उत्तराखण्ड अपनी विभिन्न बोली-भाषा के लिए जाना जाता है। कुमाऊं मंडल में कुमाऊंनी भाषा के संरक्षण एवं संवर्धन में समय-समय पर सम्मेलन होते रहते हैं। इस बार कुमाऊंनी भाषा पर सौर घाटी में 15वां चिंतन-मनन हुआ जिसमें भाषा प्रेमियों के तीन दिवसीय कार्यक्रम में कुमाऊंनी भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने के साथ ही कई अहम बिंदुओं पर गहन विमर्श किया गया
कुमाऊंनी भाषा की समृद्धि के मंथन व विमर्श का 15 वां पड़ाव पिथौरागढ़ रहा। जहां कुमाऊंनी भाषा व संस्कृति के जुड़े लोग पूरे तीन दिन इसी मंथन व विमर्श में रहे कि कैसे कुमाऊंनी भाषा को समृद्व व लोकप्रिय बनाया जाय? तीन दिवसीय 15 वां राष्ट्रीय कुमाऊंनी भाषा सम्मेलन 2023 जनपद पिथौरागढ़ के सोर घाटी में आयोजित हुआ। 4 नवम्बर से 6 नवंबर तक आयोजित इस कार्यक्रम को कुमाऊंनी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति प्रचार समिति व ‘पहरू’ पत्रिका के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम के आयोजन समिति के मुख्य संयोजक मानस एकेडमी के निदेशक व शिक्षाविद् डॉ अशोक कुमार पंत रहेे। देशभर के साहित्यक प्रेमियों ने इसमें हिस्सेदारी की। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य अपनी माटी, अपना देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के साथ लोगों का अपनी भाषा व संस्कृति से लगाव को बढ़ाना, भाषा से संरक्षण के लिए हम क्या कुछ कर सकते हैं, इस तरह के विचारों को साझा करना रहा। इसके अलावा अपनी दुधबोली कुमाऊंनी को कैसे बचाया जाए? साथ ही कुमाऊंनी लोक संस्कृति, सांस्कृतिक विधा, वाद्ययंत्र, परंपरा, रीति-रिवाजों को बरकरार रखने के लिए भी इस सम्मेलन में व्यापक चर्चा हुई। युवाओं को कैसे अपनी भाषा से जोड़ा जाए, इस पर भी सम्मेलन के दौरान विमर्श हुआ। तीन दिनों तक तमाम विषयों पर विचारकों व चिंतकों ने अपने विचार प्रकट किए। हमारी संास्कृतिक विरासत, लोकज्ञान और लोक परंपराओं को आगे बढ़ाने पर भी विमर्श हुआ।
यहां यह भी चर्चा हुई कि भाषा की मान्यता के लिए किस तरह मूल मानकों पर हम काम कर सकते हैं। इसे कैसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर सकते हैं? भूमंडलीकरण के इस दौर में कुमाऊंनी भाषा व संस्कृति पर किस तरह के खतरे हैं? इन खतरों से कैसे बचा जा सकता है। संचार के तमाम माध्यमों का उपयोग भाषा व संस्कृति को बचाने में कैसे किया जा सकता है? इन विषयों पर गंभीर चर्चा हुई। सम्मेलन में कुमाऊंनी भाषा व संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले दो दर्जन से अधिक व्यक्तियों को विभिन्न साहित्यक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया। सम्मेलन के दौरान यह बात भी निकल कर आई कि पिछले कई वर्षों से लेखन के क्षेत्र में कुमाऊंनी काफी समृद्व हो रही है। इधर नित इस पर लेखन हो रहा है। कविता, कहानी, महाकाव्य, खंडकाव्य, निबंध, कथा, नाटक, समालोचना, शब्दकोष, लोक साहित्य, शोध गं्रथ अनुवाद का काम हो रहा है लेकिन इसे बोलने वाले लोगों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है।
