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Uttarakhand

हिमालय में मानव जनित आपदा

  • सुरेश भाई
    लेखक उत्तराखण्ड नदी बचाओ
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हिमालय के पर्वतों में निवास करने वाले लोगों को पता नहीं चल पाता है, कि कब उन्हें आपदा की चपेट में अपनी जिंदगी गंवानी पड़े। यहां की खूबसूरत वादियां पर्यटकों को जितनी तेजी से आकर्षित कर रही हैं, इससे कई गुना यहां की धरती की सहनशीलता कमजोर हो रही है। यहां विकास के नाम पर ऐसी चका-चौंध बनाने की कवायद जारी है कि जिस तरह जलती आग के आकर्षण में छोटे-छोटे कीट-पतंगे अपना जीवन गंवा देते हैं, ठीक उसी तरह मनुष्यों के जीवन को सुरक्षित रखने की गुंजाइश इसमें नहीं है। यह क्षेत्र भूकम्प के लिहाज से भी जोन 4 व 5 में पड़ता है।

हिमालय पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव क्यों अधिक हो रहा है? इसके उत्तर गायब हैं। कौन दोषी हैं, वह पर्दे के पीछे छिपा है। इसी के परिणामस्वरूप प्रकøति की अनमोल विरासत जल, जंगल, जमीन, बुग्याल, बर्फ, खनिज आदि सब कुछ व्यापार की वस्तु बन गई है। जो इसको बाधित करने की हिम्मत दिखाता है वह तत्काल विकास विरोधी की श्रेणी में गिना जाता हैं। इस तरह विकास विरोधी की उपमा से अलंकøत करके हम कहीं न कहीं पर्वतों के साथ न्याय नहीं कर रहे है। इस फिलाॅसफी के पीछे ही पर्यावरणीय अन्याय को खुली छूट मिल रही है। इस विषय पर मनुष्यों की बहस व टकराहट में कमी नहीं है। जिसे हिमालय अडिग रहकर चुपचाप देख रहा है। यह कहावत सही है कि ‘‘हिमालय टूट सकता है, झुक नहीं सकता’’। लेकिन यह भी सच है कि यहां बहती नदियों को रोकने के लिए जिस तरह छोटे- बड़े बांध बन रहे हैं, चैड़ी सड़कों का निर्माण और पंचतारा संस्कøति का विकास हो रहा है, इसी में महाविनाश छिपा हुआ है। इसी काम के नाम पर कुछ लोगों के पास अथाह पूंजी जमा हो रही है। वे मजबूती से सत्ता के हाथ पकड़े हुये हैं। इसी तरह के लालच के प्रभाव में निश्चित ही प्रभावित लोग चंद समय की सुविधाओं से लाभ लेने के लिए अस्थाई रोजगार के पहिये बन जाते हैं। इसी भरोसे में रहकर गौरा देवी का रैणी गांव फिर चर्चा में आ गया है। इस गांव की लगभग 4 दर्जन महिलाएं आज से 47 वर्ष पहले अपने जंगल को बचाने के लिए पेड़ों पर चिपक गई थी।

जिसके बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश की सरकार को पेड़ों के कटान का निर्णय वापस लेना पड़ा था। फिर दुबारा यहां की शान्त स्वभाव वाली ऋषि गंगा पर सन् 2007 में र्हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के नाम पर जंगल कटान, खनन और निर्माण के समय भारी विस्फोटों का प्रयोग किया गया। गांव वालों ने इसका पुरजोर विरोध किया था। ताज्जुब इस बात का था कि इस 13.2 मेगावाट जल विद्युत परियोजना के निर्माणकर्ताओं ने गौरा देवी के उस जंगल तक जाने का रास्ता भी बंद किया, जहां चिपको आन्दोलन चला था। लम्बे समय तक गांव की महिलाओं को जंगल से घास लकड़ी लाने में परेशानी हुई है। चिपको नेता चंडीप्रसाद भट्ट इस परियोजना के कारण हो रही पर्यावरणीय क्षति से चिंतित थे।

