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Uttarakhand

बढ़ रहा है कर्मचारियों का आक्रोश

  •     अरुण कश्यप

 

स्थानांतरण नीति

उत्तराखण्ड के दूरस्थ पहाड़ी इलाकों में सरकारी कर्मचारी तैनाती से बचना चाहते हैं और येन- केन-प्रकारेण अपनी पोस्टिंग मैदानी इलाकों में करवाने की जुगत लगाते रहते हैं। राज्य गठन के बाद से ही यह ‘खेला’ शुरू हो गया था जिसने अब एक अवैध उद्योग का रूप धर लिया है। हालात इतने विकट हैं कि राज्य में लागू ‘ट्रांसफर एक्ट’ भी निष्प्रभावी हो चला है और सेटिंग-गेटिंग के आधार पर राज्य में सरकारी कर्मचारियों का ट्रांसफर अब जन आक्रोश का बड़ा मुद्दा बन उभरने लगा है

 

देश में ट्रांसफर एक तरह का बड़ा उद्योग के तौर पर सामने आ चुका है। राज्य बनने के 22 वर्ष के अंतराल में केवल खंडूड़ी सरकार का दूसरा कार्यकाल ही इस उद्योग की कमर तोड़ने में कामयाब रहा जबकि दो दशक तक के कालखंड में राज्य में ट्रांसफर एक बड़े अघोषित उद्योग के तौर पर ही मजबूत होता रहा। वर्तमान सरकार के समय में भी इस पर कोई खास लगाम लगी हो ऐसा भी देखा नहीं गया है। कमोवेश ट्रांसफर के लिए हर वही तरीके और हथकंडे अपनाए जा रहे हैं जो इस राज्य की नियति में शुरुआत से ही अपनाए गए थे। आज हर विभाग के कर्मचारी शासन की लचर नीति का खामियाजा ट्रांसफर के नाम पर भुगत रहे हैं जबकि शासन और राजनीति ट्रांसफर एक्ट और पॉलिसी के बीच ही कर्मचारियों की चरखी बनाने में लगे हुए हैं। 15 प्रतिशत ट्रांसफर किए जाने की सरकारी नीति बाबत अभी तक शासन द्वारा कोई शासनादेश तक जारी नहीं होना अपने आप में ही गंभीर सवाल खड़े कर रहा है। इसके चलते विभागों में अनिवार्य स्थानांतरण नहीं हो पा रहे हैं और राज्य की अफसरशाही स्थानांतरण पॉलिसी द्वारा ही पारदर्शी ट्रांसफर का राग आलाप रही है।

हैरत की बात यह है कि राज्य में ट्रांसफर एक्ट लागू है लेकिन एक्ट के बजाय ट्रांसफर मनमाने तरीके से किए जा रहे हैं। 2018 में तत्कालीन त्रिवेंद्र रावत सरकार द्वारा ट्रांसफर एक्ट को राज्य में लागू कर दिया गया था। तो मौजूदा समय में किस आधार पर स्थानांतरण किए जा रहे हैं? अधिनियम को कोई भी पॉलिसी सुपरसीड नहीं कर सकती। यह अपने आप ही असंवैधानिक श्रेणी में आ जाता है लेकिन उत्तराखण्ड में ये सब हो रहा है। ट्रांसफर एक्ट में सुगम और दुर्गम कार्य स्थलों को चिÐत कर दुर्गम स्थान पर कार्य कर रहे कर्मचारियों को सुगम क्षेत्र और सुगम में कार्यरत कर्मचारियों को अनिवार्य रूप से दुर्गम में स्थांतरित करने का प्रावधान है। वर्ष 2018 में कार्मिक विभाग द्वारा शासनादेश द्वारा सुगम और दुर्गम की श्रेणी तय कर दी गई थी लेकिन अब इसमें बदलाव किया गया है जिससे जो इलाके 2018 में दुर्गम की श्रेणी में रखे गए थे उनको अब सुगम घोषित कर दिया गया है ऐसे में सुगम इलाके में कार्य कर चुके कर्मचारियों का तबादला अब सुगम में नहीं हो पा रहा है। इसके चलते कर्मचारी लगातार दुर्गम में अपनी सेवाएं देते आ रहे हैं लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो पा रही है। यही हाल सुगम श्रेणी का भी है जो 2018 में सुगम में रखे गए थे वे अब दुर्गम बना दिए गए हैं जिससे उनको सुगम में स्थानांतरण में आसानी हो सकती है। इसी के चलते कर्मचरी संगठनों में भी स्थानांतरण को लेकर खासा रोष बना हुआ है।

