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Uttarakhand

सांस्कृतिक नगरी में सुखद साहित्यिक पहल

पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड ने देश को पद्म भूषण, पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कई कवि, लेखक और साहित्यकार दिए हैं जिनमें सर्वाधिक अल्मोड़ा जनपद के हैं। सुमित्रा नंदन पंत, शैलेश मटियानी, इलाचंद्र जोशी, मनोहर श्याम जोशी, गौरा पंत, शिवानी, गिरीश तिवारी ‘गिरदा’, लोक रतन पंत और शेखर पाठक जैसे साहित्यकारों ने हिंदी को देश ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई है। इसके अलावा शेर सिंह बिष्ट ‘शेरदा अनपढ़’, गौरी दत्त पांडे, बलवंत मनराल, शैलेय, प्रसून जोशी और शिवदत्त सती का भी नाम इस सूची में शुमार है। बावजूद इसके अल्मोड़ा को राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह पहचान नहीं मिली जिसका वह हकदार है। हालांकि साहित्यिक नगरी का दर्जा देकर इस शहर की विरासत को सहेजने की कोशिशें समय-समय पर होती रही है। पिछले दिनों ‘ग्रीन हिल्स’ संस्था ने पहली बार यहां ऐसा आयोजन किया है जिसकी चर्चा दूर-दूर तक हो रही है। यह आयोजन था अल्मोड़ा लिट्रेचर फेस्टिवल का। 30 जून से 2 जुलाई तक तीन दिवसीय इस कार्यक्रम में अल्मोड़ा की संस्कृति को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के उद्देश्य से आयोजन किया गया जिसमें संगीत, साहित्य, संस्कृति और कला का संगम देखने को मिला। जिसका गवाह बना ऐतिहासिक मल्ला महल

 

अल्मोड़ा में जब से कलेक्ट्रेट कार्यालय विकास भवन में स्थानातरित हुआ है तब से मल्ला महल की चहल-पहल खत्म सी हो गई थी, लेकिन अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल ने मल्ला महल को एक बार फिर से जीवंत कर दिया। यहां देश के प्रसिद्ध संगीत मर्मज्ञ ने अपनी आवाज का जादू बिखेर देश की संस्कृति से अवगत कराया तो स्थानीय कलाकारों ने अपनी कला का अद्भुत प्रदर्शन किया। कार्यक्रम में लोकप्रिय कलाकारों ने प्रदर्शनी के माध्यम से अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित किया जबकि साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से सबको सोचने पर मजबूर कर दिया। महिलाओं के विभिन्न समूहों ने स्टॉल के जरिए अपनी स्वरू निर्मित वस्तुओं को लोगों के सामने प्रस्तुत किया। कार्यक्रम में पंडित उदय भवलकर ने अपने ध्रुपद गायक से समा बांध दिया तो राग भैरवी और राग विभास से लोग मंत्रमुग्ध होने पर मजबूर हो गए। स्थानीय लोगों की मानें तो आयोजन का निष्कर्ष अंग्रेजियत का नहीं अल्मोड़ियत का संदेश देकर गया। प्रसिद्ध लोक कलाकर मोहन उप्रेती के भांजे और कुमाऊंनी लोकगायक हिमांशु जोशी के शब्दों में ‘इस फेस्टिवल को अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत में एक नए अध्याय का आरंभ माना जाना चाहिए।’

इस फेस्टिवल में कुल 27 सेशन किए गए जिसके मुख्य अतिथि पद्मश्री से सम्मानित लतिल पाण्डे, पूर्व भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष कैलाश शर्मा, नगर पालिका अध्यक्ष प्रकाश जोशी, जीबी पंत संस्थान कटारमल अल्मोड़ा के वैज्ञानिक डॉ जेसी कुनियाल, विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान के पूर्व निदेशक डॉ जेसी भट्ट, टाइम्स ऑफ इण्डिया के पूर्व पत्रकार आशुतोष पंत ने द्वीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। इस कार्यक्रम को तीन सितारा होटल शिखर, स्टूडियो बारडो और अल्मोड़ा किताब घर के साथ ही ग्राफिक एरा एजुकेशन, साइज एंड टेक्नोलॉजी कॉउंसिल, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरनमेंट का सहयोग मिला।