उन्होंने इसे निरस्त करने की मांग की थी जिसकी अनसुनी की गई। रैणी गांव के लोगों ने इस परियोजना के खिलाफ हाई कोर्ट की शरण ली, जिसके बाद विस्फोटों पर कुछ रोक लग पायी थी। फिर भी यह परियोजना सन् 2011 में बनकर तैयार हो गई। यूनेस्को द्वारा संरक्षित नंदा देवी बायोस्फ्यिर भी यहां है। ऋषि गंगा का उद्गम भी इसी क्षेत्र में त्रिशूली नाला है। जहां किसी भी तरह का पर्यावरण विनाश गैर कानूनी है। इसके बावजूद भी प्रोजेक्ट का निर्माण हुआ।

इसी का परिणाम है कि 7 फरवरी 2021 को नंदा देवी पर्वत से टूटकर आये ग्लेश्यर हों या एवलांच के भारी मलबे ने सबसे पहले ऋषि गंगा पर बने र्हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के उस हिस्से को पूरा ध्वस्त किया, जहां नदी को बहने से रोका गया था। इसके आगे विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना (420 मेगावाट) के पावर हाउस को ठप करते हुये तपोवन-विष्णु गाड़ परियोजना (520 मेगावाट) की टनल और बैराज को क्षतिग्रस्त कर दिया। यहां पर काम कर रहे लगभग 200 से अधिक लोगों की जान समाप्त हो गई। मारे गये अधिकतर लोगों के शवों का पता तो नहीं चला, लेकिन कुछ शव और अंगों के हिस्से जैसे हाथ, पैर कर्णप्रयाग, श्रीनगर, तक अलकनंदा में मिल रहे हैं।

वैसे यहां पर आपदा के दिन 5 गुना लोगों की मत्यु हो जाती यदि केदारनाथ आपदा के बाद सन् 2014 में उच्चतम न्यायालय द्वारा ऋषिगंगा पर ध्वस्त हुये प्रोजेक्ट के अलावा ऋषिगंगा-1, ऋषिगंगा-2 और लाटा-तपोवन जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक न लगती। यदि ये प्रोजेक्ट आज तक बन गए होते तो हरिद्वार तक हजारों लोगों की जानें मलबे में दबी होती।

जिसकी जिम्मेदारी अभी की तरह कोई नहीं ले सकता था। यदि इस आपदा को टालने की भी मंशा बांध निर्माण करने वाले लोगों में होती तो वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों को सुनता और इसके बाद सभी निर्मित व निर्माणाधीन बांधों के गेट हमेशा के लिए खोल देने चाहिए थे। लेकिन उनके लिए यह जितना मुश्किल भरा था उससे कई हजारों गुना नुकसान हो गया है।

इसे प्राकøतिक आपदा यहां तक मान सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। लेकिन ग्लेशियरों से आने वाला मलबा और जल सैलाब जब नदी को रोकने वाले बांध को तोड़कर नीचे की ओर भारी जन- धन को विनाश पहुंचाता है, तो तब यह मानव जनित आपदा का रूप लेकर तबाही का कारण बनता है। ऋषिगंगा बांध टूटने के दिन निचले क्षेत्र में बने श्रीनगर जल विद्युत परियोजना के अलावा अन्य सभी बांधों में विद्युत उत्पादन ठप करना पड़ा और जल निकासी की गई, जबकि टिहरी बांध से जल निकासी रोकी गई ताकि हरिद्वार और उससे आगे की आबादी को जल प्रलय से बचाया जा सकेे। सवाल यही है कि नदियों को अविरल बहने दिया जाय। जब इसकी अनदेखी हो रही है, तो इस तरह की मानवजनित आपदा को झेलना पड़ेगा।

