उत्तराखण्ड के सरकारी अस्पतालों को ‘कायाकल्प पुरस्कार’ से नवाजा जाने पर प्रश्न उठने लगे हैं। जब यहां के मरीजों को समय पर एम्बुलेंस नहीं मिलती, उचित उपचार नहीं मिलता और डॉक्टरों की सीमित उपलब्धता के चलते मरीजों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है तो ‘कायाकल्प पुरस्कार’ किस आधार पर दिए गए? राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खराब है, यहां के अस्पतालों में यदि शिद्दत के साथ कोई काम होता है तो वह है मरीजों को निजी अस्पतालों के लिए रेफर करना। राज्य के पहाड़ी इलाकों में तो ऐसे हालात हैं कि अस्पताल दूर होने के चलते गर्भवती महिलाओं को चिकित्सा नहीं मिल पाती और प्रसव के दौरान दम तोड़ देती है
सरकार वही, स्वास्थ्य मंत्री वही, सरकार के मुखिया भी वही लेकिन साथ ही सवाल भी वही कि प्रदेश में स्वास्थ्य क्षेत्र में व्याप्त बदहाली दूर होगी या नहीं? यह सवाल हर उत्तराखण्डी के मन में इन दिनों चल रहा है। सच यह है कि पिछली सरकारें स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर नहीं बना पाई, जिससे जनता के मन में संदेह भी बना हुआ है। स्वास्थ्य क्षेत्र में उत्तराखण्ड एक ऐसे प्रदेश के रूप में पहचान बना रहा है जहां दुर्गम हो या सुगम वहां लोगों को न दवा मिलती है न डॉक्टर उपलब्ध हो पाते हैं। भगवान की दुआ पर पहले भी यहां के लोगों का स्वास्थ्य टिका था और अब भी उसी पर टिका हुआ है। प्रदेश की सेहत का सच यहां के आम आदमी के बीमार स्वास्थ्य की दास्तां है। स्वास्थ्य सुविधाओं को मुहैया कराने में राजनीतिक शक्ति कमजोर ही साबित रही है। पिछले 22 वर्ष इस बात के साक्षी हैं। आज भी लोग सिरदर्द एवं बुखार की एक गोली के लिए सैकड़ों मील की दूरी तय करने को विवश हैं। बीमारी और प्रसव के समय हालात और बेकाबू हो जाते हैं।
कहने को प्रदेश में जिला चिकित्सालय, महिला चिकित्सालय, बेस चिकित्सालय, प्राथमिक चिकित्सालय, अतिरिक्त प्राथमिक चिकित्सालय, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, राजकीय ऐलोपैथिक चिकित्सालय, संयुक्त चिकित्सालय, सहायता प्राप्त निजी चिकित्सालय, क्षय रोग चिकित्सालय व कुष्ठ रोग चिकित्सालय हैं लेकिन यह सब रेफर सेंटर में तब्दील हो गए हैं। प्रदेश में आधे से अधिक डॉक्टरों के पद रिक्त चल रहे हैं। 108 आपातकालीन सेवा आपात समय में दगा दे जाती है। कहीं ट्रामा सेंटर बनने के बाद शुरू नहीं हो पाए हैं तो कहीं बन ही नहीं पा रहे हैं। ब्लड बैंकों की हालत भी दयनीय है। ग्रामीण इलाकों में न मां सुरक्षित है न ही बच्चे। जच्चा-बच्चा दोनों का स्वास्थ्य खतरे में है। प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 38 प्रति हजार पहुंच गई है। लोग महंगा उपचार करने को मजबूर हैं। इसका उत्तर सरकार को देना है लेकिन वह नहीं दे पा रही है। तमाम मेडिकल कॉलेजों व हर वर्ष पहाड़ों से डॉक्टरों या कहें विशेषज्ञ डॉक्टर बनने वाले युवाओं की तादाद बढ़ रही हैं लेकिन यहां के अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी खल रही है। स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी सवाल आज भी जस के तस हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए जो योजनाएं सरकार द्वारा चलाई जा रही हैं, उनकी स्थिति इतनी खराब है कि उन्हें खुद इलाज की जरूरत महसूस हो रही है। मातृ-शिशु मृत्यु दर जैसे लक्ष्य भी पूरे नहीं हो पा रहे हैं। मेडिकल कॉलेजों से निकलने वाले डॉक्टर पहाड़ों में सेवा देने को तैयार नहीं हैं। संविदा पर चिकित्सक काम करने को तैयार नहीं। जेनरिक दवाओं का सवाल भी अपनी जगह पर है। प्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाएं मैदानी क्षेत्रों तक सिमट कर रह गई हैं।
