प्रदेश में हर बार सत्ता परिवर्तन की परंपरा चलते कांग्रेस को सत्ता पाने की आस जगी थी। पार्टी के दिग्गजों में अति आत्मविश्वास इस कदर हावी हुआ कि कई नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार बन गए। टिकट आवंटन से पहले ही मुख्यमंत्री पद के दावेदारों ने एक-दूसरे को शिकस्त देने की चौपड़ बिछा दी। परिणाम हार के रूप में सामने आया। फिर शुरू हुई एक-दूसरे पर हार का ठीकरा फोड़ने की राजनीति। फिलहाल, आस से शुरू हुआ साल करारी हार के बाद ह्रास तक जा पहुंचा है
‘‘अतीत को सिर्फ याद करना ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि अतीत के सबक पर बेहतर भविष्य की नींव खड़ी करना आवश्यक है’’
उक्त पंक्तियां कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से निकला एक महत्वपूर्ण संदेश है मगर यह संदेश उत्तराखण्ड कांग्रेस और उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेता शायद आत्मसात करने को तैयार नहीं हैं। अब जबकि 2022 का साल बीत चुका है और नई आशाओं के साथ 2023 का इंतजार है। लगता है उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेता अतीत को देखकर कोई सबक नहीं लेना चाहते। 2022 की शुरुआत में लगा था कि कांग्रेस उत्तराखण्ड में कुछ खास करने को आतुर है लेकिन 2022 के विधानसभा चुनावो के परिणामों ने इस भ्रम को तोड़ दिया। 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद से कांग्रेस नेताओं के अंदर गुटबाजी की जो विभाजक रेखा नजर आ रही थी वह 2022 की विदाई के साथ वैसी ही है बल्कि यह और भी गहराती जा रही है। वह बात अलग है कि खेमे बदल गये, पाले बदल गए, बस नहीं बदला तो वह खेमेबाजी का आलम जो 2017 और 2022 में कांग्रेस की करारी हार का कारण था। 2022 के शुरुआत में उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजय और 2022 के जाते-जाते हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत कांग्रेस के नेताओं की बड़ी टीस दे गई। जिस बदलाव की परंपरा को उत्तराखण्ड में कांग्रेस कायम नहीं रख पाई उस परंपरा को हिमाचल कांग्रेस द्वारा कायम रख पाना उत्तराखण्ड कांग्रेस नेताओं की टीस का सबसे बड़ा कारण रहा। समान परिस्थितियों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भरपूर कोशिशों के बावजूद भी जिस प्रकार हिमाचल से भाजपा की विदाई हुई उसके पीछे सबसे बड़ा कारण वहां कांग्रेस का संगठित होना था जो कि उत्तराखण्ड में कांग्रेस नहीं कर पाई।
उत्तराखण्ड में पिछले एक वर्ष पर नजर डालें तो कांग्रेस के नेता अपनी पार्टी को स्वयं हाशिए पर धकेलने पर तुले हैं। शायद कांग्रेस के इन नेताओं को मुगालता है कि कांग्रेस के आंतरिक संघर्ष में अगर वह खुद को बीस साबित नहीं कर पाए तो 2024 में भाजपा के दरवाजे पर दस्तक तो दी ही जा सकती है। 2022 के विधानसभा चुनावों के परिणाम कांग्रेस के लिए किसी दुःस्वप्न से कम नहीं थी। कांग्रेस को पूर्ण विश्वास था कि भले ही उनके आंतरिक संघर्ष कितने हों लेकिन हर पांच वर्षों में सत्ता बदलने के ‘रिवाज’ चलते जनता उन्हें सत्ता जरूर सौंप देगी लेकिन भारतीय जनता पार्टी आलाकमान के एक जोखिमभरे निर्णय से कांग्रेस का सपना धरा रह गया। भाजपा ने युवा पुष्कर सिंह धामी को राज्य की कमान सौंप सत्ता विरोधी लहर को थाम कांग्रेस के मिथक न टूटने के भ्रम को तोड़ दिया। शायद जनता को बिखरी हुई कांग्रेस पर सक्षम नेता होने के बावजूद भरोसा नहीं हुआ। यह चुनाव जहां हरीश रावत के लिए व्यक्तिगत रूप से बड़ा झटका था, वहीं कांग्रेस के लिए अगले पांच साल तक इंतजार करने के लिए संदेश था कि ‘अपना घर दुरुस्त कीजिए फिर वोट मांगने आइये।’ लेकिन चुनाव बाद हुई घटनाएं कहीं से ऐसा संदेश नहीं देती थीं कि विधानसभा चुनावों की पराजय से कांग्रेस ने कोई सबक लिया हो या फिर वह सबक लेने को तैयार हो। कांग्रेस में सूबेदारों की लंबी जमात है और इन सूबेदारों के सैकड़ों जनाधार विहीन समर्थक जो अपने नेता को कुर्सी के लिए सबसे उपयुक्त होने का भ्रम दिलाते है। इस संबंध में हिमाचल के चुनाव परिणामों के बाद पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह का बयान महत्वपूर्ण है कि ‘उत्तराखण्ड में कांग्रेस के कई मुख्यमंत्री के दावेदार चुनाव लड़ रहे थे।’ शायद इन दावेदारों में वे स्वयं को भी शुमार कर रहे थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि 2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के एक पार्टी के रूप में आंतरिक और बाहरी दो मोर्चों में जूझ रही थी। सत्ता का स्वाद हर कोई चखना चाहता था लेकिन त्याग करने की इच्छा किसी भी नेता में नहीं थी। अगर विधानसभा चुनाव से पूर्व के घटनाक्रम पर नजर डालें तो कांग्रेस की पराजय की नींव उसी दिन पड़ गई थी जब नव नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के कार्यभार ग्रहण करने के दिन कांग्रेस दो खेमों में स्पष्ट नजर आई। जहां कई नेता प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के स्वागत में मशगूल थे, वहीं प्रीतम सिंह अपने सिपहसालार रणजीत रावत, नए कोषाध्यक्ष आर्योन्द्र शर्मा, नए कार्यकारी अध्यक्ष भुवन कापड़ी, प्रो जीतराम के साथ देहरादून की सड़कों पर शक्ति प्रदर्शन कर रहे थे। बची-खुची कसर टिकट वितरण ने पूरी कर दी जिससे जनता में नकारात्मक संदेश निचले स्तर तक चला गया। हर बड़े नेता की अपने लोगों को टिकट देने की कवायद और दूसरे नेता को रोकने की कवायद में अपनी ऊर्जा लगाने में कांग्रेस के लिए पूरा नकारात्मक संदेश पूरे प्रदेश में चला गया। वे शायद यह भूल रहे थे कि उनका मुकाबला कैडर आधारित और संगठित भाजपा से था। हिमाचल के चुनाव परिणामों ने जता दिया कि अगर संगठित और मजबूत विपक्ष हो तो मोदी छवि से भी लड़ा जा सकता है। उत्तराखण्ड में कांग्रेस यह नहीं समझ पाई। उसको ग्यारह सीटों से उन्नीस हो जाना ही अपनी उपलब्धि नजर आने लगी। उन उन्नीस विधायकों में भी खेमेबाजी स्पष्ट रूप से नजर आती है। विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद हार का ठीकरा हरीश रावत, प्रभारी देवेन्द्र यादव और प्रीतम सिंह पर एक दूसरे के समर्थकों ने फोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रीतम सिंह को उम्मीद थी कि पार्टी आलाकमान उन्हें ही नेता प्रतिपक्ष के रूप में नामित करेगा लेकिन उनकी उम्मीदों को तब झटका लगा जब कांग्रेस आलाकमान ने वरिष्ठ नेता यशपाल आर्या को नेता प्रतिपक्ष और युवा करण माहरा को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। इन नियुक्तियों से प्रीतम सिंह के हमले की तोप प्रदेश प्रभारी देवेन्द्र यादव की तरफ मुड़ गई। उन्हें लगता था कि उनके नेता प्रतिपक्ष न बनने के पीछे देवेन्द्र यादव का हाथ था। इन सबके बीच एक और खास बात थी कि जिस करन माहरा को प्रीतम खेमे का माना जाता था उनका स्वतंत्रत रूप से निर्णय लेना प्रीतम सिंह को रास नहीं आया और उनकी एक-दूसरे के प्रति सार्वजनिक टिप्पणियों ने स्पष्ट इशारा किया कि करण माहरा किसी के दबाव में आने वाले नहीं हैं और राजनीति में निष्ठाएं स्थाई नहीं होतीं। कांग्रेस के एक पूर्व महासचिव का कहना है कि जब आप सब कुछ आलाकमान पर छोड़ देते हैं तो आपका नैतिक दायित्व बन जाता है कि उसके निर्णय को सहज रूप से स्वीकार करें लेकिन कांग्रेस नेताओं की समस्या यही है कि वे कांग्रेस आलाकमान की दुहाई तो देते हैं मगर उसका निर्णय अपनी इच्छानुसार ही चाहते हैं। उनका कहना है कि आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे पर टीका टिप्पणी कतई सही नहीं ठहराई जा सकती। 