चुनावों में पराजय के बाद मैंने अपने लिए एक दर्जन कार्यक्षेत्र छांटे। उनमें काफल एक सोच को आगे बढ़ाने का कार्यक्षेत्र भी है। उत्तराखण्डी जनजीवन एक गहन गूढ़ विषय है। मैंने इसके कुछ सरलतम पक्षों से अपने को जोड़ने का निर्णय लिया है। इसे काफल चैप्टर का सामूहिक नाम दिया है। अभी इसी माह मैंने हल्द्वानी में उत्तराखण्ड काफल चैप्टर के कुमांऊ पार्ट का विधिवत गठन किया है। मुझे खुशी है, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष श्री गोविंद सिंह कुंजवाल, श्री प्रयाग दत्त भट्ट और श्री नारायण पाल पूर्व विधायक ने संरक्षक के रूप में इस चैप्टर से जुड़ने का फैसला लिया है। श्री आनंद रावत ने संयोजक के पद पर कार्य करने की सहमति दी है। मैंने आनंद रावत को सुझाव दिया है कि एक महिला यदि स्वीकृति दें तो श्रीमती लता कुंजवाल, श्री बिट्टू कर्नाटक और श्री ललित कुमार आर्या को सहसंयोजक के रूप में काफल चैप्टर से जोड़ें। धीरे-धीरे इस प्रयास को और नीचे के स्तर तक ले जाएं। यदि संभव हुआ तो, इस लेख के प्रकाशन तक मैं काफल चैप्टर के गढ़वाल पार्ट का भी गठन कर लूंगा। मुझे यह सुनकर अच्छा लगा कि लोग काफल एक सोच और सम्बद्ध चैप्टर के विषय में जानना चाहते हैं। मैं दिल्ली में काफल के प्रवासी चैप्टर और हरिद्वार में आध्यात्मिक चैप्टर का भी गठन करूंगा। अभी इस कार्य में समय लगेगा
का फल शब्द का उच्चारण मात्र ही उत्तराखण्डी व्यक्ति के मन में रस द्घोल देता है। ”बेड़ू पाको बारहमासा, काफल पाको चैता” कालजयी गीत की धुनें आज भी हमारे मन व पांवों में थिरकन पैदा कर देती हैं। काफल चैत-बैसाख के माह में पकने वाला छोटा, मगर स्वादभरा फल है। ऊंचे जंगलों में यह मई अंत तक एवं थोड़े नीचे के हिस्सों में अप्रैल में पक जाता है। स्वाद और औषधिगुणों युक्त यह फल सर्वहारा वर्ग का फल है। इस फल पर सबका अधिकार है। कुछ लोग अपने खेतों में उग आए काफल के वृक्ष के फलों का विक्रय करते हैं। कुछ लोग जंगल से लाकर उत्तराखण्ड के छोटे बाजरों से लेकर नामचीन शहरों तक इस फल को बेचते हैं और ठीक- ठाक आमदनी कर लेते हैं। मेरे नैनीहाल में भी कुछ बड़े-बड़े काफल के पेड़ थे और हमारे गांव में भूमियां मंदिर का काफल का बड़ा वृक्ष बहुत प्रसिद्ध था। हमारे गांव के सामने बग्डवार गांव में बहुत से काफल के वृक्ष थे, मैंने काफल तोड़ना यहीं से सीखा। हमारे गांव की टोली के एक-दो बच्चे पहले चुपके से जाकर पेड़ की एकाध शाखा को हिला देते थे या पत्थर मारकर काफल झाड़ लेते थे। फिर उन्हें बीन-बीन कर हम बंदरों की तरह खाते थे। बग्डवार वाले खूब हल्ला मचाते थे, मगर हम अपनी करनी कर ही लेते थे। वे दिन अच्छे थे, इन कारस्तानियों को बालकपन की नादानी समझा जाता था। जरा बड़े हुए तो हमारी काफल पार्टी के नेता