उत्तराखण्ड की चर्चित लोक गायिका और पदम श्री से सम्मानित बसंती बिष्ट ने नंदा जागर, गोल ज्यु जागर से अपने गायन का आरंभ किया। उन्होंने अपने साथी कलाकारों के साथ आंचरी गायन और नृत्य की प्रस्तुति भी दी। जिसमें पहाड़ के
पारंपरिक वाद्य यंत्र हुड़के की थाप ने अलग ही छाप छोड़ी। जिसकी दर्शकों एवं श्रोताओं ने मुक्तकंठ से सराहना की और तालियों की गड़गड़ाट से कलाकारों का उत्साहवर्धन किया। अपने संबोधन में उन्होंने कुमाऊं से अपने रिश्ते और खास लगाव की बात भी कही। ‘जितना हमारे पूर्वज गा गए और जितना मैंने उन्हें सुना है मैं उसका एक बूंद बराबर भी नहीं गाती हूं’ ये शब्द बसंती बिष्ट के थे। अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल में अपनी प्रस्तुति देने के बाद, एक तरह से वो इशारा कर गई कि अभी और कितना काम हमारे पूर्वजों पर लोक पर साहित्य पर और संस्कृति पर होना बाकी है।

फेस्टिवल में अल्मोड़ा के जय नंदा कला केंद्र के छोलिया कलाकारों ने छोलिया किया। उनके छोलिया नृतकों की टोली ने अपनी शानदार प्रस्तुति से दर्शकों का मन मोह लिया। जिसमें छोलिया नृत्य के विविध आयाम देखने को मिले। संगीत के इन कार्यक्रमों में प्राचीन वाद्य यंत्र ढोल, दमाऊं, तुरही एवं रणसिंह की मधुर व कर्णप्रिय ध्वनियां एक साथ लोगों को सुनने को मिली और इस लयबद्ध मिश्रित ध्वनियों ने कार्यक्रम में चार चांद लगाए। हिंदी कविता और साहित्य विषय पर अशोक बाजपेयी के साथ मनीषा कुलश्रेष्ठ ने विचार विमर्श किया। शिवानी द्वारा शताब्दी वर्ष के अवसर पर ‘सौ साल शिवानी’ के विषय पर प्रभात रंजन, इरा पांडे के साथ दीपा गुप्ता ने विचार विमर्श और सवाल जवाब किए। शाम के समय ‘अंदाज ए सुखन’ की संगीतमय प्रस्तुति कस्तूरिका मिश्रा द्वारा दी गई। कवि सम्मेलन से जिसमें अल्मोड़ा और आस-पास के अलावा अन्य प्रदेशों से आमंत्रित कवि शामिल रहे। बारिश में काफी देर तक कविताओं का दौर जारी रहा। पत्रकार दिनेश काण्डपाल और रमेश भट्ट ने ‘आपदा या अवसर’, ‘मीडिया और उत्तराखण्ड’ विषय पर आशुतोष पंत के साथ कुलसुम तलथा ने चर्चा में भाग लिया।

प्रोफेसर क्वीनी प्रधान की पुस्तक ‘रानीज इन द राज” का विमोचन किया गया। तत्पश्चात डॉ ओसी हान्डा का वार्ता सत्र में विचार-विमर्श आयोजित हुआ। ‘कितने दूर कितने पास’ सेशन में साधना अग्रवाल और कृष्ण कल्पित के साथ अनिल कार्की ने वार्तालाप किया। यह सेशन कथा और कथेतर साहित्य पर हुआ। इस सेशन में कवि लेखक कृष्ण कल्पित और सम्मालोचक साधना अग्रवाल ने अपने विचार व्यक्त किए। संचालन डॉ ऋचा पाठक ने किया। कृष्ण कल्पित में कहा कि कथेतर अंग्रेजी के नॉन फिक्शन का अनुवाद है। सिर्फ कथा और उपन्यास को छोड़कर बाकी गद्य कृतियों को कथेतर की श्रेणी में परिगणित करना दूसरी अन्य विधाओं के साथ अन्याय है। नाटक, निबंध, रिपोर्टेज, संस्मरण, रेखाचित्र सभी विधाओं को कथेतर कहना इन विधाओं को कमतर बताना है। यह समय विधाओं के विलोपन का समय है। सब विधाएं एक दूसरे में आवाजाही करती हैं।