लोक निर्माण विभाग की बात करें तो विभागीय अधिकारियों की मनमानी के चलते कर्मचारियों में खासा रोष बना हुआ है। अधिकारी केवल 10 से 15 प्रतिशत अभियंताओं के ही तबादले कर रहे हैं जबकि 2018 में बनी नीति के तहत सभी का अनिवार्य तबादला किया जाना चाहिए था। इसमें भी सुगम और दुर्गम श्रेणी के ही आधार पर तबादले होने चाहिए थे लेकिन इस श्रेणी को मनमाने तरीके से बदला जा रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि दो वर्ष तक राज्य में कोरोना महामारी के चलते प्रदेश के सभी विभागों में शून्य तबादला सत्र घोषित किया गया था इस कारण कई ऐसे कर्मचारी थे जिनका 2018 की नीति के तहत स्थानांतरण होना चाहिए था, नहीं हो पाया। लेकिन अब जब स्थानांतरण को लागू कर दिया गया है तो उनको इससे दूर रखा जा रहा है।

हैरानी की बात यह है कि इसमें महिला कर्मचारियों के हितों को भी दरकिनार किया जा रहा है। आज प्रदेश के सभी विभागों में तकरीबन 33 प्रतिशत महिलाएं सेवारत हैं जो अपनी सेवा के साथ-साथ अपने परिवार आदी के लिए भी दिन-रात कार्य करती हैं लेकिन आज तक विभागों में महिलाओं के लिए अलग से स्थानांतरण की नीति नहीं बनाई गई है, न ही स्थानांतरण अधिनियम में इसका अलग से कोई व्यवस्था की गई है। विभागीय कर्मचारियों की मानें तो आज भी कई महिला कर्मचारी अपने घर-परिवार से कई-कई किमी दूर अपनी सेवाएं दे रही हैं लेकिन इनके स्थानांतरण के लिए कोई पहल न तो विभाग द्वारा स्वतः ही की जाती है, न ही इसके लिए कर्मचारी संगठन आगे आते हैं। एक तरह से महिलाओं को पुरुष कर्मचारी के साथ ही स्थानांतरण किया जाता है। जबकि सरकार का दावा होता है कि राज्य में महिला कर्मचारियों के हितों को सबसे ज्यादा तरजीह दी जाती है।

महिला कर्मचारियों के स्थानांतरण के हितों पर कैसे सरकारी विभाग और सरकार के साथ-साथ शासन भी कुडली मारे रहता है इसका सबसे बड़ा प्रमाण पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में उनके जनता दरबार के एक मामले में सामने आ चुका है जिसमें उत्तरकाशी के एक दुर्गम गांव में वर्षों से कार्यरत महिला शिक्षिका उत्तरा पंत बहुगुणा ने अपने स्थानांतरण के लिए मुख्यमंत्री से गुहार लगाई थी लेकिन मुख्यमंत्री ने उनकी बात सुनने की बजाय उनको पुलिस हिरासत में देने की धमकी दे डाली। साथ ही उनको जनता दरबार से चले जाने को कहा। इस मामले ने बहुत तूल पकड़ा और सरकार के साथ-साथ मुख्यमंत्री की भी जमकर निंदा की गई। यह मामला राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी खूब उछला। बावजूद इसके उत्तरा पंत बहुगुणा का स्थानांतरण तो नहीं हो पाया लेकिन विभागीय अनुशासन और कर्मचारी आचरण नियमावली के तहत उन पर विभागीय जांच भी बैठा दी गई। जबकि शिक्षिका वर्षों से दुर्गम में अपनी सेवाएं दे रही थी लेकिन सरकार और विभाग में रसूख और सिफारिश न होने के कारण उनको हर बार स्थानांतरण से दूर ही रखा गया। आखिरकार हार कर शिक्षिका ने लंबी छुट्टी लेकर घर में बैठना उचित समझा और इसी दौरान वे सेवानिवृत्त भी हो गईं। यह मामला साफ बताता है कि किस तरह से राज्य में महिला कर्मचारियों के स्थानांतरण के हकों पर विभाग और शासन कुंडली मारे हुए रहता है।