बांध निर्माण से पहले पर्यावरण प्रभाव आंकलन और समाजिक प्रभाव आंकलन की रिपोर्ट तैयार की जाती है। इनमें क्या लिखा जाता है, इसे प्र्रभावित क्षेत्र के लोग स्थानीय भाषा या हिन्दी में जानना चाहते हैं जिसे अधिकारी हमेशा लोगों की नजर से छिपा कर रखते हैं या बहुत दबाव पड़ने पर अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध करा दिया जाता है, जिससे लोग अनभिज्ञ रहते हैं।

सच्चाई यह है कि इन आंकलनों में प्रभावित क्षेत्र की आबादी, जंगल, खेत, जल स्रोत, आजीविका के साधन आदि को न्यूनतम से भी कम दर्शाकर बांध निर्माण का रास्ता खोला जाता है। चिंता तब और बढ़ जाती है जब सरकारी मशीनरी भी प्रभावित क्षेत्र की सही जानकारी लोगों के साथ नहीं बांटती है। पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट का दोष यह भी है कि वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध एवं भविष्यवाणियों को सीधे नकार देता हैे।

भूगर्भ वैज्ञानिक कहते हैं कि ऋषिगंगा पर जो प्रलय हुआ है उसके संकेत पिछले 37 वर्षों से मिलने लगे थे। उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के निदेशक डाॅ एमपीएस बिष्ट के अनुसार यहां के 8 से अधिक ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। उनके द्वारा 1970-2017 के बीच किए गए अध्ययन में कहा है कि यहां के ग्लेशियर 26 वर्ग किमी पीछे खिसक गए हैं। इसका प्रभाव केवल ऋषिगंगा पर ही पड़ता है। वाॅडिया हिमालयन इंस्ट्टियूट के वैज्ञानिकों के अनुसार गौमुख, डोकरियानी, बंदरपूछ, बद्रीनाथ, सतोपंथ, चोराबाड़ी, खतलिंग मिलम, काली, नरमिक, हीरा मणी, सोना, पोंटिग आदि ग्लेशियरों के टूटने का खतरा बना हुआ है।

अल्पाइन आकार के पर्वतों के ग्लेशियरों को स्नो-एवलांच, पिघलने व टूटने के लिहाज से बेहद खतरनाक बताया जा रहा है। इसका कारण है कि ठंड के मौसम में होने वाली बारिश और बर्फवारी के चलते अल्पाइन ग्लेशियरों में कई लाख टन बर्फ का भार बढ़ जाता है जिसके कारण ग्लेशियरों के टूटने व खिसकने का खतरा बना रहता है। रैणीवल्ला और रैणीपल्ला और जुज्नू इन तीन गांवों के 120 परिवार अभी भी दहशत में हैं, क्योंकि ऋषिगंगा के उद्गम में बर्फ की भारी झील बन गई है। उनकी आशंका है कि अभी झील ऊपर से तबाही का कारण न बन जाए। वे रात को डरे और सहमे रहते हैं। दूसरी ओर देखें तो इस आपदा के कारण जोशीमठ- मलारी हाईवे पर बना पुल टूटने से आगे के 13 गांवों से पूरी तरह संपर्क कटा हुआ है। इस रास्ते से होकर चीन की सीमा पर तैनात जवानों तक खाद्य सामग्री भी नहीं पहंुच पा रही है। सीमा सड़क संगठन के जवान फिलहाल वैली-ब्रिज लगाने का प्रयास कर रहे हैं। प्रभावित गांव के लिए सरकारी व गैर सरकारी संगठनों की तरफ से खाद्य सामग्री और अन्य राहत भी भेजी जा रही है।

इस आपदा के निमित्त यह सवाल हमेशा पूछा जाएगा कि ऋषिगंगा प्रोजेक्ट की शुरुआत के समय यदि निर्माण कम्पनी रोजगार और नौकरी के नाम पर लोगों का विरोध कमजोर न करती तो आज सैंकड़ांे लोगों की जान न जाती और यदि भविष्य में इससे कोई सबक न ले सकें तो शृंखलाबद्ध रूप में निर्मित एवं निर्माणाधीन बांधों से इसी तरह की त्रासदी की पुनरावृत्ति होती रहेगी।

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