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Uttarakhand

पाठ्यक्रम का हिस्सा बनेंगी जागर गाथाएं

लोक पर्व फूलदेई, कुमाऊंनी-गढ़वाली भाषा, नैतिक शिक्षा, गीता, वेद, रामायण के बाद अब जागर गाथाओं को प्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रमों में लागू करने की चर्चा है। शासकीय स्तर पर चल रही इन चर्चाओं से संस्कृतिकर्मियों में

केवताओं को पूजते भक्त

खुशी व्याप्त है। लोगों का कहना है कि अगर इस तरह के कदम सरकार उठाती है तो इससे हमारी लोक संस्कृति को एक नई पहचान मिलेगी। उत्तराखण्ड में अनोखी पंरपरा है जागर। इसमें देवी-देवताओं का आह्नान किया जाता है। यह ईश्वर के प्रति निष्ठा को प्रदर्शित करता है। आज भी राज्य के लोग ग्वेल, देवी, गंगनाथ, भोलनाथ, कत्यूर आदि लोक देवी-देवताओं पर जागर लगाकर कुल देवी की पूजा अर्चना करते हैं। देवी देवताओं के सूक्ष्म एवं पूर्वजों की अतृप्त आत्माओं को लोकवाद्य यंत्रों के साथ एक विशिष्ट शैली में गाकर देवताओं को जागृत करने को जागर कहा जाता है, इसमें जगरिया जो अदृश्य आत्मा को जागृत करता है। वह देवता की जीवनी, उसके जीवन की घटनाएं और गुणों को विशिष्ट शैली में गाता है। डंगरिया के शरीर में देवता की आत्मा अवतरित होती है। जब डंगरिए के शरीर में देवता अवतरित होता है तो उसका पूरा शरीर कंपायमान हो जाता है। इस दौरान लोग डंगरिए को अपने दुखों का कारण बताते हैं व समाधान पूछते हैं। डंगरिया को आज भी पर्वतीय क्षेत्र में आदर के भाव से देखा जाता है। जिस घर में यह आयोजन होता है उस समय उस घर के मुखिया को स्योंकार और उसकी पत्नी को स्योंनाई कहा जाता है। जगरिया के साथ तीन चार अन्य सदस्य भी बाद्य यंत्र बजाते हैं। आज भी लोग ग्वेल, कत्यूर, गंगनाथ, हरू-सैम आदि लोक देवताओं की पूजा- अर्चना करते हैं।

जागर अलग-अलग तरह के होते हैं। हरज्यू, सैम देवता व कत्यूर आदि देवताओं के जागर घर के आंगन में लगते हैं तो भोलनाथ, गंगनाथ व देवी के जागर घर के अंदर लगाए जाते हैं। उत्तराखण्ड में जागर परंपरा सदियों पुरानी है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत रूप से मौखिक तरह से हस्तांतररित होती आई है। जागर लगाते समय हुड़का, कांसे की थाली और ढोल दमाऊं आदि बाद्य यंत्र बजाए जाते हैं। यूं तो जागर से कई लोक देवता भी जुड़े हैं। इसमें नैनादेवी, भोलानाथ, नंदा देवी, गोलू देव, भूमिया देव, सैम देव, हरूदेव, गंगनाथ, कलकिश्ट, नरसिंह/हवादार, गड़देवी, सिदुवा-विदुवा शामिल हैं। 14 से 16 प्रकार के तालों में कुमाऊं में विशेष नृत्य पंरपरा है तो वहीं गढ़वाल में 18 तरह के तालों पर जागर से जुड़ा विशेष पांडव नृत्य होता है। यह रोमांच व रहस्य से भरी एक देव परंपरा है।

इसमें अद्भुत गायन शैली होती है और मुख्य किरदार होता है जगरिया। इसे गुरु का दर्जा प्राप्त होता है। इसमें लोक देवता का सजीव चित्रण होता है। इसमें वाद्ययंत्रों की झंकृत करती धुनों व वीर रस का गायन जैसे-जैसे लय पकड़ती है, डंगरिये की शरीर में कंपन अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाती है। जागर में चावल का विशेष महत्व होता है। देवता अवतरित होने के बाद डंगरिया नाचता है और चावल के दानों को हथेली पर लेकर उन तमाम सवालों का जवाब देता है जो जागर में आए लोग पूछते हैं। डंगरिये नाचते- नाचते उनका भविष्य बताते हैं। जागर देव संस्कृति के साथ एक कठिन तपस्या भी है। जागर बाइस दिन, चार दिन, दो दिन भले ही कितने का भी हो। लेकिन डंगरिये एक माह अपने गृहस्थ जीवन से दूर रहते हैं। लहसुन व प्याज तक ग्रहण नहीं करते। उनके द्वारा लिया जाने वाला भोजन पूरा सात्विक होता है। वे अपने हाथों से ही बना भोजन करते हैं। इस पूरे समय वे अपनी पत्नी से दूर रहते हैं। 22 दिन तक इन डंगरियों धूणी जमाकर रहना पड़ता है। सैम देवता सभी लोक देवताओं के मामा माने जाते हैं। धूणी में वह सबसे वरिष्ठ माने जाते हैं।

