पूर्व मुख्यमंत्री सेनि. जनरल बी.सी. खण्डूड़ी की पुत्री, दो बार से विधायक और प्रदेश की पहली महिला विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खण्डूड़ी भूषण से ‘दि संडे पोस्ट’ के सीईओ सुनील भारद्वाज और विशेष संवाददाता संजय स्वार की बातचीत
महिला होने के नाते विधानसभा अध्यक्ष का पद कितना चुनौतीपूर्ण है?
देखिए, महिलाओं के लिए कोई भी पद चुनौतीपूर्ण होता है। समाज में बदलाव आ रहा है। समाज की सोच में बदलाव आ रहा हैै लेकिन बदलाव की गति थोड़ी धीमी है। इसलिए जब अवसर मिलता है तो महिला उस अवसर को चुनौती के रूप में स्वीकार करती है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए उस पर समाज का दबाव तो होता ही है लेकिन साथ ही वो स्वयं पर भी इतना दबाव डालती है कि वो इस पद पर दो सौ प्रतिशत सफल होकर दिखाए। उसके बावजूद भी महिला निष्ठा और ईमानदारी के साथ अच्छा काम करती है। वैसा ही प्रयास मेरा भी है। राजनीति में आते ही मुझे बड़ा पद मिला। दूसरी बार की विट्टाायक हूं और ये सोच आदरणीय प्रधानमंत्री जी की है कि महिलाओं को आगे बढ़ाया जाए और उन्हें ऐसे पदों पर बैठाया जाए जहां उन्हें जिम्मेदारी का एहसास हो और वो समाज के लिए कार्य कर सकें। मेरा प्रयास है कि जो भी जिम्मेदारी मुझे दी गई है उसे ईमानदारी और निष्ठा से पूरा करूं। यही सोच मेरे पिताजी की भी रही। जब भी उनसे मिलती हूं मुझसे यही कहा जाता है कि जिम्मेदारी व निष्ठा से अपना काम करूं। महिलाओं के लिए हर काम चुनौतीपूर्ण तो रहता ही है लेकिन वे प्रयास करती हैं सफल भी रहती हैं।
जब कोई पुरुषों का मुद्दा होता है, राष्ट्र का मुद्दा होता है तो महिलाएं आपके साथ होती हैं लेकिन जब महिलाओं का मुद्दा होता है तो पुरुष की एप्रोच सेलेक्टिव हो जाती है। ये समस्या उस समाज की है जो पुरुष प्रधान है। पुरुष प्रधान मानसिकता सिर्फ हिंदुस्तान नहीं पूरे विश्व की सोच है जो महिलाओं के लिए सीमित दायरे तय करता है। दुर्भाग्यवश अभी भी हमारे देश में अधिकांश पुरूषों की नजर में महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं। हम बराबरी का अधिकार चाहते हैं पुरुषों से आगे नहीं बढ़ना चाहते। अब आप ही बताइए सत्ता के गलियारों में हमारी बात कब सुनी जाती थी? जिस देश में आजादी के 70 साल बाद महिलाओं के लिए शौचालयों की सोच नहीं हो वहां आज महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए की कल्पना कीजिए। ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच है जिन्होंने महिलाओं की इस समस्या को समझा। आज उनकी सोच महिलाओं का हौंसला बढ़ाती है। पिछले दस वर्षों में महिलाओं के लिए बहुत कुछ बदला है। इस वक्त हमें अवसर मिल रहे हैं। महिलाएं सोचने लगी हैं क्योंकि उन्हें अधिकार मिल रहे हैं पद मिल रहें। और हां मैं फिर कहती हूं महिलाओं के लिए राजनीति आसान नहीं है
विधानसभा अध्यक्ष की पृष्ठभूमि किसी न किसी राजनीतिक दल की होती है। इससे सदन में निष्पक्षता बरतने की कितनी चुनौती होती है? पूर्व लोकसभा अध्यक्ष डॉ. सोमनाथ चटर्जी ने एक बार कहा था कि ‘‘सदन का अध्यक्ष बनने के बाद अध्यक्ष नैतिक रूप से राजनीतिक दल का सदस्य नहीं रह जाता।’’ कितनी सहमत है आप इससे?
