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Uttarakhand

सवालों के घेरे में जन औषधि केंद्र

प्रदेश में भारतीय जन औषधि केंद्र की 65 शाखाएं संचालित हैं। सभी मुख्य चिकित्सा अधिकारियों को इन शाखाओं पर जैनरिक दवाओं को उपलब्ध कराने का निर्देश है। लेकिन प्रदेश में यह दिशा-निर्देश कोई मायने नहीं रखते। इन केंद्रों की हकीकत यह है कि जहां सुदूर पिथौरागढ़ के डीडीहाट स्थित जन औषधि केंद्र बंद पड़ा है तो धारचूला के लोगों को केंद्र में दवा नहीं मिल रही है। खुद जिला मुख्यालय पिथौरागढ़ में जन औषधि केंद्र में जितनी दवाएं होनी चाहिए उतनी नहीं है। यही नहीं पूर्व में टिहरी स्थित जन औषधि केंद्र में न सिर्फ एक्सपायरी दवाएं मिली, बल्कि यहां पर बाहरी दवाएं भी रखी पाई गई

‘जन औषधि केंद्र गरीब और मध्यम वर्ग के लिए वरदान है। देश में यह ‘मोदी की दवाई की दुकान’ के नाम से जानी जाती है। जन औषधि केंद्र लोगों की सेवा करने का एक साधन भी है। इन केंद्रों में सभी को सस्ते दामों में गुणवत्तायुक्त दवाएं उपलब्ध कराना मुख्य उद्देश्य रहा है।’ जब आजादी के अमृत महोत्सव के एक कार्यक्रम में देश के केंद्री स्वास्थ्य मंत्री डा ़मनसुख मांडविया यह कह रहे थे तो शायद उन्हें इस बात की हकीकत पता नहीं होगी कि उत्तराखण्ड में स्थित मोदी की दवाई की ये
दुकानें लोगों को लाभ पहुंचा पाने में विफल साबित हुई हैं। हालांकि सरकार ने आम आदमी के हक में एक अच्छी योजना बनाई। इसके तहत उच्च गुणवत्ता वाली जैनरिक दवाओं के दाम बाजार मूल्य से कम में आम आदमी को मिल जाते हैं। लोग दवाई लेने इन केंद्रों में दौड़ लगाते हैं लेकिन दिक्कत यह है कि या तो यहां दवाई नहीं होती या फिर डाक्टर पर्ची में जैनरिक दवाओं के बजाय ब्रांडेड दवा को लिखते हैं। यानि योजना तो बनी लेकिन इसे अमल में लाने के लिए जो निगरानी तंत्र बनना चाहिए था वह नहीं बन पाया। जबकि प्रदेश में जन औषधि केंद्रों पर जैनरिक दवाओं की उपलब्धता की बात होती रही है। प्रदेश में भारतीय जन औषधि केंद्र की 65 शाखाएं संचालित हैं। इन सबमें सभी मुख्य चिकित्साधिकरियों को इन शाखाओं पर जैनरिक दवाओं को उपलब्ध कराने का निर्देश है। मुख्य सचिव स्तर से सीएमओ के साथ ही आईईसी अधिकरियों, जिला समन्वयक को जैनरिक दवाओं के प्रति जागरूक करने का निर्देश भी है।

स्वास्थ्य महानिदेशक स्तर पर भी सभी अस्पतालों को निर्देश हैं कि वह जैनरिक दवा या साल्ट ही लिखें ताकि मरीजों को दवा के लिए न भटकना पड़े। खुद प्रदेश से स्वास्थ्य मंत्री धनसिंह रावत कहते रहे हैं कि यदि कोई चिकित्सक मरीजों को बाहर की दवा लिखता है तो उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाए। लेकिन प्रदेश में यह दिशा-निर्देश कोई मायने नहीं रखते। इन केंद्रों की हकीकत यह है कि जहां सुदूर पिथौरागढ़ के डीडीहाट स्थित जन औषधि केंद्र बंद पड़ा है तो धारचूला के लोगों को केंद्र में दवा नहीं मिल रही है। खुद जिला मुख्यालय पिथौरागढ़ में जनऔषधि केंद्र में जितनी दवाएं होनी चाहिए वह नहीं है। यही नहीं पूर्व में टिहरी स्थित जनऔषधि केंद्र में न सिर्फ एक्सपायरी दवाएं मिली बल्कि यहां पर बाहरी दवाएं भी रखी पाई गई। कोटद्वार स्थित जन औषधि केंद्र में भी दवाइयां उपलब्ध नहीं मिली। कुल मिलाकर जन औषधि केंद्रों में सस्ती दवाएं उपलब्ध होने व खरीदने का दावा तो है लेकिन लोग कैमिस्ट की दुकान से महंगी दवाएं खरीदने के लिए मजबूर हैं। कहने को तो इन केंद्रों पर 600 प्रकार की जैनरिक दवाएं व 154 से ज्यादा सर्जिकल आइटम उपलब्ध होने की बात कही जाती रही है लेकिन सच में ऐसा नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि डॉक्टर भी यहां के लिए जैनरिक दवायें नहीं लिखते हैं। जो केंद्र खोले गए हैं वहां पर भी दवाओं की कमी रहती है इन जनऔषधि केंद्रों का संचालन रेडक्रास सोसायटी व निजी कारोबारियों के हाथों में है। लोगों को जेनरिक दवायें नहीं मिल पा रही हैं तो कम से कम इनकी भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए।

