मध्य हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड का हस्तशिल्प सदियों से आकर्षण का केंद्र रहा है। फिर चाहे वह काष्ठ शिल्प हो, ताम्र शिल्प अथवा ऊन से बने वस्त्र। सभी की खूब मांग रही है। पिथौरागढ़ जनपद के दारमा, व्यास, धारचूला, कालिका, बलुवाकोट, जौलजीबी, मुनस्यारी, थल, नाचनी और डीडीहाट का ऊन कारोबार दो दशक पहले तक प्रमुख व्यापार में शामिल था। मुनस्यारी, धारचूला के लोग तो पहले तिब्बत की ज्ञानिमा और तकलाकोट मंडी से व्यापार तक करते थे। यहां के हस्तशिल्पी कताई, सफाई, रंगाई करके कोट, पंखी, दन-कालीन, आसन, मफलर, टोपी बनाकर दूरदराज के बाजार में बेचने जाते थे। ऐतिहासिक जौलजीबी मेला भी एक दौर में ऊनी कपड़ों के लिए ही मुख्य रूप से जाना जाता था। स्थानीय लोग भी ऊनी कपड़े खरीदने के लिए हर साल इस मेले का इंतजार करते थे। हालांकि बदलते वक्त की मार से यहां का हस्तशिल्प भी अछूता नहीं रहा है। हस्तशिल्पी बुनकरों को पूर्व में राज्याश्रय न मिलने का ही नतीजा रहा कि यह कला सिमटने लगी है और हस्तशिल्प हाशिए पर है
‘हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए, हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह।’ मुनव्वर राना की यह पंक्ति उत्तराखण्ड के बुनकरों व हस्तशिल्पयों पर सटीक बैठती है। राज्य बनने से पहले उत्तराखण्ड के कुछ क्षेत्र ऐसे थे, जो न सिर्फ स्थानीय स्तर पर आजीविका के स्रोत थे, बल्कि इससे क्षेत्र विशेष के साथ ही प्रदेश की भी एक पहचान थी। लेकिन राज्य बनने के बाद ये क्षेत्र हाशिए पर चले गए। इन्हीं में से एक रहा है, हस्तशिल्प यानी ऊन एवं बुनाई का क्षेत्र। अकेले पिथौरागढ़ जनपद के दारमा, व्यास, धारचूला, कालिका, बलुवाकोट, जौलजीवी, मुनस्यारी, थल, नाचनी और डीडीहाट एक समय हस्तशिल्प के लिए प्रसिद्ध थे। सात हजार से अधिक परिवार हस्तशिल्प से जुड़े थे। यही इनकी आजीविका का भी साधन था। एक समय यहां आठ लाख के आस-पास भेड़ें थी जो अब 30 हजार पर आकर सिमट गई हैं। अगर पूरे प्रदेश में भेड़ पालकों पर नजर डालें तो इनकी संख्या 13500 के आस-पास है जिनके पास करीब 3 लाख भेड़ें हैं।
फरवरी-मार्च और अक्टूबर-नवंबर में जब भेड़ों से ऊन निकाला जाता था तो एक मजमा सा लगता था। मेहनत के साथ रंगत की जोट होती थी। हाथ से बनने वाला छह फुट लंबा एवं चार फुट चौड़ा दन एक माह में तैयार हो पाता था जबकि पसमीना को बनाने में दो महीने लगते थे। इसके रंग एकदम प्राकृतिक होते हैं। ये हल्दी, चूना, जंगली फूल के रस से बनाए जाते हैं। लेकिन बाजार में भदोही पैटर्न के दनों के चलते इसकी मंाग लगातार घटती गई। बाद में सरकारी स्तर पर मुनस्यारी में टेक्सटाइल पार्क बनाया गया लेकिन यह हस्तशिल्पियों के जीवन में सुधार लाने में उतना कामयाब नहीं हो पाया जितना इससे उम्मीद लगाई गई थी। भदोही पैटर्न के दनों ने आसानी से पहाड़ी कस्बों में अपना कब्जा कर लिया।