चकराता की रीना चौहान को 14 किमी, पैदल पहाड़ी रास्तों से पहुंचाया था अस्पताल
अभी हाल में उत्तराखण्ड रिसर्च गु्रप के शोधार्थियों ने सरकारी अस्पतालों में मातृ व नवजात मृत्यु दर पर जो शोध रिपोर्ट पेश की है उसके मुताबिक उत्तराखण्ड में 2016 से 2021 के बीच यानी पिछले पांच सालों में 798 महिलाओं व 3295 नवजातों की मृत्यु हुई है। ये मौतें प्रदेश की स्वास्थ्य की बदहाल स्थितियों को उजागर करती हैं। अगर जनपदवार नवजात मृत्यु दर को देखें तो पिछले पांच सालों में कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ में 225, चंपावत में 113, बागेश्वर में 14, अल्मोड़ा में 47, नैनीताल में 910, यूएसनगर में 243 तो गढ़वाल मंडल के देहरादून में 619, हरिद्वार में 401, चमोली में 29, उत्तरकाशी में 139, रूद्रप्रयाग में 102, पौढ़ी गढ़वाल में 319 व टिहरी गढ़वाल में 134 मौतें हुई। यही हाल प्रसव के दौरान महिलाओं की मौत का भी रहा। इसमें कुमाऊं मंडल के जनपद पिथौरागढ़ में 32, चंपावत में 23, बागेश्वर में 01, अल्मोडा में 24, नैनीताल में 76, यूएसनगर में 120 गर्भवती महिलाओं की मौत हुई तो वहीं गढ़वाल मंडल के जनपद के उत्तरकाशी में 22, पौढ़ी गढ़वाल में 32, टिहरी गढ़वाल में 31, रूद्रप्रयाग में 07, चमौली में 22, देहरादून में 178 व हरिद्वार में 230 महिलाओं की प्रसव के दौरान मृत्यु हुई। रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखण्ड में हर 11 घंटे में एक शिशु तो हर दूसरे दिन एक महिला की मौत हो रही है।
वर्ष वार मातृ मृत्युदर व शिशु मृत्यु दर को क्रमवार देखें तो वर्ष 2016-17 में 84-228, वर्ष 2017-18 में 172-588, वर्ष 2018-19 में 180-868, वर्ष 2019-20 में 175-839, वर्ष 2020-21 में 187-772 रही है। राज्य में प्रति एक हजार पर अब भी 38 नवजातों की मौत हो रही है। जबकि एक लाख पर 165 माताओं की मृत्यु हो रही है। यह तब हो रहा है जब राज्य में जननी शिशु सुरक्षा पर करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं। वर्ष 2005 में यह योजनाएं शुरू हुई थी। जबकि सरकार का लक्ष्य इस वर्ष तक शिशु मृत्यु दर को घटाकर प्रति हजार 25 तो मातृ मृत्यु दर को घटाकर प्रति लाख 100 पर लाने का है। अभी भी सरकारी अस्पतालों में 47.7 प्रतिशत ही संस्थागत प्रसव हो पा रहे हैं। जबकि सरकार का 90 प्रतिशत प्रसव अस्पतालों में कराने का लक्ष्य है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार प्रदेश के 57 प्रतिशत बच्चों, 42 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में खून की कमी पाई गई। राज्य में कुपोषण से निपटने के लिए किशोरी बालिका योजना, मुख्यमंत्री महिला पोषण योजना, मुख्यमंत्री वात्सल्य योजना, मुख्यमंत्री बाल पोषण योजना, मुख्यमंत्री आंचल अमृत योजना, मुख्यमंत्री सौभाग्यवती योजना, राष्ट्रीय पोषण मिशन, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना सहित आठ से अधिक योजनाएं चल रही हैं जिनमें प्रतिवर्ष 250 करोड़ रुपया खर्च हो रहा है। नेशनल हेल्थ मिशन के तहत राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम, राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम, जननी