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Uttarakhand

मोदी पर भारी राहुल की जनसभा

उत्तराखण्ड में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की सभाओं से कोई स्पष्ट राजनीतिक निष्कर्ष लगा लेना जल्दबाजी होगी लेकिन इन रैलियों के बाद निकली बातें कई कहानियां कहती हैं। भाजपा के नेता स्वयं मानने लगे हैं कि रणनीतिकारों के लिए चुनाव घूम-फिर कर भावनात्मक या ध्रुवीकरण के मुद्दे पर आकर टिक जाता है। नरेन्द्र मोदी अपनी रैली में पिछले पांच वर्षों के दौरान उत्तराखण्ड के लिए एक लाख करोड़ की स्वीकृति की बात तो कह गए, लेकिन वो धरातल पर है कहां? ये सवाल भाजपा के ही नाराज नेता खड़े करते नजर आ रहे हैं। वे कहते हैं कि सिर्फ कागजों पर स्वीकृत योजनाओं को लेकर तो जनता के बीच जा नहीं सकते। सरकारी योजनाओं का अति प्रचार जो जमीन पर है ही नहीं, वही पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। नरेंद्र मोदी की कार्यशैली कैडर के साथ सहभागिता वाली नहीं रही है। वो सिर्फ एक हेडमास्टर की तरह अपनी बात कह जाते हैं, सुनते किसी की नहीं। भाजपा कार्यकर्ताओं का काम सिर्फ नरेंद्र मोदी की छवि बनाना रह गया है जिसमें भाजपा का मूल स्वरूप खो गया है। राहुल की रैली ने भाजपा की चिंताएं यूं भी बढ़ा दी हैं कि राहुल गांधी के आने के बाद कांग्रेस में जमीनी स्तर पर उत्साह बढ़ा है वहीं भाजपा में मोदी की रैली के बाद भी जमीनी स्तर पर उत्साह की कमी रही जिसका असर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की हरिद्वार की जन आशीर्वाद यात्रा में दिखा जिसमें अपेक्षा के अनुरूप भीड़ नहीं जुट पाई। देहरादून में राहुल गांधी ने प्रदेश के बड़े नेताओं से अलग से मुलाकात की और सभी को एकजुटता का निर्देश दिया जिसका असर उत्तराखण्ड में दिखाई देने लगा है

उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून का परेड ग्राउंड दिसंबर माह में दो बड़ी राजनीतिक रैलियों का गवाह बना। 4 दिसंबर और 16 दिसंबर की दो बड़ी रैलियों ने प्रदेश के राजनीतिक तापमान को तो बढ़ाया ही, साथ ही राजनीतिक पर्यवेक्षकों को प्रदेश की चुनावी राजनीति की दशा को समझने का संकेत भी दे डाला। 4 दिसंबर को भाजपा की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तराखण्ड में चुनावी माहौल को गर्माने का प्रयास किया, वहीं 16 दिसंबर को कांग्रेस ने अपनी ताकत का एहसास कराते हुए ‘विजय सम्मान रैली’ में राहुल गांधी के माध्यम से भाजपा की रैली का माकूल जवाब दे डाला। 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद उत्तराखण्ड में कांग्रेस की ये पहली रैली थी जिसे गांधी परिवार का कोई सदस्य संबोधित करने आया था। भारतीय जनता पार्टी ने एक तरह से उत्तराखण्ड में चुनावी बिगुल फूंक दिया है। उत्तराखण्ड में शायद ही कोई दिन हो जिस दिन भाजपा के बड़े नेता उत्तराखण्ड के किसी न किसी क्षेत्र में न दिखाई दें। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, प्रहलाद जोशी सहित कई मंत्री, पदाधिकारी उत्तराखण्ड में चुनावी माहौल में भाजपा के पक्ष में जुटे हैं। उत्तराखण्ड की भाजपा प्रदेश इकाई के कार्यक्रम तो उसके समानांतर चल ही रहे है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो उसमें जान फूंकी है पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की पूरी प्रदेश में स्वीकार्यता और सक्रियता ने और नए अध्यक्ष गणेश गोदियाल की संगठन को मजबूत कर सबको साथ लेकर चलने की दृढ़ इच्छाशक्ति ने। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह अधिकांश समय गुटबाजी और हरीश रावत को कमजोर करने के प्रयास चलते कांग्रेस संगठन को मजबूत करने के मूल दायित्व को ही भूला बैठे थे। उनको इसमें उस समय के प्रभारी अनुग्रह नारायण सिंह का पूरा साथ मिला।

