उत्तराखण्ड में कुछ दिनों पहले ही पलायन आयोग की रिपोर्ट आई है। जिसमें सूबे में हो रहे पलायन के लिए खेती-बाड़ी चौपट होने के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार ऐसे मुद्दे हैं जिनकी तलाश में स्थाई और अस्थाई तौर पर लोग एक स्थान से दूसरे स्थान को जा रहे हैं। लेकिन इस दौरान पलायन का एक चिंताजनक पहलू विवाह योग्य युवक-युवतियों का भी सामने आ रहा है। पहाड़ों में ऐसे हजारों युवा हैं, जिनकी शादी नहीं हो पा रही है। कारण किसी को सिर्फ सरकारी नौकरी वाला दूल्हा चाहिए तो कोई प्लॉट के मालिक की राह ताक रहा होता है। इसकी तलाश में अधिकतर लोग पहाड़ी दामाद की बजाय देहरादून, हल्द्वानी, रुद्रपुर और प्रदेश से बाहर दिल्ली-नसीआर में रह रहे युवाओं को वर बनाना पसंद कर रहे हैं। उक्त शहरों में पहाड़ की बनिस्पत युवा रोजगार के साथ ही समृद्धशाली जीवन जी रहे हैं। दूसरी तरफ घरों में शादी करके पहाड़ की बेटियां लाना तो हर प्रवासी चाहता है लेकिन जब बेटियां पहाड़ में ब्याहने की बात आती है तो वे पहाड़ी दूल्हे को प्राथमिकता नहीं देते हैं। ऐसे में प्रदेश के उन युवाओं की संख्या में दिनोंदिन इजाफा हो रहा है जो अपनी शादी न होने से विचलन का शिकार हो रहे हैं। शादी के लिए चिंतित ऐसे युवा घर-बार छोड़कर शहर में बसने को मजबूर हो रहे हैं। जहां वे नशे की गिरफ्त में आने के साथ ही अवैध संबंधों और यौन अपराधों के जंजाल में फंस रहे हैं। हालात यह है कि शादी न होने से निराश युवक या तो नेपाल का रुख कर रहे हैं या इंटरनेट के भरोसे दुल्हन तलाशने को मजबूर हो गए हैं
पलायन आयोग ने अपनी दूसरी रिपोर्ट में साफ कर दिया कि राज्य बनने के बाद से लेकर आज तक पलायन रुका नहीं है। यहां तक कि 1726 गांव निर्जन हो चुके हैं। पलायन आयोग द्वारा राज्य से हो रहे पलायन के कारणां पर दी गई रिपोर्ट के अनुसार रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि की कमी, जंगली जीवों का आतंक के अलावा बुनियादी सुविधाओं की कमी को बताया गया है। लेकिन इन सभी करणों के अलावा एक बड़ा कारण विवाह के लिए राज्य की महिलाओं का मैदानी क्षेत्र और राज्य से बाहर हो रहे पलायन को भी माना जा रहा है। जिस पर न तो कभी किसी सामाजिक संगठन और न ही किसी राजनीतिक दल की नजर पड़ी। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर इसे पलायन नहीं कहा जा सकता लेकिन इसके चलते प्रदेश की आर्थिकी और सामाजिक व्यवस्था में बड़ा अंतर आ रहा है। इस समस्या को पलायन के कारणां से नहीं जोड़ना भी सवालिया निशान है। कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि पवर्तीय क्षेत्रों से भी लड़कियां बड़ी तादात में मैदानी क्षेत्रां के साथ साथ देश के अन्य राज्यों में विवाह कर रही हैं जबकि पहाड़ के युवाओं के लिए एक अदद पत्नी मिलना कठिन हो चला है।