सुरक्षा योजना, टीकाकरण, टीबी उन्मूलन, कुष्ठ रोग उन्मूलन, आयरन वितरण सहित 42 कार्यक्रम प्रदेश में संचालित हो रहे हैं। प्रदेश में एनएचएम के तहत 3000 कर्मचारी काम करते हैं। जिसमें गढ़वाल मंडल में 1568 व कुमाऊं मंडल में 1432 हैं। अब प्रदेश में नियोनेटल रेट देखें तो यह देश में 24.9 प्रतिशत है तो उत्तराखण्ड में 32.4 प्रतिशत है। शिशु मृत्यु दर देश में 35.2 है तो उत्तराखण्ड में 39.1 प्रतिशत है। प्रदेश में जन्म के 28 दिन के अंदर 32 प्रतिशत मौतें हो रही हैं। अब जनपदवार कुमाऊं में स्थित अस्पतालों की स्थिति को देखें तो इस मंडल में डॉक्टरों के 1136 पद सृजित हैं जबकि 485 पद रिक्त चल रहे हैं। जनपद पिथौरागढ़ में डॉक्टरों के 187 पद सृजित हैं लेकिन 60 रिक्त चल रहे हैं। मेडिकल स्टाफ के 475 पद हैं लेकिन 188 पद रिक्त चल रहे हैं। यहां 17 वेंटीलेटर चाहिए लेकिन 36 वेंटिलेटर हैं लेकिन इन्हें चलाने के लिए पैरामेडिकल स्टाफ कम पड़ रहा है। चंपावत जनपद में 107 सृजित पदों के सापेक्ष 18 पद रिक्त चल रहे हैं। पैरामेडिकल के 170 पदों में से 54 खाली चल रहे हैं। यहां पर 11 वेंटिलेटर हैं। बागेश्वर जनपद में 105 पदों के सापेक्ष 21 पद रिक्त चल रहे हैं। पैरामेडिकल के 188 पद हैं इसमें से 84 खाली चल रहे हैं। यहां 18 वेंटीलेटर हैं। अल्मोड़ा जनपद में डॉक्टरों के 290 पदों के सापेक्ष 148 पद रिक्त चल रहे हैं। पैरामेडिकल के 328 पद हैं लेकिन 124 खाली चल रहे हैं। यहां पर 183 वेंटीलेटर चाहिए लेकिन 99 ही मौजूद हैं। नैनीताल जनपद में 240 पद सृजित हैं लेकिन 180 पद खाली हैं। पैरामेडिकल के 800 पदों के मुकाबले 300 पद रिक्त चल रहे हैं। यहां 200 वेंटीलेटरों की आवश्यकता है लेकिन 80 वेंटीलेटर ही मौजूद हैं। ऊधमसिंह नगर में डॉक्टरों के 207 पद हैं इसमें से 08 पद रिक्त चल रहे हैं। पैरामेडिकल में 582 पदों के सापेक्ष 224 पद खाली हैं। यहां पर 79 वेंटीलेटर मौजूद हैं। पूर्व में 39 शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बंद हो चुके हैं। जबकि इन केन्द्रों को नेशनल हेल्थ मिशन में खोलने की अनुमति भी मिली थी। राज्य में 108 एंबुलेंस का बेड़ा काफी पुराना हो चुका है। एंबुलेंस खरीदने व हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर के प्रस्ताव जमीन पर नहीं उतर पा रहे हैं। हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज में 20 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाला ट्रामा सेंटर, बर्न यूनिट व न्यूरो सेंटर फाइलों से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं जबकि यहां हर रोज 400 से अधिक मरीज भर्ती होते हैं। यही हाल अल्मोड़ा के बेस में स्थित हार्ट केयर यूनिट का भी है। हल्द्वानी के मेडिकल कॉलेज में हार्ट स्पेशलिस्ट तैनात नहीं है। ऊधमसिंहनगर जैसे तराई इलाकों में कोई हार्ट सेंटर नहीं है। उपलब्ध हार्ट सेंटर में कार्डियोलॉजिस्ट का अभाव है। अधिकतर हार्ट सेंटर नर्सों के भरोसे चल रहा है। सुशीला तिवारी राजकीय चिकित्सालय में कैथ लैब नहीं है। पिथौरागढ़ व रूद्रप्रयाग में अभी तक ट्रामा सेंटर नहीं बन पाया है। अन्य हिमायली राज्यों के मुकाबले यहां स्वास्थ्य पर कम खर्च हो रहा है। वर्ष 2020-21 में राज्य में स्वास्थ्य सेवा का बजट तीन हजार करोड़ के करीब था। इसमें से पचास प्रतिशत से अधिक खर्च वेतन, पेंशन व अन्य देनदारियों में खर्च हो जाता है। नई योजनाओं व आधारभूत ढांचे के लिए सरकार