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Uttarakhand

कोमा में मानसिक चिकित्सा

उत्तराखण्ड में मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल्स यानी मनोचिकित्सक, क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट और मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ताओं का बड़ा अभाव है। यही नहीं इलाज करने वालों और सेवा-व्यवस्था की भारी कमी है। जो सेवाएं हैं उनके बारे में जागरूकता न के बराबर है। ये सेवाएं देहरादून को छोड़कर अन्य जिलों में नहीं है। देहरादून में एकमात्र राज्य मानसिक स्वास्थ्य संस्थान केवल दो चिकित्सकों के हवाले है। वहां मनोचिकित्सा विभाग में मशीन नहीं है। यहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समुचित इलाज उपलब्ध नहीं है। ऐसे में अगर कभी कोई मरीज अपना इलाज कराने पहुंच जाए तो वह भगवान भरोसे है

उत्तराखण्ड की आबादी 1 करोड़ 20 लाख से उपर है लेकिन इस आबादी की मानसिक देखभाल के लिए समुचित व्यवस्था प्रदेश में नहीं है। पूरे प्रदेश में जो एकमात्र राज्य मानसिक स्वास्थ्य संस्थान है, उसमें भी मानसिक इलाज की पूरी सुविधाएं मौजूद नहीं हैं। कोरोना काल के बाद राज्य में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित समस्याएं बढ़ी हैं लेकिन इसके अनुकूल काउंसलिंग की भरपूर सुविधा लोगों को नहीं मिल पा रही है। जिससे मानसिक रूप से पीड़ित व्यक्ति गंभीर स्थिति में पहुंचने को विवश हैं। प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों के 28 पद स्वीकृत हैं लेकिन आधे से अधिक पद रिक्त चल रहे हैं। उच्च न्यायालय की फटकार व निर्देशों के बाद प्रदेश सरकार ने राज्य में मानसिक रूप से बीमार बच्चों व बड़ों के पंजीकरण व पुनर्वास के लिए स्टेट अथॉरिटी के साथ ही सात जिलों में मानसिक स्वास्थ्य रिव्यू बोर्ड तो बना दिया लेकिन न्यायालय के अधिकतर निर्देशों का पालन कर पाने में सरकार असमर्थ साबित हो रही है।

वर्ष 2017 में देश में मेंटल हेल्थ केयर एक्ट लागू हुआ। इसके बाद प्रदेश में फरवरी 2019 में मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण गठित करने की स्वीकृति मिली थी। वर्ष 2018 में नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार को मानसिक रूप से बीमार लोगों के पुनर्वास के संबध में नीति बनाने और ऐसे लोगों के समुचित इलाज व सुरक्षा की व्यवस्था करने का आदेश दिया था। उसके बाद सरकार ने इसी वर्ष प्रदेश में सेंट्रल मेंटल हेल्थ अथॉरिटी एंड मेंटल हेल्थ रिव्यू बोर्ड का गठन किया। हालांकि सरकार का दावा है कि उसने सैंकड़ों की तादाद में जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत स्कूलों में काउसिंलिंग सत्र आयोजित करने के साथ ही जीवन कौशल, आत्महत्या रोकथाम शिविर, तनाव प्रबंधन सत्र के साथ ही मानसिक बीमारी से पीड़ित लोगों को मोबाइल चिकित्सा सेवाएं प्रदान की है। इसके अलावा मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए चमौली, पौड़ी, रूद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी को देहरादून-बागेश्वर-पिथौरागढ़ को अल्मोड़ा-चंपावत को ऊधमसिंह नगर के साथ जोड़ा गया है।

दूसरी तरफ राजधानी देहरादून के सेलाकुई में स्थित एकमात्र राज्य मानसिक स्वास्थ्य संस्थान की खुद की स्थिति ठीक नहीं है। 30 बैड का यह संस्थान मात्र 2 मनोचिकित्सकों के हवाले है। इन्हें भी तीन दिन दून चिकित्सालय में बैठना पड़ता है। हालांकि अब इसे 100 बैड की स्वीकृति मिल चुकी है। लेकिन पदों को सृजित करने के प्रस्ताव अभी भी फाइलों में बंद पड़े हैं। वर्ष 2008 में जब इसका गठन किया गया था तो उद्देश्य था कि
मानसिक रोगियों को स्वास्थ्य सुविधा देने के साथ मनोवैज्ञानिक थेरेपी भी दी जाए। लेकिन मानसिक जांच के लिए जिस इलेक्ट्रो इनसेटेलोग्राफी (ईईजी) मशीन की जरूरत होती है, उसे वह उपलब्ध नहीं करा पाई। क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट (मनोवैज्ञानिक) के पद के साथ ही टेक्नीशियन व निश्चेतक के पद भी सृजित नहीं हो पाए हैं। यहां स्टाफ की भी बेहद कमी है। प्रदेश के 13 जिलों में से एक दर्जन जिलों में भी मनोचिकित्सकों की तैनाती अभी तक नहीं हो पाई है। कई जिलों में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ उपलब्ध ही नहीं है। प्रदेश में मानसिक रोगियों की देख-रेख व पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्थाएं जिस अनुरूप होनी चाहिए थी वह नहीं बन पाई। प्रदेश में मानसिक अस्पतालों की भारी कमी है। मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 व मेंटल हेल्थ केयर बिल 2017 मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने की बात कहती है। यह एक्ट कहता है कि स्वास्थ्य विभाग, पुलिस व समाज कल्याण विभाग को इनके लिए काम करना चाहिए। पुनर्वास की जिम्मेदारी समाज कल्याण विभाग की है।