मैं पूर्णतः सहमत हूं। आज आप मेरे दफ्तर में मिल रहे हो, हो सकता है आज मेरी सोच कुछ और हो लेकिन जैसे ही हम उस सदन के पद पर आसीन होते हैं तो जिम्मेदारियां बदल जाती हैं। अलग जिम्मेदारी का अहसास होता है और आपको बहुत ही स्पष्ट समझ में आ जाता है कि यहां पर दलीय विचारधारा से ऊपर उठकर निष्पक्ष व्यवहार करना है। सदन के अंदर सदन को सुचारू रूप से चलाने की पहली जिम्मेदारी अध्यक्ष की होती है। सरकार और विपक्ष का नम्बर तो बाद में आता है। लोकतांत्रिक संस्थाओं को अगर चलाना है और इन संस्थाओं की गरिमा बनाए रखनी है तो सबसे पहले स्वयं को निष्पक्ष रखना होगा। मेरा पूरा प्रयास रहता है कि विधानसभा अध्यक्ष के रूप में कोई ऐसा काम न करूं जिससे विधानसभा जैसे पवित्र सदन की गरिमा को ठेस पहुंचे।
सदन की बैठकों की अवधि कम होती जा रही है ऐसे में सदन के अंदर स्वस्थ्य बहस और जनता के कई मुद्दे रह जाते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि सदन की अवधि बढ़नी चाहिए जिससे सदस्य खुलकर अपनी बात कह सकें?
देखिए, आदर्श स्थिति तो यही है कि सत्र की अवधि ज्यादा हो। अधिक से अधिक सदस्यों को बोलने का मौका मिले। सदन की अवधि अधिक हो इस बात पर मैं आपसे सहमत हूं लेकिन उसका एक दूसरा पहलू भी है कि ये निर्णय सरकार को करना होता है कि उसके पास बिजनस कितना है। उसके हिसाब से वो तारीखें तय करके देते हैं। उसके बाद स्पीकर के रूप में मेरा कार्य होता है कि मैं सत्र को सुचारू रूप से चलाऊं। दूसरा फैक्टर है कि हम करदाताओं के पैसे से सत्र चलाते हैं ये बहुत जरूरी है कि हम उस ‘हार्ड अर्तमनी’ का भी ध्यान रखें। अगर बिजनस है सरकार के पास तो सत्र की कार्रवाई जरूर लंबी चलनी चाहिए लेकिन अगर बिजनस नहीं है तो इसे अनावश्यक खींचना मैं उचित नहीं मानती।
मैं राजनीतिक रूप से राजनीतिज्ञ नहीं हूं। मेरे लिए राजनीति समाज सेवा का जरिया है। क्योंकि मैंने अपने परिवार में समाज सेवा देखी है और सीखी है। 1930 में हमारा एक ‘चंद्र बल्लभ ट्रस्ट’ था जिससे हमने मुकुंदी लाल बैरिस्टर को वकालत पढ़ने लंदन भेजा था। तो मैं उस पृष्ठभूमि से आती हूं जहां समाज सेवा एक निःस्वार्थ कार्य था। मेरे दादी-दादा ने बहुत संघर्ष किया समाज सेवा की। जब मैं विधायक बनी तो मुझे लगा कि मेरे लिए तो समाज सेवा का ये सुअवसर है क्योंकि जनरल खण्डूड़ी पुत्री के रूप में, राजेश भूषण की पत्नी के रूप में मेरे लिए दरवाजे तो खुलते थे लेकिन उन दरवाजों में मैं डेंट नहीं कर पाती थी। मुझे अपने विचारों को धरातल पर उतारने का अवसर दिखाई दिया। जब मैं यमकेश्वर से पहली बार विधायक चुनी गई मैंने अपनी विधानसभा में अच्छा काम किया। मैंने अपनी विधानसभा में दो सौ किमी. सड़के खुदवाई, पानी, स्वास्थ्य, बिजली और शिक्षा पर कार्य किया। फिलहाल समाज सेवा प्राथमिकता है जब राजनीति करनी होगी वो भी कर लेंगे
कहीं ऐसा तो नहीं सरकारें बहस से बचना चाहती हैं इसलिए वो सदन की अवधि अपनी सुविधानुसार तय करती हैं?