अब राज्य में स्थानांतरण जैसे एक बड़े अघोषित उद्योग की बात करें तो ऐसा नहीं है कि इस पर कभी लगाम लगाने की कोशिश नहीं की गई। अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा पहली बार सरकारी विभागों में स्थानांतरण को लेकर कठोर नीति बनाई गई थी तब उत्तर प्रदेश के 8 पहाड़ी जिलों में हर विभाग में कर्मचारियों की कमी दूर होने लगी। लेकिन राज्य बनने के बाद उत्तर प्रदेश के समय से चली आ रही व्यवस्था को कर्मचरी संगठनों के दबाव में लागू करने की बजाय इसे इतना लुंज-पुंज कर दिया कि हर कर्मचारी जिसकी जरा-सी पकड़ सत्ताधारी पार्टी के नेता, अधिकारी और शासन में रही हो, उसका मनमाफिक जगहां पर तबादला होने लगा। इसी के चलते सभी पहाड़ी जिलों से जमकर कर्मचारी मैदानी क्षेत्रों में आने लगे जिससे सरकारी विभाग लगभग कर्मचारियों से शून्य होते चले गए।

पौड़ी कमिश्नरी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। राज्य बनने के बाद सबसे पहले गढ़वाल आयुक्त और कृषि निदेशालय देहरादून में स्थानांतरित कर दिए गए। आयुक्त कार्यालय को कैंप कार्यालय के नाम पर देहरादून में स्थानांतरित कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज पौड़ी जिसमें कभी 16 बड़े विभागों का कार्यालय कर्मचारियों से गुलजार रहते थे, वे सूने पड़े हुए हैं। राज्य की पहली निर्वाचित तिवारी सरकार के समय में स्थानांतरण पॉलिसी के आधार पर लगातार कर्मचारियों का स्थानांतरण राजनीतिक हितों और सिफारिशों पर किया जाता रहा। 2007 में भाजपा की सरकार बनी तो बीसी खण्डूड़ी के दूसरे कार्यकाल में राज्य का पहली बार अपना स्थानांतरण अधिनियम 2011 मिला और पहली बार कर्मचारियों के तबादले इस एक्ट के आधार पर होने लगे।

खण्डूड़ी सरकार ने 11 सितंबर 2011 को सत्ता संभालते ही सबसे पहले राज्य में एक पारदर्शी और एक समान स्थानांतरण अधिनियम बनाकर वर्षों से चले आ रहे ट्रांसफर उद्योग को खत्म करने का साहस किया। पहाड़ों और दुर्गम इलाकों में सेवा दे रहे सरकारी कर्मचारियों के स्थानांतरण के मामले में पहल करके एक पारदर्शी नीति बनाकर उसे एक मजबूत एक्ट के तौर पर लागू किया जिससे उन सभी कर्मचारियों को सुगम क्षेत्रों में तैनाती का रास्ता खुल गया था जो कि अपना स्थानांतरण करवाने में सक्षम नहीं हो पा रहे थे और न ही उनके पास कोई बड़े और शासन सत्ता तक पहुंच थी। जबकि अधिकांश ऐसे कर्मचारी भी हैं जो अपनी सत्ता और शासन में पैठ रखते हुए अपना स्थानांतरण सुगम क्षेत्रों में आसानी से करवा लेते थे। इसी को देखते हुए पूर्ववर्ती भाजपा की खण्डूड़ी सरकार ने राज्य स्थानांतरण अधिनियम बनाया जिससे ऐसे कर्मचारियों और अधिकारियों को भारी परेशानियां होने लगी जो कि अपने रसूख और सत्ता के बल पर सुगम स्थानों पर तैनात थे। इस एक्ट के बनने से पूरे प्रदेश में एक समान स्थानांतरण एक्ट लागू हो गया और जिसमें पूरी पारदर्शिता की बात होने लगी।

2012 में राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और कांग्रेस की बहुगुणा सरकार वजूद में आई तो बहुगुणा सरकार ने सबसे पहले खण्डूड़ी सरकार के लोकायुक्त एक्ट और स्थानांतरण एक्ट को विधानसभा में सत्र के दौरान रद्द कर दिया। खण्डूड़ी सरकार के स्थानांतरण अधिनियम के सदन में निरस्त होने के बाद राज्य में फिर से ट्रांसफर उद्योग को प्राणवायु मिल गई। सरकार ने जैसे ही स्थानांतरण नीति को निरस्त करने की घोषणा की थी तब से लेकर सैकड़ों ऐसे आवेदन विभागों को मिलने लगे जिनमें अपना स्थानांतरण रुकवाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए गए हैं। यहां तक कि बड़े-बड़े माननियों के अलावा अन्य राज्यों के भी माननियों से सिफारिशी पत्रों का सहारा तक लिया जाने लगा। स्वयं मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की सिफारिश पर सौ से ज्यादा अध्यापकों के स्थानांतरण किए गए।

