प्रदेश में सत्ता लाचारी के दौर से गुजर रही है। राज्य की नौकरशाही का रवेया इस कदर कठोर हो चला है कि अब सरकार के सबसे मजबूत और ताकतवर कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक की बैठक में भी सचिव नहीं पहुंच रहे हैं। इससे एक बड़ी आशंका पेदा हो चली है कि या तो सत्ता ही बेबस हो चली है जिसके चलते पूरा का पूरा सिस्टम बेपरवाही के दौर में पहुंच गया है या फिर सिस्टम के कब्जे में प्रदेश का पूरा तंत्र इस कदर कस चुका है कि इसको बदलना किसी भी सरकार और उसके मुखिया के बस में नहीं रह गया है।
शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक द्वारा सचिवालय में कुंभ मेला 2021 की अतिमहत्वपूर्ण बैठक आहूत की गई। इस बैठक का एजेंडा चार दिनां पूर्व सभी संबंधित विभागां के अधिकारियों-सचिवों तक को भेज दिया गया था, परंतु बैठक में कई अधिकारियों के न आने, अति महत्वपूर्ण ऊर्जा, पेयजल और सिंचाई जेसे विभागों जिनका पूरा दारोमदार कुंभ मेले को सुचारू रूप से संचालन करवाने का है उनके सचिवों ने इस बैठक में आने की जरूरत ही नहीं समझी। इसके पीछे बताया जा रहा हे कि अनुपस्थित सचिवों की बैठक मुख्य सचिव के साथ थी इसलिए वे बैठक में नहीं आ पाए। केवल दो सचिवों के बैठक में पहुंचने पर मंत्री मदन कौशिक बुरी तरह से नाराज हो गए और अधिकारियों को फटकार लगाते हुए बेठक से ही उठकर चले गए।
वर्ष 2021 में राज्य में सबसे बड़ा कुंभ मेला होना है। कोरोना संकट के चलते पहले ही कुंभ की तैयारियों में देरी हो चुकी है। इसे सरकार भी मान रही है जबकि स्वयं सरकार ओैर संत समाज ने साफ कर दिया है कि कुंभ मेला अपने तय समय पर ही होगा जिसकी तैयारियों के लिए शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक द्वारा सचिवालय में समीक्षा बैठक आहूत की गई। हैरानी की बात यह हे कि बैठक में शहरी विकास सचिव शैलेश बगोली और लोक निर्माण सचिव आरके सुधांशु के अलावा न तो ऊर्जा सचिव राधिका झा पहुंची औेर न ही स्वास्थ्य सचिव अमित नेगी, न ही सिंचाई और गृह सचिव नितेश झा ही पहुंचे।
इस बैठक में महत्वपूर्ण विभागों के सचिवों के न पहुंचने से मंत्री जी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया ओैर बैठक में ही जमकर अधिकारियों को खरी-खोटी सुनाई और बैठक को छोड़कर बाहर निकल गए। बैठक में मौजूद मीडिया के चलते मंत्री जी की नाराजगी का मामला सार्वजनिक हो गया जिसमें मंत्री जी जमकर अधिकारियों को फटकार लगा रहे हैं।
सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि बैठक से बाहर आने के बाद मंत्री मदन कौशिक मामले को स्वयं ही हल्का करने का प्रयास करते दिखाई दिए और कहा गया कि मुख्य सचिव के साथ बैठक होने के चलते सचिव बैठक में नहीं आ पाए। सूचना देने में कुछ कमियां रह गई होंगी जिसके चलते सभी को सूचना नहीं मिल पाई।
मंत्री जी के इस बयान से एक साथ कई सवाल खड़े हो रहे हैं। बैठक में मौजूद मंत्री जी ने जिस तरह से अधिकारियों को लताड़ा ओैर कहा कि चार दिनों पूर्व ही बैठक का एजेंडा सबको भेज दिया गया था और इसकी सूचना सभी को दी जा चुकी है तो फिर क्यों बैठक में नहीं आए। लेकिन बाहर आने के बाद मंत्री जी का रवैया एकदम से बदल गया और सचिवों को एक तरह से राहत देते हुए मामला सूचना के न पहुंचने का बताया। एक तरह से मंत्री जी भी शांत हो गए तथा बात आई और गई वाली हो गई।