इस सेशन में साधना अग्रवाल ने पिछले एक दशक में हिंदी में लिखी गई उल्लेखनीय कथेतर कृतियों की चर्चा की। इस विचारोत्तेजक सेशन में यही बात सामने आई कि आने वाला समय कथेतर साहित्य का होगा। यथार्थ को व्यक्त करने के लिए अब कथा कहानी पर्याप्त नहीं है। नोबल पुरस्कार प्राप्त लेखक वी एस नायपाल का भी सेशन में जिक्र हुआ जिनका कहना था कि उपन्यास में अब जटिल यथार्थ को व्यक्त करना संभव नहीं रहा भविष्य कथेतर साहित्य का है। मुख्य मंच पर हुए इस सेशन को श्रोताओं ने बहुत ध्यान से सुना और कुछ सवाल भी किए। कुलमिलाकर यह सेशन विचारोत्तेजक और यादगार था।

‘हिमालय की फोटोग्राफी में उनके जीवन अनुभव’ पर थ्रीस कपूर एवं अनूप साह के साथ जय मित्र सिंह बिष्ट ने विचार विमर्श किया। फेस्टिवल में उत्तराखण्ड पुलिस महानिदेशक अशोक कुमार की बहुचर्चित पुस्तक ‘साइबर एनकाउंटर्स’ पर चर्चा हुई। ‘साइबर इनकाउंटर्स’ पर विचार-विमर्श के दौरान अशोक कुमार और ओपी मनोचा के साथ अनिता पी शर्मा ने वार्तालाप किया। जिसमें पुलिस महानिदेशक, उत्तराखण्ड ने वर्तमान परिदृश्य में साइबर अपराधों की बढ़ती चुनौतियों के साथ ही पुस्तक के विभिन्न पहलुओं और वर्तमान में इसकी उपयोगिता के संबंध में महत्वपूर्ण चर्चा की। लोगों ने साइबर सुरक्षा से जुड़े कई सवाल डीजीपी के समक्ष रखे। जिनका उन्होंने उत्तर देते हुए लोगों की शंकाओं का समाधान किया। डीजीपी अशोक कुमार ने साइबर अपराध से जुड़ी अनेक घटनाओं का उल्लेख करते हुए बताया कि सतर्कता से ही साइबर अपराधों के चंगुल से बचा जा सकता है। उन्होंने साइबर अपराध और उससे पार पाने की चुनौतियां भी समझाई।

संगीत समारोह में ठुमरी गायन ‘पहाड़ में ठुमरी’ सम्राट पंडित द्वारा किया गया। हिमांशु वाजपेयी द्वारा काकोरी एक्सन 1925 पर दास्तानगोई आयोजित की गई। अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल में विशेष रूप से बच्चों के लिए कहानी पढने एवं लिखने को लेकर विशेष कार्यशाला आयोजित हुई। जिसमें अंतरिक्ष एवं तारों की जानकारी दी गई। इस दौरान नवोदित कलाकारों के लिए ओपन माईक सेशन भी हुआ।  अल्मोड़ा के जय नंदा कलाकारों की प्रस्तुतियों के बाद लोकप्रिय गायक रवि जोशी ने अपनी आवाज के जादू से उपस्थित लोगों को भाव विभोर कर दिया। रवि जोशी अपने भजन गायन और उस्ताद कुमार गन्धर्व की शैली के गायन के लिए प्रसिद्ध हैं। अल्मोड़ा के वरिष्ठ रंगकर्मी नवीन बिष्ट ने वार्ता की। भास्कर भौर्याल ने अपने साथी कलाकारों के साथ हुड़किया बोल को मंच पर जीवंत किया। टिहरी के दीपक रमोला अपनी मां के साथ अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल में पहुंचे थे। उनकी किताब ‘कारवा का शौक है’ का विमोचन हुआ और फिर उन्होंने बहुत छोटी उम्र में मिली अपनी सफलता की कहानी अल्मोड़ा की लेखिका दिवा भट्ट के साथ और उपस्थित लोगों के साथ साझा की। उन्होंने बताया कि मैंने 19 साल की बहुत कम उम्र में बॉलीवुड के लिए गाने लिखने शुरू कर दिए थे। उन्होंने कहा कि वो लोगों की जिंदगियों को एक किताब की तरह ही देखते हैं समझते हैं और उसे पढ़ने की कोशिश करते हैं। इस दौरान अलग-अलग लेखकों और विशेषज्ञों के सत्र चलते रहे। जिन्हें लोगों ने बड़े ध्यान से सुना और समझा। अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल समापन की शाम ‘थल की बजारा’ फेम चर्चित गायक बीके सामंत और कलाकारों के नाम रही। कार्यक्रम में पत्रकारों के लिए ‘लेखक लांउज’ नामक मीडिया कक्ष बनाया गया था जहां वक्ताओं, साहित्यकारों और लेखकों के पत्रकारों ने साक्षात्कार लिए।