अगर सरकार बनी है तो उसकी जिम्मेदारी और दायित्व जनता के प्रति है। सदन के सदस्य, चाहे वो किसी भी पक्ष का हो वो जनता के सवाल ही उठाते हैं, लोगों की बात पटल पर रखते हैं। मैं सरकार और विपक्ष दोनों को सलाह दूंगी कि हमें ध्यान रखना चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा जो जनता के हित से जुड़ी बातें हैं, समस्याएं हैं सदन में आनी चाहिए क्योंकि सदन ही एक संवैधानिक संस्था है जहां सदस्य खुलकर अपनी बात कह सकते हैं और जवाब की अपेक्षा कर सकते हैं। सदस्यों के प्रश्नों का जवाब देना सरकार का दायित्व है।
कई बार मंत्री सदन में पूरी तैयारी के साथ नहीं आते या फिर स्पष्ट जानकारी न देकर भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। इसको आप किस तरह देखती हैं?
देखिए, मेरा हमेशा प्रयास रहता है कि सदस्यों को उनके प्रश्नों का जवाब मिले। मेरा मानना है कि ये मंत्रियों का दायित्व है कि वो सदन में पूरी तैयारी के साथ आएं और जवाब दें। ये सदन लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चलता है। सत्र होता है तो वहां जनता की समस्याएं, मुद्दे उठते हैं। अगर हम जवाब नहीं दे पा रहे हैं तो ऐसा संदेश जाता है कि हम अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर पा रहे। इसलिए ये जरूरी है कि मंत्री पूरी तैयारियों के साथ आएं। अधिकारी पूरी जानकारी मंत्री को भेजें ताकि मंत्री सदन में जवाब सही तरीके से दे सकें।
विधानसभा में सदस्यों की अपेक्षाओं और नियमों का पालन, इनके बीच संतुलन कायम रख पाना कितना कठिन होता है?
कठिन तो होता है, सब परिपक्व लोग बैठे हैं वहां पर। मैं सैन्य पृष्ठभूमि से आती हूं, प्रोफेसर रही हूं, पढ़ाया भी है। किसी भी सदन का एक डेकोरम होता है और उसे बनाए रखना भी जरूरी होता है क्योंकि हम एक इंस्टीट्यूशन को प्रोटेक्ट कर रहे हैं ये सिर्फ उत्तराखण्ड विधानसभा की ही बात नहीं है। यदि हमें अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाना है तो यह आवश्यक है कि हम इस बात का ट्टयान रखें कि हमारा आचरण सदन के अंदर या बाहर जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरे। जनता आपको देखती है। आप किसी के मेंटोर हो सकते हैं, किसी के आदर्श हो सकते हैं। अपनी उस छवि को बरकरार रहने दें। मेरा प्रयास रहता है कि सदस्यों की अपेक्षाओं और नियमों का संतुलन साधते हुए सदन की डेकोरम और गरिमा अक्षुण रहे।
विधानसभा सदस्यों के लिए प्रश्नकाल और शून्यकाल महत्वपूर्ण होते हैं जिसमें वो अपने प्रश्न व क्षेत्र की समस्याओं को सरकार तक सदन के माध्यम से पहुंचाने का प्रयास करते हैं लेकिन देखा गया है कि प्रश्नकाल और शून्यकाल दोनों अक्सर हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं ऐसे में सदस्यों के प्रश्न पूछने के अधिकार का हनन होता है। इसका कोई निदान है क्या?
