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Uttarakhand

‘बीते पांच साल उत्तराखण्ड के लिए लोस्ट अपोरच्यूनिटी का काल रहा’

उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का मानना है कि यदि गलत तरीकों से की गई नियुक्तियों पर कार्यवाही करनी ही है तो राज्य की पहली विधानसभा के समय की गई नियुक्तियों को भी रद्द किया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि वर्ष 2000 में जिन अपात्र व्यक्तियों को विधानसभा में नियुक्त किया गया वे अब संयुक्त सचिव पद तक जा पहुंचे हैं। कांग्रेस सरकार के समय विधानसभा अध्यक्ष रहे गोविंद सिंह कुंजवाल द्वारा की गई नियुक्तियों में ‘नैतिक बल’ न होने की बात स्वीकारने वाले रावत गुजरात में ‘आप’ को ‘वोट कटुआ’ करार देते हैं और उत्तराखण्ड में धामी मंत्रिमंडल को अकर्मण्य तो धामी को ऐसे मंत्रिमंडल को साथ लेकर चलने वाला ‘सहनशील’ सीएम बता कटाक्ष करते हैं।
‘दि संडे पोस्ट’ कार्यालय में रोविंग एसोसिएट एडिटर आकाश नागर संग हरीश रावत की बातचीत के प्रमुख अंश

 

राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से कांग्रेस को ऑक्सीजन मिलती दिख रही है। क्या यह यात्रा पार्टी को देश भर में 2024 के लोकसभा चुनाव में बढ़त दिला पाएगी?

देखिए इस यात्रा का उद्देश्य 2024 नहीं है, इस यात्रा का उद्देश्य है- ‘एक बड़ा परिवर्तन लाना और लोकतांत्रिक भारत का जो रास्ता था, संवैधानिक लोकतंत्र का, उसको बचाना।’ जिन मूल्यों और मान्यताओं पर भारत का स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया, उन मूल्यों और मान्यताओं को, जिनको इन दिनों नष्ट किया जा रहा है, उनको बचाना। और प्रयास करना कि एक सहिष्णु भारत बन सके ताकि तरक्की का जो रास्ता हमने पकड़ा था वह अपने गन्तव्य तक पहुंच सके। यदि स्थितियां सामान्य होती हैं तो फिर उसका जो फायदा जाता है, वह कांग्रेस को जाना तय है।

गुजरात विधानसभा चुनाव में नौ साल पुरानी आम आदमी पार्टी मजबूती से उभर रही है जबकि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस वहां कहीं टक्कर में नहीं है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस वहां आत्मसमर्पण की भूमिका में है।

बिल्कुल गलत है। वहां लड़ाई हमारी और भाजपा की है। और यह बड़ी तीव्र लड़ाई है। कांग्रेस को लेकर फिर एक छद्म रचा जा रहा है। छद्म यह रचा जा रहा है, मीडिया के सहयोग से और कुछ ऐसी चीजें की जा रही हैं जिसके जरिए लड़ाई ऐसी दिखाई दे कि यह ‘भाजपा’ बनाम ‘आप’ है। जबकि ‘आप’ को तो केवल वोट काटने के लिए खड़ा किया जा रहा है। भाजपा से कांग्रेस की तरफ वोट जा रहा है। उसको रोकने व काटने के लिए ‘आप’ को खड़ा किया जा रहा है और भाजपा अपने प्रचारतंत्र से उसे खड़ा कर रही है। ताकि कांग्रेस की तरफ आता वोट कुछ ‘आप’ ले जाए और कुछ वह बांट लें। उत्तराखण्ड में यदि ‘आप’ नहीं होती और भाजपा और कांग्रेस में यदि नैचुरल लड़ाई होती तो बहुत टक्कर की होती। आप वोटों की परसेंटेज देख लीजिए। यदि 5 प्रतिशत वोटों के इजाफे के बाद भी यदि कांग्रेस हारी है तो उसका एक ही कारण है उसके वोटों को शेयर कर लिया ‘आप’ ने। वही प्रयोग हिमाचल और गुजरात में दोहराया जा रहा है। इसलिए ‘आप’ कहीं नहीं है वह सिर्फ ‘वोट कटवा’ की
भूमिका में है। भाजपा ही उसकी भूमिका बना रही है और भाजपा ही उसकी भूमिका को फहरा रही है।

हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता वापसी के कितने आसार हैं?
मैं समझता हूं कि हिमाचली कभी-कभी स्वाद बदलने के लिए भाजपा को बुलाते हैं। अन्यथा उनको कांग्रेस का ही स्वाद पसंद आता है क्योंकि अद्भुत रूप से चमत्कारिक सीएम रहे हमारे वीरभद्र सिंह और रामलाल। भाजपा के सबसे योग्यतम व्यक्ति थे शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल। लेकिन ये दोनों भी उनकी तुलना में फीके दिखाई दिए और लोगों ने फिर से कांग्रेस की तरफ रुख किया। इस बार तो चुनौती है ही नहीं। जो विकल्प भाजपा ने खड़ा किया वह कुछ कर नहीं पाया। यदि नड्डा खुद सीएम बनते तो हो सकता है कुछ अंतर पैदा कर देते, हो सकता है लोग रिपीट कर देते। लेकिन कहीं पर भी वीरभद्र की तुलना में एक छाया मात्र भी जयराम नहीं दिखाई दिए। अब मुझे पूरा भरोसा है कि लोग उनको ‘जयराम जी’ कर देंगे।

विधानसभा भर्ती घोटाले में 228 लोगों को बाहर निकालने का आदेश तो आ गया। लेकिन जिनके कार्यकाल में यह भर्ती हुई, उन दोनों विधानसभा अध्यक्षों, गोविंद सिंह कुंजवाल और प्रेमचंद अग्रवाल, पर कार्यवाही की मांग भी जनता कर रही है। आपका क्या मत है?

देखिए, आपको वह कानून तलाशना पड़ेगा जिसके तहत आप कार्यवाही कर सकते हो। और एक अंतर जरूर है जो कुंजवाल और प्रेमचंद अग्रवाल जी के समय की नियुक्तियों का है। कुंजवाल जी के समय की नियुक्तियों में एक प्रक्रिया अपनाई गई थी। विधानसभा ने प्रस्ताव भेजा, मंत्रिमंडल ने उसको अनुमोदित किया और एक चयन समिति बनाकर नियुक्तियां हुईं। उन नियुक्तियों को चुनौती दी गई लेकिन माननीय हाईकोर्ट और माननीय सुप्रीम कोर्ट की चीफ जस्टिस की बेंच ने उन नियुक्तियों को वैध माना। रही बात कुंजवाल जी द्वारा अपने पुत्र और पुत्र वधु को नियुक्ति देने की तो मेरा स्पष्ट कहना है कि इन नियुक्तियों में नैतिक बल नहीं है। कानून का उल्लंघन हुआ है, यह कहने की स्थिति में मुझे तर्क ढूंढने पड़े। क्योंकि हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जब यह बात कह चुके हैं, सुप्रीम कोर्ट का आदेश तो कानून की धारा का रूप ले लेता है तो इसलिए प्रेमचंद अग्रवाल जी में जो अंतर है वह यह है कि नियुक्तियां पहले हुई हैं, सरकार अनुमोदन, वित्तीय अनुमोदन बाद में प्राप्त हुआ है। परंपरा जो थी कि उत्तराखण्ड के स्थाई निवासियों की ही नियुक्ति होगी, उसका पालन भी नहीं हुआ है। और उदारतापूर्वक सत्ता के सभी शीर्ष लोगों ने अपने आत्मजों की नियुक्ति करवाई है। जब राज्य की पहली विधानसभा बनी और पहली बार नियुक्तियां हुईं, उन नियुक्तियों में तो सारे ही तत्कालीन सत्ता के आत्मज लोग हैं किसी का पुत्र है, किसी का भांजा है, किसी की बहू इत्यादि। बल्कि एक व्यक्ति जिनके नाम पर ईमानदारी की कसम खाई जाती है, उन्होंने भी इस बहती गंगा में अपने बहुत सारे आत्मजों को लगाया है। तो इसलिए मुझे कोई विरोध नहीं है लेकिन यदि खोज सकें तो वह कानून खोजें, जिस कानून के तहत इनको दंडित किया जा सकता है। मैं दोहराता हूं कि इसमें नैतिक बल नहीं है। उनमें से कई लोग तो इस समय संयुक्त सचिव के पद पर भी हैं, जिनको नियुक्तियां दी गईं। और आपको आश्चर्य होगा कुछ नियुक्तियों में तो जिस पद के लिए योग्यता स्नातक होनी चाहिए, उस पद पर 10वीं पास लोगों को भरा गया। और बाद में इन लोगों ने क्वालीफिकेशन एक्वायर किया। उसी का रिफेलेक्शन आप अधीनस्थ सेवा चयन आयोग में देखिए। जिस संस्था को बनाने के लिए उत्तराखण्ड को मुझे धन्यवाद देना चाहिए था उसके लिए मुझे ही उत्तराखण्ड से माफी मांगनी पड़ी। ये सब चीजें राज्य के लिए, उत्तराखण्ड के लिए चिंता का विषय है। यहां लोगों ने फोकस यह बना दिया कि गोविंद सिंह कुंजवाल ने अपने बेटे-बेटी की नियुक्ति की। सारा मीडिया और सब इस रूचि में जुट गए कि इनको कैसे गिराया जाए और कुछ और जो मित्र थे वे पीछे से हमको भी देख रहे थे और हमको भी उसमें लपेटने के काम में लग गए। किसी ने इसको समझने की कोशिश ही नहीं की कि यह संस्थागत गिरावट क्या है, इसको तो रोको, कुछ तो करो।

