समय किसी का इंतजार नहीं करता। समय के गुजरने के साथ कुछ जाने वाले व्यक्ति स्मृतियों से विलोप हो जाते हैं और कुछ शख्सियतें ऐसी होती हैं जिनकी स्मृतियों को गुजरता समय स्वयं याद करता है। एक वर्ष पूर्व 13 जून 2021 को उत्तराखण्ड की वरिष्ठतम नेत्री इंदिरा हृदयेश का अचानक अवसान प्रदेश की राजनीति में जो शून्य पैदा कर गया उसकी भरपाई राज्य आज तक नहीं कर पाया है। इंदिरा हृदयेश भले ही कांग्रेस की राजनीति से ताल्लुक रखती थीं लेकिन उन्हें सिर्फ एक राजनीतिक दल के दायरे में बांध कर रखना उनके व्यक्तित्व के साथ अन्याय होगा। उनके निधन के बाद उत्तराखण्ड की राजनीति में उनके जैसा अनुभव, संसदीय ज्ञान और बेलगाम अफसशाही से काम करवा लेने की काबिलियत का कोई नेता उनके कद का नजर नहीं आता। उत्तराखण्ड की राजनीति में महिलाओं की पक्षधर रही इंदिरा हृदयेश की अनुपस्थिति ने राज्य की महिला राजनीति को भी एक हद तक प्रभावित किया है। राजनीति के वर्तमान दौर में वे एकलौती ऐसी महिला राजनीतिज्ञ थी जिन्होंने पुरुषों के वर्चस्व वाली राजनीति में अपना मुकाम स्वयं के बूते पर बनाया था।
उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड की राजनीति में डॉ ़ इंदिरा हृदयेश का नाम कभी अंजाना नहीं रहा। 1941 में अयोध्या में जन्मी इंदिरा हृदयेश एक कांग्रेसी परिवार से ताल्लुक रखती थी। उनके पिता टीकाराम पाठक आजादी की लड़ाई के जननायकों में से एक थे। 1962 में राजनीति कोसमाज सेवा का आधार बना राजनीति में प्रवेश करने वाली इंदिरा हृदयेश ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस से की थी। 1974 में शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से चुनावी राजनीति की शुरूआत करने वाली इंदिरा हृदयेश तब पहली बार उत्तर प्रदेश की विधानपरिषद् के लिए निर्वाचित हुई। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और 1980, 1992, 1998में विधानपरिषद् की सदस्य चुनी जाती रही। 2002 में उत्तराखण्ड राज्य गठन के पश्चात बनी
अंतरिम विधानसभा में वह नेता प्रतिपक्ष मनोनीत हुई। 2002 में उत्तराखण्ड राज्य गठन के समय वह उत्तराखण्ड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की सशक्त दावेदार थीं। 2002 में प्रथम विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस की सरकार बनने के पश्चात नारायण दत्त तिवारी मंत्रिमंडल में वित्त, सूचना, लोकनिर्माण सहित कई विभागों की मंत्री बनीं। ये दौर था जब इंदिरा हृदयेश उत्तराखण्ड की सशक्त नेता के रूप में उभरी, नारायण दत्त तिवारी मंत्रिमंडल में वह भले ही दूसरे नंबर की मंत्री थी लेकिन उस दौरान उन्हें सुपर मुख्यमंत्री के रूप में जाना जाता था। वहीं यह समय था जब उनके निर्वाचन क्षेत्र का कायान्तरण हुआ और हल्द्वानी ने विकास के नये आयामों को छूआ अपनी शर्तों पर राजनीति करने वाली इंदिरा हृदयेश ने लोक निर्माण विभाग का अधिकांश बजट अपनी विधानसभा में खर्च कर देने के आरोपों के बीच विधानसभा क्षेत्र की हर गली को पक्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विकास की उनकी इस सोच को हल्द्वानी की जनता ने शायद पसंद नहीं किया और 2007 का विधानसभा चुनाव वह भाजपा के बंशीधर भगत से हार गई। 2007 से 2012 का दौर हल्द्वानी क्षेत्र के लिए पुनर्विचार का रहा जिसमें विकास का पहिया 2007 से आगे नहीं बढ़ पाया। 2012 के विधानसभा चुनाव में वह फिर से हल्द्वानी से भारी बहुमत से जीती। 2012 में वो विजय बहुगुणा और 2014 में वह हरीश रावत के मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण विभागों की मंत्री रहीं। 2012 से 2017 के दौरान उन्होंने हल्द्वानी के संबंध में अपने सपनों को मूर्त रूप देने की शुरूआत की जो हल्द्वानी को देश के बड़े शहरों की श्रेणी में लाने की उनकी पहल थी। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम उसका जीता जागता उदाहरण है। हल्द्वानी को गुजरात के बडोदरा की तर्ज पर अंतर्राजीय बस अड्डा देने का सपना जरूर राजनीति की भेंट चढ़ गया।