मोहन चाचा लोग हो गए। दोनों दिल्ली और गाजियाबाद में बड़ी नौकरियों पर थे। हर साल हफ्ते-दस दिन की छुट्टी लेकर काफल खाने गांव आते थे। आस-पास के गांवों में काफल पकते ही, मैं उन्हें टूटी-फूटी चिट्ठी भेज देता था। बड़ा मजा आता था। आज भी काफल से जुड़ी रोमांचक यादें मन को गुद-गुदा देती हैं। हमारे गांव की जो लड़कियां ऐसे गांवों में व्याही थी, जहां काफल नहीं होते हैं, वहां हमारे गांव से उन गांवों में काफल की छापड़िया (छोटी टोकरी) जाती थी। व्याहाता लड़की के लिए यह चैतोले का पार्ट होता था। काफल के बहाने हमारे गांव की दीदियां एवं जीजाजी लोग चैत के महीने में हमारे गांव आ जाते थे, बड़ा अच्छा लगता था। उत्तराखण्ड का काफल के साथ बड़ा ही रोमांटिक संबंध है। मेरा मानना है, काफल हमारी प्राकूतिक एवं सांस्कूतिक पहचान है। बड़ा सरल, भोला सा, सर्वशुलभ पहचान है। मुख्यमंत्री के रूप में, मैंने काफल और बुरांश पार्कों (जंगलों) को विकसित करने के निर्देश दिए। काफल, बुरांश और उनके सहवर्ती जंगली वृक्षों के पौधालय तैयार करने को कहा। मुझे उम्मीद है, भविष्य में बुरांशखंडा (धनौल्टी), सौनी (रानीखेत), चोपता (रुद्रप्रयाग), दलमोड़ी (रानीखेत), बनलेख (चंपावत) सहित दर्जनों स्थानों में द्घने बुरांश और काफल के जंगल नजर आएंगे। वन विभाग को इस मुहिम को बढ़- चढ़कर आगे बढ़ाना चाहिए। मेहल, बेड़ू, द्घिंद्घारू, किलमोड़ा, हिसांलू सहित जंगली बेरियों के रोपण को आगे बढ़ाकर उत्तराखण्ड के जंगलों को ५०-६० वर्ष पूर्व के स्वरूप में लाना चाहिए। मैंने वन विभाग को जंगलों में कांठी आम, आंवला, हरड़ आदि के साथ मडुवा, झुंगरा आदि के बीज छिटकने का भी आदेश दिया था। जगंलों से जुड़ी जंगली जानवरों की समस्या का आधा समाधान इस निर्देश से जुड़ा हुआ है। विखरती हुई उत्तराखण्डियत को फिर से संवारने के लिए हमारे लिए अपनी सोच और पहलों को काफल के इर्द-गिर्द जोड़ने की आवश्यकता है। चुनावों में पराजय के बाद मैंने अपने लिए एक दर्जन कार्यक्षेत्र छांटे। उनमें काफल एक सोच को आगे बढ़ाने का कार्यक्षेत्र भी है। उत्तराखण्डी जनजीवन एक गहन गूढ़ विषय है। मैंने इसके कुछ सरलतम पक्षों से अपने को जोड़ने का निर्णय लिया है। इसे काफल चैप्टर का सामूहिक नाम दिया है। अभी इसी माह मैंने हल्द्वानी में उत्तराखण्ड काफल चैप्टर के कुमांऊ पार्ट का विधिवत गठन किया है। मुझे खुशी है, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, श्री गोविंद सिंह कुंजवाल, श्री प्रयाग दत्त भट्ट और श्री नारायण पाल, पूर्व विधायक ने संरक्षक के रूप में इस चैप्टर से जुड़ने का फैसला लिया है। श्री आनंद रावत ने संयोजक के पद पर कार्य करने की सहमति दी है। मैंने आनंद रावत को सुझाव दिया है कि, एक महिला यदि स्वीकूति दें तो श्रीमती