सबसे पहले यह समझना होगा कि हंगामा क्यों हा रहा है। प्रश्नकाल जरूरी है या हंगामा। क्या उस हंगामें से जनहित से जुड़ा मामला है या फिर
राजनीति। हमारे सदन के सदस्यों को समझना होगा कि अब तो सदन की कार्रवाई का सजीव प्रसारण होता है। भारत की जनता प्रबुद्ध है वो सब देखती है। मेरा मानना है कि अनावश्यक रूप से हंगामे के बजाए प्रश्नकाल और शून्यकाल सुचारू रूप से चलाकर उसका सदुपयोग किया जाना चाहिए और उत्तराखण्ड विधानसभा अध्यक्ष के रूप में मेरी कोशिश रहती है कि व्यवस्था व नियम से सदन चले और सदस्य ज्यादा से ज्यादा अपने प्रश्न व मुद्दे रख सकें।
आपने घोषणा की थी कि सदन में अब पेपरलैस कार्रवाई होगी। कहां तक प्रगति हुई है इसमें। क्या शत प्रतिशत पेपरलैस होना संभव है?
मैं भारत सरकार और उत्तराखण्ड सरकार का आभार करूंगी कि उन्होंने ई-सेवा डिजिटलाइजेशन ऑफ उत्तराखण्ड विधानसभा के लिए वित्तीय सहयोग किया जिसके चलते इस समय ‘इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट’ का काम प्रगति पर है। जब हम पूर्ण रूप से डिजिटलाइज हो जाएंगे तो बहुत-सी चीजें बदलनी होंगी। मेरा विश्वास है कि दोनों, भराड़ीसैण और देहरादून स्थित विधान भवन जल्दी डिजिटलाइड होंगे। हमारा प्रयास है कि दोनों पेपरलैस हों। उसमें विधायकों और अधिकारियों को प्रशिक्षण भी जरूरी है। तुरंत से कर लेना, समझ लेना आसान नहीं है लेकिन शीघ्र ही दोनों विधानसभा भवन को पेपरलेस करने का प्रयास है मेरा।
आजकल सदन में सदस्यों का आचरण आक्रामक होने लगा है। इस आक्रामक आचरण पर रोक लगाने के लिए कोई नियमावली लागू करने का विचार है? अगर है तो इस नियमावली को लागू करना कितनी बड़ी चुनौती होगी?
इन मामलों में मैं नियमावली या नियम से ज्यादा चाहती हूं कि सदस्य स्वयं आत्मचिंतन करें। हम समाज की सोच में बदलाव लाएं, लोगों की सोच में बदलाव लाएं यह तभी हो सकता है जब हम यह मानकर चलें कि हमें एक आदर्श व्यवहार तो रखना ही होगा। आक्रामक होना किसको फायदा देगा? ऐसे व्यवहार से जनता में अच्छा संदेश नहीं जाता। सवाल सत्ता पक्ष या विपक्ष का नहीं है। सवाल सदस्यों और सदन की छवि का है। विरोध करना, आक्रामक होकर अपनी बात रखना सदस्यों का लोकतांत्रिक अधिकार तो है लेकिन ये सदन की हमेशा के लिए परंपरा तो नहीं हो सकती। पार्लियामेंट में भी हम सबने कई बहसों को देखा है जिनमें तीखी बहस होती थीं लेकिन वो स्वस्थ्य बहस होती थीं, झगड़ा नहीं। हमें उनसे सीखना होगा। आक्रामकता से कुछ नहीं निकलता लेकिन स्वस्थ्य डिबेट हमेशा किसी सकारात्मक सोच की दिशा दिखाती है। तो हमें समझना होगा कि हम जनता के जनादेश का कितना सम्मान कर पा रहे हैं।
विधायिका को अक्सर शिकायत रहती है या फिर कहिए चिंता रहती है कि न्यायपालिका उसके क्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है। खासकर
नीतिगत मामलों में। इससे आप कितनी सहमत हैं?
