय कार्मिक संघ से जुडे़ आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों और अधिकारियों के द्वारा पृथक अनुुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारी फैडरेशन का गठन भी किया जा चुका है। हालांकि, इस संगठन को मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन फैडरेशन के अध्यक्ष करम राम ने राज्य सरकार पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने का आरोप लगाया है। दरअसल, पदोन्नति में आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 15 जनवरी 2020 को अपनी सुनवाई पूरी की और निर्णय सुरक्षित रख दिया। लेकिन राज्य सरकार ने 31 जनवरी को जबकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय नहीं आया, सचिवालय में पांच अनुभाग अधिकारियों औेर पांच अनु सचिवों का प्रमोशन कर दिया। इस पर फैडरेशन के सचिव चंद्र बहादुर ने अपने फैडरेशन के वकील के माध्यम से मुख्य सचिव, अपर मुख्य सचिव ओैर प्रमुख सचिव को कानूनी नोटिस भेज दिया। उनका तर्क है कि पदोन्नति में आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना अतिम निर्णय नहीं दिया है, बावजूद इसके दस लोगों का प्रमोशन करना साफ तौर पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला है।
अब नए बदलते घटनाक्रम से प्रदेश में कर्मचारी संगठनों के आंदोलनों की शुरुआत हो चुकी है। सामान्य वर्ग के कर्मचारियों ने तो बड़ा भारी जूलुस निकालकर सरकार को अपनी ताकत का अहसास करवा दिया है। इससे स्वयं सरकार के भीतर भी नाराजगी देखने को मिल रही है। सूत्रों की मानें तो कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य और राज्य मंत्री रेखा आर्य सरकार के इस कदम से बड़े खफा बताए जाते हैं। सूत्र बताते हैं कि यशपाल आर्य इस मामले में सरकार पर बड़ा दबाब बना चुके हैं। यहां तक कि मंत्री पद से त्याग पत्र दिए जाने की धमकी तक दे डाली है। हालांकि, यह भी जानकारी मिल रही है कि उन्हें मना लिया गया है। इस मामले में कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक की अध्यक्षता में एक मंत्रिमंडलीय उप समिति का गठन किया गया है जो इस रोस्टर में बदलाव के मामले में अपनी रिपोर्ट देगी। कमेटी के द्वारा दो बैठकें की जा चुकी हैं और अभी अंतिम बैठक होनी बाकी है। कमेटी में अनुुसूचित जाति जनजाति कर्मचारी फैडरेशन ने अपना पक्ष रख दिया है। अब देखना बाकी है कि कमेटी की अंतिम बैठक में क्या निर्णय होता है।
बहरहाल, इस पूरे प्रकरण में प्रदेश के कर्मचारियों में बड़ा भारी मतभेद सामने आ चुका है। दोनों ही वर्ग सरकार पर दबाब बनाने की रणनीति में जुट गए हैं। अनारक्षित वर्ग सरकार पर यह दबाब बना रहा है कि सरकार प्रमोशन में आरक्षण न दे ओैर नई रोस्टर प्रणाली को ही लागू करे, तो आरक्षित वर्ग प्रमोशन में आरक्षण देने और पूर्व रोस्टर व्यवस्था को लागू करने की बात कर रहा है। अनारक्षित वर्ग का कहना है कि उत्तर प्रदेश में आरक्षण पर रोक 1992 से ही लगी हुई है, तो उत्तराखण्ड में भी रोक लगाई जाए। इसके लिए यह तर्क दिया जा रहा है कि उत्तराखण्ड में उत्तर प्रदेश का ही अधिनियम लागू है तो उसे उत्तराखण्ड में भी लागू किया जाए। जबकि आरक्षित वर्ग का कहना हेै कि 2001 से उत्तराखण्ड ने उत्तर प्रदेश का अधिनियम लागू है, यदि उत्तर प्रदेश ने बाद में इसमें संशोधन किए हैं, तो उत्तराखण्ड इसके लिए बाध्य नहीं है।
बात अपनी-अपनी
मुझे रोस्टर में बदलाव की बात नहीं बताई गई थी। मीडिया द्वारा पता चलने पर मैंने अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी से पूछा तो उन्होंने अपनी गलती स्वीकारी, लेकिन अभी तक रोस्टर को ठीक नहीं किया गया है। –यशपाल आर्य, परिवहन मंत्री
हम पूरे प्रदेश में हड़ताल पर जा रहे हैं। जब केंद्र सरकार ने रोस्टर प्रणाली में बदलाव कर दिया है, तो उत्तराखण्ड में भी बदलाव होना चाहिए। उत्तर प्रदेश ने इसलिए नहीं किया है कि वहां जनसख्या अधिक है, उत्तराखण्ड में कम है। प्रमोशन में आरक्षण को हम किसी सूरत में लागू नहीं होने देंगे। –दीपक जोशी, अध्यक्ष, उत्तराखण्ड सचिवालय संघ
एससी-एसटी वर्ग के कर्मचारी दोनों तरफ से मारे जा रहे हंै। हमें कहा जा रहा है कि नए रोस्टर से हमें बहुत फायदा होगा, लेकिन जब बैठक में हमने पूछा कि हमको समझा दो कि कैसे फायदा होगा, तो कोई भी जबाब नहीं दिया गया। प्रमोशन तो हो रहे हैं, लेकिन एससी-एसटी वर्ग के नहीं। हम सरकार को समय दे रहे हैं कि वह कुछ बेहतर रास्ता निकालेे। अगर सरकार हमारी अनदेखी करती है, तो हम पूरे प्रेदश में आंदोलन करेंगे और हड़ताल पर चले जाएंगे। –करम राम, अध्यक्ष, अनुुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारी फैडरेशन
केंद्र सरकार तीन साल से प्रमोशन में आरक्षण दे रही है। हजारों केंद्रीय कर्मचारी और अधिकारी विभागों में प्रमोट हुए हैं, लेकिन उसी पार्टी की उत्तराखण्ड सरकार प्रमोशन में आरक्षण पर रोक के लिए न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट जाती है, बल्कि रोस्टर को भी पहले से छठवें नम्बर पर ले आती है। अनारक्षित कर्मचारियों के सगंठन जो कि सरकार पर दबाब बनाते हैं और षड्यंत्र रचते हैं, यह उनका ही काम है। ये लोग सरकार को गुमराह करते रहे हैं। हमें कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश क्या करता है, कब करता है इसका उत्तराखण्ड से क्या लेना-देना। राज्य के ब्यूरोक्रेट षड्यंत्र रचकर सरकार के सामने एक बड़ा धर्मसंकट खड़ा कर रहे हैं। –चद्र बहादुर, महासचिव, अनुुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारी फैडरेशन
लेख- कृष्ण कुमार