झारखण्ड जैसे हालात उत्तराखण्ड में भी हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के अहंकार से जनता ही नहीं भाजपा कार्यकर्ता भी दुखी हैं। सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ इस कदर जनाक्रोश है कि 2022 में भाजपा की वापसी असंभव मानी जा रही है। ऐसे में बहुत संभव है कि झारखण्ड के नतीजों से सबक लेकर भाजपा आलाकमान त्रिवेंद्र रावत की विदाई कर दे
झारखण्ड विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार का असर देश की भावी राजनीति पर कितना पड़ेगा, यह तो आगामी समय ही बता पाएगा, लेकिन उत्तराखण्ड की राजनीति पर इसका प्रभाव पड़ता तय माना जा रहा है। राजनीतिक जानकारों की मानें तो जेएमएम- कांग्रेस गठबंधन की जीत और भाजपा की हार का असर उत्तराखण्ड सरकार और भाजपा संगठन पर पड़ना निश्चित है। ऐसे में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत का बेचैन होना स्वाभाविक है।
झारखण्ड में हुए बड़े सत्ता परिवर्तन एक मुख्य कारण यह है कि आदिवासी बाहुल्य प्रदेश में भाजपा की सरकार और मुख्यमंत्री रघुवरदास के खिलाफ जनता में भारी आक्रोश था। इसके बावजूद प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उनके कसीदे पढ़ते हुए उन्हें सबसे बेहतर मुख्यमंत्री बताते रहे, जबकि भाजपा के भीतर ही मुख्यमंत्री के खिलाफ बड़ी नराजगी का माहौल बन चुका था। सबकुछ जानते हुए भी भाजपा का केंद्रीय आलाकामान अपने कार्यकर्ताओं की शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। इसके अलावा जिस तरह से आदिवासी समाज में कई कानूनों में हुए बदलाव के चलते सरकार और मुख्यमंत्री के प्रति जो नाराजगी थी उससे भी भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। आदिवासी बाहुल्य 28 सीटों में भाजपा को महज दो सीटें ही मिल पाई हैं, जबकि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को 19 सीटें मिली हैं।
जानकारां का कहना है कि आदिवासी समाज में भूमि कानूनों में हुए संशोधन से आक्रोश बढ़ा। ये संशोधन काश्तकारों को अपने लिए नुकसानदायक लगे। लिहाजा संथाल और छोटा नागपुर में सरकार के खिलाफ भारी नाराजगी का माहौल बना, लेकिन सरकार ने इसे अनदेखा करके कानून पास किया। विपक्ष ने इस मुद्दे को लपक लिया और जनता के साथ खड़े होकर सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन किया जिसके चलते यह संशोधन राष्ट्रपति ने वापस लौटा दिया। यह सरकार की बड़ी हार थी। जिसका खामियाजा भाजपा को चुनाव में भुगतना पड़ा।
आदिवासियों की भूमि को योजनाओं के नाम पर जबरन अधिग्रहित करने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में भी बदलाव किया गया। निजी पावर प्लांटों के निर्माण के लिए दलितों औेर आदिवासियों की जमीनों को जबरन अधिग्रहित किया गया जिससे भारी आंदेलन हुए। परंतु सरकार आंदोलनकारियों को तवज्जो देने के बजाय आंदोलन को बर्बर तरीके से कुचलने पर आमादा रही।
झारखण्ड में रघुवर दास गैर आदिवासी नेता के तौर पर जाने जाते रहे हैं, जबकि पूरा प्रदेश आदिवासी बाहुल्य माना जाता है। ऐसे में आदिवासी समाज के हितां के विपरीत मुख्यमंत्री का अहंकारी शासन जनता में आक्रोश का बड़ा कारण बना। माना जाता है कि भाजपा आलाकमान अनुशासन के नाम पर पार्टी के नेताओं और जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की बातों तक को नकारता रहा जिसका बड़ा असर यह हुआ कि कभी भाजपा में आदिवासी नेता के तौर पर पहचान रखने वाले बड़े नेता सरयू राय तक का टिकट काटा गया। जिससे वे मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ चुनाव में निर्दलीय खड़े हुए और 24 वर्ष की राजनीति में लगातार चुनाव जीतने वाले रघुवर दास को मात देने में सफल रहे।
