पड़ताल
दशकों से अपने हक-हकूक की लड़ाई लड़ रहे उत्तराखण्ड के जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में रह रहे वन ग्रामवासियों के लिए आजकल वन विभाग का एक आदेश सरदर्द बना हुआ है जिससे उनके घर की महिलाओं का जीना दुष्वार हो चला है। इस आदेश ने न केवल उनकी निजता भंग कर दी है, बल्कि चिंता यह पैदा कर दी है कि अब शौच आदि से निवृत होने के लिए वे ऐसी जगह कहां जाएं जहां से वे किसी को दिखाई न दें। कार्बेट पार्क इलाके में जंगली जानवरों पर नजर रखने के लिए लगाए गए कैमरा ट्रैप और ड्रोन जैसी डिजिटल तकनीकें जंगल के पास के वन गांवों में रहने वाली महिलाओं की निजता को कैद कर रहे हैं। ये तकनीक इन महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन कर रही हैं। इससे निजात दिलाने के लिए वन ग्राम की महिलाओं ने सरकार से गुहार लगाई है कि या तो हमारे घरों और आस-पास से इन ड्रोन और कैमरा ट्रैप को दूर किया जाए या हमें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बहुप्रचारित योजना खुले में शौच मुक्त में शामिल कर हमारे लिए शौचालय निर्माण किए जाएं। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड देश का चौथा ऐसा राज्य है जो केंद्र सरकार की ‘खुले में शौचमुक्त योजना’ में 22 जून 2017 के दिन ही अपना नाम दर्ज करा चुका है। तत्कालीन त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार को राज्य को खुले में शौचमुक्त करने पर केंद्र सरकार से अवार्ड भी दिया गया था। बावजूद इसके उत्तराखण्ड के विश्व विख्यात नेशनल जिम कॉर्बेट पार्क के इलाकों में रहने वाली सैकड़ों की संख्या में लोग अभी भी इस योजना से कोसों दूर हैं
‘हमारे क्षेत्र के एक वन ग्राम में पिछले दिनों एक ऐसी घटना घटित हुई है, जिसमें अर्धनग्न महिला की शौच करते हुए तस्वीर अनजाने में कैमरे में कैद हो गई थी। यह महिला ऑटिस्टिक बीमारी से पीड़ित थी और एक जाति समूह से आती है। उस बेचारी को यह पता ही नहीं चला कि कब शौच करते समय उसकी अर्धनग्न तस्वीरें कैमरे में कैद हो गई। मामला तब और बद से बदतर हो गया, जब कुछ दिनों पूर्व ही अस्थायी वन कर्मियों के रूप में नियुक्त हुए युवकों ने इस तस्वीर को लेकर इसे लोकल सोशल मीडिया ग्रुप में भी शेयर कर दिया। इस दुर्व्यवहार के चलते महिला के गांव के लोग बेहद नाराज हो गए और उन्होंने गुस्से में आस-पास के वन क्षेत्रों में कैमरा ट्रैप को तोड़ डालने और वन कर्मियों के स्टेशन को आग लगाने की धमकी तक दे डाली। हालांकि किसी तरह मामले को मैनेज किया गया।’
यह कहना है वन ग्राम के एक व्यक्ति का। उन्होंने अपने गांव का नाम और अपना नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि यह तो सिर्फ हमारे एक गांव का मामला है। ऐसे कई गांव हैं जो इस समस्या से जूझ रहे हैं। वह वन विभाग से इस बाबत बार-बार कह रहे हैं कि वह वन गांवों में और उसके आस-पास के क्षेत्र से ड्रोन और कैमरा ट्रैप को हटा लें, लेकिन उनकी इस बात को अनसुना किया जा रहा है। हालांकि इस बाबत उत्तराखण्ड महिला आयोग की अध्यक्ष कुसुम कंडवाल ने कॉर्बेट पार्क के फील्ड निदेशक को पत्र लिखकर इस समस्या का समाधान किए जाने के आदेश दिए हैं। लेकिन उनके आदेशों को महीनों बीत चुके हैं अभी भी इस पर कुछ नहीं हुआ है। साथ ही वे यह भी बताते हैं कि कैमरा ट्रैप होने के चलते उनपर इस कदर नजर रखी जा रही है कि महिलाएं अपने घरों में चूल्हे जलाने के लिए जंगलों से जलौनी लकड़ी और पशुओं के लिए घास फूस तक नहीं ला पा रही है।
