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शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने शिक्षिका उत्तरा पंत से माफी मांगकर डैमेज कंट्रोल का प्रयास किया। इसका सरकार एवं भाजपा के पक्ष में सकारात्मक संदेश भी गया। लेकिन वादे के मुताबिक उनका शिक्षिका से न मिलना भाजपा के लिए नुकसानदायक है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक देहरादून से लेकर दिल्ली तक सत्ता सुख भोग रहे जिन नेताओं की पत्नियां सुगम में तैनात हैं उन्हें शिक्षा मंत्री की सकारात्मक पहल बहुत ज्यादा खली है। यही वजह है कि उन्होंने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का साथ दिया और अरविंद पांडे पर दबाव बनाया कि वे शिक्षिका से न मिलें। नतीजतन पांडे मन मारकर घर बैठ गए। डैमेज कंट्रोल का उनका इरादा बेशक धरा का धरा रह गया, मगर इसका जनता में यह संदेश अवश्य गया है कि सरकार में कोई संवेदनशील मंत्री तो है

शिक्षिका उतरा पंत प्रकरण से सत्ताधारी भाजपा बैकफुट पर है। यह प्रकरण सोशल मीडिया से होते हुए स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बना। प्रदेश ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर त्रिवेंद्र रावत सरकार की छवि धूमिल हुई। इससे चिंतित आलाकमान ने भी प्रकरण से संबंधित रिपोर्ट तलब कर ली। पार्टी को हुए भयंकर राजनीतिक नुकसान को भांपते हुए उत्तराखण्ड सरकार के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने डैमेज कंट्रोल की पहल की, मगर उस पर भी मुख्यमंत्री का राजनीतिक हथौड़ा चल गया। ऐसे में भाजपा के भीतर की राजनीतिक खींचतान भी एक बार फिर सामने आ गई है।

त्रिवेंद्र मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री और कुछ मंत्रियों की आपसी खींचतान किसी से छुपी नहीं है। उत्तरा पंत बहुगुणा प्रकरण के बाद यह खींचतान एक बार फिर सामने आ गई। दअरसल, मुख्यमंत्री के जनता दरबार में उत्तरकाशी की एक शिक्षिका उत्तरा पंत अपने स्थानांतरण की गुहार लेकर पहुंची थी। गुहार के दौरान मुख्यमंत्री ने उदारता तो दूर व्यवहारिकता का परिचय भी नहीं दिया। तानाशाही रवैया अपनाते हुए मुख्यमंत्री ने शिक्षिका को पहले सस्पेंड करने की धमकी दी और फिर उन्हें हिरासत में लेने का आदेश दे दिया। इस पूरे घटनाक्रम का वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। फिर भी घटना के अगले दिन स्थानीय मीडिया का जोर शिक्षिका को अनुशासहीन बनाने पर रहा। लेकिन सोशल मीडिया के दबाव में आकर बाद में उसे भी शिक्षिका के पक्ष में खबर चलानी पड़ी।

एक महिला कर्मचारी के साथ मुख्यमंत्री के तानाशाही अंदाज से उत्तराखण्ड सरकार की सोशल मीडिया पर खूब किरकिरी हुई। प्रदेश सरकार की किरकिरी का अंदेशा कहें या राजनीतिक खींचतान शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने तत्काल शिक्षिका से फोन पर बात कर माफी मांग पार्टी को हुए नुकसान का डैमेज कंट्रोल करने का प्रयास किया। शिक्षा मंत्री ने न केवल माफी मांगी बल्कि शिक्षिका से तीन जुलाई को मिलकर उनकी समस्या दूर करने का वादा भी किया। मंत्री के शिक्षिका से फोन पर बात करने के बाद लोगों में सकारात्मक संदेश गया। मंत्री के इस कदम की कई लोगों ने सराहना भी की। इससे भाजपा सरकार के प्रति व्याप्त गुस्सा थोड़ा कम भी हुआ। मगर राजनीतिक महत्वकांक्षा में सब धरा का धरा रह गया।

बताया जा रहा है कि शिक्षा मंत्री के माफी मांगने से मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत बौखला गए। उन्हें लगा कि मंत्री का यह तरीका मुख्यमंत्री को गलत और शिक्षिका को सही ठहरा सकता है। यहीं नहीं मुख्य मंत्री खलनायक और शिक्षा मंत्री नायक के तौर पर उभर सकते हैं। मुख्यमंत्री ने इसे अपनी बदनामी माना, जबकि शिक्षा मंत्री की शिक्षिका से बातचीत का आमजन मानस में यह संदेश जा रहा था कि मुख्यमंत्री से हुई गलती को सरकार सुधार रही है। भावनाओं वाले अपने देश में बड़ी से बड़ी गलती को लोग आसानी से माफ कर देते हैं। यहां भी अरविंद पांडे जो कर रहे थे उससे भाजपा डैमेज कंट्रोल कर पाती। मगर बताया जाता है कि मुख्यमंत्री के अहंकार ने डैमेज कंट्रोल भी नहीं करने दिया। त्रिवेंद्र को लगा कि माफी मांग अरविंद पांण्डे उन्हें राजनीतिक पटखनी दे गए हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि मंत्री महोदय शिक्षिका से मिलने का वादा पूरा नहीं कर पाए। 3 जुलाई को शिक्षा मंत्री अपने वादे के मुताबिक शिक्षिका उत्तरा पंत से मिलने नहीं गए, जबकि वह बेसब्री से मंत्री का इंतजार कर रही थीं।