दूसरी तरफ ऊन के उत्पादन के लिए सरकारी स्तर पर जो अंगोरा शशक योजनाएं चलाई गई थी वह भी दम तोड़ गई। यूरोपीय देशों के अनुरूप उत्तराखण्ड की जलवायु को देखते हुए रक्षा कृषि एवं अनुसंधान विभाग (डीआरडीओ) की इकाई ने कुमाऊं व गढ़वाल में अंगोरा शशक पालन की मुहिम शुरू की थी। इसके लिए जर्मनी से अंगोरा प्रजाति के खरगोश मंगाए गए थे। विभाग के वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशाला में इनका सफल पालन करने के बाद इसे राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में पशुपालकों को वितरित भी किया था। पहले पांच वर्षों तक तो यह मुहिम सफल रही। डीआरडीओ भी काश्तकारों को तकनीकी सहायता देता रहा और काश्तकारों ने भी अच्छी आमदनी प्राप्त की। लेकिन जैसे ही तकनीकी सहायता बंद हुई तो फीडिंग, चिकित्सा व ऊन उतारने की विधि न मिलने से इसकी यूनिटें बंद हो गई। अंगोरा शशक के लिए आहार, फीडिंग सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। बाजार में इसका आहार आसानी से नहीं मिलता। इसके अलावा अंगोरा शशक शांत एवं ठंडे स्थान पर ही पनपते हैं। अगर कम ऊचांई वाले स्थानों पर इन्हें पाला जाए तो इनके ऊन में गुणवत्ता नहीं रहती है।
जनपद पिथौरागढ़ के छनपट्टा में अंगोरा शशक पालन केंद्र अब बुरे हाल में है। यह कई समय से बंद रहा अब इसे नए सिरे से चलाने का प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। बताया जाता है कि जहां पर यह केंद्र बना वहां पर अब शशक पालन के लिए तापमान उपयुक्त नहीं है। शशक पालन केंद्र खोलने के पीछे उद्देश्य यह था कि लोगों की आजीविका को सुधाकर उन्हें उद्यम की तरफ मोड़ा जाए। लेकिन पहाड़ में अंगोरा शशक पालन योजना जलवायु की शिकार बन चुकी है। अंगोरा केंद्र वीरान पड़े हैं। ग्लोबल वार्मिग का भी प्रभाव पड़ा है। उत्तर प्रदेश के समय में 6 हजार तक की ऊंचाई वाले जिन क्षेत्रों में ऊन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अंगोरा शशक पालन योजना प्रारंभ कराई गई थी, वह उत्तराखण्ड बनने के बाद दम तोड़ गई। आज जब दुनिया भर में अंगोरा शशक ऊन की भारी मांग है। चीन व जर्मनी सबसे बड़े निर्यातक देश के रूप में उभरे हैं। देश भर में भी इसकी बड़ी मांग है। ऊनी हस्तशिल्प के साथ ही रेडीमेड उद्योगों में भी इसकी मांग है। तब उत्तराखण्ड में यह दम तोड़ गया है। जबकि शशक के एक किलो ऊन की कीमत ढाई हजार रूपया है। एक खरगोश से एक साल में डेढ़ से दो किलो ऊन निकाली जा सकती है। यह अर्थव्यवस्था बदल देने वाला व्यवसाय है लेकिन इस तरफ प्रयास हो ही नहीं रहे हैं।
यही हाल बुनकरों का है। प्रदेश में 93 हजार बुनकर हैं। इनके लिए केंद्र स्तर पर कालीन बुनाई प्रशिक्षण स्कीम, एकीकृत हस्तशिल्प विकास एवं प्रोत्साहन योजना चल रही है तो वहीं राज्य स्तर पर स्वास्थ्य बीमा योजना, महात्मा गांधी बुनकर बीमा योजना, बुनकर मुद्रा योजना, महिला कामगर योजना, शिल्पी कार्ड योजना चल रही है। लेकिन धरातल पर बुनकरों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। प्रदेश के तराई का हैंडलूम उद्योग एक समय में यहां की शान हुआ करता था। लेकिन लगातार सियासी अनदेखी के चलते वह दम तोड़ रहा है। पहले बकायदा राजकीय हथकरघा