 

अल्मोड़ा को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान की पहल
संपूर्ण त्रिदिवसीय फेस्टिवल में सकारात्मक ऊर्जा और खुशी का माहोल अद्वितीय और खासतौर पर मेरे लिए दिल को छू जाने वाला था। बहुत निर्विघ्न रूप से कुल 27 सत्र विभिन्न विषयों पर चर्चा के रहे। चंद राजाओं के महल ‘मल्ला महल’ में आयोजित इस महोत्सव में बारिश की बूंदों ने शगुन का संकेत दिया तो ध्रुपद की मीठी तान छेड़ते हुए पंडित उदय भावलकर जी ने मानो साक्षात् देवताओं का आह्नान कर दिया। विभिन्न सत्रों में महत्वपूर्ण विषयों पर सारगर्भित बातचीत, पद्मश्री बसंती बिष्ट जी का जागर गायन, सम्राट पंडित जी का ठुमरी, हिमांशु बाजपेयी का काकोरी कांड नाम की दास्तानगोई और इन सब पर सोने पर सुहागा कवि सम्मेलन रहा। पहाड़ की सांस्कृतिक प्रस्तुतियों ने लोगों को बहुत आकर्षित किया। जिस प्रकार से सबकी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वह संतोषजनक और सुकून देने वाली है। कुल मिलाकर बाहर से आये हुए मेहमानों एवं स्वयं अल्मोड़ा के प्रबुद्ध जनमानस के लिए यह फेस्टिवल अल्मोड़ा को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पटल पर पुनः वापस लाने की अनूठी पहल रही है।

परिणति कार्यक्रम की जरूर सुखद रही है परंतु इसे करने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। बहुत छोटी टीम के साथ यह कार्यक्रम हुआ। इस की पूर्ण रूपरेखा नैनीताल हाई कोर्ट के युवा एडवोकेट विनायक पंत ने बनाई और इसके सम्पूर्ण संपादन में परदे के पीछे रहते हुए अहम भूमिका निभाई। इस प्रकार के कार्यक्रम में उनकी अनुभवहीनता को लेकर कुछ शंका थी तो कुछ लोगों को शंका थी कि इस प्रकार का बहुआयामी एवं महत्वकांक्षी कार्यक्रम अल्मोड़ा में न तो किया जा सकता है और न ही सफल हो सकता है। परंतु 2-4 लोगों की लगन और जुझारूपन को देखकर नए लोग दिल से जुड़ते गए और पूर्ण सहयोग दिया। जिस वजह से यह सफल रूप से हो पाया। इस कार्यक्रम को सफल बनाने में जयमित्र बिष्ट, मनमोहन चौधरी, डॉ दीपा गुप्ता, राजेश बिष्ट, निकिता, भूपेंद्र वाल्दिया, प्रो हामिद, प्रो अनिल जोशी, मनोज गुप्ता, नमित जोशी, कांति जोशी और भूषण पांडे आदि का विशेष सहयोग रहा। आयोजन बेहद शानदार था, साज-सज्जा बेहद आकर्षक थी तो स्वयंसेवकों का समर्पण भी अदभुत था।
(वसुधा पंत, सचिव ग्रीन हिल्स संस्था एवं आयोजक अल्मोड़ा लिट्रेचर फेस्टिवल)

 