यहां यह बताना भी जरूरी है कि जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के टाइगर रिजर्व इलाके में जंगली जानवरों पर नजर रखने के लिए कैमरा ट्रैप और ड्रोन लगाए गए हैं। लेकिन ये जंगल के आसपास के गांवों में रहने वाली महिलाओं की शौच आदि से निवृत होती हुई महिलाओं की तस्वीरों को कैद कर रहे हैं। जिससे वन ग्रामों के बाशिंदों में रोष व्याप्त है। कैमरा ट्रैप और अन्य उपकरणों की वजह से जंगलों में जीव-जंतुओं की निगरानी करने और अवैध शिकार को रोकने में मदद मिली है और जंगलों में बाघों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन स्थानीय महिलाओं को कैमरा ट्रैप पर भरोसा नहीं है और उनका मानना है कि कैमरा ट्रैप के जरिए महिलाओं पर जान-बूझकर नजर रखी जा रही है।
कुम्भगडार निवासी महिला सुरेश देवी कहती हैं कि हर चुनाव में नेता उन्हें सुविधाएं दिलाने की कोरी घोषणाएं करते हैं। साथ ही हमारे वन ग्राम को राजस्व गांव का दर्जा देने और विस्थापन का वादा करते हैं, लेकिन जब सत्ता में आते हैं, तब वो गांव की तरफ मुड़कर भी नहीं देखते हैं। ऐसे में ग्रामीणों को नेताओं और अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ते हैं। हमारे रामनगर में पूरे दो दर्जन गांव वन ग्राम हैं। जिनमें आलम ये है कि इन 24 वन ग्राम के लोग सुविधाओं के अभाव में जीवन जीने को मजबूर हैं। सुविधा के नाम पर केवल दो चार गांव में बिजली पहुंचाई गई है, लेकिन बाकी गांव अंधेरे में हैं। आज भी लोग लालटेन युग में जी रहे हैं। हालांकि कुछ लोगों ने सौर ऊर्जा की व्यवस्था कर रखी है।
राज्य आंदोलनकारी और उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के केंद्रीय महासचिव प्रभात ध्यानी कहते हैं कि ये 24 वन ग्राम ऐसे हैं, जहां के लोग लगातार मूलभूत सुविधाएं जैसे बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, शौचालय आदि सुविधा मुहैया कराने की मांग वर्षों से करते आ रहे हैं। लेकिन आज तक इनको सभी सुविधाओं से महरूम रखा गया है। उनका कहना है कि मोदी सरकार ‘हर घर बिजली’, ‘हर घर नल’ के साथ ही देश को खुले से शौच मुक्त करने के दावे करती है, लेकिन रामनगर विधानसभा के 24 वन ग्रामों की 20 हजार से अधिक की आबादी इनके बिना ही जीवन-यापन कर रही है। जो दुर्भाग्य की बात है। साथ ही ध्यानी इस तरफ सरकार का ध्यान आकृष्ट करने और इन वन ग्रामों में मूलभूत सुविधाएं दिलाने की मांग कर रहे हैं।
शिवनाथपुर के रहने वाले राजवीर सिंह बताते हैं कि कांग्रेस के साथ ही भाजपा ने भी अपने घोषणा पत्र में वादा किया था कि वो इन वन ग्रामों को राजस्व गांव घोषित करेंगे। साथ ही मूलभूत सुविधाओं से गांवों को जोड़ेंगे, लेकिन आज तक कुछ भी नहीं हुआ है। दोनों ही सरकारों ने हमेशा से ही वन ग्राम के लोगों के साथ खिलवाड़ करने का काम किया है। जिसके खिलाफ अब ग्रामीणों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। पिछले कई चुनाव में यहां के लोग चुनाव बहिष्कार की भी चेतावनी देते आ रहे हैं। गत वर्ष जब यहां जी-20 का कार्यक्रम हुआ था तो तब भी सुंदरखाल सहित कई वन ग्रामों के लोगों ने उसके खिलाफ धरना-प्रदर्शन करने की चेतावनी दे डाली थी। लेकिन तब सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया था कि जल्द ही वे उनको वह सारी सुविधाए देंगे जो राजस्व गांव को दी जाती है। लेकिन जी-20 कार्यक्रम हो जाने के बाद भी सरकार ने इन गांव वालों की तरफ देखना तक गवारा नहीं समझा।