 

प्रीतम को अपनी नई टीम बनाने में ही ढाई साल का वक्त लग गया। उत्तराखण्ड चुनाव के लिए बनी टीम, नये प्रदेश अध्यक्ष एवं कार्यकारी अध्यक्ष की घोषणा तथा हरीश रावत के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस की जमीनी सक्रियता बढ़ी है। चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनने के बाद हरीश रावत ने जिस प्रकार कुमाऊं से लेकर गढ़वाल और तराई तक धुआंधार दौरे शुरू किए उसने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार किया। यशपाल आर्या और संजीव आर्या के कांग्रेस में आने के बाद कांग्रेस और हरीश रावत के आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हुई। ऐसे में बदले माहौल को अपने पक्ष में करने और भाजपा को माकूल जवाब देने के लिए कांग्रेस को एक बड़ी रैली की दरकार थी, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली के बाद। कांग्रेस के एक प्रदेश महामंत्री का कहना है कि कांग्रेस के जर्जर संगठन को जिंदा करने की जद्दोजहद के बीच एक बड़ी रैली जरूरी थी जो कैडर में उत्साह भर दे। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर हिन्दुस्तान की जीत की पचासवीं वर्षगांठ का अवसर सबसे बेहतर दिन था। ‘विजय सम्मान रैली’ के माध्यम से अपने कैडर और सैन्य बाहुल उत्तराखण्ड के फौजियों से जुड़ने के लिए 16 दिसंबर का दिन ही कांग्रेस ने अपनी ताकत को दिखाने के लिए चुना जिसमें वो अपने मकसद में कामयाब भी रही।

परेड ग्राउंड को रैली स्थल के रूप में चुनना कांग्रेस के लिए एक चुनौती भी था क्योंकि यहीं पर 12 दिन पहले भाजपा की रैली को स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया था। संख्या के लिहाज से कांग्रेस का ये प्रदर्शन भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की टेंशन बढ़ा गया। स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का मानना है कि प्रधानमंत्री की रैली में एक लाख लोगों के जुटने के दावों के बीच जहां बामुश्किल 25 से 30 हजार की भीड़ जुट पाई तो राहुल गांधी की रैली में 50 हजार से अधिक भीड़ जुटी। आर्थिक व अन्य संसाधनों की कोई कमी न होने के बावजूद पीएम की रैली में कांग्रेस की रैली से कम भीड़ होना भाजपा के अंदर चिंता की लकीरें खींच गया है। विशेषकर जिस मोदी मैजिक के जरिए भाजपा उत्तराखण्ड में 2022 के विधानसभा चुनावों को फतह करने का सपना देख रही है उस मैजिक का खत्म होते दिखना भाजपा की टेंशन बढ़ाने वाला है। आमजनों के बीच ये चर्चा सामान्य रही कि 2014 और 2017 जैसी रैलियों का उत्साह अब मोदी की रैलियों में दिखाई नहीं दे रहा है