सभी इस बात से चिंतित तो रहते हैं लेकिन न्यायपालिका की भी एक प्रणाली है। उनका अपना कार्य है, अगर जनता वहां पहुंचती है तो उसे निर्णय लेने ही पड़ेंगे। हम इस पर क्या टिप्पणी कर सकते है? ये आम जनता को संविधान द्वारा दिया गया लोकतांत्रिक अधिकार है कि वो न्यायालय तक जाए।
राजनीतिज्ञ इसे भले ही स्वीकार न करें लेकिन ये आम धारणा बनती जा रही है कि कार्यपालिका और विधायिका अपने संवैधानिक दायित्वों का निवर्हन ठीक से नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए हर समस्या के निदान के लिए न्यायालय ही सही स्थान है। आपको क्या लगता है?
देखिए, प्रयास तो सभी करते हैं। हमारे लोकतंत्र के विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीन स्तंभ हैं। इन तीनों के बीच समन्वय तो होना ही पड़ेगा। तभी देश का तंत्र सुचारू व सुव्यवस्थित रूप से चल पाता है देश में इन तीनों के बीच समन्वय की एक लंबी प्रथा रही है। बदलता समय है, समाज है इसलिए कभी ऐसा होता है कि न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है। हम ये नहीं कह सकते कि वो गलत कर रहे हैं या उनको हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। जहां न्यायालय को लगता है कि हस्तक्षेप जरूरी है वहां वो करते हैं। हां, कार्यपालिका को भी चाहिए कि वो अपनी बात न्यायपालिका के समक्ष रखे कि उन्हें इस कारण से ये करना पड़ा।
2016 में उच्चतम न्यायालय ने उत्तराखण्ड में हरीश रावत सरकार के गिरने के बाद उपजी परिस्थितियों में विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को सही ठहराते हुए कहा था कि सदन के अंदर अध्यक्ष ही ‘मास्टर ऑफ द हाउस’ है लेकिन इतनी स्पष्टता के बावजूद भी दलबदल के मामले न्यायालयों में जाकर हल हो रहे हैं? क्या दलबदल कानून में इतनी विसंगतियां हैं या फिर अध्यक्ष के निर्णय उसे विवादास्पद बना देते हैं?
आपकी इस बात से मैं सहमत हूं कि सदन के अंदर अध्यक्ष सर्वोच्च है, ‘मास्टर ऑफ द हाउस’ है और उसके निर्णयों पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। न्यायालय भी नहीं लेकिन सदन से बाहर आते ही अध्यक्ष भी नियमों से बंध जाते है। संविधान से बंट्टा जाते हैं। ये आपने सही कहा हमें इस पर ध्यान देना होगा और विचार करना होगा कि जो थोड़ा बहुत विरोट्टााभाष है उसको भी समझना होगा। सभी को चाहे अध्यक्ष के रूप में मैं हूं, कार्यपालिका, न्यायपालिका सब को सोचना होगा। मेरा मानना है कि हमारा काम संस्थाओं को बचाना है। ये सभी किसी कारण से एक व्यवस्था के तहत बने हैं। देश का भविष्य इनकी मजबूती में निहित है। इनके साथ खिलवाड़ करेंगे तो दिक्कत आएगी। समन्वय से सभी समस्याओं का समाधान है।
क्या दलबदल कानून को आप पूर्ण मानती हैं या इसमें सुधार की गुंजाइश है?
देखिए दलबदल तो अब काफी कम हो चुका है। एक सिस्टम हो गया है दल बदल है तो फिर से चुनकर आइए। अब दल बदलना आसान नहीं है।
2012 में आपके पिता और पूर्व मुख्यमंत्री भुबन चन्द्र खण्डूड़ी दो महत्वपूर्ण बिल लाए थे एक लोकपाल एक्ट और दूसरा स्थानांतरण एक्ट। लोकपाल विधेयक तो आने वाली सरकारों, चाहे भाजपा की हों, या कांग्रेस की ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। खासकर भाजपा जो भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करती है ने भी कोई पहल नहीं की। स्थानांतरण एक्ट को सरकारें कमजोर करती चली गई। क्या आपको नहीं लगता कि ‘गुड गवर्नेंस’ के मुद्दे पर राजनीति को दरकिनार किया जाना चाहिए?