वन ग्राम विकास संघर्ष समिति के अध्यक्ष एस. लाल बताते हैं कि 24 गांव के लोग सुविधाओं के अभाव में जीवन जी रहे हैं। सुविधा के नाम पर केवल दो चार गांव में बिजली जरूर मिली है। हर बार नेता राजस्व गांव का दर्जा देने का वायदा करते हैं। वोट लेने के बाद पूरे पांच साल कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं होती है। फिर ग्रामीणों को नेताओं व अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भी वन ग्रामों के लिए कार्रवाई करने की बात नेताओं ने कही थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
वे कहते हैं कि वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में वन ग्रामों के बहिष्कार की चेतावनी के बाद पौड़ी संसदीय सीट से प्रत्याशी तीरथ सिंह रावत ने रामनगर के वन ग्रामों के लोगों को आश्वासन दिया था कि वे चुनाव जीतकर वन ग्रामों को राजस्व गांव का दर्जा दिलाएंगे। तीरथ सिंह रावत सांसद बनने के बाद उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री भी बन गए। तब भी वन ग्रामों में रहने वाले लोगों की समस्या का समाधान नहीं हुआ। इस बीच वन ग्रामों में रहने वाले ग्रामीणों ने जुलूस, धरना-प्रदर्शन के जरिए मांग भी की, लेकिन स्थिति जस की तस है।
एस. लाल गत् लोकसभा चुनाव के बारे में जानकारी देते हुए बताते हैं कि चुनाव से ठीक पहले भाजपा सांसद अनिल बलूनी ने कहा था कि सभी वन ग्रामवासियों को बिजली, पानी, सड़क व राजस्व ग्राम का अधिकार मिलेगा तथा किसी भी वन ग्राम को हटाया नहीं जाएगा, यह मेरी गारंटी है तथा मोदी जी की भी गारंटी है। उनके इस वादे पर जनता ने भाजपा को जिताया था। आज कुर्सी मिलने के बाद भाजपा सांसद बलूनी और मोदी सरकार अपना वायदा भूल कर लोगों को बुलडोजर का भय दिखा रहे हैं।
सुंदरखाल के प्रधान चंदन राम कहते हैं कि दो सालों में सुंदरखाल में 10 महिलाओं पर बाघ के हमले से मौत होने के कारण यह मामला देश भर की सुर्खियों में रहा था। तब सुंदरखाल के बाशिंदों ने राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार के खिलाफ लगातार धरना-प्रदर्शन किए थे। यहां तक कि कॉर्बेट पार्क में देश के बाघ विशेषज्ञों की बैठक तक को निरस्त कर दिया गया था। तब देश के पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने सुंदरखाल के वाशिंदों को दिल्ली बुलाया। जहां उनकी आपबीती सुनने के बाद जयराम रमेश ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) को नियम बनाने के आदेश दिए। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने तब एक गाइडलाइन तय की जिसमें सुंदरखाल के प्रति व्यस्क व्यक्ति को 10 लाख रुपए आर्थिक सहायता देकर विस्थापित करने की योजना बनाई थी। इस विस्थापन में पूरे 65 करोड़ का पैकेज तैयार किया गया। तब राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने एक सर्वे किया था जिसमें सुंदरखाल को वन प्रभाग डिवीजन के अंतर्गत होना पाया गया। इसके चलते सुंदरखाल के वाशिंदो को पैकेज नहीं दिया गया।
ऐसा नहीं है कि किसी भी राजनेता ने यहां के वन ग्रामों का दर्द ना समझा हो, बल्कि उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना के बाद नारायण दत्त तिवारी और उनके बाद कांग्रेस के दूसरे मुख्यमंत्री हरीश रावत ऐसे नेता हैं जिन्होंने वन ग्रामों के वाशिंदों के दर्द को समझा। मुख्यमंत्री रहते हरीश रावत ने इनकी समस्या का निराकरण करने के लिए एक समिति का गठन किया। जिसमें कहकशां नसीम, प्रभागीय वनाधिकारी रामनगर वन प्रभाग की अध्यक्षता में 12 फरवरी 2014 को चार सदस्यीय समिति गठित की गई। इस समिति में उक्त समस्या के अलावा कॉर्बेट फाउंडेशन के हरेंद्र बर्गली, डब्ल्यूटीआई के डॉ संदीप तिवारी, संस्कारा संस्था की सुश्री राईकी