बात अपनी-अपनी

अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल महोत्सव के दौरान साहित्य, कला, प्रदर्शन कला, फोटोग्राफी, शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, विरासत और आध्यात्मिकता पर संवाद और विमर्श के जिन सत्रों का आयोजन किया गया था उनमें विचारों का आदान-प्रदान बहुत ही सुंदर और सहज था और किसी भी तरह के दिखावे और अहम से दूर रहा। कुमाऊं की संस्कृति और विरासत, जहां जीवन का हर पहलू मूल रूप से आध्यात्मिकता से जुड़ा हुआ है, को पुनर्जीवित करने की यह पहल बहुत ही सुखद है। साहित्य के इस महोत्सव में मौजूदगी के दौरान प्यार और अपनेपन की जिस भावना को हमने महसूस किया, वो वही वास्तविक कुमाऊं है जिसे मैं जानती हूं।
रोमोला बुटालिया, विचारक

अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल संगीत, विज्ञान, समाज और साहित्य को साथ लेकर चला। इतने रोचक और ज्ञानवर्धक सेशन और सुबह-शाम संगीत का समां इसके बाद कवि सम्मेलन। तीनों दिन आनंदनिमग्न करने वाले रहे। आयोजकों का श्रम और मौसम से अनवरत मुठभेड़ भी अद्वितीय थी। कार्यक्रम में आए मेहमानों के अलावा स्थानीय भागीदारी भी अच्छी रही। अपने आप में एक अनूठा साहित्योत्सव था।
मनीषा कुलश्रेष्ठ, वरिष्ठ साहित्यकार

 

 

डॉ वसुधा पंत ने मौसम की बूंदाबांदी के बीच एक यादगार कार्यक्रम आयोजित किया। बरसात में भी लोगों का कार्यक्रम में डटे रहना दर्शाता है कि यह कार्यक्रम दर्शकों के दिल तक पहुंचा। इस कार्यक्रम से डॉक्टर वसुधा पंत ने छात्रों को जोड़ा यह मुझे सुखद लगा। हमारी आने वाली पीढ़ी हमारे संस्कारों से और संस्कृति से परिचित हो यह कार्यक्रम का सबसे बड़ा उद्देश्य रहा। कार्यक्रम में कोई दिखावा नहीं था। सभी लोग अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ थे चाहे वह शास्त्रीय संगीत से जुड़े हुए हो चाहे साहित्य जगत से। वरिष्ठ लेखक भी और विचारक भी थे। ऐसे में यह कार्यक्रम अल्मोड़ा के बाशिंदों को बहुत कुछ सिखा गया। आजकल कल्चर बदल रहा है। शोर- शराबे के कार्यक्रम हो रहे हैं लेकिन साहित्य पर और संस्कृति पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल में यही चीजें ध्यान में रखकर की गई थी। कुल मिलाकर मुझे यह कार्यक्रम जमीन से जुड़ा हुआ लगा जो अल्मोड़ा ही नहीं उत्तराखण्ड में पहली बार हुआ। आगे से भी ऐसे कार्यक्रम होते रहने चाहिए।
बसंती बिष्ट, पदम श्री और लोक गायिका उत्तराखण्ड

अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल का प्रथम आयोजन एक सफल और यादगार आयोजन था। साहित्य के साथ लोक कलाओं, लोक संगीत, नृत्य और शास्त्रीय संगीत के समिश्रण ने इसे और भी सार्थक बना दिया। इस फेस्टिवल में युवाओं की उत्साहजनक और सक्रिय भागीदारी भी अलग से नजर आई। हिंदी के बहुत से महत्वपूर्ण लेखकों, कवियों ने इसमें भागीदारी की वहीं अल्मोड़ा के स्थानीय लेखकों बुद्धिजीवियों ने भी इसमें अपना योगदान दिया। इस फेस्टिवल अपने प्रथम संस्करण से ही अखिल भारतीय पहचान बना ली है। अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल समाप्त हो गया लेकिन सोशल मीडिया पर अभी तक इसकी गूंज सुनाई दे रही है। यह अच्छी बात है कि इस फेस्टिवल ने युवा फोटोग्राफरों फिल्मकारों को भी आकर्षित किया और उन्होंने इसका अद्भुत डॉक्यूमेंटेशन किया। यह फेस्टिवल भविष्य में भी हर वर्ष आयोजित होता रहेगा और यह समारोह अपनी अलग पहचान बनाएगा इसमें कोई संदेह नहीं।
कृष्ण कल्पित, वरिष्ठ साहित्यकार