मैं सहमत हूं। मैं समझती हूं हम सभी इससे सहमत होंगे सिर्फ मैं ही नहीं। इस देश में कुछ लोग ऐसे पदों पर बैठे हैं जिनकी सोच बहुत कुछ मायने रखती है। गुड गवर्नेंस के मुद्दे पर सभी सहमत होंगे शायद ही कोई असहमत होगा। हम गुड गवर्नेंस की सोच के साथ ही चुनकर आए हैं और हमारा दायित्व है कि हम जनता की जीवनशैली में कैसे सुधार ला सकें सबका प्रयास यही होना चाहिए।
जिस प्रकार विधायिका के अंतर्गत केंद्र हो या राज्य, सत्ता पक्ष और विपक्ष हमेशा टकराव की स्थिति में दिखाई पड़ते हैं, तो क्या आपको संसदीय लोकतंत्र का कोई विकल्प नजर आता है? अगर हां तो क्या विकल्प ही सुझाएंगी आप या फिर संसदीय लोकतंत्र के अंदर ही सुधार की गुंजाइश है?
सुधार की गुंजाइश तो है। मैं बार-बार कहती हूं कि समय बदला है, 21वीं सदी है, समाज बदल रहा है। समाज एक बहते पानी की तरह है जैसे-जैसे चीजें बदलती हैं समाज बदलता है, सोच भी बदल रही है व्यवहार बदल रहे हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति, प्रकृति बदल रही है। ऐसा नहीं है कि 70, 80, 90 के दशकों में विपक्ष नहीं था। तब भी विपक्ष था आपस में खूब चर्चांएं बहसें हुआ करती थीं। इस समय हमारा समाज है और नई पीढ़ी है और उसमें आक्रामकता ज्यादा है। वो अपनी बात को ज्यादा मजबूती, ज्यादा आक्रामकता से कहता नजर आ रहा है या यूं कहें टकराव के साथ ज्यादा कहना चाह रहा है। संसदीय प्रणाली में कोई गड़बड़ नहीं है। हमारे आचरण में सुधार होगा तो संसदीय प्रणाली की खूबियां स्वयं नजर आने लगेंगी।
आप सैन्य परिवार में जन्मी, एक नौकरशाह संग आपका विवाह हुआ। जनरल खण्डूड़ी अकस्मात राजनीति में आए। बगैर राजनीतिक पृष्ठभूमि आपने भी राजनीति में पर्दापर्ण अचानक ही किया। खांटी राजनेताओं के मध्य आप खुद को कैसे एडजस्ट कर पाई हैं? बतौर जनप्रतिनिधि कैसा महसूस करती हैं आप?
देखिए, कठिन तो है वो इस लिए क्योंकि मैं राजनीतिक रूप से राजनीतिज्ञ नहीं हूं। मेरे लिए राजनीति समाज सेवा का जरिया है। क्योंकि मैंने अपने परिवार में समाज सेवा देखी है और सीखी है। 1930 में हमारा एक चंद्र बल्लभ ट्रस्ट था जिससे हमने मुकंुदी लाल बैरिस्टर को वकालत पढ़ने लंदन भेजा था। तो मैं उस पृष्ठभूमि से आती हूं जहां समाज सेवा एक निःस्वार्थ कार्य था। मेरे दादी-दादा ने बहुत संघर्ष किया समाज सेवा की। जब मैं विट्टाायक बनी तो मुझे लगा कि मेरे लिए तो समाज सेवा का ये सुअवसर है क्योंकि जनरल खण्डूड़ी पुत्री के रूप में, राजेश भूषण की पत्नी के रूप में मेरे लिए दरवाजे तो खुलते थे लेकिन उन दरवाजों में मैं डेंट नहीं कर पाती थी। मुझे अपने विचारों को धरातल पर उतारने का अवसर दिखाई दिया। जब मैं यमकेश्वर से पहली बार विधायक चुनी गई मैंने अपनी विधानसभा में अच्छा काम किया। मैंने अपनी विधानसभा में दो सौ किलोमीटर सड़के खुदवाई, पानी, स्वास्थ्य, बिजली और शिक्षा पर कार्य किया। फिलहाल समाज सेवा प्राथमिकता है जब राजनीति करनी होगी वो भी कर लेंगे।
इस बीच लगातार चर्चाओं का बाजार गर्म है कि आप संभवतः राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं। क्या राज्य में कोई नेतृत्व परिवर्तन की संभावना है?