पुलिस विभाग की जिम्मेदारी है कि अगर मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति घूमता हुआ दिखाई दे तो उस व्यक्ति का नजदीकी अस्पताल में इलाज कराए। लेकिन इधर आप सड़कों में इस तरह के लोगों को खुले आम घूमते हुए देख सकते हैं। जिला अस्पतालों में मानसिक रोग विशेषज्ञ के पद तो सृजित हैं लेकिन उनमें चिकित्सकों की तैनाती नहीं हो पा रही है। कहने को तो जिला चिकित्सालयों में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम भी चल रहा है। मानसिक लोगों के उपचार के लिए मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, मनोरोग सामाजिक कार्यकर्ता, मनोरोग नर्स होने चाहिए।

मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 कहता है कि व्यक्तियों का समूह जो मनोविकार संबंधी समस्या के कारण सुविधाओं से वंचित है, उसे अपने अस्तित्व (शरीर) और संपत्ति दोनों की रक्षा की आवश्यकता होती है। मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों के लिए मनोचिकित्सीय अस्पतालों और मनोचिकित्सीय नर्सिंग होम के अतिरिक्त प्रेक्षण वार्ड, दैनिक देखभाल केंद्र, सामान्यतया रोगी उपचार, रोगी वाहन सुविधाएं व स्वास्थ्य लाभ गृह सुविधा मिलनी चाहिए। राज्य व केंद्र सरकार ऐसे पदनाम के साथ प्राधिकार की स्थापना करेगी जिसे वह उचित समझेगी। मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों को दाखिल करने उपचार और देखभाल के लिए मनोचिकित्सीय अस्पतालों की स्थापना करना अथवा देख-रेख करना सरकार का कर्त्तव्य है।

प्रदेश ही नहीं देश में मनोविज्ञान के पेशेवरों की भारी कमी है। महामारी के दौरान व उसके बाद मानसिक स्वास्थ्य में बढ़ोतरी हुई है तो इसको लेकर जागरूकता भी बढ़ी है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार भारत में 20 प्रतिशत आबादी किसी न किसी तरह की मानसिक परेशानी से जूझ रही है। इंटरनेशनल जनरल ऑफ सोशल साइकियाट्री की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर चौथा व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य समस्या का सामना कर रहा है। यूनिसेफ की 2021 की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 14 प्रतिशत बच्चे अवसाद की गिरफ्त में हैं। लासेंट की रिपोर्ट कहती है कि पहले कुल बीमारियों का 2.5 प्रतिशत बीमारियां मानसिक होती थी अब यह बढ़ते-बढ़ते 4.7 प्रतिशत हो गई है।

उच्च न्यायालय के पूर्व के आदेश

  • मानसिक रूप से बीमार लोगों को प्रदेश सरकार बिना किसी भेदभाव के सर्वसुलभ, बेहतर व सस्ता उपचार उपलब्ध कराए।
    प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों सहित सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं में प्रदेश सरकार मानसिक स्वास्थ्य सेवा को सभी स्तर पर शामिल करे।
    राज्य सरकार मानवाधिकार, नीति, विधि और मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित केंद्र स्थापित करे।
    तीन माह के अंदर मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 के तहत प्रदेश सरकार प्राधिकरण और आठ सप्ताह में मेंटल हेल्थ रिव्यू बोर्ड का गठन करे। (इसे सरकार गठित कर चुकी है)
    सरकार यह सुनिश्चित करे कि मानसिक रूप से बीमार लोगों का दूरदराज के क्षेत्रों में तबादला न करे।
    मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 का व्यापक प्रचार किया जाए।
    जेल अधिकारी प्रत्येक तिमाही संबंधित बोर्ड को रिपोर्ट भेजकर सत्यापित करे कि जेल में कोई मानसिक रोगी बंद नहीं है।
    मानसिक व्याधियों की रोकथाम और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के लिए प्रदेश सरकार योजनाओं का क्रियान्वयन करे।
    पुलिस थानाक्षेत्र में घूमते हुए पाए गए किसी भी मानसिक रोगी को पुलिस अधिकारी अपनी अभिरक्षा में लें और निकटम स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराएं।
    यह प्रत्येक पुलिस अधिकारी का दायित्व होगा कि किसी भी मानसिक रोगी के उत्पीड़न की रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को करें।
    राज्य सरकार मानसिक रूप से बीमार बच्चों और अन्य रोगियों के पुनर्वास के लिए नीति बनाए। राज्य सरकार छह माह के अंदर मानसिक रुप से बीमार बच्चों के पंजीकरण के लिए नीति बनाए।
    छह माह के अंदर बंग्लुरू स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ की मदद से राज्य में सर्वे कराया जाए।
    छह माह के अंदर प्रदेश सरकार प्रत्येक जिले में डिस्ट्रिक्ट अर्ली इंटरवेंशन सेंटर स्थापित करे।
  • जिस तरह से मानसिक रोगियों की तादाद बढ़ रही है। ऐसे में सरकारों को प्राथमिकता से पदों की स्वीकृति, उपकरण व आधारभूत ढांचा जल्द से जल्द उपलब्ध कराना चाहिए, क्योंकि मानसिक सेहत की देखभाल बेहद जरूरी है। सही वक्त पर अगर मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को मनोचिकित्सकीय सलाह मिल जाती है तो व्यक्ति की जिंदगी न सिर्फ बच सकती है, बल्कि बदल भी सकती है। शारीरिक रोगों की तरह ही मानसिक रोगों का इलाज भी समय पर मिलना बेहद जरूरी है। समय पर इलाज न मिलने से हम अमूल्य मानवीय संपदा को खो रहेे हैं
    नितिन त्रिपाठी, मनोचिकित्सक

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