सामाजिक क्षेत्रां में काम करने वाले कई लोगों का मानना है कि इसका सबसे ज्यादा प्रभाव प्रवासी लोगों में ही देखा जा रहा है जो देश के अन्य राज्यों जैसे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश या अन्य किसी प्रांत में निवास कर रहे हैं उनकी वरीयता उत्तराखण्ड से ही अपने पुत्रां के लिए वधु ले जाने की रहती है, लेकिन वे अपनी पुत्री के लिए पहाड़ी दामाद को वरीयता नहीं देते हैं। ऐसे लोग पहाड़ में अपनी पुत्रियों के लिए दामाद खोजने से किनारा कर रहे हैं। यह एक ऐसी सामाजिक समस्या बन चुकी है जिसको समस्या के तौर पर नहीं देखा जा रहा है। हालांकि इस पर अब सोशल मीडिया में जरूर बहस आरंभ हुई है लेकिन उसका कितना असर होगा यह कहा नहीं जा सकता। कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस पर हास्य के साथ-साथ गंभीर वीडियो भी साझा कर रहे हैं जिसमें पहाड़ी युवाओं को एक अदद पत्नी के लिए तलाश करते दिखाया जा रहा है।
पालयन एक चिंतन कार्यक्रम चलाने वाले रतन सिंह असवाल ने कोरोनाकाल में इस विषय पर कुछ वीडियो बनाकर इस सामाजिक विषय को छूने का प्रयास किया था जिसमें प्रवासी उत्तराखंडियां को ‘पहाड़ी ब्वारी चाहिए तो पहाड़ी ज्वैं भी तो ढूंढिये प्रवासियों’ के नाम से एक शॉर्ट वीडियो बना कर इस मुद्दे को पहली बार सामने रखा था। यू-ट्यूब चैनल ‘हिमालयन डिस्कवर’ ने भी इस मुद्दे को लेकर फिर से बहस को आगे बढ़ाया और इसके कई पहलुओं जिसमें जातिगत और सामाजिक व्यवस्था को सामने रखा। साथ ही इससे युवाओं के जीवन में हो रहे परिवर्तन जिसमें नशे की प्रवृत्ति और यौन अपराधों जैसे बड़े अपराधों के बढ़ने की आशंकाएं भी जताई गई हैं। हालांकि इस समस्या का दूसरा पहलू यह भी है कि जिस तरह से युवकां को रिश्ते नहीं मिल रहे हैं उसी तरह से युवतियां भी रिश्तों के लिए तरस रही हैं। इसका प्रमाण समाचार पत्रों के वैवाहिक विज्ञापनां में देखा जा सकता है जिसमें दोनां ही पक्षों के विज्ञापन होते हैं। हैरत की बात यह है कि इसमें जयादातर ऐसी युवतियों के विज्ञापन हैं जो उच्च शिक्षित होने के बावजूद 40 वर्ष की आयु पार कर चुकी हैं लेकिन उनका विवाह नहीं हो पा रहा है, जबकि प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रां में युवकों की भरमार है जो अविवाहित हैं। विज्ञापनों में उच्च कुलीन और जाति का उल्लेख सबसे ज्यादा हो रहा है। परंतु युवकों के विज्ञापनों में इस तरह की शर्तें कम ही देखने को मिल रही हैं जो साफ बताता है कि युवकां में विवाह को लेकर ज्यादा उत्सुक्ता है। ‘दि संडे पोस्ट’ ने इस सामाजिक विषय को लेकर कई जानकारों और सामाजिक क्षेत्रां में काम करने वाले लोगों से बात की तो कमोवेश सबने इसे एक समस्या तो माना है लेकिन इसके निराकरण के लिए कोई स्थाई समाधान नहीं दे पाए हैं। जबकि इसके चलते पर्वतीय क्षेत्रां के सामाजिक ढांचे के बिगड़ने की आशंका सभी लोगों द्वारा जताई गई है।
‘बहू अगर पहाड़ी चाहिए तो दामाद भी तो पहाड़ी रखिए’
