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Uttarakhand

ओपन यूनिवर्सिटी में ‘ओपन’ भ्रष्टाचार

उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय में ‘ओपन’ तरीके से भ्रष्ट आचरण की कथा लिखी जा रही है। कुलपति ओमप्रकाश नेगी पर आरोप है कि उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा तय मानकों की अवहेलना कर ऐसे वैसों को सहायक प्रोफेसर नियुक्त कर डाला है जिनकी शैक्षणिक योग्यता इन पदों के अनुरूप नहीं है। इन नियुक्तियों के पीछे राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत का हाथ होने का आरोप लगने लगे हैं। विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति सुभाष धुलिया का मानना है कि नियुक्तियों में गड़बड़ी के पीछे कहीं न कहीं सत्ता का संरक्षण है

जब पूरा भारत कोरोना महामारी के खौफ से अपने घरों में बंद था तब उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय में भ्रष्टाचार के एक महाघोटाले की पटकथा लिखी जा रही थी। आरोप है कि मुक्त विश्वविद्यालय के 37 प्रोफेसरों के पदों की नियुक्ति भर्ती में महाघोटाला हुआ है। तत्कालीन त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार पर आरोप है कि उनके इशारे पर भाजपा, एबीवीपी और आरएसएस से जुड़े लोगों को नियम विरुद्ध नियुक्ति दे दी गई। इस नियुक्ति में शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत और कुलपति के रिश्तेदार भी शामिल बताए जा रहे हैं। इसकी शुरुआत आरक्षण के रोस्टर से महिलाओं के तीस फीसदी आरक्षण को हड़प किए जाने से हुई थी। इसके अलावा अनुसूचित जनजाति और विकलांग आरक्षण को भी गायब कर दिया गया। अगर सही रोस्टर लागू होता तो गलत नियुक्तियां नहीं हो पाती। हैरतनाक यह है कि तमाम विरोध और शिकायतों के बावजूद विश्वविद्यालय के कुलपति ओम प्रकाश नेगी ने भर्ती प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। भ्रष्टाचार के लिए पूरा होमवर्क करने के बाद ही विज्ञापन निकाला गया। उम्मीदवारों की भर्ती को ध्यान में रखकर आरक्षण रोस्टर से खिलवाड़ किया गया, पदों को आरक्षित और अनारक्षित किया गया। पहले से चले आ रहे उत्तराखण्ड की महिलाओं के लिए घोषित 30 फीसदी आरक्षण को पूरी तरह खत्म कर दिया गया। जबकि इससे पहले पूर्व कुलपति के कार्यकाल में इन्हीं पदों पर निकले विज्ञापन में महिलाओं का आरक्षण तय था।

राज्यपाल के संयुक्त सचिव द्वारा नियुक्तियों में हुए धांधली पर जांच कराने के लिए शिक्षा विभगा को लिखा गया पत्र

रोस्टर कमेटी संग खिलवाड़
कुलपति ने इस मामले में ऐतराज जताने वाले विश्वविद्यालय के सीनियर प्रोफेसरों को भी रोस्टर कमेटी से दूर रखा। आरक्षण रोस्टर से खिलवाड़ कुलपति के करीबियों को ध्यान में रखकर किया गया। रोस्टर में पूरा ध्यान रखा गया कि इससे कुलपति के करीबियों का रास्ता न बंद हो जाए। कुलपति के पास संवैधानिक आरक्षण हजम कर जाने का कोई जवाब नहीं है। हालांकि आरक्षण रोस्टर में खिलवाड़ को लेकर अब भी एक मामला नैनीताल हाईकोर्ट में लंबित है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत का नाम इसमें आने की वजह से मामले को दबा दिया गया। सबसे हैरानी की बात ये है कि इतने हंगामे के बाद भी कुलपति बेलगाम होकर धड़ाधड़ नियुक्तियां सरकार की शह पर करते जा रहे हैं। सरकार अपनी इतनी किरकिरी कराने के बाद भी उन पर कार्यवाही करना तो दूर नई नियुक्तियों पर भी रोक नहीं लगा रही है। इस प्रकरण में सबसे बड़ा सबूत राज्यपाल की तरफ से सरकार से जांच के लिए कहना है। इसके बावजूद भी जांच न होना सरकार के ‘जीरो टॉलरेंस’ के दावे पर सवालिया निशान लगाता प्रतीत हो रहा है।