 

अल्मोडा लिटरेचर फेस्टिवल। साहित्य, कला, लोक गीत और संगीत की एक मंच प्रदान करने की एक बेहतरीन शुरूआत है। इस प्रकार के प्रयासों से नई पीढ़ी को अपनी लोक विरासत को गहराई से समझने का अवसर मिलेगा। इस फेस्टिवल में सीबीसी अल्मोड़ा के युवा रंगधर्मियों ने अपनी कलाकृतियों को कला दीर्घा के माध्यम से प्रदर्शित किया जो एक बेहतरीन और सफल प्रयास रहा।
कल्याण मनकोटी, अध्यापक अल्मोड़ा

 

अल्मोड़ा में पहली बार ग्रीन हिल्स संस्था ने इतना शानदार कार्यक्रम किया। जिसको मैं बेहद सफल मानता हूं। इस कार्यक्रम का कैनवास बहुत बड़ा था। जिसमें लिटरेचर, आर्ट, फोटोग्राफी, बुक्स, कलाकारों की टीम को पूरे भारत से बुलाकर अल्मोड़ा की संस्कृति से परिचित कराया गया। साथ ही उन सभी ने अपना अनुभव भी सांझा किया। शिवानी जी के परिवार से कई लोगों का आना बहुत ही महत्वपूर्ण रहा। इस वर्ष शिवानी जी के 100 साल पूरे होने जा रहे हैं। इस अवसर पर उनका एक संग्रहालय बनाने का प्रस्ताव भी हमने रखा था। साथ ही हमने अल्मोड़ा में उदय शंकर एकेडमी को यहां की जनता को समर्पित करने की बात भी रखी है। कुल मिलाकर कार्यक्रम में भारत से कलाकार आए। जिनकी हर प्रस्तुति दिल जीतने वाली रही। मौजूद भीड़ का कार्यक्रम के प्रति समर्पण यह था कि बारिश हो रही थी और लोग छाता लेकर बैठे थे।
श्रीष कपूर, वरिष्ठ फोटोग्राफर

अल्मोड़ा में पहली बार संस्कृति और साहित्य का अनोखा रूप एक ही मंच पर दिखाई दिया। जहां भविष्य की पीढ़ी को मौका मिला। नई पीढ़ी इस कार्यक्रम से सीख लेकर आगे बढ़े यही लिटरेचर का सबसे अहम सपना था। इस सपने को ग्रीन हिल्स ने जैसे पंख लगा दिए। कार्यक्रम में देश के नामी-गिरामी कलाकारों ने शिरकत की। बहुत से लोगों को यह भी पता नहीं था कि अल्मोड़ा की विरासत रही है मल्ला महल। इसी मल्ला महल में कार्यक्रम करके इसी
विरासत से सबको रू-बरू कराया गया। प्रदेश के डीजीपी की किताब का विमोचन और उनके विचारों को पहली बार सीधे सुनने का मौका मिला। इस कार्यक्रम से निश्चित तौर पर अल्मोड़ा की साहित्यिक सांस्कृतिक में नया अध्याय जुड़ गया है। हालांकि कुछ लोग इस कार्यक्रम के विरोधी भी थे जो नहीं चाहते थे कि अल्मोड़ा शहर की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान देश के कोने-कोने तक पहुंचे। इसके बावजूद भी लिटरेचर की धूम बहुत दूर तक पहुंची।
राजेश बिष्ट, पूर्व अध्यक्ष, होटल एसोसिएशन अल्मोड़ा

