प्रत्येक साल की भांति शिक्षा सत्र शुरू होते ही निजी स्कूल और स्टेशनरी संचालक सक्रिय हो जाते हैं। किताब-कॉपी से लेकर ड्रेस, बैग सभी में कमिशनखोरी का बाजार जोरों पर चलने लगता है। प्राइवेट स्कूल मनमानी फीस तय करके अभिभावकों की जेब काट रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सरकारों ने इस बाबत कुछ न किया हो। हरीश रावत सरकार में मनमानी फीस पर नियंत्रण लगाने के लिए ‘फीस एक्ट’ लाया गया। तब से तीन मुख्यमंत्री बदल गए लेकिन कोई भी इस एक्ट को लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। निजी स्कूलों की लूट पर लगाम लगाने के लिए उत्तराखण्ड विद्यालयी मानक प्राधिकरण भी बना। बावजूद इसके शिक्षा के नाम पर चल रही लूट की दुकानों पर कोई रोक नहीं लग सकी
बच्चे का नया शैक्षणिक सत्रः आपको ड्रेस, किताबें, बैग बोतल और जूते सब स्कूल से ही लेना पड़ेगा। पैरेंट्स- और पढ़ाई? उसके लिए आप चाहे तो बाहर या हमसे ट्यूशन लगवा सकते हैं। सोशल मीडिया वॉल पर वरिष्ठ पत्रकार दिनेश मानसेरा द्वारा यह व्यंग राज्य के प्राइवेट स्कूलों के द्वारा नए शैक्षणिक सत्र में बच्चों के अभिभावकों से की जा रही लूट-खसोट को अच्छी तरह से प्रस्तुत कर रहा है। नए शैक्षणिक सत्र में जिस तरह से राज्य के प्राइवेट स्कूल एडमिशन के नाम पर मनमर्जी कर रहे हैं। साथ ही बच्चों को मनमाफिक प्रकाशकों की मंहगी किताबों को खरीदने के लिए मजबूर कर रहे हैं उससे यह साफ हो जाता है कि उत्तराखण्ड में प्राइवेट स्कूलों में सरकार और प्रशासन का कोई भी भय नहीं रह गया है जिसके चलते हजारां अभिभावक लुटने को मजबूर हो रहे हैं। प्रदेश में स्कूली शिक्षा का नया सत्र आरंभ हो गया है। इसके साथ ही प्राइवेट स्कूलों द्वारा अभिभावकां को लूटने का खेल भी हर वर्ष की भांति आरंभ हो चुका है। हैरानी की बात यह है कि हर वर्ष प्राइवेट स्कूलों में इस तरह की लूट निर्बाध तरीके से होती रही है। बावजूद इसके सरकार और सरकारी तंत्र इस लूट को रोकने में नाकाम ही रहते हैं। इतना जरूर है कि राज्य का स्कूली शिक्षा विभाग समाचार पत्रों में इस तरह की खबरों के आने के बाद अचानक से नींद से जागता है और ऐसे स्कूलों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का आदेश जारी करके फिर गहरी नींद में सो जाता है। मौजूदा समय में भी ऐसा ही नजर आ रहा है। प्राइवेट स्कूल छात्रों को मनमाफिक प्रकाशकां की मंहगी किताबों को
खरीदने का दबाव बनाकर सरकार की नीति को ही पलीता लगाने में लगे हुए हैं लेकिन उन पर कार्रवाई होने के बजाय जांच का बहाना बनाया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार प्रदेश के सभी स्कूलों में सीबीएससी पाठ्यक्रम लागू कर चुकी है। इसके लिए एनसीआरटी की किताबों को ही सभी स्कूलों में लागू किया गया है। एनसीआरटी की पुस्तकें बहुत सस्ती हैं जबकि अन्य प्रकाशकों की किताबें बेहद महंगी हैं जिसके कारण इनको खरीदने के लिए अभिभावकों को दोहरा आर्थिक बोझ सहन करना पड़ रहा है। एक तो महंगी किताबें होने से बजट बिगड़ रहा है। दूसरा हर प्राइवेट