राज्यपाल से शिकायत
इस महाघोटाले के सामने आने की शुरुआत तब हुई जब 4 जुलाई 2020 को पंतनगर निवासी राजेश कुमार सिंह ने उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविधालय में नियुक्तियों में की जा रही गड़बड़ियों को लेकर एक लंबा पत्र तत्कालीन राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को भेजा था। इस पत्र में असिस्टेंट रीजनल डायरेक्टर (एआरडी) के आठ पदों पर हुई अवैध नियुक्तियों का जिक्र करते हुए प्रोफेसरों की नियुक्ति के लिए चल रही भ्रष्टाचार की तैयारियों पर रोक लगाने की मांग इस शिकायती पत्र में की गई की गई थी। इस पत्र के आधार पर राज्यपाल कार्यालय की तरफ से राज्य सरकार और विश्वविद्यालय से जवाब मांगा गया।

राज्यपाल कार्यालय में संयुक्त सचिव जितेंद्र कुमार सोनकर की तरफ से राज्य के उच्च शिक्षा सचिव को यह शिकायती पत्र कार्रवाई के लिए भेजा गया था। 27 जुलाई 2019 को राज्यपाल के संयुक्त सचिव ने प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग के प्रभारी सचिव को निर्देश दिए कि असिस्टेंट रीजनल डायरेक्टर (एआरडी) के आठ पदों पर नियुक्ति में हुए भ्रष्टाचार की जांच की जाए। साथ ही असिस्टेंट प्रोफेसर की भर्तियों में जो गड़बड़ी के आरोप लगाए जा रहे हैं, उसकी भी जांच की जाए। यह शिकायती पत्र देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मानव संसाधन मंत्री, उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री और यूजीसी को भी भेजा गया था। लेकिन जिस मामले की उच्चस्तर से जांच की जानी चाहिए थी, इसके बदले मार्च 2021 को सूची जारी कर दी गई। जिसमें उन सभी अभ्यर्थियों में से 8 लोगों को नौकरी के लिए चुन लिया गया।

अंधा बांटे रेवड़ी ़ ़ ़
विशेष बात यह है कि विश्वविद्यालय में नियुक्तियों के इस घोटाले की खबर नियुक्ति की सूची जारी होने से पहले ही 30 अगस्त 2019 को मीडिया में आ गई थी। जिसमें साफ-साफ बताया गया था कि उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय में सहायक क्षेत्रीय निदेशक (असिस्टेंट रीजनल डायरेक्टर) के आठ पदों पर नियुक्ति में बड़ा घोटाला होने वाला है। इस खबर में लिखा था कि इन आठ पदों पर पहले से ही नियुक्त होने वाले लोगों के नाम तय हैं। उन सभी 8 नामों को प्रकाशित भी किया गया था। खबर प्रकाशित होने के ठीक दो दिन बाद 2 सितंबर 2019 को उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय ने जब असिस्टेंट रीजनल डायरेक्टर के पदों पर चयनित हुए लोगों की सूची जारी की तो केवल एक नाम को छोड़कर बाकी सभी आठ के आठ नाम वही थे, जो 30 अगस्त को मीडिया में आ चुके थे। लेकिन फिर भी सब नियम कानूनों को धत्ता बताते हुए मामले की लीपापोती कर आखिरकार 8 पदों पर नियुक्तियां कर दी गईं।