उत्तराखण्ड के पहाड़ी युवाओं के लिए विवाह के रिश्तों में हो रही कमी को सबसे पहले रतन सिंह असवाल ने महसूस किया और इस मुद्दे को अनेक संगठनों और मंचों के माध्यम से सामने लाने का प्रयास किया। उन्होंने सोशल मीडिया के साथ-साथ यू-ट्यूब प्लेट फॉर्म में अनेक वीडियो बनाकर इस मामले को चर्चा में लाने की कोशिश की रतन सिंह असवाल उत्तराखण्ड की सामाजिक व्यवस्था आने वाले समय में छिन्न- भिन्न होने वाली है। इसका सबसे बड़ा कारण है महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में भारी विषमता। प्रति एक हजार पुरुषों पर 963 महिलाओं का अनुपात है। 2020-21 में अर्थ और सांख्यिकी विभाग ने यह आंकड़े दिए हैं। यह चिंता तब और बढ़ जाती है कि आज भी प्रदेश की विशेष कर पर्वतीय क्षेत्रां में महिलाएं ही सामाजिक और आर्थिकी की धुरी रही हैं। बगैर महिलाओं के आप प्रदेश में खेती, पशुपालन की कल्पना भी नहीं कर सकते। महिलाओं को अपने परिवार, समाज और अपने क्षेत्र की हर चीज की जानकारी उसे बचपन से ही पता चलती रहती है जबकि पुरुषों को यह सीखना पड़ता है। बालिका अपनी मां से ही इस प्रकार का कोशल सीख जाती हैं लेकिन बालक को इसके लिए बहुत प्ररिश्रम करना पड़ता है। आज पहाड़ों में प्रत्येक त्यौहार तब तक मायने नहीं रखते जब तक महिलाओं का उसमें योगदान न हो।
अब हो यह रहा है कि जो भी व्यक्ति मैदानी क्षेत्रां में बस गया है वह अपने पुत्रां के लिए बहुएं तो पहाड़ से ले जा रहा है लेकिन उसे अपनी पुत्री के लिए पहाड़ में दामाद नहीं चाहिए। भले ही उसके पास जमीन जायदाद हो और वह पढ़ा-लिखा भी हो। मैं कई ऐसे युवाओं को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं जो हायर एजुकेटेड हैं और पहाड़ में ही अपनी जीविका चला रहे हैं, लेकिन उनका रिश्ता केवल इस बात पर नहीं हो पा रहा है कि वे पहाड़ में अपने गांव में निवास कर रहे हैं। उनको कोई अपनी बेटी देने को तेयार नहीं है। मैदानी क्षेत्रां की बात तो भूल ही जाओ। आस-पास के गांव में भी उनके लिए रिश्ते नहीं हो पा रहे हैं। क्योंकि हर मां-बाप की अब इच्छा यह हो गई है कि उसकी बेटी मैदानी क्षेत्रां में या पहाड़ में हो तो बड़े शहरों में ही ब्याही जाए। जबकि उसके आस-पास के गांवां में कई बेहतर और पढ़े-लिखे युवक हें जो विवाह के रिश्तों के लिए तरस रहे हैं।
ज्योतिषियों के पास आने वाले रिश्तों के लिए सबसे पहले डिमांड यही रहती है कि दामाद के पास देहरादून, कोटद्वार, हल्द्वानी जैसे नगरों में अपना प्लॉट हो या मकान हो तो ही रिश्ता मंजूर होगा। यानी अब दामाद की उपयोगिता उसके पास सुख-सुविधाओं से आंकी जा रही है। कुछ साल पहले श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी, अल्मोड़ा जैसे बड़े नगरों में इसका चलन था। लेकिन अब तो इन नगरों को भी प्राथमिकता में नहीं रखा जा रहा है। ज्यादातर लोग बेटी के रिश्तों के लिए दिल्ली- एनसीआर, गुड़गांव को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। एक आकलन के अनुसार उत्तराखण्ड में सबसे ज्यादा देहरादून, हल्द्वानी, रूद्रपुर जैसे बड़े शहरों में अपनी पुत्रियों के लिए दामाद ढूंढे जा रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण प्रवासी उत्तराखण्डी है। ये लोग अब अपने गांवों से पूरी तरह कट चुके हैं। कोरोनाकाल में जरूर ऐसे लोगों ने अपने-अपने गांवों में कुछ समय के लिए वापसी की लेकिन ज्यादातर फिर से वापस चले गए और इनकी सोच यह बन गई है कि किसी न किसी तरह से उनका रिश्ता उत्तराखण्ड से जुड़ा रहे। इसलिए ये लोग अपने बेटों के लिए पहाड़ से ही बहुएं ला रहे हैं लेकिन यह लोग भूल जाते हैं कि पहाड़ से रिश्ता रखना सिर्फ बहू लाने से ही नहीं है, अपनी बेटियों को भी पहाड़ में विवाह करवाने से भी हो सकता है। अगर यह प्रवासी ऐसा करते हें तो सामाजिक समानता बनी रह सकती है नहीं तो आने वाले समय में यह समानता खत्म हो जाएगी।