लता कुंजवाल, श्री बिट्टू कर्नाटक और श्री ललित कुमार आर्या को सहसंयोजक के रूप में काफल चैप्टर से जोड़ें। धीरे-धीरे इस प्रयास को और नीचे के स्तर तक ले जाएं। यदि संभव हुआ तो, इस लेख के प्रकाशन तक मैं काफल चैप्टर के गढ़वाल पार्ट का भी गठन कर लूंगा। मुझे यह सुनकर अच्छा लगा कि लोग काफल एक सोच और सम्बद्ध चैप्टर के विषय में जानना चाहते हैं। मैं दिल्ली में काफल के प्रवासी चैप्टर और हरिद्वार में आध्यात्मिक चैप्टर का भी गठन करूंगा। अभी इस कार्य में समय लगेगा। मैंने बड़े लक्ष्य नहीं रखे हैं। सबसे सरल कार्य है, अपने जीवन से जुड़े पक्षों को संरक्षित, प्रचारित और प्रोत्साहित करना। अखरोट, चूलू (चुवांरू), नींबू, तिमरू, तेज पत्ता, फयों (पदम), करी पत्ता जैसे सहज उपलब्ध, बिना अधिक परिश्रम किए उगने एवं बढ़ने वाले वृक्षों के वृक्षा रोपण को प्रमोट करना बहुत सरल है। मैंने टेस्ट केस के रूप में कुछ स्थानों पर चूलू, पर्वतीय पकवान, काफल तथा नींबू पार्टियां रखी। लोगों को आईडिया पंसद आया। मेरा मानना है, हम सब उत्तराखण्डी मिलकर नींबू की खपत को दस गुना बढ़ा सकते हैं। हमारा इतना करने मात्र से तीन लाख उत्तराखण्डी परिवारों की वार्षिक आमदनी में १५ हजार रुपया तक की वार्षिक वृद्धि हो सकती है। न सुअर, न बानर का डर, ३ साल में फल देने वाला नींबू उत्तराखण्ड में पीत क्रांति ला सकता है। दस अखरोट, दस चूलू के पेड़ चार साल के बाद प्रतिवर्ष प्रति परिवार १५ हजार रुपए से अधिक की आय दे सकते हैं। हमारे प्रवासी उत्तराखण्डियों का एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग है। मैं आजकल इनके मध्य जाकर उत्तराखण्डी उत्पादों और खाद्य पदार्थों की जागर लगा रहा हूं। मैंने मुख्यमंत्री के रूप में थोड़ा प्रयास किया। परिणामस्वरूप आज मडुवा, झुंगरा, कौंणी, मारसा (चुआ), गहत, भट्ट आदि उत्तराखण्डी उत्पाद लाभकारी और पौष्टिक अन्न के रूप में चर्चित हो गए हैं। उत्पादक और विक्रेता (अधिकांश मामलों में महिला स्वयं सहायता समूह) को बिक्री से अच्छी आय हो रही है। वर्ष २०१६ में मडुवा बुआई क्षेत्र में दस प्रतिशत की वृद्धि होना उत्साहवर्धक लक्षण हैं। मैं इस बिंदु पर पृथक से भी लिखना चाहूंगा। इस वक्त इतना कहना चाहूंगा कि यदि दस हजार उत्तराखण्डी इस नजरिए के प्रचार-प्रसार में जुट जाएं तो हमें किसी पलायन आयोग की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हमारी खेती से ही पलायन का समाधान निकल आएगा। आज देश भर में जगह-जगह पर्वतीय उत्पादों के बिक्री केंद्र एवं होटल, ढाबे खुले हैं। इन्हें देखना बहुत खुशनुमा लगता है। हमने पहले शिल्पकार छोड़ा या शिल्प, यह बड़ा विषय है, इस पर भी मंथन होना चाहिए और मंथन होगा। इस समय मैं केवल एक सवाल अपने आपसे कर रहा हूं। तीन