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  •      आकाश नागर/अहसान अंसारी

 

योग गुरु बाबा रामदेव और उनके बाल सखा आचार्य बालकृष्ण सहित रामदेव के छोटे भाई रामभरत का विवादों संग चोली दामन का साथ रहा है। नित नए विवाद में तीनों के नाम समय-समय पर सामने आते रहे हैं। यही कारण है कि योग गुरु स्वामी रामदेव योग के साथ-साथ विवादों के गुरु बतौर भी स्थापित हो चले हैं। ताजा विवाद उनके ट्रस्ट दिव्य फार्मेसी से जुड़ा है जिसके कर्मचारियों को 18 वर्षों की लंबी कानूनी लड़ाई के पश्चात मिली जीत के बावजूद आज भी अपने हक की कमाई के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है। यह हाल तब है जब पीड़ित कर्मचारी नौकरी पर पुनः बहाली तथा वेतन भुगतान के संबंध में हरिद्वार के उपश्रम आयुक्त से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक दिव्य फार्मेसी प्रबंधन के खिलाफ जीत चुके हैं। बावजूद इसके स्वामी रामदेव श्रमिकों को उनका हक दिलाने की बजाय हठयोगी बन सामने आ रहे हैं

 

‘मुझको उस वैद्य की विद्या पर तरस आता है,
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है।
तू कहां खड़ा होकर मांग रहा है रोटी,
यह सियासत का नगर सिर्फ दगा देता है।।’’

प्रख्यात कवि नीरज की ये पंक्तियां योग से रोगों का उपचार करने वाले स्वामी रामदेव के व्यक्तित्व के उस पहलू पर रोशनी डालती हैं जिससे पिछले 18 साल से हरिद्वार में उनकी कंपनी से निकाले गए मजदूर रू-ब-रू हो रहे हैं। विश्व को योग के माध्यम से रोगमुक्त करने का दावा करने वाले योगाचार्य रामदेव इन श्रमिकों के उस रोग का इलाज करने की पहल नहीं करते जिसका नाम भूख है।

यह भूख श्रमिकों के नक्कारेपन या अकर्मयण्ता से नहीं, बाबा रामदेव की कठोर तथा दोषपूर्ण नीति से उपजी है। दुनिया को योग सिखाने वाले योग पुरुष रामदेव का इसे क्रूर हठयोग ही कहा जाएगा जिसने पिछले 18 सालों से सैकड़ों आंदोलनरत श्रमिक परिवारों को भूख की भट्ठी में झोंक दिया है। क्या यह स्वामी रामदेव के स्वामित्व पर सवालिया निशान नहीं है कि वे श्रमिकों को अपना नहीं मानने की जिद पर अड़े हुए हैं। 18 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से न्याय की लड़ाई जीतने के बाद भी श्रमिकों को उनके हक देने में रामदेव आनाकानी करते नजर आ रहे हैं।

जहां एक ओर कर्मचारियों ने आदेश का पालन कराते हुए उनको वापस काम पर रखे जाने तथा वेतन भत्ते भुगतान कराए जाने की मांग को लेकर उपश्रम आयुक्त को पत्र सौंपा है तो वहीं दूसरी ओर दिव्य फार्मेसी प्रबंधन द्वारा भी कर्मचारियों के इस आवेदन पर कार्रवाई के बजाय आपत्ति प्रस्तुत कर दी है। जिस पर उपश्रमायुक्त हरिद्वार द्वारा सुनवाई की तिथि निर्धारित की है। मतलब साफ है कि देश की सर्वोच्च अदालत से आदेश होने के बावजूद सत्ता संरक्षण के नशे में चूर स्वामी रामदेव के प्रबंधन वाली दिव्य फार्मेसी अपने कर्मचारियों को उनका हक देने के लिए तैयार नहीं है।

