कांग्रेस विधायक प्रीतम सिंह फिलहाल अपनी प्रीत और अप्रीत के चलते चर्चाओं में हैं। कहा जाता है कि राजनीति में कभी कुछ स्थाई नहीं रहता है। प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष का ओहदा खोने के बाद प्रीतम पहले ही कांग्रेस की राजनीति में हाशिए पर हैं। पूर्व में जिस प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव की आड़ में वह हरीश रावत पर राजनीतिक तीर छोड़ते रहते थे अब उनके ही खिलाफ तरकस उठाते दिख रहे हैं। वर्तमान हालातों को देखें तो लग रहा है कि देवेंद्र के प्रति प्रीतम की प्रीत-अप्रीत में परिवर्तित हो चली है। यही नहीं बल्कि जिस करण माहरा को वह नेता प्रतिपक्ष बनाने के पक्षधर थे, प्रदेश अध्यक्ष बनते ही अब उनके प्रति भी प्रीतम के सुर बदल गए हैं। बहरहाल, विधानसभा चुनाव की हार के बाद शुरू हुई कांग्रेस की आपसी रार का यह नया पड़ाव पार्टी को किस ओर ले जाएगा, यह तो समय ही बताएगा
उत्तराखण्ड की राजनीति भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के इर्द-गिर्द राज्य बनने के बाद से ही घूमती रही है। पहली दो निर्वाचित विधानसभा में उत्तराखण्ड क्रांति दल और बहुजन समाज पार्टी ने भी जरूर अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाई थी लेकिन कालांतर में ये दोनों दल अपनी स्थिति को बरकरार नहीं रख पाए। भारतीय जनता पार्टी ने 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में अपना वर्चस्व कायम रखा। 2017 के विधानसभा चुनाव में ग्यारह सीटों पर सिमट गई कांग्रेस ने 2022 में सत्ता वापसी के लिए प्रयास तो जोरदार किया लेकिन आंतरिक कलह और बड़े नेताओं के मध्य गहरे अविश्वास ने ऐसा होने नहीं दिया। कांग्रेस आलाकमान ने विधानसभा चुनावों में पराजय के पश्चात् गणेश गोदियाल का प्रदेश अध्यक्ष से इस्तीफा स्वीकार कर युवा नेता करन माहरा को नया प्रदेश अध्यक्ष और यशपाल आर्य को नेता प्रतिपक्ष बना कर युवा और अनुभव का संतुलन साधने का प्रयास किया था। खास बात यह थी कि उत्तराखण्ड के संगठन में फेरबदल की प्रक्रिया में जहां पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह हाशिए में डाल दिए गए, वहीं प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव अपने पद पर बरकरार रहे।
विधानसभा चुनावों में पराजय के बाद प्रदेश प्रभारी होने के चलते देवेंद्र यादव से अपेक्षा की गई थी कि वह हार की जवाबदेही लेते हुए प्रभारी पद से इस्तीफा दें। पार्टी स्तर से भी कई लोगों ने देवेंद्र यादव से इस्तीफे की मांग की थी। उस वक्त कांग्रेस पार्टी का ही एक तबका जिसे हरीश रावत के विरोधी के रूप में जिसे देवेंद्र यादव ने पोषित किया था उसने देवेंद्र यादव के इस्तीफे की मांग को खारिज कर दिया था क्योंकि उस खेमे की नजर में विधानसभा की पराजय के लिए हरीश रावत ही जिम्मेदार थे।
राजनीति में लेकिन कुछ भी स्थाई नहीं होता है। खासकर जहां राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं राजनीतिक विचारों पर हावी हों वहां राजनीति की अस्थाई प्रवृत्ति ज्यादा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। यह किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि हरीश रावत के विरोध में खड़े प्रीतम सिंह के लिए हाईकमान के सामने ढाल बने देवेंद्र यादव की भूमिका पर प्रीतम सिंह ही सवाल खड़े करेंगे। जिस प्रीतम सिंह को प्रभारी देवेंद्र यादव ने हरीश रावत के खिलाफ हर स्तर पर सहयोग किया उन्हीं प्रीतम सिंह का प्रभारी देवेंद्र यादव पर उत्तराखण्ड से गायब रहने का आरोप राजनीतिक क्षेत्रों में सरगर्मियां पैदा करने के साथ कुछ सवाल भी खड़े कर गया। कांग्रेस प्रभारी की गुमशुदगी पर प्रीतम सिंह के ताने से वर्तमान व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष आमने-सामने आ गए। जहां कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा ने प्रभारी देवेंद्र यादव का बचाव करते हुए प्रीतम सिंह पर हमला करते हुए उनका चश्मा खराब होने की बात कही, वहीं प्रीतम सिंह ने पलटवार करते हुए कहा मैं चश्मा पहनता हूं जो चश्मा नहीं पहनते उनकी नजर कमजोर है।
प्रीतम सिंह जब नेता प्रतिपक्ष बने तब उन्होंने करन माहरा की ओर इंगित करके कहा था कि ‘इस नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर पहला हक आपका था।’ फिर आज ऐसा क्या हो गया कि हरीश रावत के विरोध की राजनीति पर अपना अस्तित्व बना रही प्रभारी देवेंद्र यादव, प्रीतम सिंह और करन माहरा की तिकड़ी से प्रीतम सिंह छिटक गए? कभी हरीश रावत के सामने प्रीतम की ढाल रहे देवेंद्र यादव पर प्रीतम सिंह इतने तल्ख क्यों हो गए? साथ ही करन माहरा के विरोध में अचानक प्रीतम सिंह का खड़ा हो जाना कांग्रेस के अंदर कुछ उथल-पुथल की ओर इशारा जरूर करता है। प्रीतम सिंह के प्रति झुकाव के चलते करन माहरा पर हरीश रावत विरोधी लॉबी के साथ होने का जो आरोप चस्पा था उसी आरोप के साये चलते करन माहरा को विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था। जिस प्रकार की बयानबाजी का सिलसिला कांग्रेस के अंदर शुरू हो गया संभव है एक-दूसरे के ऊपर हमलों की धार भविष्य में और तीखी देखने को मिले।
