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उत्तराखण्ड सरकार अपनी आलोचना से इस कदर घबरा गई कि सचिवालय में समाचार पत्रों के वितरण पर रोक लगा दी गई। मौखिक रूप से इसके आदेश दिए गए। इसके पीछे उन नौकरशाहों का दिमाग बताया जाता है जो अपने काले कारनामों को लेकर सुर्खियों में रहे हैं
विद्वानों का मत है कि राजा को बेहतर शासन चलाने के लिए अपनी आलोचना को एक सहयोग की तरह देखना चाहिए। इसीलिए ‘निंदक नियरे राखिये’ की कहावत बनी है। लेकिन लगता है भाजपा की त्रिवेंद्र रावत सरकार अपनी आलोचना को बर्दाश्त करने की क्षमता खो चुकी है जिसके चलते नया फरमान जारी करके सचिवालय में समाचार पत्रों के वितरण पर रोक लगा दी गई है। ये समाचार पत्र यहां वर्षों से वितरित होते आ रहे थे। हालांकि इस रोक के लिए अभी तक कोई अधिकøत आदेश जारी नहीं हुआ है सिर्फ ऊपर से मौखिक आदेश के चलते सचिवालय में समाचार पत्रों पर रोक लगा दी गई है। सरकार के इस ताजा फरमान से मीडिया जगत में खासी नाराजगी दिखाई दे रही है।
माना जा रहा है कि इस नए सरकारी फरमान के पीछे सरकार की आलोचना करने वाले कुछ खास समाचार पत्रों पर कार्यवाही करने का प्रयास किया गया है। लेकिन अकेले इन पत्रों पर रोक के चलते सरकार पर सवाल खड़े होते लिहाजा सभी समाचार पत्रों पर रोक लगाई गई है। जानकारां का मानना है कि जब पूरा संसार इंटरनेट और पोर्टलां से जुड चुका है तो इस तरह रोक लगाने का कोई औचित्य ही नहीं है। सूत्रां की मानें तो इसके पीछे सचिवालय में बैठे कुछ उन बड़े नौकरशाहों का दिमाग काम कर रहा है जिनके कारनामे आए दिन समाचार पत्रां में छाए रहते हैं।
ऐसा नही है कि मौजूदा सरकार द्वारा पहली बार मीडिया पर प्रतिबंध लगाया गया हो। पहले भी इसी तरह के प्रयास किए जाते रहे हैं। चाहे वह सचिवालय और विधानसभा में पत्रकारो को मीडिया पास दिये जाने का मामला हो या सरकार द्वारा आहूत जनता दरबार में मीडिया के प्रतिबंध का मामला हो या फिर सरकार के कई बड़े कार्यक्रम, इनमें स्थानीय मीडिया को प्रतिबंधित किया जा चुका है। यहां तक कि मुख्यमंत्री के जनता दरबार में किसी तरह के मोबाईल फोन पर भी प्रतिबंध लगाया जा चुका है। दरअसल, पिछले दिनों मुख्यमंत्री के जनता दरबार में शिक्षिका उत्तरा पंत बहुगुणा प्रकरण में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की सोशल मीडिया में खासी फजीहत हुई। यहां तक कि राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मीडिया में मुख्यमंत्री के व्यवहार को लेकर खूब तंज कसे गये। इससे मुख्यमंत्री की छवि को बड़ा आघात भी पहुंचा। संभवतः इसके चलते सरकार ने मुख्यमंत्री के जनता दरबार में मीडिया की उपस्थिति पर प्रतिबंध तथा जनता दरबार में किसी भी तरह के मोबाइल फोन पर भी प्रतिबंध लगा दिया।
सरकार के इस फैसले की आलोचना भी हुई और जानकारां ने इसे सरकार के पारदर्शी शासन दिए जाने के निर्णय के खिलाफ बताया। इसके अलावा सरकार पर यह भी आरोप लगा कि सरकार मीडिया से हकीकत छुपाना चाहती है। जानकारां की मानें तो जिस तरह से पूर्व में भाजपा कार्यालय में जनता दरबार के दौरान एक व्यापारी द्वारा जहर खाकर आने की घटना मीडिया के उपस्थित होने के चलते तेजी से चर्चाओं में आई और इसके कारण सरकार की बड़ी किरकिरी भी हुई। हालांकि उक्त व्यापारी जनता दरबार में जहर खाकर आया था, लेकिन सोशल मीडिया में इस घटना को इस तरह प्रस्तुत किया गया कि व्यापारी ने जनता दरबार में मंत्री के सामने ही जहर खाया। सरकार की फजीहत को रोका नहीं जा सका। इसके बाद मुख्यमंत्री के जनता दरबार में सरकार अपनी आलोचना से इतना घबरा गई कि अब जनता दरबार में मोबाइल फोन और मीडिया पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया है।
