नैनीझील में रोजाना 16 लाख लीटर पानी कम हो रहा है और एक इंच की गिरावट दर्ज की जा रही है। यही हाल रहा तो मई अंत तक इसमें डेल्टा नजर आने लगेंगे। ऐसा होता है तो नैनीताल में पेयजल की बड़ी किल्लत पैदा हो सकती है। नैनीझील से अधिकतर पानी नैनीताल के होटलों को सप्लाई होता है। यही हाल भीमताल झील का भी है। कभी इस झील का क्षेत्रफल 60 हेक्टेयर था। वर्ष 1984 में यह घटकर 46.26 हेक्टेयर रह गया। वर्ष 1871 में इस झील की गहराई 39 मीटर थी जो 1975 में घटकर 22 मीटर रह गई। पिछले 100 सालों में झील का स्तर 12 मीटर घट गया
झीलों को पृथ्वी की आंख कहा जाता है। अब इन्हीं आंखों की रोशनी धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही है। पूरे देश में इस समय 2700 प्राकृतिक एवं 65 हजार मानव निर्मित छोटी- मोटी झीलें हैं। ये सभी कहीं न कहीं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। इन्हीं में से एक है नैनीताल जिले की नैनी झील। झील विशेषज्ञों के अनुसार नैनीझील में रोजाना 16 लाख लीटर पानी कम हो रहा है और एक इंच की गिरावट दर्ज की जा रही है। यही हाल रहा तो मई अंत तक इसमें डेल्टा नजर आने लगेंगे। ऐसा होता है तो नैनीताल में पेयजल की बड़ी किल्लत पैदा हो सकती है। नैनीझील से अधिकतर पानी नैनीताल के होटलों को सप्लाई होता है। झील से रोजाना आठ मिलियन लीटर (एमएलडी) पानी लिया जाता है। वर्ष 2016 व 2017 में भी यहां डेल्टा नजर आए थे। वर्ष 2017 में पानी कम होने से मछलियों की भी मौत हो गई थी।
विशेषज्ञ नैनीताल के सूखने के पीछे झीलों को भरने वाले स्रोतों का सूखना मानते हैं। इसके अलावा जमीन से रिसने वाले जल में कमी आना भी एक कारण है। झील नियंत्रण केंद्र के अनुसार नैनी झील का स्तर वर्ष 1923, 1980, 2002, 2004 व 2006 में अपने निचले स्तर पहुंच गया था तो वर्ष 2009, 2011, 2016, 2017 में यह सूखने के कगार पर पहुंच गई थी। 2014 में झील का स्तर शून्य पर पहुंच गया था। इसके अलावा समय- समय पर झील के डांठ (डिस्चार्ज) गेट में भी दरारें आती रही है। यह हाल उस नैनीताल का है जिसे कभी झीलों के कारण ‘छः खता’ भी कहते थे। इसका अर्थ होता था 60 झीलों वाला क्षेत्र। अब यहां झीलों की संख्या अंगुलियों में गिनी जा सकती है। खुर्पाताल, नौकुचियाताल, सातताल, भीमताल के आस-पास के जलागम क्षेत्र जो झीलों को रिचार्ज करते हैं वहां निर्माण कार्यों के चलते झीलों की सेहत पर विपरीत असर पड़ा है। अकेले सातताल की सात झीलों में से अब चार ही शेष रह गई हैं। नैनीताल के स्थानीय निवासी गगन पांडे कहते हैं कि अब ‘हिमालय बचाओ, नदी बचाओ की तरह झील बचाओ आंदोलन चलाने की जरूरत है। इसके अलावा स्थानीय निवासियों के साथ ही पर्यटकों को भी झीलों के बारे में संवेदनशील करने की जरूरत है।’
यही हाल भीमताल झील का भी है। कभी इस झील का क्षेत्रफल 60 हेक्टेयर था। वर्ष 1984 में यह घटकर 46.26 हेक्टेयर रह गया। वर्ष 1871 में इस झील की गहराई 39 मीटर थी जो 1975 में घटकर 22 मीटर रह गई। पिछले 100 सालों में झील का स्तर 12 मीटर घट गया। विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इस झील की जलीय जैव विविधता भी खतरे में है। यहां महाशीर मछली के साथ ही जलीय जंतुओं व वनस्पतियों की तादाद भी लगातार विलुप्त हो रही है। बीते वर्षों में झील के आस-पास बहुतायत मात्रा में भवनों का निर्माण हुआ है। अब भीमताल का जल स्तर तेजी से गिर रहा है। इससे पेयजल व सिंचाई के पानी में भी कमी आ रही है।
इसके अलावा भीमताल झील के टापू पर बने एक्वेरियम की संपूर्ण व्यवस्थाओं को अब निजी हाथों में सौंपने की चर्चा भी चलती रही है। समुचित रख-रखाब के अभाव में एक्वेरियम की व्यवस्थाएं लगभग चौपट हो चुकी हैं। अभी तक दिल्ली के एक कंपनी इस एक्वेरियम की देखभाल कर रही थी। भीमताल झील के टापू में दुर्लभ मछलियों की दुनिया थी। देश-विदेश से पर्यटक यहां आते थे। वर्ष 1998 में यह एक्वेरियम स्थापित किया गया था। उस समय यहां पर 33 टैंकों में 70 प्रजाति की लगभग 500 मछलियां थी। लेकिन समुचित रख-रखाव के अभाव में मछलियां धीरे-धीरे मरती गई। अब 14 टैंक खाली हो गए हैं। अब झील विकास प्राधिकरण इसके सुंदर अतीत को लौटाने में जुटा हुआ है।