वहीं यूनेस्को ने इसे मृतप्राय भाषा की श्रेणी में रखा हुआ है। तीन दिवसीय इस महोत्सव में शगुनांखर, सातू-आठू का मंचन, छलिया नृत्य विशेष आकर्षण का विषय रहे। सम्मेलन के दौरान कई पुस्तकों का विमोचन भी हुआ। जिसमें शिक्षक दिनेश भट्ट की पुस्तक ‘समाज शिक्षा विज्ञान की बात, डॉ गिरीश अधिकारी के खंड काव्य ‘किरसाण’, डॉ दीपा गोबाड़ी की ‘उजास’ भारती पाण्डे की ‘चौसाल’, मोहन जोशी की ‘बागेश्वरक अमर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी’ पुस्तकों का भी विमोचन हुआ। सम्मेलन स्थल में स्थानीय कुमाऊं उत्पाद, ऐपण, कलाकृति, ऐतिहासिक सामग्री, लिखित भोजपत्र, तामपत्र, वाद्य यंत्र के साथ ही पुस्तक प्रदर्शनी भी आयोजित की गई थी। सम्मेलन में हाल में उजबेकिस्तान में आयोजित बाक्सिंग प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक विजेता निकिता चंद, कोच विजेंद्र मल, देवी चंद को भी सम्मानित किया गया।
इन विषयों पर हुई चर्चा
पहले रोज कुमाऊंनी भाषा, साहित्य और संस्कृति का अतीत, वर्तमान और भविष्य पर चर्चा हुई। जिसमें कुमाऊंनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य पर विमर्श हुआ। इसके साथ ही भूमंडलीकरण के समय में लोक भाषाओं के सामने चुनौती व समाधान विषय पर व्यापक चर्चा हुई। इसमें भूमंडलीकरण के साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक प्रभावों पर वक्ताओं ने अपने विचार प्रकट किए। कुमाऊंनी साहित्य और संस्कृतिक प्रचार-प्र्रसार में अलग-अलग माध्यमों के योगदान पर भी महत्वपूर्ण चर्चा हुई जिसमें कुमाऊंनी पत्र-पत्रिकाओं, सोशल मीडिया, सामाजिक संस्थाओं, सांस्कृतिक महोत्सवों व सरकार के योगदान को रेखांकित किया गया। साथ ही किस तरह इन माध्यमों का इस्तेमाल किया जा सकता है, इस पर काफी व्यापक गंभीर विमर्श हुआ।
महोत्सव के दूसरे रोज कुमाऊंनी भाषा साहित्य में आधुनिक जीवन मूल्य विषय पर चर्चा हुई जिसमें कविता साहित्य, कथा साहित्य, कथेत्तर साहित्य व कुमाऊंनी लोकगीत और संगीत में जीवन मूल्यों पर अलग-अलग चर्चाएं आयोजित हुई। इसके अलावा कुमाऊंनी भाषा के अलग- अलग बोलियों के बीच आपसी संबध विषय पर व्यापक विमर्श हुआ। जिसमें पूरबी-पश्चिमी, पूरबी व पश्चिमी की उपबोली पर गंभीर चर्चा हुई। सम्मेलन के अंतिम रोज कुमाऊंनी भाषा और संस्कृति के साथ नई पीढ़ी की जान-पहचान किस तरह से हो सकती है, इस पर चर्चा हुई। इस विषय के अंतर्गत नई पीढ़ी के लिए कुमाऊंनी भाषा की उपादेयता, स्कूलों, परिवार, समाज व सरकार की भूमिका पर वक्ताओं ने प्रकाश डाला।
कुमाऊंनी साहित्य एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार में मीडिया, महोत्सव व सरकार का योगदान जैसे विषयों पर भी खुलकर महोत्सव के दौरान चर्चा हुई। सम्मेलन में शामिल सभी जनों का यह मानना रहा है जो भाषा एक हजार साल पुरानी हो, जिसे 30 लाख से अधिक लोग बोलते हों, उसे आठवीं अनुसूची में जरूरी शामिल कराना चाहिए। जिसके लिए राजनीतिक व सामाजिक सामर्थ्य विकसित करने की जरूरत है। इसके अलावा नई पीढ़ी को कुमाऊंनी से जोड़ने के साथ ही इस भाषा में गुणवत्तापरक प्रभावी साहित्य रचने के जरूरत पर बल दिया गया। साथ ही पूरे कुमाऊं में 13 अलग-अलग तरीके से बोली जाने वाली बोली को मानकीकृत करने की दिशा में काम करने की जरूरत महसूस की गई। कुल मिलाकर कुमाऊंनी भाषा के विचार विमर्श की दृष्टि से यह महोत्सव काफी सार्थक रहा।
कुमाऊं भाषा अभियान
कुमाऊंनी में निकलने वाली पत्रिका ‘पहरू’ कुमाऊंनी को बचाने के लिए डेढ़ दशक से अधिक समय से संस्थागत व पत्रिका के माध्यम से अभियान चलाती रही है। ‘पहरू’ की अपील है कि कुमाऊंनी भाषा अभियान के साथ जुड़ना जरूरी है। ये हमारी संस्कृति में रची बसी है। ये भाषा हमारी कुमाऊं की पहचान है। अपनी पहचान को बचाए रखने के लिए इसमें बोलना, पढ़ना, लिखना बहुत जरूरी है। आजकल कुमाऊं के युवा व नई पीढ़ी अपनी भाषा से दूर होते जा रहे हैं। भाषा व संस्कृति पर काम करने वाले संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, विज्ञान तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा कुमाऊं को मृतप्रायः भाषा बताया जा रहा है, जो हमारे लिए बेहद चिंता की बात है। पिछले कई वर्षों से कुमाऊंनी भाषा को बचाने, उसे आगे बढ़ाने के लिए अभियान चल रहा है। इन अभियानों का मुख्य रूप से कुमाऊंनी को विद्यालयों में एक विषय के रूप में पढ़ाने व इसको भाषा के रूप में मान्यता देने पर जोर दिया जा रहा है। इसके अलावा भाषा के विकास के लिए उस भाषा में पढ़ने-लिखने की संस्कृति जरूरी है। जब कुमाऊंनी पत्र-पत्रिकाएं छपती रहेंगी, साहित्य प्रकाशित होते रहेंगे, तभी भाषा का विकास होगा। पत्रिका तभी छप सकती है, जब उसे पढ़ने वाले लोग मिल सकें।
- चर्चा के मुख्य बिंदु
भाषा के मानकीकरण व एकरूपता पर भी काम किया जाए।
कुमाऊंनी भाषा संस्थान की स्थापना के लिए काम हो।
कुमाऊंनी भाषा को आगे बढ़ाने के लिए इसे जनआंदोलन का रूप दिया जाए।
कुमाऊंनी भाषा में लेखन पुरस्कार की शुरुआत हो।
प्रदेश में लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में कुमाऊंनी को अनिवार्य विषय बनाया जाए।
विद्यालयों में संगीत विषय में कुमाऊंनी बैठकी होली,
लोकगीत व उनकी सरलिपि को शामिल किया जाए।
कुमाऊंनी भाषा में मौलिक ग्रंथ लिखे जाएं।
एक भावजन्य एवं प्रभावशाली शब्दों के साथ मानकीकृत भाषा तैयार होनी चाहिए, जिसे समान रूप से स्वीकारा जाए।
कुमाऊंनी को स्कूली पाठ्यक्रमों में लागू किया जाए।
कुमाऊं क्षेत्र के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियों के प्रतिनिध शब्दों को मानकीकृत कर सर्वमान्य लिपि बनाने की जरूरत है।
कुमाऊंनी भाषा में ऐसा साहित्य रचा जाए, जिसका अनुवाद दूसरी भाषाओं में हो।
दैनिक बातचीत में कुमाऊंनी का अधिक इस्तेमाल किया जाए।
कुमाऊंनी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए।
कुमाऊंनी कवियों व लेखकों के लिए प्रोत्साहन योजना को शुरू किया जाए।
दैनिक बातचीत कुमाऊंनी में की जाए।
सोशल मीडिया में कुमाऊंनी का प्रचार-प्रसार किया जाए।
शैक्षिक पाठ्यक्रमों में कुमाऊंनी की भागीदारी तय हो।
नई पीढ़ी को कुमाऊंनी भाषा से परिचित किया जाए।
कुमाऊंनी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए राजनीतिक पहल हो।
कुमाऊंनी भाषा से संबंधित अधिक से अधिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएं।
रंगोली, ऐपण, लोककला चित्रण को भी पाठ्य विषयों में शामिल किया जाए।
कुमाऊंनी के विलुप्त होते शब्दों को संरक्षित किया जाए।
बात अपनी-अपनी
सम्मेलन का उद्देश्य कुमाऊंनी भाषा का प्रचार-प्रसार और संरक्षण करना रहा है। इसी दिशा में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया था। जिस तरह से इसमें लोगों ने प्रतिभाग किया, उससे लगता है कि यह इस दिशा में सार्थक कदम रहा। कुमाऊंनी भाषा को लेकर अच्छा मंथन हुआ। सम्मेलन में कई प्रस्ताव पास हुए, जिन पर अब भविष्य में अमल किया जाएगा। हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि कुमाऊंनी भाषा व संस्कृति को समृद्ध किया जाय।
डॉ. अशोक कुमार पंत, शिक्षाविद् एवं मुख्य कार्यक्रम संयोजक
हमें अपनी दुधबोली कुमाऊंनी को बचाने के लिए बोली के अंतर और लिपि के पूर्वाग्रहों को छोड़कर भाषा को समृद्ध बनाने की जरूरत है। इसे नई पीढ़ी के बीच लोकप्रिय बनाना जरूरी है। इस भाषा में पर्याप्त लेखन व अनुवाद कार्य हो रहा है। इसके लिए लोग सहयोग भी कर रहे हैं। कुमाऊंनी भाषा एवं संस्कृति प्रचार समिति व पहरू कुमाऊंनी बोली के प्रचार-प्रसार में लंबे समय से काम कर रही है।
डॉ. हयात सिंह रावत, संपादक ‘पहरू’