उत्तराखण्ड में कांग्रेस के अंदर नेताओं की आपसी रार नई नहीं है। प्रीतम सिंह ने प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव पर विधानसभा चुनावों में हार के बाद गायब होने का आरोप लगाया था इसके जवाब में प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा ने प्रीतम सिंह पर कई आरोप जड़ते हुए कहा कि प्रीतम सिंह प्रभारी से अपनी निजी खुन्नस निकाल रहे हैं। विधानसभा चुनाव के बाद प्रभारी तीन बार उत्तराखण्ड आए जिसमें प्रीतम सिंह नदारद रहे। हरिद्वार पंचायत चुनाव को लेकर दिल्ली में हुई बैठक में निमंत्रण देने के बावजूद वे अनुपस्थिति रहे। करन माहरा का कहना है कि वह जनता के मुद्दे उठाकर संगठन को पुनर्जीवित करने में लगे हैं उससे कुछ लोग असहज महसूस कर रहे हैं। उन्होंने प्रीतम सिंह को निशाने पर लेते हुए कहा कि उन्होंने जिला व ब्लॉक स्तर की बैठके अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में नहीं कराई। कांग्रेस संगठन के पूर्व में उपाध्यक्ष रहे एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि प्रीतम सिंह का दर्द पार्टी संगठन के लिए नहीं वरन् निजी महत्वाकांक्षाओं के पूरा न हो पाने के कारण छलका है वर्ना 2017 से 2022 के बीच तो पार्टी प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनकी जवाबदेही सबसे ज्यादा बनती थी।
विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजय के बाद भी प्रीतम सिंह को उम्मीद थी कि केंद्रीय आलाकमान नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी उन्हें ही सौंपेगा लेकिन यशपाल आर्य का नेता प्रतिपक्ष बनना उनके लिए सबसे बड़ा झटका था। उन्हें लगता है कि यशपाल आर्य के नेता प्रतिपक्ष बनने के पीछे प्रभारी देवेंद्र यादव की भूमिका है। करन माहरा के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद शायद उन्हें उम्मीद थी कि करन माहरा उन्हें पहले की भांति उतनी ही तवज्जो देंगे लेकिन करन माहरा ने जब स्वतंत्र रूप से संगठन के पेंच कसने शुरू किए तो उन्हें लगा कि वह यहां पर भी दरकिनार हो रहे हैं। इसी के चलते प्रदेश कार्य समिति के घोषित होते ही उस पर सवाल उठाकर कार्य समिति से इस्तीफा देने वाले प्रीतम सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह पहले शख्स थे। शायद यह दबाव की ही
राजनीति थी। उस वक्त प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने की चर्चाओं को भी हवा दी जा रही है।
कांग्रेस के एक पूर्व महामंत्री का कहना है कि दबाव की राजनीति के तहत ये सब कहा जा रहा है। उनका कहना है कि कद्दावर नेता गुलाब सिंह के पुत्र प्रीतम सिंह न अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना पाए न, ही स्वयं को पूरे प्रदेश में सर्वमान्य नेता के रूप स्थापित कर पाए। हरीश रावत की राजनीतिक पाठशाला में पढ़े प्रीतम समय के साथ नारायण दत्त तिवारी के करीबी हो गए। उसके बाद वे हरीश रावत विरोधी खेमे के पर्याय हो गए और 2017 से 2022 के बीच उनकी राजनीति का आधार हरीश रावत का विरोध हो गया। वे हरीश रावत विरोधी खेमे के नेताओं से ऑक्सीजन पाते रहे फिर वह चाहे सूर्यकांत धस्माना, आर्येंद शर्मा, इंदिरा हृदयेश और रणजीत रावत क्यों न हों। जिस प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल को प्रीतम स्वयं के लिए प्रदेश स्तर का सर्वमान्य नेता बनाने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे उसे उन्होंने हरीश रावत विरोध राजनीति की धुरी बनकर जाया कर दिया। ये उनके कार्यकाल का इतिहास है कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने के ढाई साल बाद प्रदेश कार्यकारिणी घोषित हुई वह भी विवाद के साथ। उनके कार्यकाल में निचले स्तर के संगठन की बैठकें तक आयोजित नहीं हो पाईं।
उत्तराखण्ड में पीढ़ीगत बदलाव की सच्चाई को भारतीय जनता पार्टी के अंदर तो बड़े नेताओं ने स्वीकार कर लिया है या सशक्त केंद्रीय आलाकमान ने स्वीकार करवा लिया है लेकिन कांग्रेस के अंदर इसको लेकर अभी संशय है। बड़े नेताओं की पार्टी में जकड़ ढीली होने में लगता है कुछ समय लगेगा क्योंकि अपने को बड़ा समझने वाले नेता जमीनी हकीकत को देखना नहीं चाहते। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का ज्वार समग्र पार्टी हित की बात तो करता है लेकिन सिर्फ निजी हित में। इस वक्त हरीश रावत को छोड़कर कोई ऐसा नेता नहीं है जो समूचे उत्तराखण्ड में अपनी पहचान रखता हो। नई पीढ़ी से जरूर नए नेताओं के उभरने की संभावनाओं चलते अपनी विधानसभा तक सिमटे नेता अपने लिए खतरा महसूस कर रहे हैं और ये बयानबाजी उसी के परिणाम हैं।