के पास हमेशा बजट की कमी रहती है। स्वास्थ्य क्षेत्र में मैन पावर व सुविधाओं की कमी के चलते प्रदेश में झोलाछाप डॉक्टरों की बढ़ती है। नीति आयोग की हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेसिव रिपोर्ट भी इस ओर इशारा करती है। हालांकि स्वास्थ्य विभाग का दावा है कि प्रदेश के अस्पतालों में प्रसव सुविधाओं में सुधार हो रहा है। प्रदेश में 2735 स्वीकृत पदों के सापेक्ष 2045 चिकित्सकों की तैनाती की गई है जो कि पहले 1081 थी। चिकित्सालयों में 159 दंत चिकित्सकों की तैनाती भी की गई। संस्थागत प्रसव 50 प्रतिशत से बढ़कर 71 प्रतिशत हो गया है। मातृ मृत्यु अनुपात में 84 अंकों की कमी आई है। शिशु मृत्यु दर में 6 प्रतिशत की गिरावट आई है। अब यह दर 38 प्रति हजार से घटकर 32 प्रति हजार जीवित जन्म हो गई है। बाल मृत्यु दर घटकर 41 से 35 हो गई है। बच्चों में टीकाकरण का प्रतिशत 87 से बढ़कर 99 प्रतिशत हो गया है। प्रदेश में टेली रेडियोलॉजी व टेलीमेडिसन सेवाएं भी दी जा रही हैं।
पुरस्कृत अस्पतालों का हाल : अभी हाल में उत्तराखण्ड के सरकारी अस्पतालों को ‘कायाकल्प पुरस्कार’ से नवाजा गया। जिसमें रूद्रप्रयाग जिला अस्पताल, अल्मोड़ा का बी.डी.पांडेय अस्पताल, पीएचसी बालावाला, सिविल अस्पताल रुड़की, बनबसा प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, सीएचसी खैरना को पुरस्कृत किया गया लेकिन इन अस्पतालों की स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती। यही हाल पूर्व में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत ‘कायाकल्प’ योजना के तहत दिए गए उत्कृष्टता अवार्ड का भी है। इस पर यह सवाल भी उठते रहे कि जब न डॉक्टर हैं, न खून की जांच व अल्ट्रासाउंड हो रहे हैं न ही मेडिकल वेस्ट के निस्तारण की सुविधाएं हैं तो ऐसे में कैसे ‘कायाकल्प’ अवार्ड प्र्रदान किया जा रहा है? जब कि यह पुरस्कार सफाई व संक्रमण मुक्त, मरीजों की संतुष्टि, कर्मियों की कार्यशैली, सफाई, बायोमेडिकल वेस्ट के बेहतर प्रबंधन के मानकों को पूरा करने पर दिया जाता है। पूर्व में ‘कायाकल्प’ अवार्ड से पुरस्कृत अस्पतालों पर नजर डालें तो चंपावत स्थित पुल्ला अस्पताल एक डॉक्टर, वार्ड ब्यॉय व होम्योपैथिक फार्मासिस्ट के भरोसे है। तो बनबसा के डॉक्टर के पास टनकपुर की भी जिम्मेदारी है। यहां पर सामान्य प्रसव तक की जानकारी है। पाटी के अस्पताल को चौथी बार अवार्ड मिला है। यहां पर महिला चिकित्सक नहीं है। एक्सरे मशीन धूल झांक रही है। नैनीताल के रामनगर में यह अस्पताल पीपीपी मोड पर चल रहा है। यहां पर विशेषज्ञों की कमी है। अल्ट्रासाउंड कभी कभार ही काम आता है। हरिद्वार का जिला महिला अस्पताल में अल्ट्रासाउंड तक की सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। देहरादून के प्रेमनगर में हफ्ते में तीन ही दिन अल्ट्रासाउंड की सुविधा उपलब्ध है। उत्तरकाशी के महिला अस्पताल में ओटी कक्ष, ब्लड जांच, अल्ट्रासाउंड की सुविधा तक नहीं है। देहरादून के सहिया में अल्ट्रासाउंड सुविधा 6 वर्षों से बंद पड़ी है।
जो अमल में नहीं आए हाईकोर्ट के आदेश
- पूर्व में नैनीताल हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को स्वास्थ्य ढांचे में सुधार के लिए आदेश जारी किए थे लेकिन सालों गुजर जाने के बाद भी इन आदेशों को अमल में नहीं लाया गया।
- सभी प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में छह माह में डॉक्टर तैनात हों।