अब उत्तराखण्ड और झारखण्ड की राजनीति की बात करें तो दोनों ही प्रदेश एक साथ अस्तित्व में आए थे। राजनीतिक अस्थिरता तकरीबन दोनां ही प्रदेशों की जनता को देखने को मिली है। मौजूदा समय में अवश्य उत्तराखण्ड पहली बार प्रचंड बहुमत की सरकार है, लेकिन सरकार के कामकाज और मुख्यमंत्री की छवि दोनों राज्यों में एक समान देखने को मिलती रही है। जिस तरह से झारखण्ड में मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ जनता और भाजपा संगठन में जबर्दस्त आक्रोश पनपता रहा है ठीक उसी तरह का माहौल उत्तराखण्ड में भी मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और उनकी सरकार के खिलाफ पौने तीन साल के कार्यकाल में देखने को मिलता रहा है। इससे सरकार और मुख्यमंत्री की छवि को खासा नुकसान हुआ है।
उत्तराखण्ड सरकार की कई ऐसी नीतियां हैं जिनसे जनता में सरकार की छवि निरंतर गिरती जा रही है। झारखण्ड में आदिवासी समाज की नाराजगी रही, तो उत्तराखण्ड में देवभूमि की संस्कøति के खिलाफ सरकार की नीतियां से जनता में मुख्यमंत्री के खिलाफ नाराजगी बढ़ रही है। देवभूमि में शराब की फैक्ट्रियों पर लगाम लगाए जाने के बजाय सरकार पर्वतीय क्षेत्रों में शराब के नए-नए ठेके और शराब की फैक्ट्रियां खोलने की इजाजत दे रही है। यहां तक कि कुंभ मेला क्षेत्र ऋषिकेश में शराब का नया ठेका और बार का लाइसेंस तक मौजूदा सरकार ने जारी किया है, जबकि कुम्भ मेला क्षेत्र अधिनियम में शराब, मांस, मदिरा यहां तक कि अंडा की बिक्री भी पूर्णतः प्रतिबंधित है।
पर्वतीय क्षेत्रां में सदियों से चले आ रहे पौराणिक मंदिरों को चारधाम देवस्थानम प्रबंध बोर्ड बनाकर सरकार मठ-मंदिरों को विशेष तोर पर पर्वतीय क्षेत्रों के मंदिरों और धार्मिक संस्थानों को अपने कब्जे में लेकर जनता और संत समाज का भारी विरोध झेल रही है। हैरानी इस बात की भी है कि मैदानी क्षेत्र के धार्मिक संस्थानों और मंदिरों को इसमें शामिल नहीं किया गया है, जबकि आज सबसे बड़े विवादास्पद धार्मिक संस्थान मैदानी क्षेत्रों में हैं। यहां कई तरह के विवाद सामने आ चुके हैं। विशेष तौर पर हरिद्वार और ऋषिकेश में कई संस्थाएं हैं जिनमें संपत्ति के खुर्द- बुर्द होने या अन्य मामले सामने आते रहे हैं। फिर भी इन्हें बोर्ड में शामिल नहीं किया गया।
झारखण्ड की तर्ज पर उत्तराखण्ड सरकार भी अपने भूमि अधिनियम में बड़ा भारी बदलाव करके उद्योग और अन्य गतिविधियों की आड़ में बाहरी लोगों के हित में जमीनों की खरीद-फरोख्त के लिए कानन बनाकर पास कर चुकी है। जिसके चलते आशंकाएं जताई जा रही हैं कि जिस तरह से मैदानी क्षेत्र में बाहरी लोगों द्वारा जमीनों को खरीदा गया है उसी तरह से पहाड़ी क्षेत्रों में भी सरकार ने इसके लिए रास्ता आसान बना दिया है। गैरसैंण में पूर्व में जमीन की खरीद-बिक्री पर लगी रोक को भी मौजूदा सरकार ने हटा दिया है। इससे सरकार की नीयत पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
अब प्रदेश सरकार और भाजपा संगठन के बीच की राजनीति की बात करें तो मार्च 2017 में सत्ता में आसीन हुए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के खिलाफ चर्चाएं छह माह के भीतर ही आरंभ हो गई थी। तब से लेकर आज तक हर छह माह में राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं होती रही हैं। इसका बड़ा कारण मुख्यमंत्री के अहंकार और सरकार की जनविरोधी नीतियां रही हैं। भाजपा के कई विधायकों द्वारा नाराजगी जताए जाने की खबरें आती रही हैं। यहां तक कि सरकार के कई कैबिनेट मंत्रियों के भी मुख्यमंत्री के साथ बिगड़ते संबंध और उनकी नाराजगी की खबरें खूब सुनाई देती रही हैं। भाजपा के कठोर अनुशासन के नाम पर सभी विरोध के स्वरों को या तो दबा दिया गया या फिर विरोधी पक्ष को किसी न किसी तरह से संतुष्ट कर दिया गया। लेकिन जमीनी स्तर पर आज भाजपा का कार्यकर्ता कई खेमों में बंट चुका है। आज भाजपा का प्रदेश संगठन हो या कार्यकर्ता तकरीबन सभी किसी न किसी नेता के खेमों में बंट गए हैं। यहां तक कि सरकार के कैबिनेट मंत्रियों तक के खेमे आज पनप चुके हैं जिसमें कार्यकर्ता बुरी तरह से प्रभावित हो गया है और वह भी एक बड़ी मजबूरी के चलते बंटता दिखाई दे रहा है।