इस इंटरव्यू को देखने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए

सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट को यह संज्ञान नहीं था कि कुंजवाल जी ने प्रक्रिया तो अपनाई पर भरा तो अपने ही लोगों को?

यदि आप हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के जजमेंट को पढ़िए तो आपको यह लग जाएगा कि कुंजवाल जी के नियुक्तियों में कितना बड़ा कानूनी बल है। इसीलिए मैंने एक कमेंट दिया ‘नैतिक बल’ जिसके बाद कुंजवाल जी ने माफी मांगी लेकिन और लोगों ने तो माफी भी नहीं मांगी राज्य के लोगों से। उनसे क्या कहोगे? यहां तो ऐसे नेता हैं जिनके तीन-तीन, चार-चार रिश्तेदार हैं। ऐसा कोई नहीं है जिसने अपनों को उपकृत नहीं किया हो। ऐसा लगता है शायद विधानसभा में जो नियुक्तियां नहीं करा पाएं, वे नालायक हैं। उन नालायकों में एक मैं भी हूं।

पर आपने ‘नैतिक बल’ की बात बहुत देर में कही? उससे पहले आप कुंजवाल जी का बचाव करते नजर आए?

नहीं, कतई नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं तो दिल्ली था जब लोगों ने कहा-कहां हैं हरीश रावत? तो मैंने दिल्ली से ही पोस्ट डाली, मैंने कहा मैं आ रहा हूं। और मैंने पहली ही वार्ता में सबके सामने पूरी लिस्ट भी रखी।

तो आप मानते हैं कि कुंजवाल जी ने नैतिकता का परिचय नहीं दिया?

नैतिक बल नहीं है उन नियुक्तियों में। यह तो मैं खुलेआम कह रहा हूं और यदि कुछ लोग हिम्मत दिखाते, कहते तो जो समाधान निकाला गया, वह समाधान तो आपने जो गरीब लड़के, जिसका कोई रखवाला नहीं है, उनकी हत्या कर दी। जिनके रक्षक थे वे सब आज संयुक्त सचिव हैं और बड़े पदों पर चले गए हैं। अब लोग कहते हैं वे तो स्थाई हैं। यदि मैं जाली सर्टिफिकेट के जरिए आईएएस हो जाऊं और बीस साल बाद पता चले, जब मैं भारत सरकार में सेक्रेटरी हो रहा हूं। उस समय पता चले कि मेरा तो सर्टिफिकेट ही नकली था तो क्या मुझे प्रोटेक्शन इसलिए हासिल होगा कि मैंने बीस साल सरकार की सेवा कर ली?

उत्तराखण्ड अधीनस्थ चयन आयोग जो आपकी सरकार की बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत इसकी स्थापना पर ही सवाल उठाते हैं, इसकी मंशा ही गलत बताते हैं?

मतलब बाप का बनाया घर है, चौखट पर जरा सर लड़ जाए तो क्या मकान को तोड़ देंगे? और यदि चौखट में दीमक भी लग जाए तो चौखट बदला जा सकता है पर मकान तो नहीं तोड़ा जा सकता ना। यदि त्रिवेंद्र सिंह के आरगूमेंट को माना जाए तो विधानसभा में तो पहले से लेकर अब तक बहुत गड़बड़ियां हुई हैं तो क्या विधानसभा को भंग कर दें? उत्तराखण्ड में विधानसभा नहीं होनी चाहिए?

आपके पुत्र आनंद रावत, मुख्यमंत्री धामी और खुद में तुलना करते हुए कहते हैं कि मेरे जो गुरु थे उन्होंने मेरा अंगूठा मांग लिया। धामी के गुरु थे द्रोणाचार्य, उन्होंने उन्हें कहां से कहां तक पहुंचा दिया। इस लिहाज से देखें तो कहीं न कहीं एक बेटे के मन में टीस है कि जो उन्हें मिलना चाहिए था वह नहीं मिला उसमें कहीं न कहीं आप बाधा बने रहे?