आखिर डाक्टर ब्रांडेड दवाएं क्यों लिखते हैं? जैनरिक दवाओं पर उनका भरोसा क्यों नहीं है? ब्रांडेड व जैनरिक दवाओं में क्या अंतर है? इस पर हमने दवा उद्योग की अच्छी जानकारी रखने वाले डा ़त्रिभुवन कुमार से बात की तो उन्होंने बताया कि ‘ब्रांडेड दवा के दाम निर्माता कंपनियां खुद तय करती हैं। जबकि जैनरिक की कीमत सरकार निर्धारित करती है। जैनरिक दवाओं में केवल निर्माण का खर्च होता है जबकि ब्रांडेड दवाओं की पब्लिसिटी से पेंटेंट तक के कई खर्चें होते हैं। जहां तक दवाओं की गुणवत्ता की बात है तो जैनरिक दवाएं भी ब्रांडेड दवाओं के समान ही असरदार होती हैं व कीमत में भी सस्ती होती हैं। इनके बारे में दुष्प्रचार किया जाता है कि ये दवायें अच्छी नहीं होती।’ दरअसल जैनरिक दवाएं वह होती हैं जिनका पेटेंट संरक्षण समाप्त हो चुका होता है। पेटेंट संरक्षण समाप्त होने के बाद दूसरे निर्माताओं को भी दवाएं निर्मित करने का अधिकर मिल जाता है। जैनरिक (फार्माकोपियल) शब्द का अर्थ दवा के मूल घटक से है, जिसे दवा निर्माता जैनरिक या ब्रांड नाम से बेच सकते हैं। जैनरिक दवाएं 20 से 80 प्रतिशत कम लागत पर बाजार में उपलब्ध होती है। जैनरिक दवाएं बाजार में उपलब्ध हैं लेकिन डॉक्टरों के द्वारा नहीं लिखी जाती। वह इन दवाओं की गुणवत्ता पर भरोसा नहीं करते। जबकि जैनरिक दवाओं में वही क्षमता व चिकित्सकीय प्रभाव होता है, जो कि एक ब्रांडेड दवा में।

ब्रांड पर निर्माता का एकाधिकर होने से ब्रांडेड दवाइयां कई गुना महंगी बिकती हैं, परंतु दोनों की गुणवत्ता समान होती है। लेकिन बाजारवाद के चलते जैनरिक दवाएं पीछे रहती हैं इसमें ब्रांडेड दवाओं की तुलना में कम कमीशन मिलता है। इसलिए इसे कैमिस्ट्स कम रखते हैं। सच यह है कि दवाएं महंगी हैं तो इलाज भी महंगा है। जैनरिक दवाइयों को पछाड़कर ब्रांडेड दवाइयां आगे निकल रही हैं। चिकित्सक मरीजों को ब्रांडेड दवाएं खरीदने के लिए मजबूर कर रही हैं। दवा कंपनियां अपने ब्रांड के प्रचार के लिए डॉक्टरों को महंगे से महंगे उपहार भेंट करती हैं। इसके अलावा महंगी दवा लिखने से उनका कमीशन भी ज्यादा बनता है। अनेक दवा कंपनियां तो चिकित्सकों के घर का पूरा खर्च भी उठा रही हैं। एक दवा बाजार में आठ पैसे की है तो वहीं ब्रांडेड के नाम पर अस्सी रुपए की हो जाती हैं। देश में ज्यादातर दवाइयां ऐसी हैं जिनकी कीमतों पर सरकार का नियंत्रण ही नहीं है। इन दवाओं के मूल्यों का निर्धारण दवा कंपनियां स्वयं ही करती हैं। जहां कंट्रोल्ड दवाओं की संख्या सौ से कम है तो वहीं डीकंट्रोल्ड दवाओं की तादाद पांच सौ से उपर है। चिकित्सकों द्वारा ब्रांड दवा लिखने से बाजार में कृतिम एकाधिकार की स्थिति बनती है। जिससे दवा कंपनियां अधिकतम खुदरा मूल्य करने में मनमानी करती हैं अधिकतर दवाइयां औषधि मूल्य नियंत्रण से मुक्त होती है। सस्ती दवा उपलब्ध होने के बाद भी लोग महंगी दवाएं खरीदने को मजबूर हैं। बाजार का यह खेल आम आदमी की जेब पर भारी पड़ रहा है।

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