देखिए, मैं इन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देती। मुझे बहुत बड़ा दायित्व प्रधानमंत्री ने दिया है। दूसरी बार की विधायक हूं और इतना बड़ा दायित्व। मेरा प्रयास है कि पूरे उत्तराखण्ड में बच्चों के बीच महिलाओं व आम लोगों के बीच अपने ज्ञान और अनुभव को बांट सकूं। मैं आज जहां पर हूं बहुत प्रसन्न व अच्छा अनुभव कर रही हूं। मेरी कोशिश रही है कि जो भी पद मेरे पास है उससे न्याय कर सकूं।
अगर आप मुख्यमंत्री बनती हैं तो आपकी प्राथमिकताएं क्या होंगी और क्या आप जनरल खण्डूड़ी जी द्वारा लाए गए लोकपाल बिल व ट्रांसफर एक्ट को उसी रूप में लागू करेंगी?
ये ऐसा प्रश्न है आपका जिस पर मैं कुछ नहीं कह सकती और कोई टिप्पणी नहीं करूंगी।
हम देख रहे हैं कि उत्तराखण्ड ही नहीं पूरे भारत में महिलाओं पर अत्याचार की निरंतर खबरें आ रही हैं। लेकिन महिलाओं के मुद्दे पर भी राजनीतिक दल दलीय प्रतिबद्धताओं से ऊपर उठकर सोच नहीं पा रहे। ‘तेरे राज्य की महिला मेरे राज्य की महिला’ जैसा खेल चल रहा है। भारत वर्ष को भारत माता का दर्जा देने वाला भारतीय समाज महिलाओं जैसे संवेदनशील मुद्दे पर ‘सेलेक्टिव एप्रोच’ क्यों रखता है?
सेलेक्टिव एप्रोच इस लिए रखता है क्योंकि समाज ऐसा ही सोचता है। पुरुष ऐसा ही सोचता है। हम अपने बेटे-बेटी में कितना फर्क करते हैं। बेटी को तो पूछा जाता है इतनी देर में कहां से आई? कहां गई थी? ये कैसे कपड़े पहने हैं? क्या बेटे से ऐसे प्रश्न होते है? शायद नहीं। निर्भया कांड के बाद कड़ा कानून बना लेकिन क्या महिलाओं के प्रति अपराध कम हुआ? नहीं। हम इसे क्यों नहीं रोक पा रहे क्योंकि समाज अपने को बदलने को तैयार नहीं है। हम शिक्षा ही ऐसी दे रहे हैं कि लड़की के साथ कुछ भी बर्दाश्त किया जाएगा। माता-पिता को चाहिए कि वो बेटों को संस्कार मुक्त शिक्षा दें। जब तक समाज में सुधार नहीं होगा, समाज अपनी सोच नहीं बदलेगा तब तक कोई कड़ा कानून काम नहीं करेगा और फिर अधिकांश पुरुषों की सोच, पुरुष प्रधान मानसिकता इसका कड़ा कारण है।
महिला उत्पीड़न का मामला भारत की आधी आबादी का मामला है ये मुद्दा सिर्फ 50 प्रतिशत आबादी तक ही क्यों सीमित रह जाता है ये देश का मुद्दा क्यों नहीं बन पाता। पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता कह कर तोहमत लगाना आसान है लेकिन राजनीतिक रूप से पद प्राप्त करने के बाद महिला राजनीतिज्ञ भी तो पुरुष प्रधान मानसिकता की तरह ही व्यवहार करने लगती हैं। मसलन उत्तराखण्ड का अंकिता भंडारी मुद्दा, मणिपुर की महिलाओं का मुद्दा महाराष्ट्र के महिला नेता मौन रहती हैं लेकिन पश्चिम बंगाल, झारखण्ड के मुद्दों पर मुखरता क्यों ये महिला
राजनीतिज्ञों की ‘सेलेक्टिव एप्रोच’ को नहीं दिखाता क्या?