हरिद्वार स्थित दिव्य फार्मेसी

इस विवाद की शुरुआत आज से 18 साल पहले शुरू हुई थी। मई 2005 में दिव्य फार्मेसी एवं कर्मचारियों के बीच वेतन भुगतान को लेकर हुए विवाद के बाद प्रबंधन ने सैकड़ों कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया था। जिस पर शासन के निर्देश पर उपश्रम आयुक्त हरिद्वार की मध्यस्था में दोनों पक्षों के मध्य समझौता हुआ कि अप्रैल 2005 से कर्मचारियों को तनख्वाह दी जाएगी। दिव्य फार्मेसी ने लेकिन समझौते का पालन नहीं किया। वेतन न मिलने से नाराज कर्मचारी हाईकोर्ट पहुंच गए। हाईकोर्ट ने इस पूरे मामले की जांच हरिद्वार के असिस्टेंट लेबर कमिश्नर से करवाई। जांच में पाया गया कि दिव्य फार्मेसी ने समझौते का उल्लंघन किया है। हाईकोर्ट की एकल पीठ ने कंपनी को 2005 में हुए समझौते के मुताबिक, कर्मचारियों को पिछले 13 सालों का वेतन देने का आदेश दिया। दिव्य फार्मेसी प्रबंधन ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ डबल बेंच में अपील दायर कर दी। उच्च न्यायालय की डबल बेंच ने भी कर्मचारियों के पक्ष में निर्णय देते हुए आदेश दिया कि श्रमिकों को 21 मई 2005 के समझौते के अनुसार कार्य पर लिया जाए तथा उनके लंबित वेतन का भुगतान किया जाए। दिव्य फार्मेसी इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा पहुंची। कर्मचारी यूनियन सीटू और दवा उद्योग कामगार यूनियन के नेतृत्व में लड़ी जा रही दिव्य फार्मेसी के कर्मचारियों की लड़ाई में दिव्य फार्मेसी को सुप्रीम कोर्ट से भी झटका लगा। दिव्य फार्मेसी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर स्पेशल लीव अपील नंबर 4040 को दिनांक 24 अप्रैल 2023 को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज करते हुए श्रमिकां के पक्ष में उच्च न्यायालय उत्तराखण्ड एवं उपश्रमायुक्त हरिद्वार द्वारा पारित आदेश को यथावत रखा। यह निर्णय दिनांक 24 अप्रैल 2023 को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कृष्णा मुरारी एवं न्यायाधीश संजय कुमार की पीठ द्वारा दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय बाद भी दिव्य फार्मेसी प्रबंधन पीड़ित कर्मचारियों की सुध लेने के लिए तैयार नहीं है जिस कारण कर्मचारियों के लिए लंबा संघर्ष करने वाली कर्मचारी यूनियन सीटू और पीड़ित कर्मचारियों को

सुप्रीम कोर्ट का आदेश

अपनी मांग उठानी पड़ रही है। सीआईटीयू उत्तराखण्ड राज्य कमेटी ने शासन- प्रशासन एवं श्रम विभाग के अधिकारियों से मांग करते हुए कहा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन कराते हुए सेवायोजकों के विरुद्ध जारी राजाज्ञा के अनुसार कार्यवाही अमल में लाई जाए तथा श्रमिकों को 21 मई 2005 के समझौते के अनुसार कार्य बहाली कराते हुए 21 मई 2005 से कार्य वहाली तक के वेतन व अन्य भुगतान दिलाया जाना सुनिश्चित करें। लेकिन बाबा रामदेव की पहुंच के सामने पीड़ित कर्मचारियों की आवाज आज भी नक्कारखाने में तूती की आवाज की तर्ज पर दबकर रह गई है। पीड़ित कर्मचारी प्रशासन की ओर उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन स्वामी रामदेव के द्वारा लंबी चली इस लड़ाई में हठयोग दिखाए जाने के चलते कर्मचारियों को अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि दिव्य फार्मेसी प्रबंधन इस निर्णय को लागू करेगा या नहीं। जिसके चलते अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है।

पीड़ित लोगों की मानें तो स्वामी रामदेव की सियासी पहुंच और अपार लोकप्रियता ने भी आंदोलन को कमजोर तथा आंदोलनरत श्रमिकों को अलग- थलग करने में अहम भूमिका अदा की है। विभिन्न राजनीतिक दलों, सामाजिक एवं गैरसामाजिक संगठनों को मिलाकर बनाए गए संयुक्त संघर्ष मंच ने कुछ महीनों में ही दम तोड़ दिया था। हालात यह हो गए थे कि 28 जुलाई 2005 में शुरू हुए श्रमिकों के आंदोलन में एक साल बाद धरनास्थल पर आंदोलन के समर्थकों की भीड़ की जगह मायूसी भरे माहौल में कटे-फटे बैनर नजर आने लगे थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल रामदेव की लोकप्रियता को ललकारने की स्थिति में नहीं था, न ही उसमें इतना साहस था कि वो रामदेव समर्थकों की नाराजगी मोल लेता। कहना न होगा कि इंसाफ के लिए चीत्कार रहे श्रमिकों की अपील सियासत की स्वार्थपरक सुरंग में गुम होकर रह गई। कहीं न कहीं वोट के लोभ में राजनीतिक नीतियों की सीमाएं भी टूटी। रामदेव के पक्ष में तमाम सीमाएं भी टूटी और रामदेव के पक्ष में तमाम सियासती दलों का धु्रवीकरण भी हुआ।