जबकि एक अभ्यर्थी मीनाक्षी राणा के बदले एबीवीपी से जुडे विशाल शर्मा को उस सूची में समायोजित किया गया। मीडिया में नाम आने और विवाद के बाद भी उन सभी को नौकरी दी गई जो बीजेपी नेताओं की पंसद थे और उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत तथा कुलपति के रिश्तेदार बताए जा रहे थे। इनमें सबसे पहला नाम था प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री डॉक्टर धन सिंह रावत के पीआरओ गोविंद सिंह का, दूसरा नाम कुलपति की पर्सनल सेकेट्री रेखा बिष्ट का है। एक नाम रुचि आर्य का भी है जो असिस्टेंट एक्जाम कंट्रोलर डॉक्टर सुमित प्रसाद की पत्नी हैं। इसके अलावा नौकरी पाने वालों में एक नाम ब्रिजेश बनकोटी का भी है जो आरएसएस के प्रचारक हैं। एक नाम सिद्धार्थ पोखरियाल का भी है जो तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्री और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ ़रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के करीबी बताए जाते हैं।

रेखा बिष्ट को भी विश्वविद्यालय में नियुक्ति दी गई है। वह कुलपति की निजी सहायक रह चुकी हैं। रेखा भाजपा नेता प्रमोद बोरा की बहन हैं। एक नाम मदन मोहन जोशी का है। जोशी वही व्यक्ति हैं जिनका नाम इतिहास विषय में एसोसिएट प्रोफेसर पद की भर्ती के सात महीने पहले ही राज्यपाल के पास पहुंच गया था। लेकिन राज्यपाल की तरफ से जांच के आदेश के बाद भी बड़ी दबंगई से उनका चयन कर लिया गया। इसके पीछे उनका आरएसएस पृष्ठभूमि का होना बताया गया। जोशी अल्मोड़ा में जनसंघ के पूर्व विधायक और आईएसएस कार्यकर्ता रहे राम चरण जोशी के पुत्र हैं। जिन लोगां को नियुक्ति मिली उनमें एक नाम भास्कर जोशी का भी है। बताया जाता है कि वह परीक्षा करवाने वाले चीफ एक्जाम कंट्रोलर प्रोफेसर पीडी पंत के रिश्तेदार हैं।

आरोपों के घेरे में कुलपति
नियमों के अनुसार विश्वविद्यालय की स्क्रीनिंग कमेटी ही उम्मीदवारों की योग्यता का निर्धारण करती है। लेकिन विश्वविद्यालय कुलपति ने मनमाने तरीके से स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिशों की अनदेखी करते हुए बिना विशेषज्ञों के एक शिकायत निवारण समिति (ग्रीवांस कमेटी) बनाकर चोर दरवाजे से उनकी नियुक्ति का रास्ता साफ कर दिया। विश्वविद्यालय की नियमावली के अनुसार कुलपति को ग्रीवांस कमेटी बनाने का कोई अधिकार नहीं है। चौंकाने वाली बात यह है कि ग्रीवांस कमेटी का सदस्य पीडी पंत को भी बनाया गया जो खुद उसी विज्ञापन के तहत प्रोफेसर पद के आवेदक थे। प्रोफेसर के विभिन्न पदों पर हुई फर्जी नियुक्ति में पीडी पंत एक मुख्य किरदार बताए जा रहे हैं। यही वजह है कि उन्हें प्रोफेसर बनाकर कुलसचिव का पद ईनाम में दे दिया गया है। पीडी पंत को विज्ञान विद्याशाखा में हुई एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्तियों में अवैध तरीके से विद्या शाखा के निदेशक के तौर पर बिठाया गया। जबकि वह तब विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर न होकर प्रतिनियुक्ति पर आए परीक्षा नियंत्रक के प्रशासनिक पद पर थे। इतना ही नहीं बल्कि वह स्वयं इसी विज्ञापन में प्रोफेसर पद के लिए अभ्यर्थी थे। पंत पर आरोप है कि उन्होंने परीक्षा नियंत्रक के तौर पर विश्वविद्यालय में रहते हुए दूसरे विषय की सीट को भूगर्भ विज्ञान में बदलकर उसमें नियुक्ति पाने में कामयाबी हासिल की। भूगर्भ विज्ञान विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाया जाता है। जबकि कई ऐसे विषय हैं जो वर्षों से विश्वविद्यालय में पढ़ाये जा रहे हैं। लेकिन उनमें प्रोफेसर का पद नहीं है। पंत को नियम विरुद्ध तरीके से उनके पूर्व विश्वविद्यालय से बिना अनापत्ति प्रमाण पत्र के ही नियुक्ति दी गई है।