मल्होत्रा, डब्ल्यूटीआई के सुमंतो कुन्दू, उप प्रभागीय वनाधिकारी रामनगर, उमेश चंद जोशी एवं वन क्षेत्राधिकारी कोसी, आनंद सिंह रावत ने 14 अप्रैल 2014 को निर्णय लिए कि राजस्व विभाग से सुंदरखाल में बसे हुए ग्रामीणों की सूची लिखित रूप से प्राप्त की जाए। विस्थापन कार्य (गुर्जर पुनर्वास नीति 2004) भारत सरकार की पुनर्वास एवं विस्थापन नीति 2003 (एनपीआरएस 2003) के दिशा-निर्देशों की सहायता लेते हुए निर्धारण किया जाए। पुनर्वास पैकेज हेतु राजस्व विभाग एवं समाज कल्याण विभाग द्वारा लिया जाने वाला निर्णय संबंधित पक्ष के अनुसूचित जाति एवं भूमिहीन होने की दशा को ध्यान में रखते हुए किया जाए। यही नहीं बल्कि वन ग्रामों की संपूर्ण आबादी के अनुसूचित जाति एवं भूमिहीन होने के आधार पर पुनर्वास पैकेज का निर्धारण किया जाए। साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि उक्त कमेटी में राजस्व एवं समाज कल्याण विभाग के घटकों के सम्मिलित होने उपरांत ही पुनर्वास पैकेज का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाए। समिति ने यह भी प्रण लिया कि यहां के लोगों का पुनर्विस्थापन स्थानीय निवासियों के सुरक्षित एवं उज्जवल भविष्य तथा कॉर्बेट लैंड सेल में बाघों के संरक्षण में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
लेकिन वन ग्रामों की जमीन वन विभाग की होने के चलते तत्कालीन डीएफओ नेहा वर्मा ने इन गांवो के निवासियों का यहां अतिक्रमण बताते हुए हाईकोर्ट नैनीताल में एक याचिका दायर की थी जिसकी सुनवाई करने के बाद हाईकोर्ट ने इसे अतिक्रमण मानते हुए इसके खिलाफ कार्यवाही करने के आदेश दिए थे। नैनीताल हाईकोर्ट ने कॉर्बेट पार्क से लगे सुंदरखाल सहित कई गांवों को एक माह में खाली कराने के आदेश पारित किए थे। साथ ही गांव की वन भूमि को हाईकोर्ट ने कॉर्बेट प्रशासन को अपने कब्जे में लेने के लिए कहा था। बेघर होने के डर से ग्रामीण परेशान थे। विस्थापन के विरोध में कांग्रेस ने भी इस मुद्दे को हाथों-हाथ लेते हुए आंदोलन किया था। इसके बाद सुंदरखाल गांव के मनोनीत प्रधान एवं वन ग्राम संघर्ष समिति के उपाध्यक्ष चंदन राम ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिका स्वीकार होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने गांव के विस्थापन पर यथा स्थिति के आदेश दे दिए हैं।
इसके बाद 7 फरवरी 2022 को उत्तराखण्ड की सोशल एक्टिविस्ट श्वेता मासीवाल ने इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक दी। उनके द्वारा वत्सल फाउंडेशन की ओर से याचिका दायर की गई। उसपर पर सुनवाई हुई। उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ को इस याचिका के जरिए अवगत कराया गया कि 1971 में नैनीताल जिले के रामनगर तहसील के अंतर्गत सुंदरखाल में पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को बसाया गया है। इन परिवारों के विस्थापन की कवायद हुई लेकिन अब तक विस्थापित नहीं किया गया। यहां तक कि वन अधिनियम के अंतर्गत इन परिवारों को बिजली, पानी, शिक्षा के अधिकार से भी वंचित किया गया जबकि यहां के लोग लोकसभा व विधानसभा चुनाव में मतदान करते हैं।
राज्य सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल कर प्रत्येक परिवार को दस-दस लाख की धनराशि का प्रस्ताव दिए जाने की जानकारी दी गई। कहा कि इन परिवारों ने प्रस्ताव खारिज करते हुए जमीन के बदले जमीन की मांग की है। ग्रामीणों का कहना है कि यहां वे कई पीढियों से रह रहे हैं, इसलिए उन्हें विस्थापित किया जाए। इस पर कोर्ट ने वन सचिव को नोटिस जारी कर चार सप्ताह में विस्थापन के लिए वैकल्पिक जमीन चिन्हित कर रिपोर्ट देने को कहा है। लेकिन आज तक जमीन वन विभाग द्वारा चिन्हित नहीं की जा सकी है।
