कृषि एवं उद्यान विभाग महाघोटाला-1
कबीर दास कह गए-‘राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट, अंतकाल पछताएगा जब प्राण जाएंगे छूट’। उत्तराखण्ड में भगवान राम के नाम पर सत्ता में आसीन सरकार का उद्यान विभाग कबीर दास के कहे को भ्रष्टाचार के समुद्र में डाल अलग ही रंग-रूप में परवान चढ़ा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी ‘डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर’ नीति का उद्देश्य आमजन तक कल्याणकारी योजनाओं का सीधा लाभ पहुंचाना था। देवभूमि में इसे भी भ्रष्टाचार के रंग में रंग दिया गया है। घोटालों का रिकॉर्ड बनाने वाले राज्य के कृषि एवं उद्यान विभाग ने किसानों को विभिन्न योजनाओं के मद में दी जाने वाली सब्सिडी में भारी खेला कर डाला है। सब्सिडी सीधे किसानों के खाते में न देकर ऐसी निजी कंपनियों के खाते में दी जा रही है जो घटिया उपकरण, घटिया पौध और घटिया पॉलीहाउस इत्यादि कृषकों को दे रही हैं। माल घटिया होने के साथ-साथ बेहद महंगा भी है। किसानों को यदि अनुदान चाहिए तो उसे इन्हीं कंपनियों से सामान खरीदना जरूरी कर दिया गया है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार केंद्र्र की पूर्ववर्ती सरकारों के बारे में कहते रहे हैं कि कांग्रेस सरकार में 1 रुपया भेजा जाता था तो 15 पैसे भी पूरा नहीं पहुंचता था। बकौल प्रधानमंत्री यह पूर्ववर्ती सरकारों का करप्श्नकाल था, आज भाजपा सरकार के आने के बाद स्थितियां बदली हैं और पूरा पैसा सीधे बैक खातों में डीबीटी के माध्यम से पहंच रहा है यह अमृतकाल है। उत्तराखण्ड में लेकिन स्थितियां आज भी करप्शनकाल में ही चल रही हैं। जिस डीबीटी योजना को पीएम मोदी किसानों के लिए अमृतकाल बता रहे हैं वह डीबीटी योजना भाजपा शासित उत्तराखण्ड में दम तोड़ चुकी है। हास्यास्पद बात यह है कि जब संपूर्ण योजनाओं का बजट पूरी तरह से खर्च हो चुका है तब प्रदेश का सरकारी सिस्टम किसानों को अनुदान के लिए डीबीटी योजना को लागू करवाने के लिए निर्देश जारी कर रहा है जबकि बीते पांच सालों के दौरान योजना को पलीता लगाने में प्रदेश का कृषि और उद्यान विभाग लगा रहा।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किसानों की आय दोगुनी करने के उद्देश्य से देश में कई योजनाएं आरंभ की गई थी। ये सभी योजनाएं 2017 से 2023 तक पांच वर्ष के लिए शुरू की गई और इनको कृषक कल्याण योजनाएं कहा गया। इन योजनाओं में ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’, ‘बागवानी मिशन योजना’, ‘परंपरागत कृषि विकास योजना’, ‘फार्म मशीनीकरण योजना’, प्रट्टाानमंत्री फसल बीमा योजना’, ‘प्रट्टाानमंत्री किसान सम्मान निधि’, ‘मृदा स्वास्थ्य कार्य योजना’, ‘राष्ट्रीय मधु मक्खी पालन और शहद मिशन योजना’ तथा ‘प्रट्टाानमंत्री सूक्ष्म खद्य प्रसंस्करण उद्यम उन्न्यन योजना’ शामिल हैं।