कुछ लोग इसे सामान्य बात कहते हैं और कई फेमेनिस्ट या महिला सशक्तिकरण का ढोल पीटने वाले लोग इसे महिलाओं के जीवन में बड़ा सुधार की बात करके इस विषय को खारिज कर रहे हैं। लेकिन वह यह बात भूल जाते हें कि जिस लड़की का पहाड़ से बाहर रिश्ता हुआ है उसका तो जीवन सुधर गया लेकिन उसके जो भाई गांव में हैं उनसे कौन अपनी बेटी ब्याहेगा। क्या उसके भाइयों के लिए नेपाल से बहू लानी पड़ेगी। आज कई युवा 40 वर्ष के होने के बावजूद विवाह नहीं कर पा रहे हैं। उनका जीवन एकल जीवन बन रहा है। इससे उनके व्यवहार में भी परिवर्तन आ रहा है जिसका असर पहाड़ी समाज के लिए भविष्य में बहुत घातक होगा। इससे युवाओं में नशे की प्रवृत्ति तो बढ़ ही रही है। साथ ही शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भी युवाओं में एक प्रकार की उग्रता नजर आने लगी है। इससे राज्य में अवैध संबंधों के साथ-साथ यौन अपराध भी जन्म ले सकते हैं।
‘सबसे पहले सोच बदलनी होगी’
लोक सहित्य में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित माधुरी बड़थ्वाल
यह बहुत बड़ी समस्या है जो हमने खुद पैदा की है। दूसरां की देखा देखी हमने इस समस्या को स्वयं बढ़ाया है। सबसे पहले हमको अपनी सोच में बदलाव करना होगा। युवाओं को सरकारी नौकरी का मोह छोड़कर स्वरोजगार की ओर आना होगा और युवतियों को भी इसके लिए तैयार रहना होगा। ज्यादातर मां-बाप अपनी लड़कियों को दूसरे लोगों की देखा- देखी में बाहरी प्रदेशां में विवाह कर रहे हैं जो ठीक नहीं है। हमारे प्रदेश में युवकां की कमी नहीं है। हर किसी की सरकारी नौकारी तो नहीं लग सकती लेकिन जो युवक अपना स्वरोजगार कर रहा है वह कम से कम अपना जीवन-यापन कर रहा है और दूसरे को भी रोजगार दे रहा है। प्रचार करना होगा कि पहाड़ के युवा भी बेहतर रोजगार कर रहे हैं और अपने परिवार को बेहतर तरीके से रख सकते हैं। हम पहाड़ियों में एक बड़ी कमी यह है कि हम जल्द ही दूसरों की नकल करने लग जाते हैं और अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों को छोड़ देते हैं। हर मां-बाप को लड़की को अपनी पारिवारिक और सामाजिक परंपरा का ज्ञान देना जरूरी है। लड़कां और लड़कियां दोनों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि हम और हमारी परंपराएं क्या हैं और इसे हमें ही सुरक्षित रखना है। इससे कई और नई समस्या बढ़ेगी। युवकों में कई व्यसन बढ़ेंगे। सामाजिक तानाबाना बिखरने का डर बढ़ रहा है। यौन संबंधां में वर्जनाएं भी टूट सकती हैं। डर है कि यौन अपराध होने लगेंगे। विवाह कहां करना है, किससे करना है यह तो कानूनी रूप से रोका नहीं जा सकता लेकिन पहाड़ी समाज को ही आगे आना होगा। सबसे पहले युवाओं को अपने उत्तराखण्ड को जानने, इसकी परंपराओं को पहचानने की जरूरत है।
