अजीब बात है कि प्रदेश में पिछले सात वर्षों से लोकायुक्त नहीं है। लेकिन इस दौरान लोकायुक्त कार्यालय के नाम पर 13 करोड़ 38 लाख रुपए की भारी-भरकम रकम खर्च की जा चुकी है। इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि लोकायुक्त कार्यालय मंे सैकड़ों शिकायतें अपने निपटारे का इंतजार कर रही हैं। भ्रष्टाचार पर जीरो टाॅलरेंस और 100 दिनों के भीतर ही लोकायुक्त कानून देने का दावा करने वाली भाजपा सरकार 1460 दिन बाद भी लोकायुक्त नहीं नियुक्त कर पाई है
उत्तराखण्ड में त्रिवेंद्र सिंह रावत चार साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे। सत्ता संभालते ही त्रिवेंद्र ने भ्रष्टाचार मुक्त और पारदर्शी सरकार देने का वादा किया था। अपने वादे को मूर्त रूप देने के लिए सौ दिनों के भीतर प्रदेश को नया लोकायुक्त कानून देने का दावा किया और विधानसभा में लोकायुक्त कानून भी पास करवा दिया। हैरानी इस बात की रही कि सदन में विपक्ष के पूर्ण समर्थन के बावजूद प्रचंड बहुमत की सरकार ने अचानक ही पलटी मारी और लोकायुक्त कानून को प्रवर समिति को भेज दिया जहां यह दम तोड़ रहा है, जबकि सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही करने और जीरो टाॅलरेंस की नीति का बढ़-चढ़कर बखान करती रही।
सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी भी खासी दिलचस्प है। प्रदेश में विगत सात साल से लोकायुक्त का पद रिक्त होने के बावजूद लोकायुक्त के नाम पर सरकारी खजाने को लुटाया गया जिससे मार्च 2020 तक लोकायुक्त कार्यालय में वेतन, खर्च स्टाफ और जलपान आदि के नाम पर 13 करोड़ 38 लाख की बड़ी रकम खर्च की जा चुकी है। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि इन 7 वर्षों में लोकायुक्त कार्यालय को 904 शिकायतंे प्राप्त हो चुकी हैं, जबकि इससे पूर्व सैकड़ों शिकायतें लंबित हैं। इस तरह से लोकायुक्त कार्यालय में 1543 मामले लंबित हैं।
काशीपुर के अधिवक्ता नदीमउद्दीन सिद्दीकी को आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार 24 दिसंबर 2013 से राज्य में लोकायुक्त का पद रिक्त है। लेकिन लोकायुक्त कार्यालय में खर्च नियमित हो रहा है। प्रति वर्ष लाखों रुपए सरकारी खजाने से लुटाए जा रहे हैं। जानकारी के अनुसार वर्ष 2013-14 में 1 करोड़ 62 लाख 5 हजार 88 रुपए, वर्ष 2014-15 में 1 करोड़ 45 लाख 14 हजार 541 रुपए, वर्ष 2015-16 में 1 करोड़ 33 लाख 52 हजार 175 रुपए लोकायुक्त कार्यालय पर खर्च किए गए हैं।
इसी तरह से वर्ष 2016- 17 में 1 करोड़ 76 लाख 89 हजार 69 रुपये तथा वर्ष 2017- 18 में 1 करोड़ 88 लाख 29 हजार 479 रुपये सरकारी खजाने से लुटाए गये हैं। गौर करने वाली बात यह है कि वर्ष 2017 मार्च से प्रदेश में भाजपा की प्रंचड बहुमत की सरकार सत्ता में काबिज हुई और त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनने के साथ ही प्रदेश में सौ दिनों में लोकायुक्त कानून लाने का वादा उन्होंने किया और सदन मंे लोकायुक्त कानून को भी पास किया गया। लेकिन न तो राज्य को लोकायुक्त कानून मिल पाया और न ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत अस्त्र। लेकिन सरकारी खजाने से लाखों रुपये लोकायुक्त के नाम पर अनवरत लुटाए जाते रहे। वर्ष 2018-19 में भी खर्च होता रहा जिसमें 2 करोड़ 13 लाख 46 हजार 374 रुपए और 2019-20 में 2 करोड़ 9 लाख 51 हजार 453 रुपए तथा वर्ष 2020-21 में सितंबर तक 1 करोड़ 10 लाख 2 हजार 624 रुपए खर्च किए गए हैं।