जो धर्म कहता था वह हमने किया। मगर यह सत्यता है कि उन्होंने तीन जगह मेहनत की थी। यदि निर्णय करने का मेरा अधिकार नहीं होता, किसी और का होता तो निर्णय उनके पक्ष में होता। मैं भी उसका वकील होता। लेकिन परिस्थितियां यह थी कि तीनों बार निर्णय मेरे हाथ में था, उसके पक्ष में नहीं किया और उसकी शिकायत भी सही है। यहां मेरा अपना मानना भी है और मैंने एक कहावत भी कही- ‘लीक-लीक सब चले, अपनी लीक बनाए सिंह, शाह।’ और वैसे भी यह इम्तिहान है उनका। यदि जमे रहे तो समय सबके साथ न्याय करता है।

अंकिता भंडारी हत्याकांड और डांडा कांडा कांड से पटवारी पुलिस प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं, क्या यह व्यवस्था अब बंद होनी चाहिए?

देखिए, आपको बहुत सारे निर्णय करने थे जिससे पटवारी प्रणाली इम्प्रूव हो सकती थी पर आपने इम्प्रूव करने के लिए कुछ किया ही नहीं। हमने जो प्रक्रिया आरंभ की थी वह प्रक्रिया वहीं रोक दी गई। मैं पहला मुख्यमंत्री हूं जिसने पटवारी से लेकर
तहसीलदार इत्यादि, सभी को संगठित करने का काम किया। आपने चाहा ही नहीं, उनको सुविधा ही नहीं दी। यदि प्रणाली ठीक काम नहीं कर रही है तो जिम्मेदारी राज्य की भी है। पर नई परिस्थितियों में यदि असेसमेंट यह कहता है कि रेवन्यू पटवारी सिस्टम खत्म किया जाना चाहिए तो राज्य सरकार विचार करे और परामर्श करके इस पर कदम उठाए।

बारामूला की एक सभा में जब अमित शाह बोल रहे थे तब मस्जिद से अजान की आवाज आती है और वह अपना भाषण बीच में ही रोक देते हैं। क्या ऐसा कर भाजपा अपने सियासी धार्मिक एजेंडे में परिवर्तित करना चाहती है।

इकबाल ने कहा, जो इस देश में आया वह इस देश जैसा ही हो गया। हिंदुस्तान नहीं बदला। हिंदुस्तान को बदलने वाले बदलेंगे। तो इसलिए अमित शाह इत्यादि जो बड़ी-बड़ी बातें कहते थे अन्ततोगत्वा उनको भी उन्हीं रवायतों का पालन करना पड़ रहा है जो यहां की सामाजिक पृष्ठभूमि चाहती है। कांग्रेस यही तो कहती है। जिसको वह हमारी मुस्लिम परस्ती कहते थे तो हम कहेंगे जिस रास्ते पर हम चल रहे थे उस रास्ते पर अब भाजपा ने भी कदम बढ़ा लिया है।

सीएम धामी ने फिलहाल प्रदेश के सभी विधायकों को अपने- अपने क्षेत्र से 10-10 प्रस्ताव भेजने और उन पर प्रमुखता से कार्य करने की बात कही है। इस पर आपकी क्या राय है?

हां, जो विकेंद्रीकृत व्यवस्था थी जिला प्लान की, उसको समाप्त कर दिया। होशियार आदमी हैं। पहले पूरी जिला की योजना सब विधायक मिल कर बनाते थे और लोग भी उसमें सम्मिलित होते थे, अब उन्होंने विधायकों को लॉलीपोप दिखा दिया। मेरी समझ से उनके गुरु कोई अच्छे व्यक्ति हैं जिन्होंने उनको कहा कि ऐसा लॉलीपोप दिखा दो कि विधायक उसी पर अटके रह जाएं, जिला प्लान गोल, दूसरे प्लान गोल। जितने विकेंद्रीकृत व्यवस्थाओं की चीजें थीं, जिसमें स्पेशल कम्पोनेंट प्लान भी है, वे सब खत्म हो गए।

यह लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए बेहतर है या यह बहुत घातक?