‘यह एक गंभीर समस्या है जिसका निराकरण जरूरी है’
राज्य महिला आयोग अध्यक्ष कुसुम कंडवाल
उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रां के युवाओं के लिए विवाह के रिश्ते नहीं मिलना यह अपने आप में बहुत ही गंभीर विषय है लेकिन दुर्भाग्य से इस बारे में कोई बात अभी तक नहीं करना चाहता है और न ही इसके कारणां को जानने का ही प्रयास किया जाता है। आज समाज बेटियों को लेकर बहुत बड़े बदलाव की ओर जा चुका है। हर मां चाहती है कि जिस तरह से उसने अपना जीवन कड़ी मेहनत से काटा है उसकी बेटी को वैसा न करना पड़े। यह नया सामज है और इसके नए तरीके बन गए हैं। पहले अपने आस-पास के गांव फिर पट्टी और जिले के भीतर बेटियों के विवाह किए जाते थे। बाद में दूसरे जिले तक होने लगे। अब तो जिले से भी आगे तक बात पहुंच रही है। देश के किसी भी प्रदेश में अपनी बेटियों की शादियां करवाने में कोई संकोच नहीं कर रहा है। इसे गलत भी नहीं कह सकते लेकिन इसके पीछे एक बड़ा महत्वपूर्ण सामाजिक पहलू है जिसे अनदेखा किया जा रहा है। इसके बारे में नहीं सोचा गया है कि बेटी की पहाड़ से बाहर विवाह कर दी गई लेकिन बहुएं पहाड़ में क्यों नहीं आ रही हैं। यह सामाजिक संतुलन बिगड़ने का कारण बन रहा है। मुझे लगता हे कि अब इस मुद्दे पर बहस होनी चाहिए।
मैंने जब से राज्य महिला आयोग के अध्यक्ष का पदभार संभाला है तब से मेरे सामने अनेक ऐसे मामले आए हैं जिनमें राज्य से बाहर के लोगों द्वारा पहाड़ी क्षेत्रां से अपने बेटां के लिए बहुएं ले जाई गई हैं। इन मामलों में कई बार नाबालिग बालिकाओं को भी ज्यादा उम्र दिखा कर विवाह किया गया है। इस पर कानूनी कार्यवाही भी की गई है और राज्य महिला आयोग इस पर कई कार्यक्रम करवा चुका है। लेकिन जो मामले कानूनी होते हैं उन पर हम कुछ नहीं कर सकते। जब मां-बाप ही अपनी बेटियों की शादी बाहरी प्रदेशों में कराने के लिए तैयार हो रहे हैं तो क्या किया जा सकता है। लेकिन यह भी सच है कि जिस तरह से युवाओं के रिश्ते नहीं हो रहे हैं। उससे स्थिति चिंतनीय बनती जा रही है। आज समाज चाहे जितना आधुनिक हो जाए लेकिन रोटी-बेटी के रिश्तों में वह अपना समाज और अपनी जाति को ही प्राथमिकता देता है। मैंने कोई ऐसा विज्ञापन नहीं देखा जिसमें उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकां के रहने वाले माता-पिता ने ऐसा विज्ञापन दिया हो जिसमें जाति बंधन नहीं हो। यह भी एक सामाजिक व्यवस्था का कारण है जिसमें पर्वतीय क्षेत्रां के युवक और युवतियां फंस कर रह गए हैं।
इस मामले में कोई कानूनी बाध्यता तो नहीं है, कोई भी मां-बाप अपनी बेटी का कहीं भी रिश्ता कर सकता है बशर्ते वह कानूनी रूप से सही हो। लेकिन अगर सब सही है तो इसमें महिला आयोग क्या कर सकता है। यह तो सामाजिक स्तर से ही किया जा सकता है। समाज को ही इसमें आगे आना पड़ेगा और इसके लिए प्रयास करने हांगे। अगर पहाड़ी युवाओं के रिश्ते समय पर नहीं हो रहे हैं और उनको केवल इस बात के लिए रिश्ते नहीं मिल पा रहे हैं कि वे पहाड़ में रह रहे हैं तो यह एक बड़ी सामाजिक समस्या है। जल्द ही राज्य महिला आयोग इस पर गंभीर चर्चा करेगा। मैं स्वयं कई संगठनों से इस पर बात करूंगी और इसे कैसे समाज के साथ जोड़ा जाए और इसका हल निकाला जाए इस पर बहस कराई जाएगी। जिसका कोई न कोई हल निकाला जा सकता है।