विशेषज्ञों के अनुसार झीलों के आस-पास अतिक्रमण का बढ़ना, झीलों का घटना, झीलों की जलधारण क्षमता कम होना, अवशिष्ट का झीलों में समाना, झीलों में तेजी से गाद भरना, झीलों के आस-पास के जलागम क्षेत्रों में निर्माण कार्यों का होना इनकी उम्र को प्रभावित कर रहा है। आज नैनीताल एवं भीमताल ही नहीं पूरी दुनिया में झीलें कचरे व प्रदूषण की मार से सिकुड़ रही हैं। झीलों के किनारे होटल व रिसोर्ट बन रहे हैं, इनकी गंदगी झील में समाती है। झीलों के आस-पास भूमि कटाव व जंगलों के कम होने से भी झील प्रभावित हुई हैं। झीलों के पानी में आक्सीजन की मात्रा भी लगातार कम हो रही है। भूमिगत जल स्रातों के सूखने से भी झीलें सूखने की तरफ हैं। भूमिगत जल स्रोतों से पानी का रिसाव झील में होता है। कई स्रोत आस-पास भवन निर्माण के चलते बंद हो गए हैं। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर वर्षा में कमी, भूस्खलन, ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव भी झीलों को प्रभावित कर रहे हैं।
दूसरी तरफ ग्लेशियर झीलें भी खतरे का कारण बन रही हैं। स्टेट काउंसिल फार साइंस टेक्नोलॉजी के अनुसार प्रदेश में 249 ग्लेशियर झीलों में से 11 झीलें बाढ़ लाने में सक्षम हैं। ग्लेशियर से बनने वाली झीलों के टूटने का खतरा हमेशा बना रहता है। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तराखंड में 40 ग्लेशियर झीलों से खतरा है। वर्ष 2020 में आई नासा की एक शोध रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1990 से वर्ष 2018 के दौरान ग्लेशियर झीलों में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों का दायरा भी बढ़ जाता है। इससे निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। वर्ष 2020 में चीन के शोधकर्ताओं ने तिब्बत की 654 ग्लेशियर झीलों में से 246 झीलों को डेंजर जोन में रखा है। वहीं वाडिया भूगर्भ संस्थान लंबे समय से ग्लेशियरों के खिसकने से बनने वाली झीलों पर अध्ययन कर रहा है। अभी तक उसने सेटेलाइट इमेजरी के माध्यम से 1265 झीलें चिÐत की हैं।
वाडिया इंस्टीट्यूट द्वारा तैयार किए डेटाबेस के अनुसार ग्लेशियर खिसकने के बाद तीन तरह की झीलें बनती हैं। पहला मोरन (हीमोल) झील जो मलवा रुकने से बनती है। इनकी संख्या 336 है। दूसरा, ग्लेशियर के उपर बनने वाली आइस झील, इनकी संख्या 800 है। तीसरा, ग्लेशियर कटान से बनने वाली सर्क झील इनकी संख्या प्रदेश में 120 के आस-पास है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के हिमनद विशेषज्ञ डॉ डीपी डोभाल के अनुसार प्रदेश में 968 झीलें एवं 1253 ग्लेशियर झीलें हैं। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि इस वक्त उत्तराखंड में 40 ग्लेशियर झीलें खतरनाक स्थिति में हैं। उनका यह भी मानना है कि झील फटने के बाद आपदा की तबाही पर नियंत्रण मुश्किल हो जाता है। वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई तबाही के पीछे चोराबाड़ी झील का टूटना माना गया था।
बात अपनी-अपनी
नैनी झील का 50 प्रतिशत पानी सूखाताल के भूमिगत जल रिसाव पर निर्भर है। सूखाताल के आसपास निर्माण कार्य के साथ ही नालों की दिशा भी बदल दी गई। शहर के अधिकतर कच्चे मार्ग अब पक्के हो चुके हैं। ऐसे में बारिश का पानी का रिसाव जमीन में नहीं हो पा रहा। झील के जलागम क्षेत्र के 60 प्राकृतिक स्रोतों में से आधे सूख गए हैं, जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा घट गई है। इसके अलावा कैचमेंट एरिया में बढ़ता अतिक्रमण झील में गिरने वाले नालों को पाटने के कारण स्थिति विकट हो गई है। इस पर सरकार को गंभीरता से काम करना होगा। अगर इस पर सरकार ने अनदेखी की तो एक दिन ऐसा आएगा जब नैनीताल के सैलानी सूखी झील के ही दर्शन कर पा सकेंगे।
प्रो. अजय रावत, पर्यावरणविद् एवं संरक्षक नैनीताल बचाओ अभियान
जलागम क्षेत्र भूमिगत पानी को रिचार्ज करते हैं। इसके आस-पास निर्माण कार्यों पर रोक लगनी चाहिए। झीलों के जलागम क्षेत्रों में निर्माण कार्यों का होना गंभीर मामला है।
डॉ. बहादुर सिंह कोटलिया, वरिष्ठ भू वैज्ञानिक
झीलों के आस-पास की जैव विविधता से छेड़छाड़ इसका बड़ा कारण है। पहाड़ का पानी नालों के रास्ते झील में नहीं जा पा रहा है। जंगलों में पेड़ों की तमाम प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। बांज के जंगल खत्म हो रहे हैं जो झीलों के जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। आस-पास बढ़ती आबादी, पर्यटकों का दबाव भी झील को नुकसान पहुंचा रहा है।
विनोद पाण्डे, पर्यावरणविद्