वन ग्रामों के बाशिंदों के दर्द की दास्तां
सुंदरखाल निवासी गौराव देवी के अनुसार ‘गांव के बगल से एक नदी कोसी गुजरती है। जब बारिश होती है तो उसमें बाढ़ आ जाती है और यह नदी आगे की ओर आकर गांव को तबाह कर देती है। बाढ़ से पूरा गांव तबाह हो जाता है। यहां के निवासी बहुत परेशान हैं। 2021 में यहां भयंकर आपदा आई थी। जिसमें पानी लोगों के घरों में घुस गया था। इस बाढ़ में गांव के लगभग 50 घर बह गए। लोगां ने अपने घरों की छत पर चढ़कर अपनी जान बचाई थी। हालात यह हो गए कि लोगां को हेलीकॉप्टर के जरिए बचाया गया था। हमसे कहा गया कि यहां डैम बना दिया जाएगा लेकिन कुछ कार्य नहीं हुआ। हमें विस्थापित करने की बाबत सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती है। यहां कोई मूलभूत सुविधाएं भी नहीं है।’
आमडंडा खत्ता निवासी जीवन राम के अनुसार ‘हमारे पास कोई रोजगार नहीं है। एकमात्र मजदूरी करके गुजर बसर करते हैं। सुबह जब हम काम पर निकल जाते हैं तो हमें यह चिंता रहती है कि हमारा परिवार सुरक्षित है या नहीं। इस गांव में सुरक्षा की भी कोई व्यवस्था नहीं है। अक्सर गांव में बाघ के हमले होते रहते हैं। गांव की कई महिलाएं बाघ के हमले में स्वर्ग सिधार चुकी हैं। जिस कारण पूरा गांव दहशत में रहता है लोग शाम 6ः00 बजे के बाद से बाहर नहीं निकलते हैं। देश जब खुले में शौचमुक्त हो चुका है तब भी इस गांव में शौचालय नहीं है। घर के बच्चों और महिलाओं को शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है। ऐसे में बाघ की दहशत के माहौल में उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है।’
रिंगोंडा निवासी रजनी देवी कहती हैं कि ‘यह बात जानकर आपको हैरानी होगी कि इस गांव के निवासियों को विधायक और सांसद चुनने का अधिकार तो है लेकिन ग्राम प्रधान चुनने का अधिकार नहीं है। जब-जब चुनाव होते हैं तब-तब नेता लोग इधर का रुख करते हैं। वह चुनावों में वोट पाने के लिए बड़े-बड़े वायदे करते तो हैं लेकिन जैसे ही चुनाव सम्पन्न होते हैं वे इधर भूलकर भी नहीं आते। चुनाव से पहले यहां पर नेता आते हैं और बिजली देने का वायदा करते हैं लेकिन चुनाव के बाद कोई भी नजर नहीं आता है। इस गांव में बिजली भी नहीं है। जब भी विधायकों को चुनाव जीतना होता है तो यहां बिजली के खंभे लगा देते हैं लेकिन बिजली की सुविधा नहीं दी जाती है। गांव में बिजली के खम्भे लगे 6 साल हो गए हैं, बाढ़ में कुछ खम्भे बह गए। क्यांेकि यह गांव अनुसूचित जाति का है। इसके चलते ही ग्रामीणों के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। इस गांव के बच्चे शिक्षा की व्यवस्था से भी वंचित हैं।’
तुमडिया डैम पार में रहने वाली गोविंदी देवी कहती हैं कि ‘हमने तीन बार भाजपा विधायक को वोट देकर जिताया है। लेकिन उन्होंने आज तक हमारे लिए कुछ भी नहीं किया है। हमने अपनी समस्याओं को लेकर उनके घर तक 27 सितंबर 2022 को जुलूस निकाला था और अपनी मांगे सामने रखी थी। लेकिन विधायक ने हमारी समस्याओं को सुनने की बजाय उल्टा हमें ही दुत्कार कर भगा दिया। विधायक के घर एसडीएम की मंजूरी लेकर गए थे लेकिन वहां हमें घेर लिया गया और डराया-धमकाया गया। यहां के विधायक दलित कहकर हमारे साथ भेदभाव करते हैं।’
यह हैं वन ग्राम