हॉर्टिकल्चर क्षेत्र में बागवानी के लिए भी कई योजनाएं जिसमें ‘पॉलीहाउस योजना’ और ‘सेव फल पट्टी विकसित’ करने की योजनाएं भी इनमें शामिल थी। 20 हजार करोड़ की इन योजनाओं में किसानों के लिए अनुदान सब्सिडी आदि को डीबीटी योजना के माध्यम से लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे दिए जाने का प्रावधान होने के बावजूद उत्तराखण्ड में कृषि और उद्यान विभाग के द्वारा डीबीटी योजना को प्रदेश में लागू ही नहीं किया। जबकि कई राज्यों ने इस योजना को लागू कर किसानों को फायदा पहुंचाया। हिमाचल प्रदेश जो कि भौगोलिक दृष्टि से उत्तराखण्ड प्रदेश के समान ही है उसने भी अपने प्रदेश के किसानों को सरकारी योजनाओं में मिलने वाले अनुदान को डीबीटी के माध्यम से देना आरम्भ कर दिया। लेकिन उत्तराखण्ड में सरकारी सिस्टम ने इस योजना को पलीता लगाते हुए इसके लिए विभाग में निजी कंपनियों को टेंडर प्रणाली के जरिए बीज, खाद, दवाओं और पौधों की आपूर्ति वाली पूर्ववर्ती योजना पर ही फोकस बनाए रखा। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में किसानों को मिल रहे सरकारी योजनाओं के अनुदान के लिए डीबीटी योजना नहीं चल रही है। ‘किसान सम्मान निधि’ पूरी तरह से डीबीटी योजना के तहत चल रही है और प्रत्येक 4 माह के बाद किसान सम्मान निधि की धनराशि प्रदेश के किसानों को सीधे उनके बैंक खातेे में दी जा रही है। लेकिन करोड़ों की सब्सिडी किसानों को दिए जाने के बजाय कंपनियों को दी जा रही है। जिसके चलते खुले बाजार में तो कम कीमत में पौध, बीज, दवा और उपकरण मिल रहे हैं। लेकिन उनके बजाय उद्यान विभाग के द्वार स्वीकृत कंपनियों से ही मंहगी दरांे पर किसान खरीदने के लिए मजबूर हैं।

ऐसे लगाया जा रहा है डीबीटी योजना को पलीता
किसानों के साथ-साथ सरकारी खजाने को चपत लगाने के इस ‘खेला’ का ज्वंलत प्रमाण प्रदेश में सेब की ख्ेाती के तौर पर देखा जा सकता है। आज प्रदेश में राज्य सरकार द्वारा सेब की खेती को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं आरम्भ की हैं जिसमें नए सेब बाग लगाने और उनके रख-रखाव के लिए अनुदान दिया जा रहा है। लेकिन इसमें सबसे बड़ा पेंच यही है कि उद्यान विभाग द्वारा तय की गई कंपनियों और नर्सरियों से ही किसानों को सेब के पौधे क्रय करने के लिए नियम बनाए गए हैं। जिसके चलते किसानों को इन कंपनियों और नर्सरियों से ही पौधे खरीदने पड़ते हैं। इन सभी नर्सरियों में मिलने वाले पौधे 600 से लेकर 650 तक की कीमत के हैं, साथ ही यह भी नियम थोप दिया गया है कि पौधों के साथ सभी जरूरी उपकरण को भी इन्हीं कंपनियों और नर्सरियों से ही लेना जरूरी है। जबकि बाहरी राज्यों के अलावा प्रदेश के कई सेब किसानों द्वारा स्थापित नर्सरी के पौधों की कीमत महज 150 से लेकर 250 तक ही है। साथ ही कई जरूरी उपकरण खुले बाजार में बेहद सस्ते और बेहतर गुणवत्ता वाले हैं। इस पूरे खेल को इस तरह से समझा जा सकता है कि विभाग द्वारा तय की गई नर्सरी या कंपनी के सेब के पौट्टो की कीमत 600 से लेकर 1200 तक है। इसमें उपकरण आदि भी शामिल है। अब अगर कोई किसान 