अब राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि आखिर मंत्री को शिक्षिका को घर जाने में मुख्यमंत्री ने क्यों रोका? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मुख्यमंत्री अपने अलावा किसी भी अन्य मंत्री का कद ऊंचा नहीं होने देना चाहते। मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों को स्वयं के अधीन रखना चाहते हैं। सूत्रों के मुताबिक शिक्षा मंत्री के शिक्षिका से फोन करने पर मुख्यमंत्री खासे नाराज थे। यही नहीं मुख्यमंत्री ने शिक्षा मंत्री से अनौपचारिक रूप से यह भी पूछ लिया कि उन्होंने शिक्षिका को फोन करने से पहले सलाह-मशविरा क्यों नहीं किया। सूत्र यह भी बताते हैं कि मुख्यमंत्री के आदेश के बाद ही शिक्षा मंत्री उत्तरा पंत से मिलने नहीं गए। बेशक मुख्यमंत्री सोचें कि वे शिक्षा मंत्री पर अंकुश लगाने में सफल रहे, मगर जो संदेश जाना था, वह चला गया है। वादा करने के बाद शिक्षा मंत्री का शिक्षिका से मिलने न जाना, यह दर्शाता है कि उन पर दबाव डाला गया होगा। इस संबंध में पूछे जाने पर अरविंद पाण्डे कुछ नहीं बोलते हैं तो जाहिर है कि वे कहीं न कहीं से दबाव के आगे बेबस हैं।

अब सरकार का पूरा अमला शिक्षिका को गलत और मुख्यमंत्री को सही साबित करने में जुटा हुआ है। सरकार अपने हर स्तर पर शिक्षिका को अनुशासनहीन और अपशब्द इस्तेमाल करने वाली महिला बता रही है। यहां तक कि विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल भी सरकार का ही पक्ष ले रहे हैं। जबकि विधानसभा अध्यक्ष से सदन और सदन से बाहर निष्पक्ष रहने की उम्मीद की जाती है। अपने अल्मोड़ा दौरे के दौरान 4 जुलाई को प्रेमचंद अग्रवाल ने कहा कि इस प्रकरण को जानबूझकर राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है। इससे राज्य में अराजकता फैल सकती है। वहीं सरकार का अन्य पक्ष शिक्षिका को अनुशासनहीन बताते हुए उसे कई बार सस्पेंड होने की बात दोहरा रहा है। अब सरकार जितनी भी कोशिश कर ले, मगर सरकार और भाजपा को जबरदस्त राजनीतिक नुकसान हो चुका है।

मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों के साथ ही मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री के बीच शीतयुद्ध लगातार चलता रहा है। इसका कारण यह रहा कि शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे अपना कार्यभार संभालते ही फुल एक्शन में आ गए थे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कई अहम फैसले लिए थे, जिससे वे प्रदेश में काफी लोकप्रिय हो रहे थे। सरकारी स्कूलों में बेहतर मिड डे मील उपलब्ध कराना, स्थानांतरण एक्ट का कड़ाई से पालन, निजी स्कूलों में फीस बढ़ोतरी पर रोक, सभी स्कूलों में एनसीईआरटी की बुक अनिवार्य करना, शिक्षकों के लिए ड्रेस कोड जैसे कई फैसले उन्होंने लिए थे। मगर इनमें से अधिकतर फैसलों को मुख्यमंत्री ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर पलट दिया। शिक्षकों के लिए ड्रेस कोड और ट्रांसफर एक्ट के खिलाफ तो मुख्यमंत्री की पत्नी ने ही शिक्षक संगठनों का नेतृत्व किया था। शिक्षक संगठनों की बात मानकर मुख्यमंत्री ने शिक्षा मंत्री के आदेश को पलट दिया था। वह भी शिक्षा मंत्री को विश्वास में लिए बिना। इससे अरविंद पांडे काफी आहत हुए थे।

