हरिद्वार ग्रामीण और कोटद्वार सीट से चुनाव के नतीजों पर सबकी नजरें गड़ी हुई हैं। दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की भी प्रतिष्ठा कहीं न कहीं इन सीटों के चुनाव से जुड़ गई है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही उम्मीदवारों के पिता को चुनाव में पटखनी देने वाले उम्मीदवार भी वही हैं जो अब इन दोनों बेटियों के सामने चुनौती बने हुए हैं। हरीश रावत को यतीश्वरानंद ने चुनाव में हराया था जो फिर से हरिद्वार ग्रामीण सीट से ताल ठोक रहे हैं तो कोटद्वार से सुरेन्द्र सिंह नेगी ने बी.सी. खण्डूड़ी को चुनाव में हराया था जो इस बार कोटद्वार से ऋतु खण्डूड़ी के सामने पुराना इतिहास दोहराने के लिए तैयार हैं
उत्तराखण्ड विधानसभा का यह चुनाव कई मायने में खास होने वाला है। तमाम बड़े नेताओं का राजनीतिक भविष्य दांव पर लगा हुआ है लेकिन सबकी निगाहें कोटद्वार और हरिद्वार ग्रामीण सीट पर टिकी हुई हैं। इन सीटों पर दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की बेटियां चुनाव मैदान में ताल ठोक रही हैं। जहां कोटद्वार से पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी की पुत्री ऋतु खण्डूड़ी चुनाव मैदान में डटी हुई हैं तो वहीं हरिद्वार ग्रामीण सीट से पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की पुत्री अनुपमा रावत चुनाव में दो-दो हाथ करने के लिए तेैयार खड़ी हैं। दिलचस्प बात यह हेै कि है इन दोनों ही सीटों पर उनके पिता चुनावी मैदान में शिकस्त पा चुके हैं। साथ ही यह भी खासा गौर करने वाली बात है कि इन दोनों के सामने वही चेहरे हैं जिनसे इन दोनों के पिता चुनाव हारे थे। इनके पिता चुनाव में मात खा चुके हैं। 2012 के चुनाव में कोटद्वार से कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी ने बीसी खण्डूड़ी को हराया था तो 2017 के चुनाव में हरिद्वार ग्रामीण सीट से भाजपा के यतीश्वरानंद ने हरीश रावत को पटखनी दी थी। इसके चलते कोटद्वार और हरिद्वार ग्रामीण सीटों का चुनाव खासा दिलचस्प तो बना ही है, साथ ही दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक प्रतिष्ठा भी बनती दिखाई दे रहा है।
कोटद्वार सीट की बात करें तो भाजपा ने जातिगत समीकरणों को साधते हुए ऋतु खण्डूड़ी का यमकेश्वर से टिकट काट कर कोटद्वार से चुनाव मैदान में उतारा है। पौेड़ी जिले की पांच सीटों पर भाजपा ने ठाकुर उम्मीदवार उतारे हैं। भाजपा की पहली सूची में घोषित पांच सीटों पर किसी में भी ब्राह्मण उम्मीदवार का नाम नहीं होने से भाजपा के भीतर जातिगत समीकरणों की अनदेखी से नाराजगी बढ़ रही थी। इसको देखते हुए दूसरी सूची में कोटद्वार सीट से ऋतु खण्डूड़ी को चुनावी मैदान में उतरना पड़ा।
भाजपा का यह दांव उसके लिए कितना कारगर रहेगा यह तो चुनाव बाद ही पता चलेगा लेकिन राजनीतिक जानकारांे की मानंे तो भाजपा की टिकट बंटवारे मेें जातिगत समीकरणों की अनदेखी और उसके डैमेज कंट्रोल की विसात पर ऋतु खण्डूड़ी को मोहरा बनाया गया है।
कोटद्वार सीट पर ठाकुर-ब्राह्मण का जातीय समीकरण शुरू से ही प्रभावी रहा है। ब्राह्मण वोट से ज्यादा ठाकुर वोटों ने इस सीट पर कइयों के राजनीतिक भविष्य को बनाया और बिगाड़ा है। इसी के चलते 2012 में बीसी खण्डूड़ी जेैसे दिग्गज नेता तक को चुनाव में बड़ी हार मिली, जबकि समूची भाजपा ‘खण्डूड़ी हैं जरूरी’ के नारे के साथ चुनावी मैदान में उतरी थी। एक तरह से भाजपा ने बीसी खण्डूड़ी को मुख्यमंत्री का चेहरा मानते हुए मतदाताओं में यही संदेश देने में सफल रही कि 2012 में सत्ता आने पर खण्डूड़ी ही मुख्यमंत्री होंगेे।
भाजपा की यह रणनीति उसके लिए तो खासी फायदेमंद रही और जो भाजपा हार के कगार पर थी वही सरकार बनाने के मुहाने तक पहुंच गई थी, परंतु इस क्षेत्र की जातिगत समीकरणों के चलते कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी बीसी खण्डूड़ी पर इस कदर भारी पड़े कि 4 हजार से भी ज्यादा मतों से खण्डूड़ी चुनाव हार गए। नेगी को 51 फीसदी से ज्यादा मत मिले, जबकि खण्डूड़ी को तकरीबन 44 फीसदी ही मत हासिल हो पाए थे। अब खण्डूड़ी की पुत्री ऋतु खण्डूड़ी को भाजपा ने कोटद्वार से चुनाव में उतारा है जिसका असर चुनावी राजनीति में पड़ना तय माना जा रहा है।