अब सवाल इस बात का हे कि चार दिनों पूर्व भेजी गई सूचना और बैठक का एजेंडा होने के बावजूद मंत्री की बैठक में न जाकर मुख्य सचिव की बैठक में सचिवों का जाना क्या दर्शाता है। इसका एक अर्थ यह भी माना जा रहा हे कि मंत्री की बैठक से ज्यादा महत्वपूर्ण मुख्य सचिव की थी। तो क्या राज्य की अफसरशाही सरकार के मंत्रियों की अपेक्षा मुख्य सचिव की बैठक को ज्यादा तरजीह दे रही है। या फिर इसके पीछे कुछ सत्ता ओैर सचिवालय में केंद्र के इर्द-गिर्द घूम रही नौकरशाही की पुरानी संस्कृति का ही असर है जिसमें सत्ता शीर्ष के अलावा किसी अन्य को तरजीह नहीं देने की कार्यशैली का चलन है।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का मामला पहली बार सामने आया है, लेकिन एक कैबिनेट मंत्री ओैर सरकार के प्रवक्ता के तौर पर सबसे ताकतवर मंत्री मदन कौशिक की बैठक में सचिवों का न आना पहली बार देखा गया है, जबकि विधायकों औेर सांसदों की तो यह शिकायत हमेशा से रही है कि उनकी बैठक में अधिकारी और विभाग प्रमुख न तो आते हैं और न ही उनके पत्रों पर कोई जवाब तक देते हैं। यहां तक कि उनके द्वारा जारी किए गए कार्यों के आदेशों तक की अवहेलना होती रही है।
हाल ही में प्रदेश सरकार ने सांसदों और विधायकों के सम्मान करने के लिए राज्य की नौकरशाही को मुख्य सचिव द्वारा आदेश जारी करवाया था जिसमें तमाम तरह की सलाह दी गई थी। माननीयों के सम्मान के लिए बहुत-सी बातों का उल्लेख किया गया। यहां तक कि मीटिंग होने पर आपसी सामंजस्य के आधार पर माननीयों की मीटिंगों को तरजीह देने तक की बात कही गई। सरकार के इस कदम को उनकी मजबूरी ही माना गया औेर इसके खिलाफ विपक्ष ने सरकार को नौकरशाही के सामने कमजोर होने का आरोप भी लगाया।
इस पत्र के जारी होने के कुछ ही दिनों बाद किच्छा के विधायक राजेश शुक्ला ओैर ऊधमसिंह नगर जिलाधिकारी के बीच का विवाद सामने आ गया। जिले के बैठक में मंत्री मदन कौशिक के अलावा ऊधमसिंह नगर के सभी विधायक भी शामिल थे। बैठक में विकास कार्यों को लेकर राजेश शुक्ला द्वारा जिलाधिकारी से कार्यों की सूची मांगी तो जिलाधिकारी द्वारा कहा गया कि कार्य बहुत से हुए हैं, विधायक जी की याददाश्त कमजोर हो गई है।
एक जिलाधिकारी द्वारा मंत्री के उपस्थिति में विधायक का याददाश्त कमजोर होने का व्यंग कसने पर विधायक राजेश शुक्ला बेहद नाराज हो गए और बैठक से निकल आए। मंत्री जी ने विधायक को मनाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन विधायक इस कदर नारज हुए कि इसे अपने आत्मसम्मान का सवाल बताकर उनके अपमान किए जाने की बात कहकर बैठक से ही चले गए। इस मामले पर राजेश शुक्ला द्वारा विधानसभा अध्यक्ष को विशेषाधिकार हनन का नेटिस भेज दिया। अब मामला एक विधायक के विशेषाधिकार हनन तक पहुंच चुका है। जल्द ही इस पर सुनवाई होने वाली है।
इस मामले में एक बात यह भी देखने को मिली कि रुद्रपुर में विकास कार्यों की बैठक स्वयं प्रभारी मंत्री मदन कौशिक कर रहे थे। उनकी अध्यक्षता में बैठक हो रही थी और इसी बैठक में जिलाधिकारी नीरज खैरवाल ने विधायक शुक्ला को याददास्त कमजोर होने की बात कही। हैरानी की बात है कि मंत्री मदन कौशिक ने इस बात पर जिलाधिकरी को फटकार लगाने के बजाय विधायक को ही मनाने का काम करते रहे, जबकि मंत्री जी ने यहां तक कहा कि अधिकारियों पर काम का बोझ भी होता है। इसका साफ मतलब था कि स्वयं मंत्री मदन कोशिक एक तरह से अफसरशाही का ही बचाव कर रहे थे।