प्रदेश में एक मिथ चला आ रहा है कि शिक्षा मंत्री अपना आगामी चुनाव नहीं जीत पाते हैं। अरविंद पांडे ने इस मिथ को तोड़ने की घोषणा की है। इस वजह से भी अरविंद पांडे शिक्षा विभाग को चुस्त-दुरूस्त करना चाहते थे, ताकि आमजनों में शिक्षा विभाग को लेकर सकारात्मक सोच बने। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले स्थानांतरण एक्ट का कड़ाई से पालन करने की सोची। मगर यही उनकी राजनीतिक मजबूरी भी बन गई, क्योंकि प्रदेश के अधिकतर नेताओं के नाते-रिश्तेदार शिक्षक या शिक्षा विभाग में तैनात हैं जिनमें अधिकतर सुगम क्षेत्र में तैनात हैं। अरविंद पांडे इन सभी नेताओं के रिश्तेदारों को एक्ट के तहत सुगम से दुर्गम में भेजना चाहते थे। मगर दबाव के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। शिक्षा मंत्री का चुनाव हारने का एक बड़ा कारण स्थानांतरण उद्योग को भी माना जाता है। अरविंद पांडे इसके नेक्सस को तोड़ना चाहते थे। मगर वे अपने ही नेतृत्व के दबाव में कुछ नहीं कर पा रहे हैं।

उत्तरा प्रकरण ने भाजपा सरकार को इतना बड़ा राजनीतिक नुकसान पहुंचाया है, उसका इल्म पार्टी को भी है। तभी तो इस पर एक रिपोर्ट दिल्ली पार्टी ऑफिस तलब कर ली गई है। दिल्ली से ही निर्देश मिला है कि इसका डैमेज कंट्रोल जल्द से जल्द किया जाए, नहीं तो अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार रहें। पार्टी सूत्र बताते हैं कि दिल्ली के निर्देश पर प्रदेश संगठन और सरकार ने काम करना शुरू कर दिया है। इसका पहला उदाहरण धुमाकोट बस दुर्घटना में देखने को मिला। इस बस दुर्घटना में 48 के करीब यात्रियों की मौत हो गई थी। दुर्घटना के तत्काल बाद ही सरकार ने सभी मृतकों के परिजनों को 2-2 लाख रुपये देने की घोषणा की। यही नहीं पार्टी सूत्र यह भी बताते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट और उच्च शिक्षा राज्यमंत्री धन सिंह रावत ने मुख्यमंत्री को न केवल सलाह दी बल्कि दबाव बनाया कि वे दुर्घटना स्थल पर जाएं और सरकार की सक्रियता का प्रदर्शन करें। बताया जाता है कि इसी के बाद मुख्यमंत्री धुमाकोट गए और गढ़वाल कमिश्नर, गढ़वाल डीआईजी, एआरटीओ और धुमाकोट के थानाध्यक्ष के विरुद्ध कार्रवाई कर दी। उच्चाधिकारियों को बदल दिया गया। जबकि एआरटी और धुमाकोट के थानाध्यक्ष को सस्पेंड कर दिया गया। मुख्यमंत्री ने यह कार्यवाही डैमेज कंट्रोल के तहत की मगर यहां भी उनका दांव उल्टा पड़ता दिख रहा है। धुमाकोट पहुंचे मुख्यमंत्री को स्थानीय लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। अपने परिवार के आठ सदस्यों को उस दुर्घटना में गंवाने वाली भोपारी गांव की आशा देवी ने मुख्यमंत्री को यहां तक कह दिया, ‘भाग जाओ, वर्ना पथर मार देंगे। यह आक्रोश धीरे-धीरे प्रदेश भर में मुख्यंत्री के प्रति बढ़ता जा रहा है। दूसरा उल्टा दांव यह पड़ा कि कार्यवाही के दौरान मुख्यमंत्री के एआरटीओ नेहा झा को सस्पेंड कर दिया। जबकि बताया जाता है कि एआरटीओ नेहा झा एक ईमानदार और मेहनती अधिकारी हैं। उनके निलंबन की आलोचना भी होने लगी है। बताया जाता है कि नेहा झा का ट्रांसफर ढ़ाई महीने पहले ही हुआ था। इस ढाई महीने में उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र में 813 वाहनों का चलान किया था। जिसमें 47 वाहन धुमाकोट रूट के बताये जाते हैं। इन्होंने इस दौरान 21 लाख रुपये का चलान वसूल कर सरकारी खजाने में जमा कराया।

इस मामले में कई लोग मुख्यमंत्री से सवाल कर रहे हैं कि बस दुर्घटना की मुख्य वजह सड़क में बड़े-बड़े गड्ढे बताये जा रहे हैं। फिर ऐसे में गड्ढों को खत्म न करने वाले विभाग पीडब्ल्यूडी पर कार्यवाही क्यों नहीं हो रही। जबकि पीडब्ल्यूडी विभाग खुद मुख्यमंत्री के पास है। ज्योतिष के की भाषा में कहा जाए तो मुख्यमंत्री के ग्रह आजकल ठीक दशा में नहीं चल रहे हैं­। वह जो भी बोल रहे हैं या आदेश दे रहे हैं, उसका उल्टा ही हो रहा है।

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