यूजीसी के दिशा निर्देशों का उल्लंघन
कुलपति पर आरोप है कि उन्होंने पत्र में पहले से घोषित जिन लोगों की नियुक्ति की है उनके अलावा भी बड़े पैमाने पर बाकी लोगों की नियुक्ति में गड़बड़ियां की हैं। अधिकांश पदों पर स्क्रीनिंग कमेटी (विषय विशेषज्ञ समिति) ने जिन उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित कर दिया था, कुलपति ने मनमाने तरीके से साक्षात्कार के लिए बुलाकर उनका चयन करवा लिया। चयन के लिए इंटरव्यू बोर्ड में भी ऐसे ही लोगों को बुलाया गया जो कुलपति के निर्देशों को आसानी से मान जाएं। समाज शास्त्र और लॉ में प्रोफेसर के पदों को आरक्षित करवा दिया गया। समाज शास्त्र की रेनु प्रकाश और लॉ के एके नवीन दोनों को ही विषय विशेषज्ञ (स्क्रीनिंग) कमेटी ने अयोग्य करार दे दिया था। इसके बावजूद भी कुलपति ने अपने दोनों करीबियों की नियुक्ति कर दी। बताया जा रहा है कि अगर रोस्टर सही तरीके से लागू होता तो ये दोनों ही सीटें जनरल श्रेणी में जानी थीं।

इसके अलावा ऐसे ही मामले बाकी विषयों में भी हैं। इनमें जूलॉजी में असिस्टेंट प्रोफेसर चयनित पीके सहगल और पत्रकारिता के एसोसिएट प्रोफेसर बने राकेश रयाल का मामला सबसे ज्यादा पेंचीदा है। यूजीसी के मानकों के अनुरूप योग्य न पाये जाने पर स्क्रीनिंग कमेटी ने उक्त दोनों के नाम पर अपनी आपत्ति दर्ज की थी। लेकिन सारे नियमों को ताक पर रखकर कोविड काल में विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी (पीआरओ) राकेश रयाल को बिना जरूरी योग्यता के एसोसिएट प्रोफेसर बना दिया गया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों के मुताबिक एसोसिएट प्रोफेसर बनने की न्यूनतम योग्यता असिस्टेंट प्रोफेसर स्तर पर आठ साल का अनुभव होना जरूरी होता है। इसके लिए यूजीसी ने ठोस नियम बना रखे ताकि चोर दरवाजे से किसी का प्रवेश न कराया जा सके। लेकिन रयाल की नियुक्ति के मामले में ऐसे मानकों को ठेंगा दिखाया गया है। जानकारी के अनुसार राकेश रयाल ने असिस्टेंट प्रोफेसर के बराबर का 16 वर्षों का अनुभव दिखाया है। लेकिन आरटीआई के माध्यम से जो दस्तावेज मिले हैं उनमें उनके दावों की पोल खुल जाती हैं। रयाल को असिस्टेंट प्रोफेसर या उसके समकक्ष वेतनमान पर कम करने का कोई अनुभव नहीं है। रयाल की शैक्षिक योग्यता के अनुसार उन्होंने पीएचडी की डिग्री जुलाई 2011 में हासिल की है। यूजीसी रेग्यूलेशन-2009 के मुताबिक ये डिग्री असिस्टेंट प्रोफेसर बनने के लिए मान्य नहीं है। इतना ही नहीं रयाल ने असिस्टेंट प्रोफेसर बनने के लिए जरूरी राष्ट्रीय दक्षता परीक्षा (नेट) भी पास नहीं की है। एसोसिएट प्रोफेसर पद पर चयन के लिए कम से कम 7 शोध पत्रों का यूजीसी लिस्टेड जर्नल्स में प्रकाशित होना जरूरी है। जबकि रयाल का एक भी शोध पत्र इस श्रेणी में प्रकाशित नहीं है। पत्रकारिता विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के अलावा अन्य कई पदो पद पर चल रही इस अवैध भर्ती प्रक्रिया पर ध्यान खींचते हुए सचिदानंद डबराल ने कार्य परिषद के सभी सदस्यों और कुलपति से इस पर रोक लगाने की मांग की थी। लेकिन कार्य परिषद् ने बिना तथ्यों की जांच किए ही कुलपति के सामने समर्पण करते हुए शिकायत से मुंह चुरा लिया।