1000 सेब के पौधे अपने बागीचे में लगाता है तो उसे सरकारी अनुदान के लिए जिला उद्यान अधिकारी को अपना आवेदन देना होगा जिस पर किसान का आवेदन अगर स्वीकृत हो गया तो उसे तय पैनल के नर्सरी या कंपनी से पौधे क्रय करना होगा। किसान को 1 हजार पौधे मिलेंगे जिसमें करीब 300 रुपए प्रति पौधे का अनुदान मिलेगा। लेकिन यह अनुदान उसको मिलने की बजाय नर्सरी या कंपनी को ही मिलेगा और वह किसानों को अनुदान देगी। यहां पर दो प्रकार के प्रजाति के सेबों को रखा गया है। इनमें एक रूट स्टाक प्रजाति है तो दूसरी बीज द्वारा उत्पन्न ग्राफ्टिंग प्रजाती है। गौर करने वाली बात यह है कि जहां रूट स्टाक महज 12 से 15 वर्ष तक ही फसल देता है तो वहीं ग्राफ्टिंग प्रजाति से 40 से 50 वर्ष तक लगातार फसल प्राप्त होती है। इसमें उत्पादन में भी बड़ा अंतर है। रूट स्टाक का एक पौधा 2 से 3 वर्ष में 5 से 10 किग्रा फल देता है तो वहीं परंपरागत बीज ग्राफ्टिंग सेब से 70 से 80 किग्रा सेब की फसल प्राप्त होती है। हैरत की बात यह है कि उत्पादन और अधिक आयु के होने के बावजूद उद्यान विभाग का पूरा फोकस रूट स्टाक प्रजाति पर ही है और इसे ही लगाने के लिए किसानों को बरगला कर मजबूर किया जाता है। इसके चलते प्रदेश में रूट स्टाक की नर्सरियां और कंपनियांे की तादात तेजी से बढ़ी है। सबसे बड़ा ‘खेल’ यह है कि जिस पौधे की कीमत खुले बाजार या अन्य नर्सरियों में 300 से 600 रुपए है उस पौधे का किसान को 600 से 1200 रुपए में खरीदना पड़ता है जिसमें अनुदान दिया जाता है। अनुदान के लिए ही सेब के पौट्टाों की कीमत दोगुनी कर दी जाती है जिसका पूरा फायदा पैनल वाली नर्सरी या कंपनी को ही होता है। उसे तो अपने पौधे की मूल कीमत 300 रुपए मिल जाती है, शेष बढ़ी रकम सब्सिडी के नाम पर बढ़ाई गई है। डीबीटी योजना के नाम पर विभागीय अधिकारियों और नर्सरी मालिकों का किस तरह से किसानों की सब्सिडी को लूटा जा रहा है, इसका प्रमाण सीबीआई जांच में भी सामने आया है। बताया जा रहा है कि किसानों को सेब के पौधों के लिए मिलने वाली सवा तीन करोड़ की सब्सिडी नर्सरी संचालक ही डकार गए हैं। ‘यूके हाईटेक नर्सरी’ को किसानों की सेब की सब्सिडी के लिए धनराशि विभागीय अधिकारियों द्वारा दी गई लेकिन नर्सरी संचालक और अधिकारियांे की मिलीभगत से उक्त सब्सिडी की राशि कृषकों तक नहीं पहुंची।
घटिया समान-महंगा दाम और करोड़ों का घोटाला

‘पलायन एक चिंतन कार्यक्रम’ चलाने वाले समाजसेवी और कार्यकर्ता रतन सिंह असवाल द्वारा पौड़ी जिले के कल्जीखाल विकासखंड के घंडियाल क्षेत्र के साकनी गांव में 150 नाली भूमि पर 2500 सेब और 200 पुलम, 50 आडू मिलाकर 2750 पौधों का बागान स्थापित किया है, जिसमें चार अलग-अलग प्रजाति के सेब के पौधे लगाए गए हैं जो कि पूरी तरह से विकसित हो रहे हैं। गौर करने वाली बात यह है कि असवाल द्वारा अपने सेब के बागान के लिए सरकारी योजना से एक भी रुपया नहीं लिया है और हिमाचल प्रदेश की नर्सरी से महज 250 रुपए तक कीमत