वर्ष मुख्यमंत्री रहने के बाद भी मैं अपने किसी एक शिल्प को उत्तराखण्डी पहचान (इस समय उल्लेख के लिए सोविनिर) के रूप में स्थापित नहीं कर पाया। मेरी सरकार ने कई दिशाओं में इस क्षेत्र में प्रयास किए। मेरे मन में एक तड़प है, शिल्पियों का उत्तराखण्ड अपनी शिल्पी पहचान को भूल गया है। कहां से निकलेगा बेरोजगारी का समाधान। दुनियां आज क्राफ्ट्स की ओर जा रही है, हम भूल रहे हैं। मैंने गरूड़ाबाज (अल्मोड़ा) में एक महान शिल्पी के नाम पर शिल्प उन्नयन संस्थान खोला। वर्तमान सरकार उसके लिए बजट नहीं जुटा रही है। मैंने प्रत्येक सरकारी निर्णय में दस से बीस प्रतिशत तक पर्वतीय भवन शैली में निमार्ण कार्य अनिवार्य किया, उसे भुला दिया गया है। रेसे एवं रेसा शिल्प हमारी शक्ति एवं गुण है। भीमल, रामबांस, बांस, कडांली द्घास, भागुला, स्वाभाविक रेशा धारक पौध या वृक्ष हैं। मैंने इनके रेसों की सरकारी खरीद और उत्पाद संर्वधन की योजना को प्रारंभ किया। उत्तराखण्ड में नारा लग गया ”आप खावें मुर्गा-अंडा, हमें देवें भांग-धतुरा”, जबकि रेशा क्षेत्र में बड़ी संभावना को देखते हुए राजनेताओं को इन पौंधों से जुड़ी भ्रांतियों को तोड़ने के लिए आगे आना चाहिए था। यदि इस क्षेत्र में मेरी सरकार में प्रारंभ की गई पहलें आगे बढ़ सकी तो उत्तराखण्ड में कोई परिवार अगले पांच वर्ष में गरीबी की रेखा से नीचे नहीं रहेगा। ये सभी सर्वशुलभ प्राकूतिक उत्पाद हैं, हमारी जलवायु इन उत्पादों के सर्वधा अनुकूल है। हम इनके संगठित फायदे से वंचित हैं। मैंने सुप्रसिद्ध शुभंकर ”एपण” के नाम से हिमालयी संस्कूति के आभूषणों, वस्त्रों आदि को लेकर एक परिषद का गठन किया। इस परिषद के अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए मुझे कई लोगों से अनुरोध करना पड़ा। लोगों को मेरा प्रस्ताव पसंद नहीं आता था। अंततः एपण परिषद गठित हुई जो अब भंग हो गई है। आज हजारों बहनें एपण के व्यवसाय से जुड़ गई हैं। छोटे से सरकारी प्रयास ने अपना रंग दिखाया, आज एपण देश से बाहर भी भेजा जा रहा है। उत्तराखण्ड का पिछोड़ा, द्घागरा, पेटी अद्भुत सौंदर्य वर्धक वस्त्र हैं। उत्तराखण्डी जेवर गुलुबंद, पहुंचिए, बुलांग, नथ, कर्णफल अद्भुत कारीगरी का नमूना है। इन जेवरों एवं वस्त्रों को पहनकर कितनी सुंदर और ममतामई लगती थी, मेरी मां। उसकी कल्पना मात्र मुझे वर्षों पीछे मेरे बचपन में पहुंचा देती है। कोई तुलना नहीं है, आधुनिक मॉल्स में बिकते आभूषणों से हमारी इन पहचानों की। हमें ही अपने हुनर को पहचान कर संगठित तौर पर उसका प्रचार- प्रसार और संवर्धन करना पड़ेगा। इसलिए मैंने काफल एक सोच के साथ काफल चैप्टर का गठन किया है। अपनी शक्ति एवं उम्र का शेष भाग इस अभियान को आगे बढ़ाने में लगाना चाहता हूं। आइए साथ दीजिएगा।