हालांकि बीसी खण्डूड़ी की कोटद्वार सीट से हार के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में खण्डूड़ी तकरीबन ढाई लाख मतों से चुनाव जीते। कोटद्वार से भी खण्डूड़ी को सबसे ज्यादा मत मिले थे। विधानसभा चुनाव में खण्डूड़ी को मिली हार को
लोकसभा में बड़ी जीत दिलवाने में कोटद्वार के मतदाताओं का एक तरह से प्रायश्चित के तौर पर देखा गया। पोैड़ी जिले की सभी 6 सीटांे के मतदाताओं के मन में आज भी बीसी खण्डूड़ी के प्रति सम्मान बना हुआ है। भाजपा ने इसी को ध्यान में रखते हुए ऋतु खण्डूड़ी को इस सीट पर उतारा है।

हालांकि बीसी खण्डूड़ी अब सक्रिय राजनीति से पूरी तरह से किनारा कर चुके हैं। लेकिन राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर उनकी सुपुत्र ऋतु खण्डूड़ी को 2017 के चुनाव में देखा गया। जब भाजपा ने यमकेश्वर सीट से ऋतु खण्डूड़ी को चुनाव में उम्मीदवार बनाया। राजनीतिक जानकारों की मानें तो भाजपा ने जातिगत समीकरणों की बिसात पर ऋतु खण्डूड़ी को बड़ा मोहरा बनाया है। स्वयं भाजपा के कई नेता, पार्टी के इस तरह से टिकट बंटवारे से हैरान है। इसी जातिगत समीकरणांे से बीसी खण्डूड़ी कोटद्वारा से चुनाव हार चुके थे औेर अब उनकी सुपुत्री अपने पिता की हारी हुई सीट से अपना राजनीतिक भविष्य बचाए रखने की जुगत में है।
हरिद्वार ग्रामीण सीट पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की पुत्री अनुपमा रावत के चुनावी मैदान मंे उतरने से खास हो चली है। दिलचस्प बात यह हेै कि इस सीट पर 2017 में हरीश रावत को भाजपा के यतीश्वरानंद से 12 हजार से भी ज्यादा मतों से हार मिली थी। जहां हरीश रावत को 32686 मत पड़े थे जो कि कुल मतों का 33 फीसदी था तो वहीं यतीश्वरानंद को 44964 मत प्राप्त हुए जो कि कुल मतों का 46 फीसदी था।
रावत के करीबियों के अनुसार 2022 के चुनाव में स्वयं रावत हरिद्वार ग्रामीण सीट से चुनाव मंे उतरना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने पिछले पांच वर्षों से पूरी तैयारी भी कर ली थी। 2017 के चुनाव में करारी हार का एक कारण मुस्लिम मतदाताओं का वोट बसपा के प्रत्याशी मुकर्रम को मिलना रहा। तकरीबन 19 प्रतिशत मत यानी 18383 हजार मत पाकर मुकर्रम तीसरे स्थान पर रहे थे। माना जाता है कि अगर बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार न होते तो हरीश रावत आसानी से चुनाव जीत सकते थे।
इस सीट पर चुनावी रणनीति को अपने पक्ष में करने के लिए हरीश रावत ने मुकर्रम और बसपा के कई मुस्लिम समाज में जनाधार वाले नेताओं को एक के बाद एक कांग्रेस में शामिल करवाकर अपने लिए एक तरह से मैदान साफ कर लिया था। हालांकि बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते रावत को लालकुआं सीट से चुनाव में उतरना पड़ा। इसके चलते हरिद्वार ग्रामीण सीट से अपनी पुत्री अनुपमा रावत को टिकट देकर उन्होंने चुनाव मंे उतार दिया है।
अब अनुपमा रावत का राजनीतिक भविष्य भी दांव पर लग गया है। पहले बसपा ने इस सीट पर डाॅ. दर्शनलाल शर्मा को टिकट देकर चुनाव में खड़ा किया लेकिन जैसे ही कांग्रेस ने अनुपमा रावत को चुनाव में उतारा तो बसपा ने नामांकन के अंतिम दिन यानी 28 जनवरी को मुस्लिम उम्मीदवार युनूस अंसारी को टिकट देकर चुनाव को बेहद दिलचस्प बना दिया है।
हरिद्वार ग्रामीण सीट पर मुस्लिम मतदताओं की तादात 40 हजार के करीब है। अब युनूस अंसारी के चुनाव में खड़े होने से इस सीट का चुनावी समीकरण बुरी तरह से गड़बड़ा चुका है। हरीश रावत 2017 में इस सीट से करारी शिकस्त खा चुके हैं और अब उनकी पुत्री भी इसी चुनावी भंवरजाल में फंसती हुई नजर आ रही हैं।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अगर बसपा के उम्मीदवार डाॅ. दर्शनलाल शर्मा ही होते तो अनुपमा रावत के लिए चुनावी जंग आसान होती, क्योंकि भाजपा के वर्तमान विधायक और केैबिनेट मंत्री यतिश्वरानंद के खिलाफ मतदाताओं में भारी नाराजगी का माहौल है। लेकिन अब बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार के उतारे जाने से माहौल में बड़ा बदलाव आ चुका है। इसी बदलाव का असर कांग्रेस पर पड़ना निश्चित माना जा रहा है।