 

बात अपनी-अपनी
मैं इस मामले में कुछ नहीं कह सकता हूं। बस यही कहूंगा कि जो भी नियुक्तियां हई हैं वह नियमों के तहत की गई है।
धन सिंह रावत, शिक्षामंत्री, उत्तराखण्ड सरकार

महिलाओं के आरक्षण रोस्टर का प्रोसेस कोर्ट के आदेश पर किया गया है। इस मामले को कुछ लोग जबर्दस्ती तूल दे रहे हैं। बेवजह नियुक्तियों पर सवाल उठा रहे हैं, जबकि ऐसा कुछ नहीं है। हर एक नियुक्ति को पारदर्शिता के साथ किया गया है। जिसको जहां जांच करानी है वहां करा सकता है। हमने नियुक्त करने से पहले बकायदा विशेषज्ञों की एक ग्रीवांस कमेटी बनाई थी। पात्र लोगों को इंटरव्यू के लिए बुलाया था। जो भी विश्वविद्यालय में नियुक्तियां हुई हैं वह परफॉरमेंस के आधार पर हुई है न कि किसी पार्टी के दबाव में।
ओमपकाश नेगी, कुलपति, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय

उत्तराखण्ड ओपन यूनिवर्सिटी में नियुक्तियों के मामले में नियमों के विपरीत काम किया गया है। इन नियुक्तियों में सत्ता का दबाव भी साफ दिख रहा है।
सुभाष धुलिया, पूर्व कुलपति, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय

इस मामले को लेकर हमने राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री को पूरे एविडेंस के साथ दस्तावेज पहुंचाए। सभी से निष्पक्ष जांच की मांग की है। लेकिन निष्पक्ष जांच नहीं हो रही है। इसकी वजह यह है कि इस नियुक्ति घोटाले में एक मंत्री का नाम आ रहा है। सबसे पहले तो पीडी पंत को हटाया जाना जरूरी है क्योंकि वह कागजातों को इधर-उधर कर सकते हैं। इसी के साथ जिन प्रोफेसरों पर फर्जीवाड़ा कर नियुक्ति पाने के आरोप हैं उन्हें परमानेंट नहीं किया जाना चाहिए। यूनिवर्सिटी के कुलपति की भी जांच जरूरी है। उनको छह माह का एक्सटेंशन दिया जाना भी नियम विरुद्ध है।
सच्चिदानंद डबराल, सामाजिक कार्यकर्ता, उत्तराखण्ड

कुछ लोग अपने हिसाब से मेरे डाक्यूमेंट्स का इंटरपेशन कर रहे हैं। मुझे 18 साल हो गए पढ़ाते हुए। 12 साल से ओपन यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहा हूं। मुझे यूनिवर्सिटी ने ऐसे ही नहीं रखा है। सभी तरह की प्रक्रिया अपनाने के बाद ही सेलेक्ट हुआ हूं। मैं पहले जनसंपर्क अधिकारी था। मैंने एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर आवेदन किया था। इसके लिए बकायदा एक कमेटी बैठी थी, अखबारों में विज्ञापन निकाले गए थे। उसके बाद ही मेरा यूनिवर्सिटी में सेलेक्शन हुआ है। अगर किसी को कोई आपत्ति है तो वह न्यायालय में जा सकता है।
राकेश रयाल, जनसंपर्क अधिकारी, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय

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