सूचना में प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष 2019-20 में खर्च की गई धनराशि में 1 करोड़ 59 लाख 49 हजार 208 रुपए तो वेतन आदि पर खर्च किए गए हैं। 34 हजार 60 रुपए मजदूरी के नाम पर एवं 28 लाख 17 हजार 295 रुपए मंहगाई भत्ते पर लुटाए गए हैं। यही नहीं 65 हजार 842 रुपए स्थानंातरण यात्रा व्यय पर खर्च किए गए तो 6 लाख 43 हजार 635 रुपए अन्य भत्ते एवं 29 लाख 9 हजार 913 रुपए कार्यालय व्यय पर खर्च किए गए हैं।
इसी तरह से 1 लाख 28 हजार 714 रुपए विद्युत व्यय, 3 हजार 956 रुपए लेखन सामग्री और फार्मा की छपाई आदि एवं 49 हजार 324 रुपए कार्यालय फर्नीचर एवं उपकरण और 81 हजार 595 रुपए टेलीफोन आदि पर खर्च किए गए हैं। लोकायुक्त न होने के बावजूद लोकायुक्त कार्यालय में शाही ठाटबाट की कोई कमी नहीं रही है। सूचना में दी गई जानकारी की मानें तो वर्ष 2019-20 यानी एक ही वित्तीय वर्ष में लोकायुक्त कार्यालय के वाहनों का रख-रखाव और अनुरक्षण और पेट्रोल ईंधन आदि पर ही 1 लाख 73 हजार 528 रुपये खर्च किये गए हैं, जबकि 60 हजार व्यावसायिक सेवाओें के लिए भुगतान किए गए हैं। यही नहीं कर्मचारियों और अधिकारियों के चिकित्सा प्रतिपूर्ति के लिए 3 लाख 97 हजार 339 रुपए खर्च किए गए है। इसके साथ ही 1 लाख 92 हजार 10 रुपए अनुरक्षण और 55 हजार 34 रुपए कम्पयूटर के अनुरक्षण और कम्पयूटर से संबंधित स्टेशनरी पर खर्च किए गए हैं।
सूचना से प्राप्त जानकारी की मानें तो इन 7 वर्षों में 13 करोड़ 38 लाख 89 हजार 333 रुपए लोकायुक्त कार्यालय पर सरकारी खजाने से खर्च किए गए हंै, जबकि इन सात वर्षों में सत्ता पर काबिज रही दो-दो सरकारें लोकायुक्त की खाली पड़ी कुर्सी के लिए जरा भी चिंतित नहीं हुई।
अब इन सात वर्षों में लोकायुक्त कार्यालय को मिली शिकायतों की बात करें तो 24 दिसंबर 2013 तक लोकायुक्त कार्यालय को 566 शिकायतें और 73 अभिकथन यानी भ्रष्टाचार की गंभीर शिकायतें मिली जो कि आज तक लंबित ही हैं। इसके अलावा इन सात वर्षों में 904 शिकायतें भी लोकायुक्त कार्यालय को प्राप्त हो चुकी हैं। इस तरह से अभी तक लोकायुक्त कार्यालय को 1546 शिकायतें मिल चुकी हैं जिसमें 1470 शिकायतें हैं और 74 अभिकथन हैं। हैरानी इस बात की है कि सैकड़ों शिकायतें कार्यालय को मिल चुकी हैं, लेकिन इनका निपटारा महज इसलिए नहीं हो पा रहा है कि राज्य में लोकायुक्त का पद सात वर्षों से रिक्त पड़ा हुआ है।
सरकार के इस तरह से किए गए धोखे से आम जनमानस में खासा रोष बना हुआ है। उत्तराखण्ड क्रांतिदल ने लोकायुक्त के मामले पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। उक्रांद के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी एवं वरिष्ठ पत्रकार और उक्रांद के युवा नेता शिव प्रसाद सेमवाल अपने दर्जनों कार्यकर्ताओं के साथ लोकायुक्त कार्यालय में प्रदर्शन करते हुए कार्यालय के गेट पर ताला डाल कर अपना रोष व्यक्त कर चुके हैं। उक्रांद ने सरकार को चेताते हुए कहा है कि अगर सरकार जल्द ही लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं करती है तो उक्रांद प्रदेश भर में आंदोलन करेगा।
यूं हिचकौले खाता रहा लोकपाल
उत्तराखण्ड के बीस वर्षों के राजनीतिक इतिहास को देखें तो लोकायुक्त हमेशा से ही राज्य की राजनीति के परिदृश्य में घूमता ही रहा है। राज्य की पहली निर्वाचित नारायण दत्त तिवारी सरकार ने पहला लोकायुक्त दिया, पंरतु यह लोकायुक्त केवल नाम और शिकायतें सुनने के लिये ही बना रहा। सरकार ने कभी लोकायुक्त की शिफारिशों पर अमल नहीं किया। तिवारी सरकार के समय भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के आरोपों पर सरकार का एक ही जबाब होता था कि राज्य में लोकायुक्त तैनात है। वहां शिकायत कर सकते हैं, जबकि लोकायुक्त बगैर नख ओैर दंात के पिंजरे में बंद शेर जैसा ही था।