- भवाली सेनिटोरियम को मल्टी स्पेशलिटी अस्पताल बनाया जा
केंद्र सरकार प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार के लिए पहाड़ी राज्यों को विशेष सहायता प्रदान करे।
हर जिले में आपातकालीन सेवाओं के लिए ट्रामा सेंटर स्थापित किए जाएं। इन सेंटरों में सातों दिन 24 घंटे
ऑपरेशन रूप में डॉक्टर व पैरामेडिकल स्टाफ की तैनाती हो।
किसी भी दुर्घटना पीड़ित का उपचार बिना देरी किए व बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट के तत्तकाल किया जाए।
क्या कहती है नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति
सार्वजनिक स्वास्थ्य के आवंटन को बढ़ाया जाएगा।
वर्ष 2025 तक जीडीपी का 2.5 फीसद स्वास्थ्य सेवा में खर्च होगा व अगले आठ वर्षों में इसे दुगना किया जाएगा।
राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन की रफ्तार बढ़ाकर शहरी क्षेत्र में प्राथमिक सेवाओं को शहरी गरीब तक पहुंचाना ।
जन स्वास्थ्य प्रबंधन कैडर का सृजन।
जिला अस्पतालों को हर प्रकार के उपचार से लैस करना।
उप जिला अस्पतालों को अपग्रेड करना।
2025 तक एक राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य प्राधिकरण की स्थापना करना।
स्वास्थ्य क्षेत्र में कुशल जन संसाधन की कमी से निपटने के लिए विस्तारित संस्थागत क्षमता के साथ पाठ्यक्रम व कैडर का प्रस्ताव सभी राज्यों में जन स्वास्थ्य कैडर स्थापित करना।
विशिष्ट नर्सिंग और पैराचिकित्सा पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देना।
सामुदायिक स्वास्थ्य में बीएससी और फैमली मेडिसिन में एमडी पाठ्यक्रम संचालित करना।
एचआईबी, टीबी, सह संक्रमण, हाइपरटेंशन, डायबिटीज और कैंसर से निपटने के लिए कई रोग नियंत्रण उपाय एवं लक्ष्यों को प्राप्त करना।
जल, स्वच्छता एवं पोषण के साथ भीतरी एवं बाहरी वायु प्रदूषण के नियंत्रण को प्राथमिकता देना।
स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के मूल्यांकन के लिए बहुक्षेत्रीय कार्य योजना तैयार करना।
1.5 लाख स्वास्थ्य केंद्रों को स्वास्थ्य उप केंद्रों को कल्याण केंद्रों में बदलना।
प्रभावशाली तरीके से स्वास्थ्य कर्मियों को समाज के अंतिम छोर तक पहुंचाना।
केंद्र व राज्य सरकारों के बीच आपसी सामंजस्य स्थापित करना।
यह है स्वास्थ्य क्षेत्र की दिक्कत
- सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का पिछड़ापन
गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं का ग्रामीणों व शहरी लोगों से दूरी
मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता की कमी
महंगा स्वास्थ्य खर्च
जीडीपी का मात्र 1 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च
चिकित्सकों, नर्सों व कुशल कामगारों की कमी
ठोस स्वास्थ्य नीति का अभाव
बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव
प्रदेश में स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को और अधिक मजबूत किया जाएगा। विकासखंड व जिला स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध होंगी। प्रदेश के सभी जिलों के अस्पतालों की खामियों को शीघ्र दूर किया जाएगा। पहाड़ के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी दूर करने के लिए विशेष सुविधा दी जा रही है। दवाओं से लेकर विभिन्न जांचों की निःशुल्क व्यवस्था की गई है। सूबे में एएनएम, नर्स व लैब तकनीशियन के पद भरे जा रहे हैं।
डॉ. धन सिंह रावत, स्वास्थ्य मंत्री उत्तराखण्ड