आप व्यवस्थाओं को नष्ट करके केवल लोगों को खुश करने के लिए कुछ करते हैं तो उससे संस्थाएं नष्ट होती हैं। सरकाररूपी संस्था भी इससे नष्ट हो जाएगी। जिला प्लान एक विकेंद्रीकृत व्यवस्था थी और हमारे जैसे राज्य के लिए वह सबसे मुफीद था। स्पेशल कंपोनेंट प्लान, जो गरीब तबका जिसका विकास में भागीदारी नहीं हो पा रही थी, उसको विकास में भाग लेने लायक बनाने की व्यवस्था थीं। इस तरीके की बहुत सारी हमने क्षेत्रीय व्यवस्थाएं खड़ी की थी। जो क्षेत्र हमें लगा कि अविकसित रह गया है तो उसको ऊपर लाने के लिए हमने विकास बोर्ड बनाया अलग-अलग क्षेत्रों के नाम से। वे सब खत्म कर दिया गया, सीमांत बोर्ड खत्म कर दिया गया। अब यह कह दिया गया विधायकों से कि चुप रहो और यह 10 देखो।

पिछले पांच साल, जिनमें साढ़े चार साल त्रिवेंद्र सिंह रावत की भाजपा की सरकार रही और अब युवा मुख्यमंत्री पुष्कर धामी की सरकार, इन दोनों में आप क्या अंतर पाते हैं और धामी के मुख्यमंत्रित्वकाल को अभी तक किस दृष्टि से देखते हैं?

देखिए बीते पांच साल उत्तराखण्ड के लिए ‘लोस्ट अपोरच्यूनिटी के युग समान रहे। संभावनाएं त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह, धामी-1 में भी थी। वे सब तो भूतपूर्व मुख्यमंत्री बन गए लेकिन उत्तराखण्ड ने पांच साल खो दिए। अब यह पांच साल, इन पांच साल में जो एक सिल्वर लाइनिंग है, वह यह कि मुख्यमंत्री जी के पास समय भी है, स्वास्थ्य भी है, समर्थन भी है 47 का और केंद्र की सरकार भी है। ये सभी चीजें होने के बावजूद भी यदि उत्तराखण्ड में कुछ बुनियादी परिवर्तन नहीं आते हैं, सुधार नहीं होते हैं तो फिर यह माना जाएगा कि व्यर्थ है।

कहीं कुछ ऐसी चीज जो आपको इस नए युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी में सुनहरी चीज नजर आई हो, इन साढ़े पांच महीनों में या पिछले कार्यकाल के कुछ महीनों में जिससे आपको कुछ आशा दिखती है?

सहनशीलता। देखिए, एक अकर्मण्य मंत्रिमंडल के साथ यदि आप चलने को तैयार हैं तो इससे बड़ी सहनशीलता क्या हो सकती है।

जब राज्य की पहली विधानसभा बनी और पहली बार नियुक्तियां हुईं, उन नियुक्तियों में तो सारे ही तत्कालीन सत्ता के आत्मज लोग हैं। किसी का पुत्र है, किसी का भांजा है, किसी की बहू इत्यादि। बल्कि एक व्यक्ति जिनके नाम पर ईमानदारी की कसम खाई जाती है, उन्होंने भी इस बहती गंगा में अपने बहुत सारे आत्मजों को लगाया है। तो इसलिए मुझे कोई विरोध नहीं है लेकिन यदि खोज सकें तो वह कानून खोजें, जिस कानून के तहत इनको दंडित किया जा सकता है। मैं दोहराता हूं कि इसमें ‘नैतिक बल’ नहीं है। उनमें से कई लोग तो इस समय संयुक्त सचिव के पद पर भी हैं, जिनको नियुक्तियां दी गई। और आपको आश्चर्य होगा कुछ नियुक्तियों में तो जिस पद के लिए योग्यता स्नातक होनी चाहिए, उस पद पर 10वीं पास लोगों को भरा गया। और बाद में इन लोगों ने क्वालीफिकेशन एक्वायर किया

देखिए बीते पांच साल उत्तराखण्ड के लिए ‘लोस्ट अपोरच्यूनिटी के युग’ समान रहे। संभावनाएं त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह, धामी-1 में भी थी। वे सब तो भूतपूर्व मुख्यमंत्री बन गए लेकिन उत्तराखण्ड ने पांच साल खो दिए। अब यह पांच साल, इन पांच साल में जो एक सिल्वर लाइनिंग है, वह यह कि मुख्यमंत्री जी के पास समय भी है, स्वास्थ्य भी है, समर्थन भी है 47 का, और केंद्र की सरकार भी है। ये सभी चीजें होने के बावजूद भी यदि उत्तराखण्ड में कुछ बुनियादी परिवर्तन नहीं आते हैं, सुधार नहीं होते हैं तो फिर यह माना जाएगा कि व्यर्थ है।

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