से मंगवाए हैं। जबकि सरकारी येाजना में केवल रूट स्टाक ही है जिसे प्रमोट किया जा रहा है लेकिन बीज ग्राफ्टिंग की नर्सरी को न तो प्रमोट ही नहीं किया जा रहा है और न ही उद्यान विभाग इसके लिए कोई प्रयास कर रहा है। यही नहीं बगीचे की घेरबाड़ जो कि प्रदेश के उद्यान विभाग द्वारा तय पैनल की कंपनियों से 11 लाख रुपए में लग रही थी उसे खुले बाजार से लेकर असवाल द्वारा लगाया गया है जिसकी कुल लगात 5 लाख ही आई। इससे साफ है कि उद्यान विभाग किस तरह से टेंडर प्रक्रिया के तहत ‘घेरबाड़ योजना’ में भी लागत को दोगुना करवा कर किसानों को दे रहा है जिसमें सरकारी खजाने को बड़ी चपत लग रही है। गौर करने वाली बात यह है कि उद्यान विभाग के द्वारा एक एकड़ में बागान लगाने का पूरा खर्च 20 से 22 लाख है जबकि असवाल के द्वारा साढ़े छह एकड़ के बागान का सम्पूर्ण खर्च 18 लाख आया जिसमें खेत बनाने से लेकर घेरबाड़, सिंचाई की व्यवस्था और मजदूरी शामिल है। उद्यान विभाग केवल सेब के बगीचों के लिए ही डीबीटी योजना को लागू नहीं कर रहा है ऐसा भी नहीं है। करीब हर उस योजना जिसमें किसानों को सब्सिडी दी जाती है डीबीटी योजना में नहीं रखा गया है। ‘दि संडे पोस्ट’ ने विगत 13 मई 2023 के अंक में राज्य में किसानों के लिए पॉलीहाउस योजना में हो रहे घोटाले का खुलासा किया था। पॉलीहाउस योजना में भी जम कर मानकों को ताक पर रखा जा रहा है। जो पॉलीहाउस खुले बाजार में महज 60 से 80 हजार का बेहतर गुणवत्ता वाला बनाया जा सकता है उसे सरकारी योजना में सवा लाख की लगात से निम्न गुणवत्ता के साथ किसानों को सब्सिडी के नाम पर दिया जा रहा है, जो कि एक वर्ष में ही क्षतिग्रस्त हो रहे हैं।
बात अपनी-अपनी
हम तो हर बार डीबीटी येाजना को लागू करने की मांग उठाते रहे हैं। हमारी मांग पर ही डीबीटी योजना को लागू करने का आदेश जारी किया गया लेकिन आज तक उसका पालन नहीं हो रहा है। इतना जरूर किया है कि विभाग ने जहां पहले 4-5 कंपनियांे को पैनल में रखा था अब 5 नई कंपनियो को भी पैनल में जोड़ दिया है। यानी अब भी हमें अपने उपकरण दवा खाद आदि के लिए इन्हीं कपंनियों से ही माल खरीदना पड़ेगा फिर चाहे वह कितना ही मंहगा क्यों न हो। जबकि डीबीटी योजना तो यह है कि मुझे जो भी सामान चाहिए में उसे अपनी इच्छा से किसी भी कंपनी या दुकान से लूं, बस उसकी गुणवत्ता मानकों पर हो और मुझे सरकार तय सब्सिडी मेरे बिल के आधार पर जारी करे। लेकिन यहां उल्टा हो रहा है। हमें कीमत बढ़ा कर सामान दिया जा रहा है और सब्सिडी कंपनी को दी जा रही है।
कुंदन सिंह पंवार, उद्यान पंडित, नैनबाग