इस मामले में मजदूरों की मसीहा माने जाने वाली वामपंथी पार्टियों ने शुरुआत में आंदोलनरत श्रमिकों के पक्ष में अपना समर्थन दिया। मजदूरों के हक में आवाज बुलंद करने के लिए माकपा नेत्री वृंदा करात भी मैदान में डट गई। फलस्वरूप 21 मई 2005 को दिव्य फार्मेसी, प्रशासन और श्रमिकों के बीच हस्ताक्षरनुमा त्रिपक्षीय समझौता भी हुआ। जिसमें निकाले गए मजदूरों को बकाया वेतन के भुगतान के साथ वापस नौकरी में लेने की बात तय की गई। लेकिन यह समझौता भी एक छलावा ही साबित हुआ। समझौते पर आज तक अमल नहीं किया जा सका है जिसके लिए प्रशासन और दिव्य फार्मेसी जिम्मेदार है। इससे शासन-प्रशासन और स्वामी का मजदूर विरोधी निर्मम चरित्र भी सामने आया था।

नोट :-‘दि संडे पोस्ट’ ने स्वामी रामदेव, आचार्य बालकृष्ण और रामभरत से फोन पर संपर्क करने का प्रयास किया लेकिन किसी ने भी फोन रिसीव नहीं किया।

दिव्य फार्मेसी के श्रमिक पिछले 18 सालों से न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे। अब उन्हें हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट से भी जीत हासिल हुई है। यह बहुत ही खुशी की बात है। लेकिन फैसला आने के चार माह बाद भी उन्हें बकाया वेतन भत्तों का भुगतान न करना और नौकरी पर न रखना दिव्य फार्मेसी प्रबंधन पर सवाल खड़े करता है। बदकिस्मती से मामला अब लेबर कमिश्नर के यहां लटका दिया गया है। शर्म की बात यह है कि जहां डबल इंजन की सरकार श्रमिकों के हितों की बात करती है वह देश की सर्वोच्च न्यायालय से जीतकर आए श्रमिकों का सेटलमेंट तक नहीं करा पा रही है।
वृंदा करात, पूर्व राज्यसभा सांसद एवं सदस्य पोलित ब्यूरो, भाकपा (मार्क्सवादी)

 

 

श्रमिकों की पीड़ा

दिव्य फार्मेसी और श्रमिकों के बीच चले विवाद का सबसे अधिक संवेदनशील पहलू यह है कि जब यह लड़ाई प्रारंभ हुई तो 100 से अधिक कर्मचारियों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। बाद में देश की सर्वोच्च अदालत में पहुंचने पर 96 श्रमिक चिÐत किए गए जिनमें से लड़ाई के अंजाम तक पहुंचते-पहुंचते 8 कर्मचारी अब तक अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। 18 वर्ष चली इस लंबी कानूनी लड़ाई के दौरान अधिकतर कर्मचारियों ने आर्थिक तंगी के चलते इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। यह हाल तब है जब स्वामी रामदेव देशभर में लगाए जाने वाले अपने योग केंद्र में गरीबों की मदद तथा उनको स्वस्थ रखने का मुद्दा जोर-शोर से उठाते रहे हैं लेकिन अपने ही कर्मचारियों को लेकर रामदेव हो या आचार्य बालकृष्ण दोनों की संवेदनहीनता साफ- साफ नजर आती है। दिव्य फार्मेसी के इन कर्मचारियों के परिजनों की बात करें तो दर्जनों कर्मचारी आर्थिक तंगी के चलते अपने बच्चों को जहां एक ओर अच्छी शिक्षा नहीं दे सके तो वहीं कुछ कर्मचारी अपनी पत्नी और बच्चों को भी खो चुके हैं।