इससे पूर्व सचिवालय में मीडिया पर भी प्रतिबंध लगाया जा चुका है। जब सरकार के इस कदम की खासी आलोचना हुई तो सरकार द्वारा सचिवालय में सुरक्षा के नाम पर प्रतिबंध लगाये जाने की बात की गई। लेकिन मीडिया को इसमें शामिल करके साफ कर दिया कि सरकार नहीं चाहती कि उसकी गतिविधियां मीडियां में उजागर हां। आज सचिवालय में मीडिया को प्रवेश करने के लिये बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। पहले सरकार द्वारा मीडिया को कहा गया कि जिस अधिकारी से मिलने के लिये पास बनाना है तो पहले उक्त अधिकारी द्वारा सहमति मिलने पर ही पास बनाया जाएगा। इससे कुछ सीमा तक मीडिया को सचिवालय में प्रवेश करने के लिए आसानी भी हुई लेकिन अब सरकार द्वारा इस आदेश को ही समाप्त कर दिया गया है। अब ई पास की व्यवस्था लागू कर दी गई है। लेकिन इसमें सरकार के मंत्रियां द्वारा जारी किसे गए प्रवेश पास कोटे को बाहर रखा गया है और बड़ी तादाद में मत्रिंयां के कार्यालय से पास बनाए गए।
अब त्रिवेंद्र रावत सरकार के मौखिक आदेश के बाद से सचिवालय में किसी तरह के समाचार पत्रों के वितरण पर रोक लगा दी गई है। इस नये फरमान की खास बात यह है कि सचिवालय प्रशासन के कई अधिकारियों को इसकी कोई खबर ही नहीं है। सुरक्षा अधिकारियां का कहना है कि उन्हें ऊपर से मौखिक आदेश आया है जिसके चलते वे समाचार पत्रां को सचिवालय में वितरण करने की अनुमति नहीं दे सकते। सरकार के इस नए फरमान से यह साफ हो गया है कि सरकार अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पा रही है ओैर सरकार के विरोधी समाचार पत्रों को सचिवालय के अधिकारियां से दूर रखने के लिए इस निर्णय को लागू किया गया है।
बात अपनी-अपनी
मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं है और न यह मामला मेरे संज्ञान में है। मैं देहरादून से बाहर हूं। जैसे देहरादून पहुंचूंगा तो इसकी जानकारी लूंगा।
रमेश भट्ट, मीडिया सलाहकार मुख्यमंत्री 
मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं है। आपने अच्छा किया जो मुझे बता दिया। मैं इसकी जानकारी लूंगा कि किस स्तर पर इसकी निर्णय दिया गया है।
आर राजेश कुमार, अपर सचिव सचिवालय प्रशासन
हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। जिसे हमारे समाचारां को पढ़ना है वह अपने आप ही पढ़ लेगा। वैसे भी हमारे समाचारां को लोग अपने आप ही पढ़ लेते हैं। सचिवालय में जाएं या न जाएं इससे कोई फर्क नही पड़ता। लेकिन यह निर्णय इस सरकार का लोकतंत्र विरोधी निर्णय है। इसकी जितनी भी निंदा की जाय कम है।
शिव प्रसाद सेमवाल, संपादक पर्वतजन
सरकार अपनी आलोचना से पूरी तरह घबरा चुकी है। समाचार पत्रों के सचिवालय में वितरण पर रोक से साफ है कि सरकार मीडिया को दबाना चाहती और लोकतंत्र के खिलाफ काम कर रही है। सचिवालय में जो अनाप शनाप काम किये जा रहे हैं उनका खुलासा न हो, इसलिए सरकार और अधिकारी मीडिया पर रोक लगा रहे हैं। पत्रकारों के सचिवालय में नियमित पास पर रोक भी इसी के कारण लगाई गई है। हम इसका विरोध करते हैं।
मनमोहन लखेड़ा, संपादक दैनिक जनलहर
त्रिवेंद्र रावत सरकार शुरू से ही मीडिया को दबाने का प्रयास कर रही है। यह सरकार अपने भ्रष्ट कारनामों को छुपाने के लिये मीडिया को हर तरह से दबाने का काम कर रही है। अगर सरकार भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात कर रही है तो अपनी आलोचना और कारनामों को क्यों छुपाना चाह रही है।
सुनील गुप्ता, महासचिव वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन ऑफ उत्तराखण्ड

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