हालांकि परेड ग्राउंड को रैली स्थल के रूप में चुनना कांग्रेस के लिए एक चुनौती भी था क्योंकि यहीं पर 12 दिन पहले भाजपा की रैली को स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया था। संख्या के लिहाज से कांग्रेस का ये प्रदर्शन भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की टेंशन बढ़ा गया। स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का मानना है कि भाजपा के प्रधानमंत्री की रैली में एक लाख लोगों के जुटने के दावों के बीच जहां बामुश्किल 25 से 30 हजार की भीड़ जुट पाई तो राहुल गांधी की रैली में 50 हजार से अधिक भीड़ जुटी। आर्थिक व अन्य संसाधनों की कोई कमी न होने के बावजूद पीएम की रैली में कांग्रेस की रैली से कम भीड़ होना भाजपा के अंदर चिंता की लकीरें खींच गया है। विशेषकर जिस मोदी मैजिक के जरिए भाजपा उत्तराखण्ड में 2022 के विधानसभा चुनावों को फतह करने का सपना देख रही है उस मैजिक का खत्म होते दिखना भाजपा की टेंशन बढ़ाने वाला है। आमजनों के बीच ये चर्चा सामान्य रही कि 2014 और 2017 जैसी रैलियों का उत्साह अब मोदी की रैलियों में दिखाई नहीं दे रहा है।

 

कांग्रेस की ‘विजय सम्मान रैली’ की बात करें तो राहुल गांधी ने अपने संबोधन के जरिए कई निशाने साधे। 1971 की लड़ाई से जुड़े सैन्य अधिकारियों और सैन्य कर्मियों के अलावा सैन्य क्षेत्र से जुड़े लोगों का मंच पर सम्मान और उनसे सहज संवाद से राहुल गांधी के नये अवतार का पता चलता है कि वो भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उनकी ही शैली में राजनीतिक जवाब देने का मन बना चुके हैं। बेरोजगारी पर युवाओं की दुखती रग पर हाथ रखना, महंगाई, पलायन, उत्तराखण्ड से अपने रिश्ते समेत तमाम मुद्दे राहुल गांधी के सत्ताइस मिनट के भाषण में थे। राहुल 1971 के अतीत के साथ वर्तमान की शहादतों को भी याद करना नहीं भूले। रैली स्थल पर शहीद सीडीएस बिपिन रावत का बड़ा कट आउट इस बात की तरफ इशारा करता दिखा कि कांग्रेस पूर्व सैनिकों व शहीद परिवारों को अपने साथ जोड़ने में कोई कोताही नहीं बरतना चाहती। जिस राष्ट्रवाद के मुद्दे को भाजपा अपना मानती है उसी राष्ट्रवाद की चाशनी में राहुल गांधी ने भाजपा को घेरा। जब 1971 के युद्ध की याद दिलाते हुए राहुल गांधी ने कहा कि उस वक्त भारत एक था तो हमने तेरह दिन में युद्ध जीत लिया लेकिन आज देश को बांटा जा रहा है। ये संदेश देश के लिए तो था ही उत्तराखण्ड कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के लिए भी एक संदेश अवश्य रहा होगा।

 

उत्तराखण्ड के सैन्य परिवारों व शहीदों के बीच अपना रिश्ता जोड़ते हुए वो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के बलिदान की याद दिलाते हुए उत्तराखण्ड से अपने परिवार का रिश्ता जोड़ गए। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की शहादत के अपने दर्द को शहीदों के परिवार से जोड़ते हुए वो भाजपा पर निशाना साधने से नहीं चूके कि ‘कुर्बानी देने वाले ही समझ सकते हैं कि पिता व भाई को खोने का दर्द क्या होता है।’ जिन्होंने कुर्बानियां नहीं दी वो शहादत का अर्थ समझ नहीं सकते, उनके लिए शहादत सिर्फ राजनीति का जरिया ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तर्ज पर राहुल गांधी उत्तराखण्ड से अपना रिश्ता बताते हुए उस नाटकीयता का शिकार नहीं हुए जिसका शिकार अक्सर नरेंद्र मोदी होते हैं। 27 मिनट के भाषण में मंझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह राहुल गांधी ने भाजपा के लिए अपने भाषण में नुक्ताचीजांे की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। हालांकि भाजपा ने फिर भी कांग्रेस पर रैली मंच पर मंत्रोच्चार के समय हाथ न जोड़ने, रूद्राक्ष की माला न पहनने, दिवंगत सीडीएस बिपिन रावत के बड़े कट आउट रैली स्थल पर लगाकर सेना का राजनीतिक लाभ लेने के आरोप लगाए लेकिन इन आरोपों को ज्यादा तवज्जो मिली नहीं। राहुल गांधी के बाद चुनाव संचालन समिति के संयोजक हरीश रावत को जनता का भरपूर समर्थन मिला। हरीश रावत यहां अपनी पुरानी रंगत में लौटते नजर आए। राहुल गांधी ने जिस प्रकार रावत के संबोधन को गौर से सुना और अपना भाषण समाप्त करने के बाद वापस आकर हरीश रावत को जो तवज्जो दी वो भविष्य के घटनाक्रम का संकेत देता है।