श्रमिकों के परिवार दर-बदर होकर रह गए। जिन श्रमिकों के बच्चों को स्कूल जाना चाहिए था वे सब्जी की ठेलियां लगाकर जीवन यापन करते रहे हैं। मकान का किराया न दे पाने के कारण वे घरों से निकाले गए। उनकी अधिकतर राते सड़क पर गुजरी है। इन 18 सालों के दौरान आंदोलनकारी श्रमिकों पर क्या-क्या पहाड़ टूटे यह इससे समझ जा सकता है कि एक श्रमिक का पुत्र स्वर्ग सिधार गया तो एक श्रमिक अपने भूख से मरते बच्चों को नहीं देख सका और हार्ट अटैक का शिकार हो गया। एक श्रमिक की आंख खराब हो गई जिसके ईलाज में बर्तन तक बिक गए। एक महिला श्रमिक को घर-घर में चौका बर्तन करने और परिवार के जीविकोपार्जन की जद्दोजहद में एनीमिया हो गया। दो श्रमिक अपनी मजदूरी मांगने की एवज में जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिए गए तो दूसरी तरफ आंदोलन की जोर-शोर से अगुवाई करने वालों पर हमले ही नहीं हुए, बल्कि उनके परिवार आज तक भी इसी खौफ के साये में जी रहे हैं।

श्रमिकों का दंभ भरने वाली भाजपा हो या उक्रांद या कांग्रेस किसी भी राजनीतिक दल को उन श्रमिकों का वह बंद चूल्हा नहीं दिखाई दिया जिसमें कई-कई दिनों तक आग नहीं जली। वर्षों से जल रही है तो सिर्फ पेट की आग जिसे श्रमिक बेचारे बुझाएं तो बुझाएं कैसे?

दिव्य फार्मेसी से निकाले गए एक श्रमिक अपनी दास्तान बयां करते हुए कहते हैं कि इस दौरान उन पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े। एक बाप के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि उसका बेटा पैसे के अभाव में इलाज न होने के चलते मामूली बीमारी में चल बसा। वह अपनी किस्मत को कोसते हुए कहते हैं कि समझ में नहीं आता कि अपने बेटे को खोने का दोष किसे दें, भगवान या स्वामी रामदेव को?

एक महिला श्रमिक ने आप बीती बताते हुए कहा कि जब उनकी नौकरी छूटी तो फीस न जमा करने के कारण उनके बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया। पढ़ाई चौपट होने के बाद किसी तरह वह अपने बच्चों को अपने मायके भेजकर पढ़ाई निरंतर करा पाई। उनके बच्चे कई बार भूख से बिलबिलाते रहते थे लेकिन खाने को दो जून की रोटी का जुगाड़ नहीं हो पाता था। उन्हें अपने दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय एक ठेली पर सब्जी बेचने के लिए बिठाना पड़ा जिनकी कमाई से ही घर का चूल्हा जलता है। समय पर किराया न देने के कारण मकान मालिक ने उनके परिवार को घर से बाहर कर दिया था। इसके बाद वे अपने परिवार को लेकर फुटपाथ पर सोकर और इधर- उधर मजदूरी करके अपना जीवन-यापन करती रही हैं। एक श्रमिक के अनुसार कई महीनों से भूख और बेरोजगारी के बीच पिस रहा उनका श्रमिक साथी विनय गोस्वामी एक दिन इस दुनिया को छोड़कर चल बसा। दूसरे श्रमिकों का मनोबल न टूटे इसलिए उन्होंने किसी को भी विनय गोस्वामी की मौत की सूचना तक नहीं दी। एक श्रमिक की इस दौरान आंख खराब हो गई, इलाज के अभाव में उसकी दूसरी आंख की रोशनी भी चली गई। इलाज के लिए घर के बर्तन तक बिक गए।

बात अपनी-अपनी
दिव्य फार्मेसी प्रबंधन और कर्मचारियों का विवाद अभी समाप्त नहीं हुआ है माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन ना होने पर अभी सुनवाई मेरे समक्ष विचाराधीन है।
अरविंद सैनी, सहायक, श्रमायुक्त हरिद्वार

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कर्मचारी कितने दिए गए आदेशों के क्रम में आदेश का पालन कराने हेतु उप श्रम आयुक्त हरिद्वार के समक्ष प्रत्यावेदन प्रस्तुत किया था जिस पर दिव्य फार्मेसी प्रबंधन द्वारा आदेश का पालन करने के बजाय अपनी आपत्ति प्रस्तुत की गई है। इसके संबंध में उपायुक्त कार्यालय द्वारा तिथि निर्धारित की है। यदि दिव्य फार्मेसी प्रबंधन सर्वोच्च अदालत के आदेश से पीछे हटता है तो अवमानना की कार्रवाई की जाएगी।
एमपी जखमौला, प्रांतीय महामंत्री, दवा उद्योग कामगार यूनियन उत्तराखण्ड

मुझे इस मामले में कोई जानकारी नहीं है। मैं कुछ नहीं कह पाउंगा।
गगन कुमार, मीडिया प्रभारी, पतंजलि हरिद्वार

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