स्कूल के अलग-अलग मानक और प्रकाशक तय किए हुए हैं। यह एक निश्चित दुकानों पर ही मिलती है। प्राइवेट स्कूलों द्वारा इन किताबों को ही खरीदने का दबाव बनाया जाता है। यदि कोई इन किताबों को नहीं खरीदता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई करने का भय दिखाया जा रहा है जिसमें स्कूल से निकालने या जुर्माना लगाने की बातें सबसे ज्यादा बताई जा रही हैं। इस तरह के मामले जब समाचार पत्रों में आने लगे तो राज्य के स्कूली शिक्षा महानिदेशक बंशीधर तिवारी द्वारा एक आदेश जारी किया गया जिसमें सभी स्कूलों में एनसीआरटी की ही किताबें लगाए जाने और नियम न मानने पर कड़ी कार्रवाई करने का उल्लेख किया गया। हैरानी की बात यह है कि महानिदेशक शिक्षा का यह आदेश तब आया, जब हजारों अभिभावक अपने बच्चों के लिए प्राइवेट प्रकाशकां की किताबें खरीद चुके थे। क्योंकि प्राइवेट स्कूल अपना शैक्षणिक सत्र मार्च के अंतिम सप्ताह से ही आरंभ कर देते हैं और अप्रैल आते-आते तकरीबन एडमिशन तक हो जाते हैं। इसके चलते मार्च में ही किताबें, बैग और ड्रेस आदि की खरीद के लिए मारामारी होने लगती है।
प्राइवेट स्कूलों द्वारा एनसीआरटी की किताबों की जगह प्राइवेट प्रकाशकां की किताबें खरीदने के लिए किस-किस तरह से दबाव बनाया जा रहा है इसकी एक बानगी स्कूलों द्वारा अभिभावकों को 20 किताबों की सूची दिया जाना है जिसमें केवल 4 किताबें ही एनसीआरटी की है शेष 16 किताबें प्राइवेट प्रकाशकों की हैं जो कि कई गुना महंगी हैं। जहां एनसीआरटी की किताब महज 80 रुपए की है तो वहीं प्राइवेट प्रकाशक की किताब 400 रुपए से भी ज्यादा की है। इसके अलावा बगैर मानकों के ही बढ़ी हुई फीस लेना साथ ही छात्र पास होने के बाद आगे की क्लास में जाता है तो उससे रि-एडमिशन चार्ज लेना, स्कूल इमारत फंड के नाम पर इन स्कूलों का सबसे बड़ा लूट का माध्यम बन चुका है। प्रदेश के शिक्षा विभाग ने प्राइवेट स्कूलों की लूट पर लगाम लगाने के मद्देनजर चार टीमां का गठन किया है। यह टीम अलग-अलग ब्लॉक स्तर पर खंड शिक्षा अधिकारी की देखरेख में काम करेगी और जिन-जिन स्कूलों की शिकायतें मिलेंगी उन पर जांच करके कार्रवाई करेगी जिसमें स्कूलों को दोषी पाया जाता है तो राज्य सरकार द्वारा दी गई एनओसी को रद्द करने की कार्यवाही की जाएगी। इसी के चलते अब शिक्षा विभाग की टीमें राज्य भर के स्कूलों में छापे मार कर जांच कर रहा है। अभी तक प्रदेश में 256 स्कूलों और किताबों की दुकानों में छापेमारी की कार्रवाई की गई है। जिसमें नैनीताल में 39, देहरादून में 21, चमोली में 77, हरिद्वार में 37 और रूद्रप्रयाग में 10 तथा बागेश्वर में 9 स्कूलों पर छापे मारे गए हैं। इसी तरह से उत्तरकाशी में 11 अल्मोड़ा में 31 और टिहरी जिले के 11 स्कूलों में छापे पड़े हैं।