डीबीटी योजना का प्रावधान मेंडेटरी है, हमारी इच्छा पर नहीं है। भारत सरकार के नियमों अनुसार किसानों को जो भी अनुदान या सब्सिडी मिलेगी वह बैंक खाते में सीधे दी जाएगी। उत्तराखण्ड में इसे लागू नहीं किया गया है। केवल आदेश जारी कर के दिखावा किया जा रहा है। जिन मामलों में उद्यान विभाग के अट्टिाकारियांे को कमीशन नहीं मिल पा रहा है उनमें तो ये लोग डीबीटी योजना को लागू कर देते हैं लेकिन जिनमें ज्यादा बजट होता है और जिनमें कमीशन ज्यादा होता है उसमें ये कंपनियों को पैनल बनाकर किसानांे को उनसे ही खरीदने के लिए मजबूर कर रहे हैं। सेब के पौधे हों या सब्जियों के बीज हों सभी को पैनल कंपनियांे से ही लेना होता है जबकि इनकी गुणवत्ता इतनी खराब है कि पौधे मर जाते हैं। बाहर की कंपनियांे के बीज आदि सस्ते भी हैं और उच्च गुणवत्ता वाले हैं लेकिन किसान उनसे नहीं खरीद पा रहा, क्योंकि उसे सब्सिडी नहीं मिलेगी।
प्रवीण कुमार, जैविक कृषक, मुक्तेश्वर, नैनीताल
प्रदेश में जो भी उद्यान के प्रोजेक्ट लग रहे हैं वह सब्सिडी के खेल चलते गुणवत्तावहीन है। सरकार ने तय कंपनियों से ही खरीदने के लिए नियम बना दिए हैं जो कि बहुत ही खराब गुणवत्ता वाले पौधे और उपकरण सप्लाई करते हैं। सेब का प्रोजक्ट 10 लाख में लगाया जा रहा है लेकिन अगर उसे डीबीटी में सीट्टो शामिल कर दिया जाए तो वह 6 लाख से भी कम में लग सकता है। आज डीबीटी के नाम पर कंपनियों और नर्सरीयों को फायदा देने के लिए किसानों को घटिया सामान दिया जा रहा है। चाहे पॉलीहाउस हो या घेरबाड़ या सेब, पुलम, आडू, कीबी की पौधे हो, सभी की घटिया क्वालिटी है। जबकि बहरी कंपनियां और नर्सरियों के उत्पादन उपकरण बहुत अच्छे हैं और आट्टो रेट पर मिल रहे हैं। लेकिन उनको किसान नहीं ले सकता। 2021 में राज्य में डीबीटी योजना को लागू करने का आदेश जारी हुआ जिसका आज तक पालन नहीं किया जा रहा है।
वीरबान सिंह रावत, अध्यक्ष, कृषक बागवान उद्यमिता संगठन, उत्तराखण्ड
सरकार और उद्यान विभाग का पूरा फोकस कागजों में अपनी वाहवाही करने से ज्यादा कुछ नहीं है। इनका फोकस किसानों की तरक्की करने की बजाय केंद्र्र सरकार को अपनी उपलब्धियों का बखान करना ही है। हमने 6 एकड़ में सिर्फ 18 लाख की लगात से सेब, पुलम, आडू का बगीचा लगाया जिसमें हमने एक रुपया भी सरकारी अनुदान से नहीं लिया। सरकारी अनुदान के नाम पर एक एकड़ का सेब का बगीचा 20 लाख का पड़ रहा है। इससे साफ है कि सिर्फ दिखावा किया जा रहा है और करोड़ों की बंदरबांट विभाग के अधिकारी नर्सरियांे और कंपनियों में हो रही है। अगर सीधे किसानों को सेब की खेती में डीबीटी योजना से जोड़ दें तो सेब के बगीचों की तादात तीन गुना और बेहतर गुणवत्ता वाले हो जाएंगे।
रतन सिंह असवाल, संचालक पलायन एक चिंतन कार्यक्रम उत्तराखण्ड
‘एक बार आप डीजी से बात कर लें, वही बता पाएंगे।’
विनोद कुमार सुमन, सचिव उद्यान, उत्तराखण्ड
कुछ मामलों में समस्या आ रही थी इसलिए उनमें सीधा डीबीटी लागू नहीं हो पाया लेकिन जिनमें समस्या नहीं थी उनमें लागू किया हुआ है, अब इसके लिए एक ठोस योजना बनाई जा रही है जिसमें हम रुपए कार्ड को लागू करने जा रहे हैं। योजना अभी शासन में है जल्द ही इसे लागू कर दिया जाएगा और सभी योजनाओं में जहां डीबीटी का प्रावधान है उनमें सीधा डीबीटी के माट्टयम से भुगतान होगा।
रणवीर सिंह चौहान, उद्यान महा निदेशक, उत्तराखण्ड