 

उत्तराखण्ड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की सभाओं से कोई स्पष्ट राजनीतिक निष्कर्ष लगा लेना जल्दबाजी होगी लेकिन इन रैलियों के बाद निकली बातें कई कहानियां कहती हैं। भाजपा के नेता स्वयं मानने लगे हैं कि पार्टी रणनीतिकारों के लिए चुनाव घूम-फिर कर भावनात्मक या ध्रुवीकरण के मुद्दे पर आकर टिक जाता है। नरेंद्र मोदी अपनी रैली में पिछले पांच वर्षों के दौरान उत्तराखण्ड के लिए एक लाख करोड़ की स्वीकृति की बात तो कह गए लेकिन वो धरातल पर है कहां? ये सवाल भाजपा के ही नाराज नेता खड़े करते नजर आ रहे हैं। वे कहते हैं कि सिर्फ कागजों पर स्वीकृत योजनाओं को लेकर तो जनता के बीच जा नहीं सकते। सरकारी योजनाओं का अति प्रचार जो जमीन पर हैं ही नहीं, वही पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली कैडर के साथ सहभागिता वाली नहीं रही है। वो सिर्फ एक हेडमास्टर की तरह अपनी बात कह जाते हैं, सुनते किसी की नहीं। भाजपा कार्यकर्ताओं का काम सिर्फ नरेंद्र मोदी की छवि बनाना रह गया है जिसमें भाजपा का मूल स्वरूप खो गया है। राहुल की रैली ने भाजपा की चिंताएं यूं भी बढ़ा दी हैं कि राहुल गांधी के आने के बाद कांग्रेस में जमीनी स्तर पर उत्साह बढ़ा है वहीं भाजपा में मोदी की रैली के बाद भी जमीनी स्तर पर उत्साह की कमी रही जिसका असर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की हरिद्वार की जन आशीर्वाद यात्रा में दिखा जिसमें अपेक्षा के अनुरूप भीड़ नहीं जुट पाई। देहरादून में राहुल गांधी ने प्रदेश के बड़े नेताओं से अलग से मुलाकात की और सभी को एकजुटता का निर्देश दिया जिसका असर उत्तराखण्ड में दिखाई देने लगा है। राहुल गांधी की रैली के बाद हुई जनसभाओं में प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव के साथ प्रदेश के सभी बड़े नेता एक साथ नजर आ रहे हैं वर्ना हरीश रावत को छोड़ कोई भी नेता अपने क्षेत्र से बाहर निकल नहीं पा रहे थे। खासकर नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह, उपनेता करन माहरा और चारों कार्यकारी अध्यक्ष अपने चुनाव क्षेत्र में ही सीमित होकर रह गये थे। राहुल गांधी के उत्तराखण्ड दौरे ने इन नेताओं को अपने क्षेत्रों से बाहर निकलने को मजबूर किया है। उत्तराखण्ड में कांग्रेस को पार्टी नेताओं की सक्रियता ने चर्चा में ला दिया है। अब कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस माहौल को वोट में तब्दील करने की है। इस चुनौती से पार निपटने के प्रयासों का राजनीतिक परिणाम देखने के लिए अभी इंतजार करना होगा।

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