शिक्षा महानिदेशक के आदेश के बाद की जा रही जांच, छापेमारी की कार्रवाई के बाद कुछ हद तक लगाम लगने की उम्मीद तो जगी है लेकिन इसके लिए जो ठोस कार्रवाई करने की जरूरत है उसको लागू करने में सरकार और शासन हमेशा से पीछे ही रहा है। हालांकि पिछले वर्ष ही इसके लिए राज्य सरकार द्वारा उत्तराखण्ड विद्यालयी मानक प्राधिकरण का भी गठन किया जा चुका है। साथ ही राज्य में फीस एक्ट को भी लागू करने का वायदा किया गया था लेकिन न तो प्राधिकरण को सुचारू किया गया और न ही फीस एक्ट बनाया जा सका। इसके कारण हर वर्ष प्राइवेट स्कूलों द्वारा मनमर्जी और अपने नियमों की आड़ में लूट-खसोट निर्बाध चली आ रही है। राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद को प्राधिकरण के तौर पर काम करने के लिए अधिकृत किया गया था। इस प्राधिकरण में प्रदेश के सभी सरकारी, अशासकीय और निजी क्षेत्र के सभी स्कूलों को शामिल करके उनकी शिक्षा गुणवत्ता में सुधार करने और जरूरी मानकां के लिए यह प्राधिकरण बनाया गया था। इसके लिए बकायदा 5 जनवरी 2022 को राज्य सरकार द्वारा शासनादेश भी जारी किया गया था।
प्राधिकरण द्वारा 65501 सरकारी स्कूलों, 614 अशासकीय और 5396 प्राइवेट स्कूलों में गुणवत्ता परख शिक्षा के लिए कदम उठाए जाने थे। साथ ही मनमानी फीस बढ़ोतरी पर लगाम लगाने, विद्यार्थियों की सुरक्षा, शिक्षा का आधारभूत ढांचा विकसित करने, कक्षा और विषयों पर शिक्षकों की संख्या तय करने तथा वित्तीय मामलों में ईमानदारी पर न्यूनतम मानक बनाने का कार्य करना था। साथ ही मान्यता की शर्त तय करने और उसका पालन करवाने तथा किसी भी प्रकार की शिकायत मिलने पर उसकी जांच करने की भी जिम्मेदारी प्राधिकरण के अधीन रखी गई थी। यह प्राधिकरण अर्ध न्यायिक आयोग के ही समान काम करने, मान्यता रद्द करने और दोषी पाए जाने वाले स्कूल के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने में पूरी तरह से सक्षम बनाया गया था। इसके अलावा प्राधिकरण को वेबसाइट बनाकर सभी स्कूलों की कक्षाओं, विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या स्कूल की फीस और पढ़ाए जाने वाले विषयों की पूरी जानकारी को सार्वजनिक करने तथा शिक्षकों और कर्मचारियों के वेतन को भी तय करने का अधिकार दिया गया था। लेकिन एक वर्ष से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी प्राधिकरण अभी तक कागजों में ही बना हुआ है, जमीन पर इसकी कोई भी भूमिका सामने नहीं आ पाई है।
इसी तरह से राज्य में फीस एक्ट को लेकर भी घोर उदासीनता बरती जाती रही है। पूर्ववर्ती हरीश रावत सरकार के कार्यकाल में प्राइवेट स्कूलों द्वारा मनमाफिक तरीके से फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन हुआ था। देहरादून के अलावा कई बड़े नगरों में प्राइवेट स्कूलों में बेहताशा फीस वृद्धि को लेकर खासा रोष देखने को मिला। इसको लेकर ऋषिकेश के अभिभावक संघ द्वारा नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने जनता के भारी विरोध को देखते हुए एक फीस एक्ट बनाए जाने का वायदा किया और इसके लिए बकायदा एक ड्राफ्ट भी तैयार किया गया था। लेकिन प्राइवेट स्कूलों के रसूख और दबाव के चलते सरकार फीस एक्ट को लागू करवाने की हिम्मत नहीं दिखा पाई।
इसके पीछे शासन-प्रशासन के उच्चाधिकारियों का भी दबाव बताया जाता है।
