उत्तराखण्ड में नौकरशाही के बेलगाम होने की खबरें हमेशा मीडिया की सुर्खियों में रही हैं। सरकार चाहे जिस भी पार्टी की रही हो। उत्तराखण्ड की नौकरशाही न तो कभी बदली है और न ही उसे कोई बदल सका है। अपनी मनमर्जी और विभागीय मंत्रियों को बायपास करने की कार्यशैली प्रदेश के नौकरशाही पर लगती रही है। लेकिन अब तो हालात यह हैं कि मुख्यमंत्री तक को बायपास किए जाने के मामले सामने आ रहे हैं।
ताजा मामला वन विभाग में थोक के भाव स्थानांतरण देखने को मिल रहा है। प्रमुख सचिव वन आनंद वर्धन द्वारा 7 जुलाई को वन विभाग के 37 अधिकारियां के स्थानांतरण किए गए। हैरानी की बात यह है कि इन स्थानांतरण में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और वन मंत्री हरक सिंह रावत से महज 26 ही अधिकारियों के स्थानांतरण का अनुमोदन लिया गया। जबकि इस अनुमोदन की आड़ में 37 अधिकारियों का स्थानांतरण कर दिया गया। मामला सामने आने के बाद मुख्यमंत्री और वन मंत्री हरक सिंह रावत खासे नाराज हुए औेर बगैर अनुमोदन के स्थानांतरित किए गए सभी अन्य 11 अधिकारियों के स्थानांतरण को रद्द कर दिया गया।
वन विभाग में हुए स्थानांतरण के मामले में जिस तरह का काम किया गया वह साफ तौर पर मुख्यमंत्री और वन मंत्री को बायपास करने का प्रयास दिखाई दे रहा है जिसमें विभाय अधिकारी कुछ समय के लिए सफल भी हो गए। इस पूरे मामले को देखें तो त्रिवेंद्र सिंह रावत और हरक सिंह रावत से महज 26 ही अधिकारियों, जिसमें प्रमुख वन संरक्षक, अपर वन संरक्षक और मुख्य वन संरक्षक तथा वन सरंक्षक स्तर के अधिकारी शामिल हैं, के ही स्थानांतरण का अनुमोदन यानी स्वीकृति ली गई। लेकिन इस अनुमोदन की आड़ में 11 उपवन संरक्षक पदों पर तैनात अधिकारियों का भी स्थानांतरण कर दिया गया।
स्थानांतरण का अदेश सामने आते ही विवाद आरम्भ होने लगा। वन विभाग के सूत्रों की मानें तो इनमें कई अधिकारियों के स्थानांतरण पर स्वयं वन विभाग के ही उच्चाधिकारियों की आपत्ति थी। चर्चा है कि स्वयं मुख्यमंत्री के सामने स्थानांतरण का आदेश आया तो वे भी हैरान हुए और इस बारे में उन्होंने वन मंत्री हरक सिंह रावत से बात की तो मामला साफ हो गया कि 11 अधिकारियों के स्थानांतरण का न तो वन मंत्री ओैर न ही मुख्यमंत्री से किसी प्रकार की स्वीकृति ली गई। शासन स्तर से 26 अधिकारियों के स्थानांतरण के अनुमोदन की आड़ में ही अन्य 11 उपवन संरक्षकां का भी स्थानांतरण कर दिया गया। इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि 26 के साथ-साथ 11 को भी बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर दिया गया। हालांकि मुख्यमंत्री ने इस पर कड़ा रुख अपनाया जिसके चलते महज दो दिन के बाद 9 जुलाई को सभी 11 उपवन संरक्षक पदों पर किए गए स्थानांतरण को रद्द करने का आदेश प्रमुख सचिव वन आनंद वर्धन द्वारा जारी कर दिया गया।
हैरत की बात यह है कि कुछ ही दिन पूर्व मुख्यमंत्री ने प्रदेश की अफसरशाही को चेतावनी देते हुए कहा था कि अफसर चाहे कितने भी बड़े हो जाएं, लेकिन जनप्रतिनिधियों से बड़े नहीं हो सकते। उनको जनप्रतिनिधियों का सम्मान करना ही होगा। इस बयान के तुरंत बाद प्रदेश के मुख्य सचिव ने भी पूरे प्रदेश के जिला स्तर और शासन स्तर के अलावा सभी सरकारी कार्यालयों के अध्यक्षों को एक पत्र जारी किया जिसमें विधायकों और सांसदों के सम्मान करने के लिए तमाम तरह की सलाह जारी की गई।
मुख्य सचिव द्वारा जारी की गई सलाह के तुरंत बाद ही सरकार के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने प्रदेश के अधिकारियों की कार्यशैली पर कड़ा बयान देते हुए इसकी शिकायत केंद्र सरकार को करने की बात कही। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि प्रदेश की नौकरशाही को कितना भी सलाह या गाइड लाइन जारी की जाए उनकी कार्यशैली न कभी बदली है औेर न बदलने वाली है।
जानकारों की मानें तो नौकरशाही को इस तरह के काम करने के लिए अधिकतर राज्य सरकारों द्वारा एक तरह से खुली छूट दी जाती रही है। इसके बाद भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला रहा है। करोना संकट के चलते पूरे प्रदेश में स्थानांतरण शून्य सत्र किया गया है। राज्य सरकार ने साफ तौर पर निर्देश जारी किया है कि प्रदेश में इस वर्ष कोई स्थानांतरण नहीं किया जाए। लेकिन कई विभागों में स्थानांतरण किए जा रहे हैं। इस मामले में भी 26 अधिकारियों के स्थानांतरण के लिए स्वयं मुख्यमंत्री ने ही अनुमोदन किया था। ऐसे ही अन्य विभागों में किया गया है। यहां तक कि पशुपालन राज्य मंत्री रेखा आर्य ने दो अधिकारियों का स्थानांतरण एटैचमेंट के तहत किया जिसमें एक अधिकारी पर कई तरह के भ्रष्टाचार और अनियमितता के विभागीय आरोप लग चुके हैं बावजूद इसके उसी अधिकारी को चमोली जिले से हरिद्वार स्थानांतरण कर दिया गया।