इस प्रकार का बड़ा आयोजन पहाड़ी क्षेत्र में पहली बार हुआ है। बहुत ही खूबसूरत और सलीके से हुआ। लेकिन दुखः यह हुआ कि इस बेहतरीन कार्यक्रम में राज्य स्तर पर किसी तरह का सहयोग नहीं मिला। टोटल खर्चा ग्रीन हिल्स संस्था ने किया। आज के समय में पारंपरिक लोक परंपराओं के संरक्षण की आवश्यकता है। पहाड़ खाली हो रहे हैं। ऐसे में अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल जैसे कार्यक्रमों की शिद्दत से जरूरत महसूस की जा रही है, जिससे लोग अपनी जड़ों से जुड़े रहें।
डॉ. ओ.सी. हानडा, पूर्व निदेशक राजकीय संग्रहालय शिमला

 

यह एक अच्छी पहल रही। कार्यक्रम में नई जनरेशन का जुड़ाव सबसे महत्वपूर्ण रहा। हमें भी बहुत कुछ सीखने को मिला। अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत मजबूत हुई। डॉ वसुधा पंत द्वारा पहली बार अपने शहर में बड़ा और सधा हुआ कदम उठाया गया। यह कार्यक्रम हर वर्ष होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि सांस्कृतिक विरासत बड़े-बड़े शहरों में ही होती है। अल्मोड़ा जैसे छोटे शहरों में भी यह विरासत मौजूद है। लेकिन इन्हें सहेजने की जरूरत है। इसके लिए अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल जैसे कार्यक्रमों की बहुत जरूरत है।
प्रो. क्वीनी प्रधान, गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय दिल्ली

 

 

सांस्कृतिक नगरी में यह कार्यक्रम अपने आप में बेहद ही शानदार रहा। ऐसे कार्यक्रम होते रहने चाहिए। खराब मौसम होने के बावजूद भी कार्यक्रम में लोगों की रूचि लगातार बनी रही। क्योंकि ऐसा कार्यक्रम पहली बार हुआ इसलिए खामियां भी हो जाती हैं। उनको नजरअंदाज कर दें तो यह कार्यक्रम सफल माना जाना चाहिए। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि जब कार्यक्रम के पोस्टर बना दिए गए और वक्ताओं के नाम लिख दिए गए उसमें से बहुत सारे लोगों का न आने का कारण क्या रहा, यह तो मुझे नहीं पता। लेकिन कई सत्र ऐसे थे जहां रिपीटेशन किया गया। दूसरे दिन भी वही सत्र करा कर श्रोताओं को निश्चित तौर पर बोरियत महसूस हुई होगी। हर सत्र 45 मिनट से 1 घंटे का था तो उसमें समानता नहीं रखी गई। एक सत्र 25 मिनट में निपटा दिया गया तो कुछ सत्र ढाई घंटे तक चले। इन सत्रों में बैलेंस बनाने की जरूरत थी। उद्घाटन सत्र में सभी गणमान्य लोग बोल चुके थे उन्हीं लोगों को लेकर पहला सत्र शुरू किया गया। पहले उनके भाषण और उसके बाद उनके सत्र में भी वही बात सुनने को मिली। ऐसी बातों को दो बार सुनकर स्वाभाविक है कि श्रोताओं का मन उखड़ा जरूर होगा। इस लिटरेचर फेस्टिवल से उत्तराखण्ड के साहित्य और संस्कृति का क्या भला हुआ होगा यह देखने की जरूरत है। हालांकि यह पहला अनुभव था जिसमें आयोजकों को गलतियों से सीख लेने की जरूरत है। कुछ स्थानीय प्रतिभाशाली लोगों को इस कार्यक्रम से दूर रखा जाना चौंकाने वाला रहा क्योंकि स्थानीय प्रतिभाओं को मौका मिलना चाहिए था जो नहीं मिला। दूसरी बात जो वक्ता बुलाए गए थे वह नहीं आए तो उन लोगों का न आने का कार्यक्रम से पहले ही पता चल चुका था तो उनके कार्ड में नाम छपवा कर श्रोताओं को क्यों मुगालते में रखा गया।
साधना अग्रवाल, वरिष्ठ साहित्यकार