यही हाल बुनियादी सुविधाओं जैसे पेयजल, चिकित्सा, विद्युत जैसे विभागों के कर्मचारी तक कांग्रेस के पदाधिकारियों तक के घरों और दफ्तरों के चक्कर काटने लगे थे। तत्कालीन समय में तो एक वक्त ऐसा भी आ गया था कि कांग्रेस के जिलाध्यक्षों तक के पत्रों पर स्थानांतरण होने लगे थे और बताया जाता है कि इसके लिए बकायदा सुविधा शुल्क तक लिया और दिया जाता था। अपने चहेतों को अगर मनमाफिक स्थानांतरण नहीं दिया जा सका तो इसके लिए भी तोड़ निकाला गया और देहरादून के अलावा अन्य मैदानी क्षेत्रों के विभागों में प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाने लगा। निशंक सरकार के समय में तो एक स्थिति ऐसी बन गई थी कि चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों तक के स्थानांतरण सीधे उच्च स्तर से होने लगे थे। उस समय यही कांग्रेस और उसके पदाधिकारी मुख्यमंत्री निशंक और उनके कार्यालय से जुड़े पदाधिकारियों पर आरोप लगाते नहीं थकते थे कि सरकार ने चपरासी तक के स्थानांतरण के लिए एक निश्चित धनराशि तक तय की हुई है। अपने चहेतां को मलाईदार विभागों में एडजेस्ट करने के लिए ही स्थानांतरण को एक लघु उद्योग जैसा दर्जा मिल चुका था। विख्यात लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने अपनी एल्बम ‘अब कथगा खैल्यो’ में इसका बखूबी गायन किया था और निशंक सरकार के स्थानांतरण पॉलिसी की हकीकत बतलाई थी।

ऐसा नहीं है कि खण्डूड़ी के ट्रांसफर एक्ट से कांग्रेस के विधायक और नेता दुखी थे। इस एक्ट को लेकर भाजपा के भीतर भी नाराजगी बनी हुई थी। इसका प्रमाण इस बात से ही पता चल जाता है कि बहुगुणा सरकार ने जब इस अधिनियम को निरस्त करने की घोषणा की थी, भाजपा ने विधानसभा में हंगामा तो किया और नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट ने सदन से वॉक आउट तक किया लेकिन उनके साथ भाजपा के कई विधायक सदन से बाहर नहीं आए। 2018 में स्थानांतरण कानून को राज्य में लागू तो कर दिया लेकिन स्वयं सरकार ने ही इस कानून को सही से पालन किया हो ऐसा देखने को नहीं मिला। सरकार पर सिफारिश और राजनीतिक रसूख के दम पर चहेतां को सुगम खास तौर पर देहरादून में स्थनांतरण करने के आरोप खूब लगे। अब फिर से कर्मचारियों को सुगम और दुर्गम के खेल में फंसाया जा रहा है जबकि कई ऐसे अधिकारी और कर्मचारी हैं जो अपना स्थानांतरण राजनीतिक रसूख के चलते करवा चुके हैं लेकिन ज्यादातार मामले गुपचुप तरीके से ही किए जा रहे हैं। साथ ही कई ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिनमें दस वर्षों से एक ही स्थान पर तैनात होने के बावजूद उनका तबादला नहीं हुआ है। इसमें सबसे ज्यादा शिक्षा विभाग के ही कर्मचारी और अध्यापक हैं जिन पर अब शिक्षा मंत्री लगाम लगाने की बात कर रहे हैं।

 

बात अपनी-अपनी
ट्रांसफर एक्ट 2017 के तहत जो पात्र लोग हैं, उनका शत-प्रतिशत ट्रांसफर हो जाना चाहिए जिसमें 2 कैटेगरी बनाई गई थी जिस कर्मचारी के 5 साल सुगम और 3 साल दुर्गम में हो गए हैं वे निश्चित रूप से स्थानांतरण के पात्र होंगे जिसके आधार पर मेरिट लिस्ट बनाई जानी थी। साथ ही जिनका ट्रांसफर होना था उनके द्वारा चयनित 10 स्थानों की सूची भी मंगाई जाती, जिसने दुर्गम में अधिक सेवाएं दी हो उसे इस ट्रांसफर एक्ट में उसके द्वारा चयनित स्थानों में प्राथमिकता मिलेगी। अब शासन द्वारा कमेटी बनाकर हर साल केवल 10 से 15 प्रतिशत कर्मचारियों का ही ट्रांसफर किया जा रहा है, जिस कारण स्थिति यह बन गई है कि कई लोग दस-दस सालों से दुर्गम में फंसे हैं तो कई लोग इससे भी अधिक समय से सुगम में ही अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
छबील दास, प्रांतीय महामंत्री, उत्तराखण्ड डिप्लोमा इंजीनियर्स संघ

 

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