वर्ष 2011 में देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने लोकपाल के गठन को लेकर एक बड़ा आंदोलन किया। पूरे देश में अन्ना आदंोलन की गंूज इस कदर फैली कि उत्तराखण्ड भी इससे अछूता नहीं रहा और तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खण्डूडी ने पहली बार भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत हथियार के तौर पर लोकायुक्त कानून को सदन में पास करवा कर राज्य को एक ताकतवर लोकायुक्त कानून दिया। सदन में विपक्षी कांग्रेस ने भी खण्डूड़ी सरकार के लोकायुक्त कानून को पूरा समर्थन दिया।
खण्डूड़ी सरकार द्वारा पास किए गए ऐतिहासिक लोकायुक्त कानून मंे लोकायुक्त को जितने अधिकार दिये गये हैं उतने शायद देश के किसी अन्य राज्य के लोकायुक्त को नहीं दिए गए थे। राज्य के मुख्यमंत्री, विधायक मंत्री, आईएएस तथा आईपीएस के अलावा अलावा पूर्व मुख्यमंत्री विधायक, मंत्री और सेवानिवृत अधिकारी भी इस लोकयुक्त कानून के दायरे में रखे गए थे। यही नहीं राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायधीशों को छोड़ कर सभी न्यायपालिकाएं तक इसके दायरे मंे रख दी गई थीं।
वर्ष 2012 के चुनाव में कांग्रेस सरकार में आई और विजय बहुगुणा राज्य के मुख्यमंत्री बने। बहुगुणा सरकार ने पहले छह माह तो लोकायुक्त कानून को राष्ट्रपति से स्वीकृति को छुपाए रखा और जब मामला सामने आया तो विधानसभा में प्रस्ताव लाकर खण्डूड़ी के लोकायुक्त कानून को ही रद्द करवा कर नया लोकायुक्त कानून के गठन की बात की। नया लोकायुक्त कानून बनाया भी गया और छह माह के भीतर लोकायुक्त के चयन की सीमा तक निर्धारित कर दी गई। लेकिन अपने पूरे दो वर्ष के कार्यकाल में विजय बहुगुणा अपने ही लोकायुक्त कानून को लागू करवाने की हिम्मत नहीं कर पाए।
कांग्रेस की अंदरूनी सियासत ओैर केदारनाथ आपदा के दौरान बहुगुणा सरकार की घोर लापरवाही के चलते राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और हरीश रावत राज्य के नए मुख्यमंत्री बने। अपनी ही कांग्रेस सरकार के द्वारा बनाये हुये नये लोकायुक्त कानून को लागू करवाने के लिए जनता हरीश रावत से मांग करने लगी, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्रियांे की ही तरह हरीश रावत भी लोकायुक्त कानून को लागू करवाने का साहस नहीं दिखा पाये। हरीश रावत सरकार ने तो दो कदम आगे बढ़कर लोकायुक्त के चयन के लिए निर्धारित छह माह की समय सीमा को ही प्रावधान से हटा दिया। जिसके चलते लोकायुक्त के गठन की कोई समय सीमा ही नहीं रह गई। सरकार आसानी से मामले को टालने में सक्षम हो गई और इस तरह से हरीश रावत सरकार के पूरे कार्यकाल में प्रदेश को लोकायुक्त का तोहफा नहीं मिल पाया।
वर्ष 2017 में राज्य में विधानसभा चुनाव हुए और मोदी लहर के रथ पर सवार होकर प्रचंड बहुमत से भाजपा की त्रिवेन्द्र रावत सरकार सत्ता में आई। मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही करने और लोकायुक्त के गठन का बड़ा दबाब बना। त्रिवेंद्र रावत ने राज्य को सौ दिनों के भीतर लोकायुक्त और स्थानंातरण कानून देने का वादा किया। परंतु जनता की उम्मीदों पर तब तुषारापात हुआ जब प्रचंड बहुमत वाली सरकार ने अपने ही लोकायुक्त कानून को विधानसभा की प्रवर समिति को भेज दिया। तब यह बात सुर्खिंयों मंे रही थी कि कई भाजपा के बड़े नेता और विधायक नहीं चाहते थे कि सरकार इतनी जल्दी लोकायुक्त कानून को प्रदेश में लेकर आए।अब त्रिवेंद्र रावत की कुर्सी चली गई है। कुर्सी छिनने से पहले वे लोकायुक्त की कुर्सी को भरने का श्रेय भी नहीं ले सके।