जागर लगाते वक्त इसमें एक मुख्य कथा वाचक होता जिसे जगरिया कहते हैं। इसके साथ भाग लगाने वाले व्यक्तियों को हेवार या भगार कहा जाता है। जिस व्यक्ति के शरीर में किसी देवी, देवता या भूत की आत्मा अवतरित होती है, उसे डंगरिया कहते हैं। सहगायकों में से एक या एकाधिक व्यक्ति वाद्य यंत्रों को बजाते हैं। इस अवसर पर ढोल, नगारा, ढोलक, कांसे की थाली, परात हुडुक, मजीरा आदि बाद्ययंत्र बजाए जाते हैं। यूं तो जागर के कई प्रकार होते हैं। देव मंदिरों में नवरात्रियों में भी जागर लगाया जाता है। यह जागर सार्वजनिक होते हैं। इसमें आस-पास के गांवों के लोग भाग लेते हैं। वहीं दूसरे तरह के जागर वह होते हैं जिसमें लोग अपने वंश-परम्परागत देवी-देवताओं, भूतों को प्रसन्न करने के लिए लगाते हैं। यह घर के बाहर व भीतर किसी एक जगह पर लगाए जाते हैं। कुछ जागरों में घूनी लगती है। एक दिवसीय से लेकर चौरास यानी चार दिनों के साथ ही ग्यारह दिन व बाईस दिन के जागर भी आयोजित किए जाते हैं।

 

जागर पर महत्वपूर्ण पुस्तक

उत्तराखण्ड के कुमाऊं क्षेत्र के लोग सदियों से शिव, दुर्गा, हनुमान आदि प्रमुख देवी-देवताओं के अलावा कई स्थानीय देवी, देवताओं की पूजा करते रहे हैं। इन स्थानीय देवताओं को ईष्ट देवता या कुल देवता कहा जाता है। लोग अन्याय व आपदा से बचने के लिए इन ईष्ट देवों की शरण में जाते हैं, इनके जागर लगाते हैं। इनकी गाथाएं गाते हैं। ये ईष्ट देवता अपने समय में अधिकांशतः राजा या जोगी हुआ करते थे जो बाद में किन्हीं कारणों से पूजे जाने लगे। पीढ़ी दर पीढ़ी यह प्रथा चलती आई है लेकिन अब इसका ह्ास होने लगा है, जिसे संरक्षण की दरकार है। इसी उद्देश्य के तहत इधर उत्तराखण्ड की जागर गाथाओं को लेकर हाल ही में डॉ पीताम्बर अवस्थी की एक पुस्तक प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में विलुप्त होती जागर गाथाओं के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होने वाली इस विद्या को पुस्तकाकार रूप देकर लेखक ने प्रदेश की कला एवं संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास किया है।

पुस्तक के प्राक्कथन में लेखक ने इसकी ऐतिहासिकता को भी उल्लेखित किया है। ‘उत्तराखण्ड की जागर गाथाएं’ नामक इस पुस्तक में कुमाऊं व गढ़वाल मंडल के लोक देवता, जनजातीय क्षेत्रों के देवता, जागरों की पूर्व की अनुष्ठानिक पूजा, घडियाला, जागर, नागराजा का आह्नान, दैंत-संहार, गंगू/घांगू रमोला, कुमाऊं में रमोला गाथा, जागरों में गंगू रमोला, सिदुवा-बिदुवा जागर, मोती माला जागर, निरंकार जागर, बाला गोरिया, गंगनाथ जागर, बभूति मंत्र आदि अध्यायों के जरिए इस विषय पर विस्तारपूर्वक जानकारी प्रदान की गई है। 142 पृष्ठों की यह पुस्तक इस विषय पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती है। लोक संस्कृति पर काम करने वाले शोध छात्रों के लिए संदर्भ ग्रंथ के रूप में यह पुस्तक महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। अपने प्राक्कथन में लेखक कहते हैं कि जागर उत्तराखण्ड की संस्कृति की बहुत प्राचीन विद्या है। तुरन्त ही किसी संकट से छुटकारा पाने के लिए लोग पहले अपने ईष्ट देवता की पूजा अर्चना करना शुभ मानते हैं।

वैसे भी पहाड़ में जागर गाथाओं में कृष्ण, देवी, पाण्डव, गोरिल, निरंकार, रमौल, सैम हरू आदि कई धार्मिक और पौराणिक गाथाएं शामिल हैं जो सभी एक काल में नहीं रची गई होंगी। वस्तुतः बहुत-सी गाथाएं समय से जुड़ी होंगी। बहुत-से देवताओं की तरह पूजे जाने वाले व्यक्ति अपने समय के न्यायप्रिय एवं शक्तिशाली मानवों में से एक थे। उनके स्वर भी जागर में सुनाई देते हैं। वैसे भी मध्य हिमालय लोकगाथाओं का अक्षय भंडार है किन्तु अब ये जाति विशेष या अनुष्ठान विशेष की धरोहर बनकर रह गई हैं या समय के साथ विलुप्त होती जा रही हैं। ऐसे में इस तरह की प्रथाओं को संरक्षित रखना एवं नई पीढ़ी से इसे परिचित कराना समय की मांग है।

 

लोक देवताओं की दृष्टि से इस देश का कोई भी राज्य इतना धनी नहीं होगा जितना उत्तराखण्ड है। ये लोक-देवता समय-समय पर इस क्षेत्र में आए विभिन्न जातियों के लोगों की देन है जो आज भले ही विलुप्त हो चुके हैं किन्तु विरासत के रूप में इन लोक देवताओं और उनकी पूजा-पद्धतियों की धरोहर को छोड़ गए हैं। यूं भी संस्कृति किसी भी समाज की आत्मा होती है। जागर आध्यात्मिक भावना का प्रतीक है। यह आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकारने का विषय है और हिमालय की कंदराओं में बसे हुए हिमपुत्रों के धर्म का प्रतीक है। वहीं दिनभर परिश्रम से थके जनमानस के रात्रि मनोरंजन का साधन भी है, जो आज भी कहीं न कहीं देखने को मिल जाता है।
डॉ. पीताम्बर अवस्थी, लेखक एवं संस्कृतिकर्मी

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