रामपुर, लेटी, चौपड़ा, टेड़ा खत्ता, किशनपुर छोई, बेलग गठिया, पूछड़ी नई बस्ती, कालूसिद्ध, आमडंडा खत्ता, रिगोंड़ा, देवीचौड़ खत्ता, सुंदरखाल, शिवनाथपुर पुरानी बस्ती, शिवनाथपुर नई बस्ती, कुंभगडार, कारगिल पटरानी, पटरानी, नत्थावली, मालधन नम्बर आठ, मालधन नंबर दस, तुमडिया डैम पार, हनुमानगढ़ी, अर्जुन नाला, सिमानी खत्ता।
हमने जो कैमरे लगाए हैं वे मॉनिटिरिंग के लिए लगवाए हैं। यह लोगों के लिए प्रतिबंधित एरिया है। यहां आम आदमी को आना ही नहीं चाहिए। हमने कैमरे उनको टारगेट करके नहीं लगाए, बल्कि वाइल्ड लाइफ के मद्देनजर लगाए गए हैं। ये तो वही बात हो गई कि कोई अपराध करे और कहे कि हमने कोई अपराध ही नहीं किया। ये कैमरे आज से नहीं वर्ष 2006 से लगाए गए हैं। हालांकि मुझे यहां आए अभी छह महीने ही हुए हैं। लेकिन मैंने जो इनकी स्थिति का आकलन किया है उसमें पता चलता है कि कैमरे गांव वालों की तरफ मुंह करके नहीं लगाए गए हैं। इनसे सिर्फ हम यह देखते हैं कि कौन सा जानवर कहां है और कोई इनलिगल एक्टीविटी तो नहीं हो रही है। पिछले दिनों मुझे पता चला कि कुछ फोटोग्राफ वायरल हुए हैं जिन्हें बदनाम करने की कोशिश के मद्देनजर वायरल किया गया। हम इसकी जांच भी करा रहे हैं जिसके द्वारा भी महिलाओं की फोटो वायरल की होगी उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। मैंने यह भी पूछा है कि क्या कभी इस सम्बंध में कोई शिकायत की गई है या नहीं, लेकिन मुझे पता चला है कि ऐसी कोई शिकायत नहीं की गई है।
साकेत बडोला, डायरेक्टर, जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क
मेरे संसदीय कार्यकाल में उन्हें वनों से बाहर किया जा रहा था तब मैंने उन्हें बाहर नहीं जाने दिया। हमने संसद में वन ग्रामों के लोगों की बात को उठाया था। तब हमने ही उन्हें प्रधानमंत्री दीनदयाल योजना के तहत सौर ऊर्जा प्रदान कराई। हम चाहते थे कि उन्हें विद्युत आपूर्ति हो लेकिन उसकी हमने प्रक्रिया भी शुरू करा दी थी। तब गांवों में बिजली के पोल भी लगा दिए गए थे। लेकिन अब वहां क्या स्थिति है मुझे नहीं मालूम। अब वहां सांसद भी कोई और हैं, मुख्यमंत्री भी दूसरे हैं तो उनकी वन ग्रामों को लेकर क्या योजना है। इस बारे में कुछ नहीं कह सकता हूं। जो आप उनके लिए शौचालय न होने की बात कह रहे हैं वह मुझे पता नहीं कि उन्हें शौचालय क्यों नहीं मिले। लेकिन आज जिस तरह केंद्र की योजना है कि खुले में शौचमुक्त किया जाएगा उसके मद्देनजर प्रत्येक व्यक्ति के घर में शौचालय का निर्माण होना चाहिए। इसके लिए हमारी सरकार अनुदान भी दे रही है।
तीरथ सिंह रावत, पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तराखण्ड
28 अप्रैल 2018 को जब देश के प्रधानमंत्री जी ये दावा कर रहे थे कि देश के शत-प्रतिशत ग्रामांे में अब विद्युत दौड़ रही है तब शायद उन्हें वन ग्रामों के विषय में अवगत नहीं करवाया गया। बिजली नहीं है तो पानी भी नहीं है और पानी नहीं है तो शौचालय भी नहीं है। स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत देश की राजधानी में बड़े-बड़े कार्यक्रम होते हैं और प्रदेशों को शत-प्रतिशत ओडीएफ घोषित किया जाता है, तब भी इन वन ग्रामों को भुला दिया जाता है। देश क्या पूरे विश्व के लिए वन्यजीव कनजर्वेशन एक बेहद आवश्यक प्रक्रिया है और इसके लिए लेटेस्ट तकनीक के ड्रोन कैमरा प्रयोग में लाना एक अच्छी पहल है लेकिन अफसोस इस बात का है कि देश में जिन कंधों पर पॉलिसी बनाने का भार है उन्होंने इन ग्रामों और ग्रामीणों को भुला रखा है। क्या इन ड्रोन कैमरांे के प्रयोग से पहले उत्तराखण्ड वन विभाग ने वन ग्राम वासी की निजता के विषय में एक बार भी सोचा? ये चिंता का विषय है। आज के प्रोग्रेसिव भारत में एक बहुत बड़ी संख्या मूलभूत अधिकारों से वंचित है। ये संघर्ष अपने आप में ही बड़ा जाटिल है और बार-बार सिस्टम को इन वन ग्राम निवासियों के बारे में याद दिलाना पड़ता है। इससे कहीं न कहीं ये साबित हो जाता है कि इस तबके की गिनती पॉलिसी मेकर्स की नजर में शून्य है।