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद प्रीतम सिंह के निशाने पर राज्य प्रभारी देवेन्द्र यादव हैं। यह वही देवेन्द्र यादव हैं जिनके प्रीतम सिंह कभी खास हुआ करते थे। राजनीति का शायद यही विरोधाभास है। हरिद्वार पंचायत चुनावों की हार का ठीकरा भी प्रीतम सिंह ने देवेन्द्र यादव पर ही फोड़ा था। इस बीच नये जिलाध्यक्षों की नियुक्तियों पर भी प्रीतम खेमे ने अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से व्यक्त की है। देहरादून महानगर अध्यक्ष पद से लाल चंद शर्मा की रुखसती प्रीतम सिंह को रास नहीं आई है। प्रीतम सिंह इस बीच संगठन से इतर अपने कई सार्वजनिक कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी ताकत दिखाने में जुटे हैं। वे जसपुर विधायक आदेश चौहान, विक्रम सिंह नेगी, भुवन कापड़ी सरीखे नेताओं को साथ लेकर कांग्रेस के अंदर एक नई धारा को जन्म देने की कोशिश कर रहे हैं। हरीश रावत का जहां तक प्रश्न है अब उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है नहीं, सो वह हरिद्वार लोकसभा क्षेत्र में अपनी जमीन पुख्ता कर लेना चाहते हैं लेकिन प्रीतम खेमा यहां भी उनकी राह में कांटे बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। प्रीतम सिंह जिस प्रकार हरिद्वार में सक्रियता दिखा रहे हैं वे उनके भविष्य के मंसूबों की ओर संकेत देता है। हरीश रावत जमीन के साथ सोशल मीडिया में अपनी सक्रियता से कहीं कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर उनका कांग्रेसजनों को कोसना दिखाता है कि वह अभी मैदान नहीं छोड़ने वाले और आने वाले समय में उनके तरकश से निकलने वाले राजनीतिक तीर राजनीतिक माहौल में हलचल पैदा करते रहेंगे।
जहां तक प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा और नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्या का प्रश्न है उनको भी दो मोर्चों पर लड़ना है। कांग्रेस पार्टी के अंतर्विरोधों के साथ सरकार से भी जूझना है। एक पूर्व प्रदेश सचिव का कहना है कि आंतरिक मोर्चों पर लड़ना शायद ज्यादा मुश्किल है। नेताओं को एक जुट रखने की कवायद तराजू पर मेढकों को तोलने सरीखी कवायद है और जब तक कांग्रेस के बड़े नेता अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को पार्टी हित से ऊपर रखेंगे फिर आप 2024 को भी भूल जाइए और 2027 को भी भूल जाइए। जिस प्रकार नेताओं के तेवर हैं उससे कोई आश्चर्य नहीं कि 2024 में कुछ नेता भाजपा से गलबहियां करते नजर आएं। भारतीय जनता पार्टी ने सख्ती से नए युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाया उसकी सफलता की कहानी सामने है। मगर कांग्रेस का प्रदेश में स्थिर एवं जड़ नेतृत्व अपनी जगह खाली नहीं करना चाहता। नेताओं के इर्द-गिर्द जनाधार विहिनों का जमावड़ा नेताओं को खोखले स्वप्नलोक में विचरण कराता रहता है जिससे वे जमीनी हकीकत को या तो देख नहीं पाते या फिर जानबूझकर देखना नहीं चाहते।
उत्तराखण्ड में कांग्रेस की 2022 में स्थिति बहुत आशाजनक स्थिति तो नहीं दिखती। 2022 में कांग्रेस ने अपना अधिकांश समय आंतरिक झगड़ों में ही जाया किया है। नेताओं का अपनी आभा को कांग्रेस की आभा से बड़ा देखना, कांग्रेस की कमजोर होती ताकत का सबसे बड़ा कारण है। इसी अवधारणा के चलते नए नेतृत्व का अभाव उत्तराखण्ड कांग्रेस में साफ नजर आता है। पुराने नेता अपनी पकड़ पार्टी में ढीली नहीं छोड़ना चाहते जिस कारण युवा नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है खासकर वह नेतृत्व जिसकी पकड़ पूरे उत्तराखण्ड में हो। जब 2024 के लोकसभा चुनाव महज डेढ़ वर्ष दूर हों तो 2022 की उत्तराखण्ड कांग्रेस फिलहाल तो कोई खास आस जगाती दिखती नहीं। सवाल है 2023 में कांग्रेस कैसी रणनीति अपनाती है क्योंकि पंचायत चुनाव, निकाय चुनाव और लोकसभा चुनाव सरीखी विशाल चुनौतियां उसके सामने खड़ी हैं और 2023 का साल कांग्रेस और उसके नेताओं की साख की परीक्षा का साल होगा।