एवं डिजाइन प्रशिक्षण केंद्र खोला गया था ताकि बुनकरों के हुनर को और बेहतर किया जा सके लेकिन यह भी अपने उद्देश्य में खरा नहीं उतर पा रहा है। पूर्व में काशीपुर में एक सूत मिल भी थी वह पिछले पांच साल से बंद पड़ी है। पहले केंद्र सरकार ने इंटीग्रेटेड हैंडलूम ट्रेनिंग प्रोगा्रम चलाया था जिसका मकसद गुणवत्ता व सुंदर डिजाइन के उत्पाद तैयार करना था लेकिन पिछले एक दशक से यह योजना भी बंद पड़ी है। कुल मिलाकर न सूत न कपास, जुलाहों में लठ्मलठ वाली स्थिति बनी हुई है।
बात अपनी-अपनी
जब मैं टेक्सटाइल मंत्री था तब मैंने स्थानीय हस्तशिल्प को पुनर्जीवित करने के लिए दो पीएचसी बनवाए थे जिनमें एक डीडीहाट तो दूसरा मुनस्यारी में स्थापित कराया गया। इसी के साथ हमने अल्मोड़ा में ताम्र उद्योग को मजबूती देने के मद्देनजर एक नई कंपनी को प्रोड्यूज किया था। तब हमने देश के बेहतरीन डिजाइनर बुलवाए थे। लेकिन स्थानीय लोग परंपरागत काम करने में अपने आपको सुटेबल नहीं मान रहे हैं। स्थानीय लोग नई पीढ़ी को हस्तशिल्प का काम सिखाने की बजाय अन्य कामों में लगा रहे हैं। इनके लिए जो कुछ भी पॉसिबल होगा वही करेंगे।
अजय टम्टा, सांसद, अल्मोड़ा-पिथौरागढ़
कोविड के बाद सब बेरोजगार हो गए हैं। घोड़े-खच्चर से लेकर हस्तशिल्पकार सभी। इस बाबत सरकार को नीति बनानी चाहिए। हमारी कांग्रेस सरकार ने मुनस्यारी में मिनी टेक्सटाइल्स पार्क की स्थापना कराई थी इसका निर्माण हो जाता तो आज कास्तकारों की समस्या का बहुत कुछ समाधान हो जाता। लेकिन तत्कालीन टेक्सटाइल्स मंत्री अजय टम्टा ने वह निर्माण पूरा होने में अडंगा लगा दिया। वे टेक्सटाइल्स के सामान को भी उठवा लाए। सरकार अंगोरा और बकरी पालक को मुआवजा तक नहीं दे रही है।
हरीश धामी, विधायक, धारचूला
ऊन के लिए भेड़ जरूरी होती है। भेड़ पालकों की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। बाजारीकरण के चलते भी कई तरह सामाजिक आर्थिक परिवर्तन आ रहे हैं। सरकारी स्तर पर भी इस मामले में उदासीनता है। भदोही पैटर्न ने यहां के स्थानीय बाजारों पर कब्जा कर लिया है। इसमें मेहनत ज्यादा है, दाम कम है। बाजार की निश्चिंतता नहीं है। यही वजह है कि सरकारी स्तर पर जो प्रयास हो भी रहे हैं तो वह धरातल पर नहीं उतर पा रहे हैं।
लीपा लस्पाल, हस्तशिल्पी व सामाजिक कार्यकर्ता
धारचूला और मुनस्यारी की पहचान ही हस्तशिल्प है। नीति और माणा में भी यही कारोबार होता है। पहले रोजगार का साधन यही होता था। लेकिन अब इसकी डिमांड कम हो गई है और बाहर मशीनों के बने हुए कालीन आने लगे हैं जो सस्ते भी होते हैं। हाथों से बनने वाला कालीन जहां एक से दो महीने में एक बनता है वहीं मशीन से दिन में दो कालीन बन जाता है। इसके लिए ऊन भी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता है। सरकार ग्रामोद्योग के जरिए लोगों को सहायता देती है। लेकिन लोगों ने ही इस काम में रूचि लेनी बंद कर दी है जिससे हस्तशिल्प हाशिए पर है।
लीला बंग्याल, तीलू रौतेली पुरस्कार प्राप्त एवं भाजपा जिला उपाध्यक्ष, पिथौरागढ़