हल्द्वानी को पर्यटन के क्षेत्र में विकसित करने के लिए वृहत हल्द्वानी की कल्पना उनके मन में थी जिसमें सिर्फ हल्द्वानी ही नहीं उसके आस-पास की विधानसभाओं के लिए उनमें कई योजनाएं थीं। जिसकी एक कड़ी के रूप में अंतरराष्ट्रीय प्राणी उद्यान लालकुआं विधानसभा क्षेत्र के गौलापार में विकसित करने की शुरूआत हो चुकी थी जिसका निर्माण आज भी अधर में हैं। उनका मानना था कि विकास की योजनाएं राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की भेंट नहीं चढ़नी चाहिए क्योंकि उसका अंततोगत्वा नुकसान क्षेत्र व जनता को ही उठाना पड़ता है।
उत्तराखण्ड की राजनीति में इंदिरा हृदयेश वरिष्ठतम राजनीतिज्ञ थी। जिनके अनुभवों का लाभ कांग्रेस को तो मिला ही भाजपा की सरकार में भी उनकी सलाहों को बड़ी गंभीरता से सुना जाता था। उनका मानना था कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का मतलब राजनीतिक दुश्मनी नहीं है। विरोधियों का सम्मान भी पूरी शिद्दत के साथ किया जाना चाहिए। अपने राजनीतिक विरोधियों की व्यक्तिगत आलोचना से वह हमेशा बचती रही। उनके उत्तराखण्ड की राजनीति में कद का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत की इंदिरा हृदयेश पर व्यक्तिगत टिप्पणी के चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भगत की टिप्पणी पर इंदिरा हृदयेश से व्यक्तिग रूप से खेद व्यक्त किया था।
2016 में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार पर आए संकट के समय वह मजबूती से हरीश रावत के साथ खड़ी रही भले ही कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में वो हरीश रावत की प्रतिद्वंद्वी रही हों। 2017 में नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद वह उत्तराखण्ड कांग्रेस में और सशक्त होकर उभरीं। प्रीतम सिंह के अध्यक्ष बनने से मिली ताकत से वह कांग्रेस को 2022 के विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ बनाने की योजनाओं पर मजबूती से काम कर रही थीं। उनकी स्पष्टवादिता और दो टूक कहने की आदत उनके विरोधियों को भले ही नाराज कर देती थी परंतु स्पष्टवादिता उनकी ताकत भी थी जो नौकरशाही में उनका भय कायम रखती थीं। उन पर व्यापक जनाधार वाली राजनेता होने का आरोप भले ही लगता हो लेकिन उनका कहना था 26 वर्षों तक वह उत्तराखण्ड के शिक्षकों का विधानपरिषद में प्रतिनिधित्व करती रहीं क्या वह शिक्षक जनाधार का हिस्सा नहीं है?
कूटनैतिक चातुर्य की कमी और स्पष्टवादिता के चलते ही वो उत्तराखण्ड की मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं पा सकीं। उन्हें इसी बात का अफसोस था कि उनकी वरिष्ठता को हमेशा नजरअंदाज किया गया और मुख्यमंत्री बनने का सपना अधूरा ही रहा। उनका मानना था कि पुरुष प्रधान राजनीति में स्त्रियों को उनका हक आसानी से नहीं मिलता वरन छीनना पड़ता है। अगर निरीह नारी की तरह आप अपने हक का इंतजार करते रहेंगे तो इस राजनीति के बियावान में आप कहीं खो जायेंगे। शायद वो इसीलिए उत्तराखण्ड की राजनीति में एकमात्र महिला नेता हैं जिसे इतना ऊंचा मुकाम हासिल हुआ।
कांग्रेस के लोगों का मानना है कि 2022 के विधानसभा चुनावों में इंदिरा जी जीवित होती तो न टिकट बंटवारे में ऐसी स्थिति आती और राज्य का राजनीतिक परिदृश्य कुछ बदला ही होता। वह निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पार्टी की संभावनाओं पर थोपने के सख्त खिलाफ थीं। वह मानती थीं पहले पार्टी को बचाइये आप तो फिर बच ही जायेंगे। कभी पीछे मुड़कर देखने से उनके शब्द भविष्यवाणी की तरह लगते हैं। ‘दि संडे पोस्ट’ से बातचीत में उन्होंने कहा था कि हरीश रावत को नैनीताल- ऊधमसिंह नगर के क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ना चाहिए क्योंकि नारायण दत्त तिवारी के प्रति हरीश रावत की तल्खी के चलते यहां की जनता उन्हें स्वीकारेगी नहीं। किच्छा विधानसभा, नैनीताल लोकसभा और लालकुआं से हरीश रावत की पराजय शायद उनके कथन को सच साबित करती हैं। इंदिरा हृदयेश ऐसी सियासतदां थी जिनमें परेशानियों को समझने और तुरंत फैसले लेने की क्षमता थी और उत्तराखण्ड की राजनीति खासकर कांग्रेस के अंदर जो शून्य पैदा हुआ है वह उनके जाने के एक साल बाद भी नहीं भरा जा सका है।