जानकारी के अनुसार देहरादून के अनेक बड़े प्राइवेट स्कूलों में सबसे अधिक बच्चे शासन-प्रशासन के अधिकारियों के ही पढ़ते हैं। यहां तक कि सचिवालय के अलावा अन्य संस्थानों के कर्मचारियों तक के बच्चे भी इन्हीं प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। जिसके चलते सरकार प्राइवेट स्कूलों पर दबाव नहीं बना पाई और न ही फीस एक्ट को लाग कर पाई। त्रिवेंद्र रावत सरकार के चार वर्ष के कार्यकाल में भी फीस एक्ट को लेकर तमाम तरह के दावे किए जाते रहे लेकिन त्रिवेंद्र रावत सरकार ने भी इस पर कोई कदम नहीं उठाया। हालांकि हर बार इसके दावे किए जाते रहे हैं। मौजूदा धामी सरकार के समय में भी इस मामले में हीला-हवाली जारी है। राज्य में जब नया शैक्षणिक सत्र आरंभ होता है तब तक राज्य में फीस एक्ट की बातें उठती रहती हैं, लेकिन जैसे नया सत्र का समय पूरा हो जाता है तो फीस एक्ट को भुला दिया जाता है।
बात अपनी-अपनी
एनसीआरटी जैसे ही ड्राफ्ट तैयार करेगी वैसे ही हम कम शुरू कर देंगे, अभी इस पर काम चल रहा है।
बंशीधर तिवारी, निदेशक उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा
एनसीईआरटी ने इसके लिए सीबीएसई को नोडल एजेंसी बनाया है, वही एनसीईआरटी को अपना ड्राफ्ट बना कर देगी फिर एनसीआरटी हमें वह ड्राफ्ट भेजेगी, अभी कोई भी ड्राफ्ट बाहर आया ही नहीं है, जैसे ही ड्राफ्ट आ जाएगा वैसे ही उत्तराखण्ड में भी इस को लागू कर दिया जाएगा।
आरडी शर्मा, अपर निदेशक, एससीआरटी उत्तराखण्ड
इन प्राइवेट स्कूलों ने तो हद मचा रखी है, इन्होंने तो लूट के नए-नए माध्यम बना लिए हैं। हमारी सरकार ने इनकी लूट-खसोट को रोकने के लिए फीस एक्ट भी तैयार कर लिया था, लेकिन आप जानते ही हैं कि तब हमारी सरकार किस प्रकार से चल रही थी। गठबंधन की सरकार थी, इसलिए कई रूकावटें भी थीं। अब फुल मेजोरिटी की सरकार है, इसलिए इस सरकार को अविलम्ब फीस एक्ट लाना चाहिए। जैसे दिल्ली में केजरीवाल की सरकार ने किया। आज दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में लूट नहीं हो सकती, वैसा ही एक्ट उत्तराखण्ड में भी बनाकर किया जा सकता है।
मंत्री प्रसाद नैथानी, पूर्व शिक्षा मंत्री उत्तराखण्ड
निजी स्कूल सरकार से भी नहीं डरते हैं, यह सोसाइटी एक्ट में पंजीकृत संस्थाएं हैं जिनका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं है पिछली दो सरकारों ने हमें फीस एक्ट लागू करने का आश्वासन दिया और एक्ट का ड्राफ्ट भी तैयार कर दिया लेकिन अनजाने कारणों से वह कानून लागू नहीं हो पाया। हमने सितंबर 2013 में निजी स्कूलों की मनमानी के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया जिसमें विभिन्न मोर्चों पर धरना-प्रदर्शन, अभिभावकों की रैली, आमरण-अनशन सहित अप्रैल 2015 में माननीय उच्च न्यायालय नैनीताल में पब्लिक स्कूलों के विरुद्ध एक जनहित याचिका भी दायर की इसमें महासंघ के 14 अलग-अलग मुद्दे थे। सरकारें बदली लेकिन जो नहीं हो पाया वह यह ये कि पब्लिक स्कूलों पर लगाम कस पाती।
रवि कुमार जैन, संयोजक उत्तराखण्ड अभिभावक संघर्ष महासंघ