श्वेता मासीवाल, सामाजिक कार्यकर्ता एवं सचिव ‘वत्सल फाउंडेशन’
चरम पर वन विभाग की संवेदनहीनता
- दुष्यंत मैनाली
अधिवक्ता नैनीताल हाईकोर्ट
उत्तराखण्ड का वन विभाग वनों में रहने वाली जनजातियों के प्रति इस कदर संवेदनहीन है कि उच्च न्यायालय तक को विभाग की बेरुखी पर तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी है। हालात लेकिन इतने विकट हैं कि उच्च न्यायालय का कठोर रुख भी वन विभाग की संवेदनहीनता को भेद पाने में विफल होता नजर आता है। 28 दिसम्बर, 2023 को उच्च न्यायालय नैनीताल की एक खण्डपीठ ने राज्य द्वारा वन ग्रामों में रह रहीं जनजातियों के अधिकारों को सुनिश्चित न करने पर कठोर टिप्पणी करते हुए यहां तक कह डाला कि- ‘हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि पिछले कम से कम तीन दशकों से अधिक समय से उत्तरदाता (राज्य सरकार) गहरी नींद में है और जैसा कि 2006 के नियमों के नियम 11 के साथ पढ़ा जाने वाला अध्यााय-पअ में कहा गया है, राज्य ने (वन ग्रामीणों के अधिकारों) के निर्धारण अथवा सत्यापन के लिए कोई कार्यवाही नहीं की है।’
गौरतलब है कि 2006 में ‘अनुसूचति जनजाति तथा अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम संसद द्वारा पारित किया गया था। जिसका उद्देश्य औपनिवेशिक काल के दौरान वनों में रहने वाली जनजातियों पर लगाए गए प्रतिबंधों को दूर करना था। इस कानून के जरिए ऐसी जनजातियों तथा वन ग्रामीणों को वन भूमि में रहने, खेती करने तथा उन्हें वन संरक्षण की प्रक्रिया से जोड़ना है। इस कानून को लागू हुए 19 बरस बीत चुके हैं कि उत्तराखण्ड का वन विभाग वन ग्रामीणों के प्रति संवेदनहीन बना हुआ है और उनको वन अधिकार दिए जाने के सख्त खिलाफ प्रतीत होता है। वन विभाग वनों में रह रही जनजातियों को संरक्षण देने के बजाय येन-केन-प्रकारेण उन्हें वनों से बेदखल करने का काम बीते दो दशकों से करता आ रहा है। वन ग्रामीणों के अधिकारों की लड़ाई उच्चतम न्यायाालय में लड़ रहे अधिवक्ता दुष्यंत मैनाली कहते हैं कि ‘संसद में केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्री ने 31 जनवरी 2020 को एफआरए के तहत देश भर में अनुसूचित जनजाति और अन्य वनवासियों को हक देने के मामले में जानकारी साझा की थी। इसके मुताबिक उत्तराखण्ड में वन अधिकार के 31 जनवरी 2020 तक 3,574 व्यक्तिगत और 3,091 सामुदायिक यानी कुल 6,665 दावे पेश किए गए। इसी तारीख तक इसमें से 144 व्यक्तिगत और एक सामुदायिक दावे पर हक दिया गया। 6,510 मामलों में अब भी कोई फैसला नहीं लिया गया है, जो कि छत्तीसगढ़ जैसे हमउम्र राज्य के मुकाबले बेहद कमजोर प्रदर्शन है।
उत्तराखण्ड सरकार हमेशा से, वन संपदा के आधार पर केंद्र से ग्रीन बोनस की मांग तो करती है, लेकिन पीढ़ियों से जंगल बचाने वाले समुदाय के हक के दावों पर निर्णय तक न ले पाना सरकार की उदासीनता को दिखाती है। उल्टे अक्सर नए अधिकारी इन समुदायों पर बेदखली की कार्यवाही कर देते हैं जो कि कानून और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का खुला उल्लंघन है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार साल 2021 में ही जंगलों की आग बुझाने के दौरान उत्तराखण्ड वन विभाग के कर्मचारियों के साथ 6,621 ग्रामीणों ने जंगल की आग बुझाने में मदद की