मैं आपसे पूछती हूं जब कोई पुरुषों का मुद्दा होता है, राष्ट्र का मुद्दा होता है तो महिलाएं आपके साथ होती हैं लेकिन जब महिलाओं का मुद्दा होता है तो पुरुष की एप्रोच सेलेक्टिव हो जाती है। ये समस्या उस समाज की है जो पुरुष प्रधान है। पुरूष प्रधान मानसिकता सिर्फ हिंदुस्तान नहीं पूरे विश्व की सोच है जो महिलाओं के लिए सीमित दायरे में तय करता है। दुर्भाग्यवश अभी भी हमारे देश में अधिकांश पुरुषों की नजर में महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं। हम बराबरी का अधिकार चाहते हैं पुरुषों से आगे नहीं बढ़ना चाहते। अब आप ही बताइए सत्ता के गलियारों में हमारी बात कब सुनी जाती थी? जिस देश में आजादी के 70 साल बाद महिलाओं के लिए शौचालयों की सोच नहीं हो वहां आज महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए की कल्पना कीजिए। ये प्रट्टाानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच है जिन्होंने महिलाओं की इस समस्या को समझा। आज उनकी सोच महिलाओं का हौंसला बढ़ाती है। पिछले दस वर्षों में महिलाओं के लिए बहुत कुछ बदला है। इस वक्त हमें अवसर मिल रहे हैं। महिलाएं सोचने लगी हैं क्योंकि उन्हें अधिकार मिल रहे हैं पद मिल रहें। और हां मैं फिर कहती हूं महिलाओं के लिए राजनीति आसान नहीं है। मैं आपकी इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखती कि महिलाओं के मुद्दों पर महिलाएं ‘सलेक्टिव एप्रोच’ अपनाती हैं। महिलाओं के मन की संवेदनशीलता को समझिए वो ऐसा कतई सोच नहीं सकती।
ऋतु खण्डूड़ी का सफर
जीवन परिचय: जन्म 29 जनवरी 1965। जन्म स्थान नैनीताल।
शिक्षा: फौजी परिवार से होने के कारण उनकी पढ़ाई पिता बी.सी. खंडूरी की पोस्टिंग के हिसाब से अलग-अलग जगहों से हुई। ऋतु ने मेरठ के रघुनाथ गर्ल्स कॉलेज से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की है। इसके बाद राजस्थान विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएशन किया। उन्होंने पत्रकारिता में डिप्लोमा हासिल की है। साल 2006 से लेकर 2017 तक उन्होंने नोएडा की ऐमिटी यूनिवर्सिटी में फैकल्टी के रूप में भी काम किया है। ऋतु लंबे समय से
समाजसेवा में भी ऐक्टिव रही हैं।
राजनीतिक यात्रा: 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के टिकट पर यमकेश्वर सीट से चुनाव लड़ा था और जीत दर्ज की थी। साल 2022 के चुनाव में उनकी सीट बदल दी गई थी। उन्हें कोटद्वार से पूर्व कैबिनेट मंत्री और कांग्रेस नेता सुरेंद्र सिंह नेगी के खिलाफ उतारा गया था।