‘जब लड़कियां पैदा ही नहीं करोगे तो ऐसा ही होगा’
महिला अधिकारों को लेकर सजग रहने वाली समाज सेविका गीता गैरोला
यह तब हो रहा है जब हमने लड़कियां ही पैदा करना बंद कर दिया है। जैसे ही पता चलता है कि गर्भ में लड़की है तो उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है। आज प्रदेश में लिंगानुपात बहुत बढ़ गया है। सरकार जो आंकड़े लिंगानुपात के दे रही है वह पूरी तरह से सही नहीं है। आज आप आंगनबाड़ी केंद्रों में जाइए और उनके रजिस्टर को दखिए तो आपको पता चलेगा कि लड़कां की ही संख्या सबसे ज्यादा है। आज लड़कियां को कोई चाहता ही नहीं है। पहले किसी की पहली संतान लड़की हो गई तो वह मान लेता हे कि चलो घर में लक्ष्मी आ गई लेकिन उसकी दूसरी संतान लड़का ही होती है। आखिर ऐसा क्या चमत्कार हो जाता है कि जिसकी पहली संतान लड़की होता है तो उसकी दूसरी संतान लड़का ही पैदा होता है। पहली संतान और दूसरी संतान के बीच में क्या हुआ इस पर ज्यादा गौर करने की जरूरत है। फिर यह भी है कि हर मां-बाप अपनी लड़की को अच्छे घर-बार और सुख देना चाहता है। जब कोई गांव में रहने वाला लड़का किसी काम का नहीं होगा तो कौन उसे अपनी बेटी देगा। यह बात लड़का-लड़की दोनां पर ही लागू होती है। अगर लड़की अनपढ़ या किसी काम की नहीं है तो उसे भी तो रिश्ता नहीं मिलता। अगर लड़का पढ़ा-लिखा है तो उसे पत्नी बहुत खूबसूरत और पढ़ी-लिखी चाहिए। दोनों ही पक्ष इसमें कोई समझौता करने को तैयार नहीं है। मेरा लड़का हायर एजुकेटेड है लेकिन मैं उसके लिए कोई लड़की नहीं ढूंढ पा रही हूं जबकि मेंने कोई जाति धर्म का बंधन भी नहीं रखा हुआ है तब भी मुझे मेरे लड़के के अनुरूप लड़की नहीं मिल रही है तो मैं कहां जाऊं।

सरकार ने प्रदेश का पूरा सिस्टम ही खराब किया हुआ है। आज पहाड़ों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की कमी पहले से ज्यादा हो रही है। अगर सरकार इसे सुधारे तो इसमें बदलाव जरूर आएगा। मैं कैंसर की मरीज हूं और मैं अपने गांव में ही रहना चाहती हूं लेकिन क्या मेरे जैसे कैंसर के मरीज के लिए सरकार ने कोई ऐसी सुविधा गांव में रखी है कि मैं अपने पैसे भी खर्च करके अपना इलाज करवा सकूं, कोई ऐसी व्यवस्था और सरकार नहीं बना पा रही है। बस सरकार सिर्फ किसी तरह से आंकड़ों में जुटी है कि जिससे प्रदेश में लिंगानुपात का मामला सुलझ जाए और हम इसे अपनी उपलब्धि बता सकें। जब तक समाज में लड़का-लड़की का भेद दूर नहीं होगा और लड़कियां को जन्म देने के लिए हम तैयार नहीं होंगे तब तक ऐसा ही होता रहेगा। एक भी आदमी ऐसा बता दे जिसकी दो-तीन संतानें हों और वह सब लड़कियां हों फिर भी वह खुश है। मेरा दावा है कि ढूंढने से भी आपको एक भी आदमी ऐसा नहीं मिलेगा। सबको लड़के चाहिए अगर एक लड़का हो गया तो तब भले ही दूसरी लड़की हो जाए लेकिन अगर लड़कियां ही हो रही हैं तो तब पता कीजिए कि कितनी लड़कियों को गर्भ में मार दिया जा रहा है।