गौर करने वाली बात यह है कि स्वयं सरकार द्वारा माननीयों का सम्मान करने और उनके साथ मृदुल व्यवहार करने के लिए सरकार ने ही आदेश जारी करवाया है। मंत्री भी सरकार का ही अंग होता है ओैर मुख्यमंत्री का प्रतिनिधि माना जाता है। बावजूद इसके मंत्री जी ने अपनी ही पार्टी के विधायक और जिलाधिकारी के बीच हुए विवाद को बेहद हल्के में लेने का काम ही किया।
मंत्री मदन कौशिक को अपनी ही कुंभ मेले की समीक्षा बैठक में अफसरों की बेपरवाही देखने को मिली तो मंत्री जी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। लेकिन हैरानी इस बात की है कि इस सबके बावजूद मंत्री जी कहीं न कहीं अफसरशाही को ही राहत देने में लगे हुए हैं। हालांकि मुख्यमंत्री ने इस बात को लेकर कड़ा रुख अपनाया है और आदेश जारी किया है कि सभी विभागों के अधिकारी, सचिवों को मंत्रियों की बैठक में जाना ही होगा।
वैसे इस मामले में यह भी देखने को मिला कि मंत्री मदन कौशिक की कुंभ मेले की बैठक में जिन सचिवों की अनुपस्थिति रही है वे सभी विभाग मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के ही पास है। ऊर्जा, गृह, स्वास्थ्य और पेयजल जैसे विभागों के विभागीय मंत्री मुख्यमंत्री ही हैं। इससे तमाम तरह के कयास भी लगाए जा रहे हैं। राजनीतिक जानकारों की मानें तो यह पूरा ही खेल सत्ता पावर के नजदीक होने ओैर खास होने का ही दिखाई दे रहा है।
जिस तरह से प्रदेश में सरकार खासतौर पर मुख्यमंत्री पर नौकरशाही के पक्ष में ज्यादा झुकाव रहा है उससे कई बार ऐसी स्थितियां पैदा हुई है। सरकार के कई मंत्री इस बात को सार्वजनिक तौर पर भी कह चुके हैं कि सचिव उनकी बातां को गंभीरता से नहीं सुनते। शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे तो अधिकारियों को निकम्मा तक कह चुके हैं और उनकी शिकायत केंद्र सरकार से करने की बात तक कह चुके हैं। इसमें खास तौर पर जिन विभागों के विभागीय मंत्री मुख्यमंत्री हैं उन विभागों के ब्यूरोक्रेट्स पर ही इस तरह के सवाल उठते रहे हैं।
बहरहाल मामला चाहे सत्ता और सत्ता के शिखर पर बैठे तंत्र से हो या फिर सरकार के सिस्टम का हो, लेकिन एक बात तो साफ हो चली है कि प्रदेश में नौकरशाही इस कदर बेपरवाह है कि मंत्री की बैठक में भी आने का समय सचिवों के पास नहीं है। इसके साथ ही सत्ता के लाचार और बेबस होने का भी सवाल खड़ा हो रहा है। सरकार अपने ही अधिकारियों पर लगाम क्यों नहीं कस पा रही है। विपक्षी कांग्रेस इस मामले को लेकर सरकार पर हमलावर हो चुकी है। नेता प्रतिपक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत इसे सिस्टम की कार्यशैली बता रहे हैं और सरकार को घुड़सवार एवं नौकरशाही को घोड़ा बताकर यह कह चुके हैं कि अगर घुड़सवार काबिल हो तो बेलगाम घोड़े से भी काम लिया जा सकता है। जिस तरह से हालात प्रदेश में दिखाई दे रहे हैं उससे तो लगता है कि कांग्रेस के पुराने नेताओं का यह व्यंग सरकार पर सटीक बैठता है।