जिसमें 8 लोगों की मौत भी हुई। इसके बावजूद पीढ़ियों से जंगलों को महफूज रखने वाले समुदाय पर आज भी अधिकारियों की संवेदनहीनता से अक्सर बेदखली की तलवार लटक जाती है। जबकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 3, अनुसूचित जाति-जनजाति या अन्य पारंपरिक वन निवासी समुदाय के सदस्य या सदस्यों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करती है जो रहने के लिए या आजीविका के लिए स्व-खेती के व्यक्तिगत या सामान्य व्यवसाय के तहत वन भूमि में रहते हैं और वनों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, अधिनियम की धारा 4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि वे ‘राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों के महत्वपूर्ण वन्यजीव आवासों’ में रह रहे हैं तो इन वनवासियों को बेदखली से पहले समुचित रूप से पुनर्वासित करने की जरूरत है।
इसके अलावा, जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन पर दिशा-निर्देश स्पष्ट रूप से कहते हैं, ‘अधिनियम की धारा 4(5) एकदम विशिष्ट है जिसमें स्पष्ट प्रावधान है कि मान्यता और सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने तक, वन में रहने वाले अनुसूचित जनजाति या अन्य पारम्परिक वनाश्रित समुदाय के किसी भी सदस्य को उसके कब्जे वाली वन भूमि से बेदखल या हटाया नहीं जाएगा। यह खंड पूर्ण प्रकृति का है और वनों में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों या अन्य पारम्परिक वन निवासियों को उनके वन अधिकारों के बंदोबस्त के बिना, बेदखल करने की सभी सम्भावनाओं को खारिज करता है क्योंकि यह खंड ‘प्रदान करें अन्यथा सहेजें’ (सेव एज अदरवाइज) शब्दों के साथ शुरू होता है। बेदखली के खिलाफ इस सुरक्षात्मक खंड के पीछे तर्क, यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी मामले में एक वन निवासी को उसके अधिकारों की मान्यता के बिना बेदखल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वही उसे, उन मामलों में विस्थापन की स्थिति में, उचित मुआवजे का हकदार बनाता है, जहां अधिकारों की मान्यता के बाद भी, किसी वन क्षेत्र को वन्यजीव संरक्षण के लिए अनुल्लंघनीय घोषित किया जाना है या किसी अन्य उद्देश्य के लिए परिवर्तित किया जाना है। किसी भी मामले में, धारा 4(1), पात्र वन निवासियों को उनके वन अधिकारों को पहचानने और निहित करने की शक्ति प्रदान करती है। इसलिए, जब तक अधिनियम के तहत वनाधिकारों की मान्यता और निहित करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक कोई बेदखली नहीं होनी चाहिए। अधिनियम की धारा 4(5) के प्रावधानों के मद्देनजर, राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों में भी, उनके दावों की मान्यता और सत्यापन से सम्बंधित सभी औपचारिकताएं पूरी होने तक, कोई बेदखली और पुनर्वास की अनुमति नहीं है। इसे सुनिश्चित करना राज्य स्तरीय निगरानी समिति का कर्तव्य है कि इन दिशा-निर्देशों का पालन किया जाए।
वन प्रबंधन से समुदाय को अलग कर जंगल नहीं बचाया जा सकते यह बात सरकारों को समझनी होगी। उत्तराखण्ड में समुदाय आधारित वन प्रबंधन पीढ़ियों से रहा है। वन आधारित समुदायों को उनके समुचित अधिकार प्रदान करें बिना सिर्फ कागजी तरीकों से वन संरक्षण किया जाना संभव ही नहीं है लेकिन दुर्भाग्य से वन विभाग स्वयं को संरक्षक के बजाय वनों का मालिक समझता है इसीलिए वन अधिकार प्रदान करने की प्रक्रिया को आज भी राज्य में हाशिए पर रखा गया है’
(लेखक सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध हैं)