अल्मोडा में पहला फेस्टिवल हुआ यह खुशी की बात है लेकिन इतनी बड़े साहित्य सम्मेलन में ज्यादातर लोग नहीं आए। क्यों नहीं आए यह सवाल उठना स्वाभाविक है। कार्यक्रम में पारदर्शिता नहीं रखी गई कि कितना धन आया उसको कहा लगाया गया उसका कहीं ब्योरा नहीं दिया गया। चर्चा है कि कार्यक्रम में काफी पैसा आया। लेकिन किसने दिया और किसने क्या किया यह बातें सामने नहीं आई। जिस तरह से कार्यक्रम का डिजाइन बनाया गया कहा गया कि शेखर पाठक सहित बहुत बड़े-बड़े साहित्यकार आएंगे और भगत सिंह कोश्यारी, हरीश रावत का भी नाम कार्ड में प्रकाशित किया गया तो वह क्यों नहीं आए यह भी एक सवाल है। सवाल यह भी है कि इस लिटरेचर फेस्टिवल में जितने प्रकाशक आने चाहिए थे वह क्यों नहीं आए। स्थानीय कलाकारों को कार्यक्रम से दूर क्यों रखा गया। क्या स्थानीय प्रतिभाओं को मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन करने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए था। ऐसे कुछ सवाल हैं जो हैं लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन के बाद उठ रहे हैं।
पीसी तिवारी, अध्यक्ष उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी

हमारे शहर में लिटरेचर फेस्टिवल का कार्यक्रम होना हमारे लिए गर्व की बात है। हमारा मानना है कि यह कार्यक्रम छात्रों को पढ़ने पढ़ाने की प्रवृत्ति पैदा करने में बहुत ही सहायक साबित होगा। बच्चों को पुस्तकें पढ़ने को मिली साथ ही कई सांस्कृतिक और साहित्यिक हस्तियों को शहर के लोगों ने सुना। ऐसे कार्यक्रम होते रहने चाहिए। रही बात कार्यक्रम के पीछे आयोजकों की मनसा की तो वह कार्यक्रम के आयोजक ही जाने। जहां तक वसुधा पंत जी के नगर पालिका का चुनाव लड़ने की चर्चा है तो देश में लोकतंत्र है कोई भी चुनाव लड़ सकता है। सभी का स्वागत है।
प्रकाश जोशी, अध्यक्ष, नगर पालिका अल्मोड़ा

 

ऐतिहासिक ही नहीं सांस्कृतिक परंपरापराओं की विरासत संभाले अल्मोड़ा नगरी जितनी धीर-गंभीर है उतनी संवेदनशील भी। यहां छोटी सी बात की बड़ी प्रतिक्रिया होती है तो बड़ी बात को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसके मर्म को समझना पहले जरूरी है। मुझे यह लगता है यहां ‘अल्मोड़ा लिटरेचर फेस्टिवल’ के आयोजकों में कोई कड़ी छूट ना गई हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि आयोजन की बेहतर मंशा रही होगी। जैसा कि कुमाऊं की लोक धरा पर महोत्सव का शीर्षक अंग्रेजी में, पोस्टर, बेनर यहां तक कि ब्रोशर भी अंग्रेजी में प्रसारित प्रचारित किए गए थे। लगा कि हम राष्ट्र भाषा हिंदी और लोक संस्कृति की पैरवी अंग्रेजी में क्यों कर रहे हैं? इस पर मुझे एक बहुत पुराना प्रसंग याद आ गया। हुआ यूं कि विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा पर्वतीय इलाके के काश्तकारी करने वाले किसानों को आमंत्रित किया गया था। यहां सीमांत क्षेत्रों लीती,माना और हिमाचल प्रदेश के सीमांत किसानों की मौजूदगी रही। यहां यह कहना जरूरी है कि अधिकांश किसान अपनी बोली, भाषा के अलावा अच्छी तरह हिंदी भी नहीं जान रहे थे, उन सैंकड़ों किसानों को वहां आए अतिथियों ने भाषण अंग्रेजी में दिए। अनुवाद की कोई सुविधा नहीं थी। बहरहाल उस समय लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार बालम सिंह जनोटी ने प्रतिक्रिया में लिखा था ‘मडवे के खेत में अंग्रेजी में भाषण।’ अल्मोड़ा तो बुद्धिजीवियों की नगरी है, हर बात का एक सलीका, मर्यादा है। यहां आपकी हर अदा के मायने निकाले जा सकते हैं।
नवीन बिष्ट, रंगकर्मी एवं वरिष्ठ पत्रकार

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