सत्ताधारी पार्टी भाजपा के कार्यकर्ता और नेता अपनी ही सरकार की नीतियों को जनता के बीच ले जाए जाने में रुचि नहीं ले रहे हैं। यह काम मुख्यमंत्री को अपने खास और नजदीकी नेताओं, निजी सचिवों, ओएसडियों तथा मीडिया में विज्ञापनों के जरिए करना पड़ रहा है। यहां तक कि मुख्यमंत्री के साक्षात्कार भी विज्ञापनों द्वारा प्रकाशित किए गए हैं। जिसमें मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत को राज्य का सबसे बेहतर मुख्यमंत्री साबित करने के प्रयास किए जाते रहे हैं। यहां तक कि एक निजी संस्था द्वारा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत को सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री का अवार्ड दिया जाना भी बहुत बड़ी उपलब्धि बताई जा रही है, जबकि पूर्व में तकरबीन हर सत्तासीन मुख्यमंत्री को किसी न किसी निजी संस्था या संस्थान द्वारा राज्य का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री का अवार्ड दिया जाता रहा है। केवल बीसी खण्डूड़ी ही एक मात्र ऐसे पूर्व मुख्यमंत्री रहे हैं जिनको श्रेष्ठ मुख्यमंत्री का अवार्ड उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद दिया गया।
इन सब बातों से यह समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की स्थिति भी झारखण्ड के निर्वतमान मुख्यमंत्री रघुवर दास जैसी ही है। हालांकि उत्तराखण्ड में अभी विधानसभा चुनाव के लिए दो वर्ष का समय है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि झारखण्ड की तपिश उत्तराखण्ड की त्रिवेंद्र सरकार को भी झुलसा सकती है।
अब विपक्षी पार्टी कांग्रेस की बात करें तो झारखण्ड में भले ही कांग्रेस तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, लेकिन उत्तराखण्ड में वह हमेशा सत्ता की प्रबल दावेदार रही। लिहाजा झारखण्ड में हुए परिवर्तन की लहर कांग्रेस उत्तराखण्ड में भी चलने की संभावना देख रही है। कांग्रेस इस बात को अपने हक में मान रही है कि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने झारखण्ड में ताबडतोड़ 18 रैलियां की थी, जबकि कांग्रेस के राहुल गांधी और प्रियंका गांधी द्वारा महज छह ही रैलियां की गई थी। इसके बावजूद भाजपा महज 25 सीटें ही जीत पाई और कांग्रेस 16 सीटें जीत गई है। कांग्रेस का मानना है कि उत्तराखण्ड में भी 2014 से बनी मोदी लहर का असर अब कम होता चला आ रहा है और 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को इसका कोई फायदा नहीं मिलने वाला। झारखण्ड की जीत का फायदा कांग्रेस को उत्तराखण्ड में मिल सकता है।
कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय झारखण्ड में भाजपा सरकार की हार और विपक्षी गठबंधन की जीत को लेकर नए समीकरण बनने की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि जिस तरह से पहली बार झारखण्ड में आदिवासी समाज और वनवासियों के हक-हकूक के मुद्दों पर कांग्रेस और झारखण्ड मुक्तिमोर्चा ने चुनाव लड़ा और बड़ी जीत हासिल की है, वह उत्तराखण्ड में उनके वनाधिकार आंदोलन की नई भूमिका तय करने में मील का पत्थर साबित होगा। उनका कहना है कि 2022 का विधानसभा चुनाव भी उत्तराखण्ड के वनवासी और वनाधिकार को लेकर लड़ रहे निवासियों के मुद्दों के बीच होगा। इसका बड़ा भारी सुखद परिणाम होगा।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से झारखण्ड में मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ खासा असंतोष रहा उसी तरह से उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और उनकी सरकार के खिलाफ भी माहौल पनप चुका है। त्रिवेंद्र के विरुद्ध भाजपा में ही विरोध के स्वर उठते रहे हैं, लेकिन उनको अनुशासन के नाम पर दबाया जाता रहा है। हालांकि बताया जाता है कि झारखण्ड में मिली करारी हार से भाजपा का आलाकमान आत्मचिंतन के मोड में आ चुका है। इस आत्मचिंतन में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की समय से पहले विदाई का रास्ता भी बनने की संभावना है।